कवि नागार्जुन जीवनी – Biography of Nagarjuna in Hindi Jivani

कवि नागार्जुन जीवनी – Biography of Nagarjuna in Hindi Jivani

नागार्जुन की जीवनी

वैद्यनाथ मिश्र नाम का एक व्यक्ति भारतीय साहित्य में दो नामों से विख्यात हुआ – नागार्जुन के रूप में हिंदी में कबीर, भारतेंदु, प्रेमचंद और निराला की अगली कड़ी के रूप में वर्तमान युग का जनकवि । वही व्यक्ति मैथिली साहित्य का महाकवि, युगपुरुष ‘यात्री’ के रूप में। आत्मीय साहित्यकार इन्हें ‘बाबा’ के नाम से भी संबोधित करते हैं। नागार्जुन का जन्म 1911 की ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन अपने ननिहाल में हुआ, जो बिहार प्रांत के मधुबनी जिला के अंतर्गत सतलखा गाँव है। इनके पिता गोकुल मिश्र तथा माता उमा देवी थीं । इनकी माता उस समय स्वर्गीय हुईं, जब ये छह वर्ष के थे । इनके पिता गोकुल मिश्र अपने एकमात्र मातृहीन पुत्र को कंधे पर बैठाकर अपने संबंधियों के यहाँ इस गाँव से उस गाँव आया-जाया करते थे। इनका पैतृक गाँव दरभंगा जिला के अंतर्गत तरौनी था । नागार्जुन के बाल्यकाल का पुकार का नाम ‘ठक्कन मिश्र’ था। गाँव के हमउम्र उन्हें इसी नाम से पुकारते थे। इनके पिताजी मस्त-बेफिक्र किस्म के जीव थे । इन्हें जमीन बेचने का चस्का लग गया था। जीवन के अंतिम समय में गोकुल मिश्र अपने उत्तराधिकारी के लिए मात्र तीन कट्ठा उपजाऊ भूमि और प्राय: उतनी ही वास-भूमि छोड़ गए।

Nagarjuna Biography in Hindi

नागार्जुन अपने पिता की छह संतानों में एक ही शेष बचे । गोकुल मिश्र और उमा देवी को लगातार संतानें हुईं और असमय ही वे सब चल बसीं। बाद में वैद्यनाथ धाम, देवघर में आराध्य देव शंकर भगवान् की उपासना की। फिर तो पाँचवीं संतान होने पर मन में आशंका बनी रही कि यह भी पूर्व चार संतानों की तरह ठगकर न चला जाए, अत: इसे ‘ठक्कन’ कहा जाने लगा। बाद में बाबा वैद्यनाथ का कृपा प्रसाद मानकर इस बालक का नाम ‘वैद्यनाथ’ रखा गया । वैद्यनाथ के बाद एक पुत्र और पैदा हुआ, पर इस पुत्र को जन्मदात्री पाल नहीं सकीं और उसे छोड़कर खुद ही चल बसीं। फिर यह छठा बालक भी चल बसा।
नागार्जुन की प्रारंभिक शिक्षा तरौनी गाँव की संस्कृत पाठशाला से शुरू हुई। संस्कृत विद्यालय गोनौली से मध्यमा, फिर पचगछिया सहरसा में कुछ काल तक अध्ययन किया। इस प्रकार ‘लघु सिद्धांत कौमुदी’ और ‘अमरकोश’ के सहारे शिक्षा आरंभ करनेवाले नागार्जुन ने पंडिताऊ ढंग से किशोरावस्था में प्रवेश किया। पढ़ने की तो उनकी प्रबल लालसा थी, किंतु घर की परिस्थिति अनुकूल नहीं थी। गाँव के पंडित अनिरुद्ध मिश्र इन्हें प्रेरित करते रहते थे। बाद में संस्कृत की विधिवत् पढ़ाई बनारस जाकर शुरू की। बनारस में संस्कृत के अध्ययन के साथ मैथिली में छंदबद्ध रचना करने लगे। अखबार का चस्का भी लग गया | देश-विदेश में हो रही सामाजिक और राजनीतिक गतिविधियों में अत्यधिक रुचि लेने लगे। इस प्रकार इनके पंडिताऊपन में क्रमिक परिवर्तन आने लगा। सनातन ब्राह्मण पंथ नागार्जुन पर आर्यसमाज का प्रभाव पड़ने लगा। आर्यसमाजी संस्कार की ओर अग्रसर होते हुए बौद्ध दर्शन की ओर झुके। चार वर्ष तक काशी, तत्पश्चात् कलकत्ता में साहित्याचार्य का अध्ययन करने वाले नागार्जुन विश्व-दर्शन और पर्यटन की लालसा से पढ़ाई छोड़कर लंबी यात्रा पर निकल पड़े। उन दिनों राजनीति में सुभाष तथा बौद्ध के रूप में राहुल सांकृत्यायन इनके आदर्श थे। बनारस से निकलकर कलकत्ता और फिर जीविकोपार्जन हेतु अपनी दिशा को तलाशने के निमित्त 1934 में ही घर-परिवार आदि को छोड़कर भ्रमणशील जीवन बिताने लगे। सन् 1934 से 1936 तक की अवधि में पंजाब, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, गुजरात, काठियावाड़ आदि प्रांतों में घुमक्कड़ी की । काठियावाड़ के मौखी में जैन मुनि शतावधानी रत्नचंद्रजी के आदेश पर कुछ दिनों तक अध्यापन का कार्य भी किया। 1934 में ‘विश्ववंधु’ साप्ताहिक (लाहौर) में इनकी प्रथम हिंदी कविता प्रकाशित हुई।

