विद्यालय की आवश्यकता और महत्त्व का उल्लेख कीजिए।

विद्यालय की आवश्यकता और महत्त्व का उल्लेख कीजिए।

उत्तर— विद्यालय की आवश्यकता और महत्त्व – वर्तमान में आधुनिकीकरण, औद्योगीकरण, नगरीकरण, जनसंख्या में वृद्धि, विघटित परिवार एवं आवश्यकताओं की अधिकता के कारण मनुष्य का जीवन बहुत ही जटिल हो गया है। आज मनुष्य को व्यावहारिक जीवन की कई समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है एवं इन समस्याओं के समाधान के बिना मनुष्य का जीना मुश्किल हो गया है परन्तु इन समस्याओं का सामना करना इतना सरल नहीं है। इनके लिए बहुमुखी ज्ञान एवं विज्ञान | की आवश्यकता है। अतः आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ही विद्यालय की आवश्यकता महसूस होती है। वर्तमान समय में विद्यालय का महत्त्व बढ़ता जा रहा है। विद्यालय ही जटिल समाज के साधन तथा सिद्धियों को नई पीढ़ी तक पहुँचाने में सक्षम है। विद्यालय की आवश्यकता एवं महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए कहा जा सकता है कि “किसी भी राष्ट्र की प्रगति का निर्माण विधान सभाओं, न्यायालयों एवं कारखानों में नहीं बल्कि विद्यालयों में होता है।”
(1) विद्यालय, बहुमुखी प्रतिभा के लिए उत्तम स्थान – घर एवं परिवार को बालक की प्रथम पाठशाला कहा गया है फिर भी जो शिक्षा बालक घर पर प्राप्त करता है वह बहुत ही संकुचित होती है। इस शिक्षा के द्वारा बालक को वह ज्ञान नहीं प्राप्त हो सकता जो ज्ञान उसे विद्यालयों में प्राप्त होता है। विद्यालय में बालक को बहुमुखी शिक्षा प्रदान की जाती है जिससे वह जीवन के हर क्षेत्र में सफल हो सके। विद्यालय में बालक किसी भी विषय का विशिष्ट तथा विस्तृत ज्ञान प्राप्त करता है, इसलिए बालक की शिक्षा के लिए विद्यालय घर की अपेक्षा बहुत महत्त्वपूर्ण है।
(2) प्रगति तथा विकास के लिए उपयुक्त वातावरण –  विद्यालय बालक की प्रगति तथा विकास के लिए उपयुक्त एवं सन्तुलित वातावरण प्रस्तुत करता है। अज्ञानता, निर्धनता, निवास की कमी, मशीनों की गडगड़ाहट, भीड़-भाड़, सामाजिक बुराइयाँ आदि के कारण घर एवं पड़ोस का वातावरण अनैतिक, कोलाहल युक्त, अव्यवस्थित एवं अशुद्ध होता है जिसमें बालकों का शिक्षा प्राप्त करना अनुपयुक्त ही नहीं बल्कि असम्भव भी होता है। विद्यालय बालकों की शिक्षा के लिए उपयुक्त सरल, शुद्ध एवं सन्तुलित वातावरण प्रस्तुत करते हैं ।
(3) समाज की निरन्तरता बनाए रखने में सहायक–विद्यालय समाज का एक लघु रूप है। इसमें सामाजिक विरासत को सुरक्षित रखा जाता है एवं आगे आने वाली पीढ़ी को हस्तान्तरित किया जाता है। विद्यालय में बालकों को वही ज्ञान प्रदान किया जाता है जो व्यक्ति और समाज दोनों की प्रगति एवं विकास में सहायक हो तथा इसकी निरन्तरता को बनाए रख सकें।
(4) आवश्यकताओं की पूर्ति करने में सहायक–मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है इसलिए वर्तमान भौतिकवादी युग में व्यक्ति की आवश्यकताएँ तथा इच्छाएँ दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही हैं। विद्यालय में बालक की रुचि एवं आवश्यकता के अनुकूल शैक्षिक वातावरण बनाया जाता है जिससे वह तरह-तरह का ज्ञान प्राप्त करके अपनी तथा समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति कर सके।
(5) विशाल सांस्कृतिक विरात में सहायक – वर्तमान समय की सांस्कृतिक विरासत बहुत विस्तृत हो गई है इसमें कई प्रकार के ज्ञान, कुशलताओं और कार्य करने की विधियों का समावेश हो गया है। ऐसी विरासत की शिक्षा देने में व्यक्ति अपने को असमर्थ पाते हैं। अतः उन्होंने यह कार्य विद्यालय को सौंप दिया।
