वर्ण एवं जाति व्यवस्था पर गांधी के विचारों का आलोचनात्मक मूल्यांकन करें। अस्पृश्यता के विरुद्ध उनके सक्रियतावाद से क्या वे संगत थे ?
वर्ण एवं जाति व्यवस्था पर गांधी के विचारों का आलोचनात्मक मूल्यांकन करें। अस्पृश्यता के विरुद्ध उनके सक्रियतावाद से क्या वे संगत थे ?
(41वीं BPSC/1997 )
अथवा
गांधी ने सामाजिक समता की बात कही परंतु वे वर्ण एवं जाति व्यवस्था के पक्षधर थे। उनके विचारों का विश्लेषण करते हुए अस्पृश्यता से संबंधित उनके कार्यों को लिखें।
> गांधी वर्ण एवं जाति व्यवस्था को सही मानते थे परंतु सामाजिक समता तथा वर्ण व्यवस्था में प्रचलित बुराइयों के विरोधी थे।
> वे कर्म के आधार पर व्यक्ति के जाति एवं वर्ण के चयन को सही मानते थे।
> अस्पृश्यता के संबंध में गांधी का विचार था कि यह हिंदू धर्म पर कलंक के समान है।
> उन्होंने अछूतों को ‘हरिजन’ कहा।
> 1933 में वर्धा से ‘हरिजन यात्रा’ निकाली तथा ‘हरिजन सेवक संघ’ की स्थापना की।
उत्तर- गांधीजी हिन्दू धर्म में गहराई से प्रचलित वर्ण एवं जाति व्यवस्था को सकारात्मक मानते हुए उसमें सुधार की आवश्यकता पर जोर देते थे। उनके अनुसार वर्ण व्यवस्था कायम रहनी चाहिए लेकिन समाज की व्यवस्था ऐसी हो कि जहां सबका कल्याण हो सके, जिसे उन्होंने ‘राम राज्य’ कहा था। उनकी वर्ण व्यवस्था संबंधी अवधारणा जन्म अथवा जाति के बंधन में बंधी हुई नहीं थी, बल्कि वे व्यक्ति की योग्यता एवं कर्म के अनुसार स्वयं वर्ण का चयन करने की स्वतंत्रता देना चाहते थे।
कई विद्वान एवं उनके समर्थक भी गांधी के वर्ण एवं जाति संबंधी उनके विचारों का विरोध करते थे और उनका तर्क था कि गांधी वर्ण एवं जाति व्यवस्था को सही मानते थे एवं इसे कायम रखना चाहते थे। लेकिन ऐसा नहीं था कि गांधी जी जाति एवं वर्ण व्यवस्था को एक सामाजिक व्यवस्था मानते थे जिससे पूरा समाज एक-दूसरे से जुड़ा हुआ है एवं एक-दूसरे पर निर्भर है। जाति वर्ण व्यवस्था खत्म होने से सामाजिक व्यवस्था के खत्म होने का डर था। परंतु गांधी जी ने जाति व्यवस्था की खामियों को दूर करने के काफी प्रयास किए। वे व्यक्ति की योग्यता एवं कर्म के आधार पर समानता एवं मानवाधिकारों के प्रबल पक्षधर थे।
गांधी जी अस्पृश्यता को तो हिंदू धर्म एवं समाज पर एक कलंक मानते थे। उन्होंने अस्पृश्यता को समाप्त करने के लिए काफी प्रयास किए। उन्होंने सबसे पहले दलितों को ‘हरिजन’ कहा एवं दलितोद्धार के लिए ‘हरिजन सेवक संघ’ की स्थापना की। गांधी के अनुसार चूंकि अछूत लोग समाज में सबसे निर्बल हैं, इसलिए वो भगवान के सबसे प्रिय हैं। अतः अछूतों को उन्होंने ‘हरिजन’ की संज्ञा दी, उन्होंने ‘हरिजन’ नामक एक पत्र भी निकाला। उन्होंने 1933 में वर्धा से ‘हरिजन यात्रा’ आरंभ की एवं हरिजनों के विकास एवं उन्हें समाज में सम्मान दिलाने के लिए देशभर में प्रयास किया।
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