Nagarjuna Biography Hindi

जबकि 1930 में ही प्रथम मैथिली कविता का प्रकाशन लहेरिया सराय, दरभंगा की ‘मिथिला’ पत्रिका में हो चुका था । 1936 में दक्षिण भारत घूमते हुए लंका के विख्यात ‘विद्यालंकारपरिवेण’ में जाकर उन्होंने बौद्ध धर्म की दीक्षा ली । वास्तव में वैद्यनाथ मिश्र से नागार्जुन यहीं पर हुए। राहुल सांकृत्यायन और ‘नागार्जुन’ यहीं गुरुभाई बने । लंका की उस विख्यात बौद्ध शिक्षण संस्था में रहते हुए बौद्ध- दर्शन के साथ पालि, अर्द्धमागधी, अपभ्रंश, सिंहली, तिब्बती आदि अनेक विदेशी भाषाओं को सीखा। इसके संग मातृभाषा मैथिली, पैतृक भाषा संस्कृत एवं अन्य भारतीय भाषाओं में मराठी, गुजराती, बँगला, पंजाबी व सिंधी का ज्ञान तो इन्हें था ही; यह भी अपने में एक अनोखी बात थी कि जिस व्यक्ति ने अंग्रेजी के किसी स्कूल, कॉलेज तथा विश्वविद्यालय का मुँह तक नहीं देखा था, उसने इतनी भाषाओं पर अपना अधिकार प्राप्त कर लिया था।
जून 1938 में नागार्जुन लंका से वापस लौटकर सीधे बिहार में चल रहे किसान आंदोलन में शामिल हो गए। 1938 में बिहार सरकार की ओर से तिब्बत जानेवाले अनुसंधानकर्ताओं के प्रतिनिधिमंडल के साथ वे ल्हासा गए । इसी वर्ष के अंत में किसान आंदोलन के प्रमुख नेता स्वामी सहजानंद और स्वाधीनता संग्राम के क्रांतिकारी नेता सुभाषचंद्र बोस से संपर्क हुआ । इस प्रकार नागार्जुन सक्रिय रूप से समाज सेवा और राजनीति से जुड़ गए। किसानों के संघर्ष का नेतृत्व करते हुए सन् 1939 में पहली गिरफ्तारी अमबारी (छपरा) के किसान – सत्याग्रह के सिलसिले में हुई। इस सत्याग्रह में जिन चार लोगों को छह-छह माह की सजा मिली, उसमें नागार्जुन के साथ राहुल भी थे। फिर चंपारण के किसान आंदोलन में भाग लिया। 1941 में दूसरी बार वे आंदोलन के सिलसिले में हजारीबाग सेंट्रल जेल गए ।