(6) विद्यालय पारिवारिक जीवन एवं बाह्य जीवन को जोड़ने वाली एक महत्त्वपूर्ण कड़ी है — बालक परिवार में जन्म लेता है और वहीं उसका प्रारम्भिक विकास होता है। परिवार में रहकर वह सेवा, प्रेम, सहयोग, आज्ञापालन एवं अनुशासन आदि आदर्श गुणों को सीखता है। परिवार के दायरे से निकलकर जब बालक विद्यालय आते हैं तो उन्हें विभिन्न घरों, धर्मों, जातियों तथा सम्प्रदायों के बालकों के साथ रहना पड़ता है जिसके फलस्वरूप उसका दृष्टिकोण व्यापक हो जाता है एवं उसमें सामाजिकता के गुणों का विकास होने लगता है। अब वह अपने पारिवारिक जीवन तक ही सीमित नहीं रहता बल्कि बाह्य जीवन की क्रियाओं में भी रुचि लेता है।
(7) विद्यालय सामाजिक विरासत की सुरक्षा एवं हस्तान्तरण का प्रमुख साधन – प्रत्येक समाज की प्रगति तथा विकास वहाँ की संस्कृति पर निर्भर है। इसलिए प्रत्येक समाज अपनी संस्कृति को सुरक्षित रखना चाहता है तथा उसे अपनी आने वाली पीढ़ी को हस्तान्तरित करना चाहता है लेकिन यह कार्य इतना आसान नहीं है जो किसी व्यक्ति विशेष अथवा अन्य किसी संस्था के द्वारा किया जा सके। यह कार्य विद्यालय द्वारा किया जा सकता है। विद्यालय के महत्त्व को स्पष्ट करते हुए टी.पी. नन ने कहा है, “विद्यालय को समस्त संसार का नहीं, वरन् समस्त मानव-समाज का लघु रूप होना चाहिए।”
(8) आदर्शों एवं विचारधाराओं का प्रसार– विश्व के आदर्शों एवं विचारधाराओं का प्रसार करने के लिए विद्यालय को बहुत महत्त्वपूर्ण साधन माना गया है इसलिए सभी स्थानों एवं राज्यों में विद्यालय का स्थान सर्वोपरि तथा गौरवपूर्ण है।
(9) व्यक्तित्व का सामंजस्यपूर्ण विकास – परिवार, घर, समाज एवं धर्म आदि शिक्षा के उत्तम साधन हैं लेकिन न तो इनका कोई निश्चित उद्देश्य होता है और न ही पूर्व नियोजित कार्यक्रम। कभी-कभी बालक के व्यक्तित्व पर इनका बुरा प्रभाव पड़ता है। इसके विपरीत, विद्यालय का एक निश्चित उद्देश्य तथा पूर्व नियोजित कार्यक्रम होता है जिसका बालक के व्यक्तित्व पर व्यवस्थित रूप से प्रभाव पड़ता है एवं बालक के व्यक्तित्व का सामंजस्यपूर्ण विकास होता है।
(10) शिक्षित नागरिकों का निर्माण – विद्यालय ही एकमात्र वह साधन है, जिसके द्वारा शिक्षित नागरिकों का निर्माण किया जा सकता है। यदि एक देश के समस्त बालकों को एक निश्चित आयु तक निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा दी जाती है तो स्थाई रूप से साक्षर हो जाते हैं। साक्षर होने के साथ-साथ उनमें धैर्य, सहयोग, उत्तरदायित्व आदि गुणों का विकास होता है, इस तरह एक बालक बड़ा होकर राज्य एवं समाज का आदर्श नागरिक बनता है।
इन तथ्यों से स्पष्ट होता है कि विद्यालय के स्थान, महत्त्व तथा आवश्यकता को आसानी से समझा जा सकता है। वस्तुतः व्यक्ति तथा समाज दोनों की प्रगति के लिए विद्यालय अति महत्त्वपूर्ण अभिकरण है। इसीलिए किसी भी सामाजिक ढाँचे में इनकी अपेक्षा की जा सकती है। इसी सन्दर्भ में टी.पी.नन ने सत्य ही लिखा है कि “एक राष्ट्र के विद्यालय उसके जीवन के अंग हैं जिनका विशेष कार्य है उसकी आध्यात्मिकता शक्ति का दृढ़ बनाना, उसकी ऐतिहासिक निरन्तरता को बनाए रखना, उसकी भूतकालीन सफलताओं को सुरक्षित रखना एवं उसे भविष्य की जिम्मेदारी देना । “
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