Nagarjuna Biography

जीवन में नागार्जुन ने मात्र कलम या रचना को ही हथियार नहीं बनाया, बल्कि खुद जन-संघर्षों में हिस्सा भी लिया । 1974 के जे. पी. आंदोलन में जिन रचनाकारों ने खुलकर भाग लिया था, नागार्जुन उनमें प्रमुख थे। इस आंदोलन के क्रम में आपात स्थिति से पूर्व – ही इनको गिरफ्तार कर लिया गया था। काफी समय तक जेल जीवन झेलना पड़ा था। उन्होंने इंदिरा गांधी तथा कांग्रेस विरोधी कई कविताएँ लिखीं। 1975 में जेल से रिहाई हुई थी। किसानों-मजदूरों पर अत्याचार, नागरिकों छात्रों पर प्रहार, देश-विदेश की कोई घटना, जिससे शांति-प्रगति के लिए संघर्षरत मानव समाज आहत हो, नागार्जुन की मानसिक बेचैनी और उद्विग्नता बढ़ जाती थी । इस स्थिति को वह अपनी रचना द्वारा व्यक्त करते थे। नागार्जुन के काव्य-संसार का अधिकांश भाग शांति-कामकामी समाज पर हो रहे अत्याचार के खिलाफ आक्रोश का है ।
दुबला-पतला शरीर, कोटरों में धँसी – धँसी सी आँखें, सूखी लकड़ी जैसे हाथ-पैर, अत्यंत साधारण वेशभूषा । नागार्जुन का रहन-सहन इतना सरल और सादा था कि कभी भी यह नहीं लगता था कि यह अंतरराष्ट्रीय स्तर का व्यक्तित्व है। अपनी व्यक्तिगत सुखसुविधा का ध्यान उन्होंने कभी नहीं रखा। उन्हें किसी वस्तु विशेष के प्रति ललक या लालसा भी कभी नहीं रही। वे अपनी रचनाएँ छपवाने के मामले में तनिक भी उत्सुक नहीं रहे। दाढ़ी- बाल के मामले में वे सदा लापरवाह रहे, कपड़ों के बारे में बेफिक्र । जो जैसा है, उसे ठीक वैसा ही मान लेते । नियमित रूप से हजामत नहीं करवाने की वजह से बाल बेतरतीब ही रहते थे। कभी किसी ने उन्हें आईना देखते नहीं देखा। पता नहीं, नागार्जुन ने कभी बालों में कंघी भी की हो, यह उनके संग रहनेवाले लोग बताते हैं। नागार्जुन कभी लुंगी – कुरता पहने ही सारे नगर में घूमते नजर आते थे तो कभी धुला-धुला पाजामा कुरता, मोजा जूता सबकुछ रहता था – सही और दुरुस्त हालत में । उनके गले में लिपटा एक पतला अँगोछा अवश्य रहता था । मुख्यतः वे खादी पहनते । जाड़े में कोट-पैंट पहनते थे पैंट नहीं तो कम मोहरीवाला अलीगढ़ी पाजामा पहनते । जाड़ों में दो-दो पाजामे, दो-तीन कुरते, एक-दो स्वेटर, कोट-मफलर, कनटोप– कुल मिलाकर पूरे आठ-दस किलो वजन रहता था इनके शरीर पर । खादी पहनने के कारण कपड़े इस्तरी किए हुए नहीं रहते थे। नागार्जुन अपनी वेशभूषा के साथ स्वास्थ्य के प्रति भी उतने ही लापरवाह थे । दमा रोग से काफी दिनों से पीड़ित थे, जो लगभग वंशानुगत था । रोग निवारण हेतु उन्होंने विधिवत् इलाज भी नहीं करवाया । एलोपैथिक चिकित्सा से इन्हें चिढ़ थी । दम अधिक फूलने पर, लोगों के बहुत कहने-सुनने पर अंग्रेजी टिकिया ले लेते थे । अन्यथा आहार के सहारे दमा को शांत रखते थे ।

Biography of Nagarjuna in Hindi

नागार्जुन अखिल भारतीय व्यक्तित्व के बावजूद अध्ययन और खान-पान के मामले में विशुद्ध मैथिल थे, भले ही सोच एवं आध्यात्मिक कर्मकांड में मैथिल ब्राह्मण न हों । मैथिल पंडितों की अध्ययनशीलता अपनी विशेषता है। उम्र के अंतिम पड़ाव में भी नागार्जुन जितना कुछ पढ़ते थे, वह बहुत कम लोगों में देखा जाता है। संस्कृत साहित्य के शास्त्रीय ग्रंथों के साथ युगीन साहित्य, अधुनातन ग्रंथों का अध्ययन उनकी नियमित दिनचर्या में शामिल था। नागार्जुन बनने के बाद मैथिली भाषा-भाषी उनसे यात्रीजी के रूप में मैथिली रचनाएँ सुनना चाहते थे । यदि इसके लिए किसी तरह का कोई आयोजन किया जाता तो वे कहा करते थे, “पहले मैथिलत्व भीतर प्रवेश हो, तब न कुछ कलम से निकले।” यानी मैथिलों का प्रिय भोजन दही, मछली, मखाना, पटुआसारा, तिलकोड़ आदि । किसी परिवार में शाम- दो शाम खाने के बाद ‘यात्रीजी’ मैथिली रचनाएँ लिखने और सुनाने के मूड में आते थे।
अपने बेतरतीब पहनावे तथा बाल-दाढ़ी के साथ कंधे पर नागार्जुन एक झोला अवश्य लटकाए रहते थे। कंधे से लटकते झोले को उन्होंने स्थानीय नगर- दर्शन से लेकर विश्वभ्रमण तक अलग नहीं किया। इस झोले में इतना सबकुछ रहता था कि कहीं-से-कहीं तक का कार्यक्रम इसे ले जाकर तय किया जा सके। झोले में सामग्रियाँ रहती थीं – एक टॉर्च, एक पॉकेट ट्रांजिस्टर, एक अँगोछा, एक पाजामा, दो- एक डायरीनुमा कॉपी, पाँचदस पत्र-पत्रिकाएँ, कुछ एक पत्र, जिनका पत्रोत्तर जाना है, पाँच-सात दमे की आजमापेक्स गोली, इनो की शीशी । चाहे कॉफी हाउस हो या किसी मित्र की बैठक, चाहे बड़े कविसम्मेलन का मंच हो या युवकों की गोष्ठी, उनका यह विशिष्ट झोला उनके कंधे पर ही लटकता था।

Biography of Nagarjuna

नागार्जुन में नशे की आदत नहीं थी। सौंफ-लौंग हमेशा साथ रहते थे। भोजन, नाश्ता तथा चाय के बाद अपनी जेब से प्लास्टिक की छोटी डिबिया निकालते, सामने बैठे लोगों को पेश करते और स्वयं लेते। सोते समय कान से सटाकर रेडियो नियमित रूप से सुनते थे। रात के दस बजे तक बिस्तर पर सोने चले जाते तथा दो-तीन बजे उठकर पाँच-छह बजे तक का समय उनके कविता लिखने का होता था।
नागार्जुन का विवाह सन् 1931 में अपराजिता देवी के संग हुआ था। मैथिल परंपरा के अनुसार अपराजिता द्विरागमन संस्कार के बाद 1934 में अपनी ससुराल आई, किंतु नागार्जुन मात्र तीन-चार माह ही गृहस्थ जीवन बिताने के बाद घर-बार छोड़कर बाहर निकल पड़े थे। सन् 1934 से 1941 तक घुमक्कड़ी जीवन व्यतीत करते रहे। पत्नी के साथ-साथ परिवार के अन्य सदस्य इनकी घुमक्कड़ी और फक्कड़पने से खुश नहीं रहते थे। एक से व्यवस्थित तथा निश्चित आयस्रोत नहीं रहने के कारण परिवार हमेशा आर्थिक संकटों से घिरा रहा। नागार्जुन के यदा-कदा भेजे गए पैसों पर ही परिवार का भरण-पोषण आधारित रहा। अर्थ – संचय की प्रवृत्ति तो नागार्जुन में थी ही नहीं। खुले हाथ से खर्च करते रहे। परिवार, बाल-बच्चों के भरण-पोषण हेतु 1941 में गृहस्थाश्रम में पुन: दाखिल तो हुए, लेकिन चाल-ढाल वही रही। 1982 एवं 1983 में 10,000 और 15,000 के दो पुरस्कारों की राशि मिलने के बावजूद नागार्जुन कंगाल ही रहे। गाँव में तो वे रहते नहीं थे। दिल्ली में अपनी साहित्यिक क्रियाशीलता को कायम रखने के चलते किराए का मकान ले रखा था, साथ ही व्यक्तिगत एवं आगत शुभेच्छुओं का खर्च। इन सभी कारणों से पैसे जल्द ही. खत्म हो जाते थे। फिर प्रकाशक पर टकटकी लगी रहती थी। एक बार नागार्जुन ने अपने एक प्रकाशक से यह तय किया कि दो सौ रुपए प्रतिमाह पत्नी अपराजिता के नाम गाँव भेज दिया जाए। लगभग दो-ढाई वर्ष यह सिलसिला चला और अचानक बंद हो गया।

Biography of Nagarjuna in Hindi Jivani

जिस प्रकार अपराजिता ने नागार्जुन के घुमंतू जीवन में दखल नहीं दिया या फक्कड़पन के लिए कोई हस्तक्षेप नहीं किया, उसी तरह नागार्जुन ने भी अपराजिता की जीवन-प्रणाली में कोई दखलंदाजी नहीं की। पत्नी तमाम प्रकार के परंपरागत व्रत-त्योहार, पूजा-पाठ करती थीं। नागार्जुन जैसा परंपरा-भंजक व्यक्ति कभी भी पत्नी के इन क्रियाकलापों में बाधक नहीं हुआ। इनके पिता का देहांत 1943 ही हो चुका था । अपराजिता भी 19 फरवरी, 1997 को दुनिया से चल बसीं ।
अत्यधिक घूमना, जरूरत से ज्यादा पत्राचार, समसामयिक घटना प्रधान पत्र-पत्रिकाओं के गहन अध्ययन के बाद कविता तथा उपन्यास की रचना मात्र नागार्जुन के वश की बात थी । घुमक्कड़ी की तरह इनके पत्र लेखन का क्षेत्र भी विस्तृत था । समकालीन लेखकों में संभवत: सबसे ज्यादा पत्र – साहित्य नागार्जुन का ही होगा। ये किसी भी युवा रचनाकार से साहित्य की मौलिक समस्याओं पर घंटों बातें करते थे तथा युवा वर्ग भी अपनी रचनाओं पर सुझाव व शंका-समाधान नागार्जुन से हमेशा पाता रहता । नागार्जुन ने अपने जीवन में कभी बंधन नहीं स्वीकारा। लंका से वापस आने के बाद उस समय यदि वे चाहते तो निश्चित रूप से विश्व के किसी भी शिक्षण संस्थान से जुड़कर नौकरी पा सकते थे; किंतु उन्होंने बंधनों से मुक्त रहने के प्रयास में ऐसा नहीं किया । तात्कालिक मजबूरियों के कारण या अन्य कारणों से कभी-कभी नौकरीनुमा बंधन या पत्रों में नियमित रूप से कॉलम लिखना शुरू भी किया तो जब मानसिक बंधन का अहसास होने लगा तो एक ही झटके से अपने को अलग करते देर न लगी, जिसका परिणाम यह हुआ कि इनका परिवार आर्थिक तंगी का सामना करता रहा। बाल बच्चों की परवरिश और पढ़ाई-लिखाई जैसे-तैसे होती रही।

Nagarjuna in Hindi Jivani

नागार्जुन ने हर विधा में लेखन कार्य किया – कहानी, कविता, निबंध, उपन्यास, खंडकाव्य, बाल – साहित्य, कॉलम आदि । नागार्जुन ने बनारस में ही साहित्य को ढंग से समझना – बूझना शुरू किया था । इस अध्ययन का कालखंड मात्र सन् 1931 से 1933 तक का था। यहीं पर पहली बार ‘मैथिली सुधाकर’ हस्तलिखित पत्रिका में वैद्यनाथ मिश्र ‘वैदेह’ उपनाम के साथ इनकी रचना प्रकाशित हुई । फिर विविध कालक्रमों में रचनाएँ प्रकाशित होती रहीं, जिनमें प्रमुख हैं- रतिनाथ की चाची, बाबा बटेसरनाथ, दुःखमोचन, वरुण के बेटे, नई पौध, जमनिया का बाबा आदि (उपन्यास); युंगधारा, सतरंगे पंखों वाली, प्यारी पथराई आँखें, तालाब की मछलियाँ, चंदना, खिचड़ी विप्लव देखा हमने, तूने कहा था, पुरानी जूतियों का कोरस, हजार-हजार बाँहों वाली, पका है यह कटहल, अपने खेत में, मिलिट्री का बूढ़ा घोड़ा (कविता संग्रह); भस्मांकुर, भूमिजा (खंडकाव्य); चित्रा, पत्रहीन नग्न गाछ (हिंदी में अनूदित), पारो (मैथिली उपन्यास), धर्मलोकशतकम् (संस्कृत काव्य) आदि ।

Nagarjuna ki Jivani

नागार्जुन को साहित्यिक उपलब्धियों के कारण विविध पुरस्कारों से सम्मानित किया गया । दरभंगा की महारानी लक्ष्मीश्वरी के संग बालवर्धनी सभा, काशी द्वारा सम्मानित किए गए । सन् 1968 में ‘पत्रहीन नग्न गाछ’ (मैथिली) पर साहित्य अकादमी पुरस्कार प्रदान किया गया। इसके साथ भारत भारती (उत्तर प्रदेश), मैथिलीशरण गुप्त सम्मान (मध्य प्रदेश), राजेंद्र शिखर सम्मान (बिहार), राहुल सांकृत्यायन सम्मान (पश्चिम बंगाल) आदि से प्रतिष्ठित किए गए। सन् 1951 में वर्धा में राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के कार्य के दायित्वनिर्वहण में नागार्जुन की अहम भूमिका रही। सन् 1952-53 में इलाहाबाद प्रवास काल में इन्होंने हिंदी साहित्य में अपना उल्लेखनीय योगदान दिया। लंका में युवा वैद्यनाथ ब्राह्मण से बौद्ध संन्यासी बने थे। जो युवक संस्कृत के सहारे आगे बढ़ रहा था, वह बौद्ध हो गया। किंतु वहाँ भी लकीर का फकीर नहीं रहा। देश के बाहर विद्यालंकार परिवेण में भी अपने बौद्धिक चिंतन को गिरवी नहीं रखा। 1917 की रूसी क्रांति तथा 1920 में रूस में कम्युनिस्ट पार्टी के गठन एवं लेनिन के व्यक्तित्व से नागार्जुन बहुत प्रभावित हुए | लंका में ही लेनिन की रचनाओं का अध्ययन किया। फिर साम्यवादी विचारधारा की ओर उन्मुख हुए। भारत आने पर कम्युनिस्ट पार्टी में सक्रिय हो गए। 1963 में भारत पर चीनी आक्रमण के बाद कम्युनिस्ट पार्टी से अनबन हो गई और उससे अपना संबंध विच्छेद कर लिया। बौद्ध धर्म में दीक्षित होने के बाद लंका के विद्यालंकार परिवेण की पाबंदियों को भी उन्होंने स्वीकार नहीं किया और जननी जन्मभूमि के प्रति ममत्व भिक्षु नागार्जुन को खींच लाया अपने गाँव की ओर ।

Nagarjuna Jivani

गाँव के लोग अपने इस वयोवृद्ध ठक्कन मिश्र को यात्री नागार्जुन के रूप में थोड़ाबहुत जानने-पहचानने लगे थे। इसका मात्र इतना भर कारण था कि यात्री मैथिली के वर्ग सातवें से एम.ए. तक किसी-न-किसी रूप में उनके अध्ययन के क्षेत्र में आते थे । नागार्जुन के रूप में भी हिंदी के पाठ्य-ग्रंथों में स्थापित हो चुके थे। हिंदी की पत्र-पत्रिकाओं के मध्य नागार्जुन किसी-न-किसी रूप में हमेशा दिखाई पड़ते थे ।
मैथिली की प्रमुख साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्था चेतना समिति की स्थापना 18 जुलाई, 1954 को हुई। नागार्जुन चेतना समिति के स्थापनाकाल से ही जुड़े रहे । सन् 1977 में वे चेतना समिति की ओर से सम्मानित किए गए। 1976 के बाद आचार्य विनोबा भावे के संपर्क में आए और उनसे प्रभावित होकर ‘लोक-शतक’ की रचना की ।

Nagarjuna Jivani hindi mein

सन् 1988 के बाद नागार्जुन वयोवृद्ध पंडित वैद्यनाथ मिश्र के रूप में दरभंगा (बिहार) में अधिकांश समय व्यतीत करने लगे । आत्मिक रूप से भले ही वे नागार्जुन रहे हों, किंतु वेशभूषा अब मैथिल पंडित वैद्यनाथ मिश्र की – खादी की साफ-सुथरी धोती, धुला-धुला कुरता, पैरों में बढ़िया चप्पल और कंधे पर एक सफेद गमछा | कलम के ही बल पर ख्याति प्राप्त करनेवाले नागार्जुन ने समकालीन अन्य कलमबाजों की तरह कोई भौतिक संपन्नता अर्जित नहीं की। अपने परिवार की अगली पीढ़ी के लिए भी कुछ संचित नहीं किया ।
एक प्रगतिशील – प्रयोगवादी कवि, कथाकार, मैथिली, हिंदी, संस्कृत एवं बँगला के रचनाकार ‘यात्री’ उर्फ नागार्जुन के साहित्य के क्षेत्र में अवदानों को भुलाया नहीं जा सकता है। जन-रचनाकार, यायावर नागार्जुन का निधन 5 नवंबर, 1998 को हुआ।

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