कार्यशाला पद्धति क्या है ? कार्यशाला पद्धति के उद्देश्य एवं सोपानों का वर्णन कीजिए।
कार्यशाला पद्धति क्या है ? कार्यशाला पद्धति के उद्देश्य एवं सोपानों का वर्णन कीजिए।
अथवा
कार्यशाला से आप क्या समझते है ? कार्यशाला की प्रक्रिया को स्पष्ट कीजिये ।
अथवा
कार्यशाला पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिये ।
उत्तर— कार्यशाला का अर्थ– कार्यशाला शब्द बस, मोटरसाइकिल आदि बनाने व रिपेयर करने के स्थान या फैक्ट्री में उस स्थान के लिये प्रयुक्त होता है जहाँ मरम्मत या निर्माण के लिये कार्य होता है। इस प्रकार के कार्य से कुछ न कुछ नया उत्पादन होता है। शिक्षण के क्षेत्र में इस प्रकार की व्यवस्था की आवश्यकता को देखते हुए कार्यशाला शब्द को ही प्रयुक्त किया जाने लगा तथा इसके द्वारा शिक्षा में भी नवीन उत्पादन होता है।
कार्यशाला की परिभाषा– इसे हम इस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है—” कार्यशाला में सम्भागी न केवल विचार-विमर्श करते हैं अपितु सृजनात्मक रूप से कुछ उत्पाद भी करते हैं। इसके अन्तर्गत विशेषज्ञों द्वारा कार्य सम्बन्धी मुख्य सुझाव प्रेषित किये जाते हैं। “
कार्यशाला में स्वयं कार्य करने के अवसर प्राप्त होते हैं । इस प्रकार कौशलों का विकास करके क्रियात्मक पक्ष प्रभावशाली रूप से विकसित किया जाता है। साथ ही शिक्षार्थी की रुचि कार्य के प्रति बनी रहती है ।
डॉ. प्रीतम सिंह (Dr. Preetam Singh) ने इसे परिभाषित करते हुए लिखा है—“कार्यशाला आमने-सामने का ऐसा प्राथमिक समूह है जिसमें सामाजिक अन्तः क्रिया अधिक नजदीक तथा प्रत्यक्ष होती है और सदस्यों पर अधिक सामाजिक नियन्त्रण रखती है।”
कार्यशाला के उद्देश्य– कार्यशाला मुख्य रूप से ज्ञानात्मक पक्ष तथा क्रियात्मक पक्ष के उच्च उद्देश्यों की पूर्ति के लिये प्रयोग में लाई जाती है।
(1) ज्ञानात्मक उद्देश्य –
(a) इसके द्वारा शिक्षण व्यवसाय में काम आने वाले तथ्यों, क्रियाओं के बारे में जानकारी प्राप्त कर सकता है।
(b) शिक्षक शिक्षण की विधियों का सामूहिक रूप से निर्धारण कर शिक्षण को उच्च कोटि का बना सकता है।
(c) शिक्षक या शिक्षार्थी किसी प्रकरण पर अपनी समस्याओं का हल कार्यशाला के माध्यम से भली-भाँति कर सकता
(d) शिक्षक शिक्षण में प्रयुक्त नवीन प्रत्ययों एवं उपागमों की जानकारी प्राप्त कर सकता है।
(2) क्रियात्मक उद्देश्य—
(a) समयानुसार एवं आवश्यकतानुसार शैक्षिक उपकरणों को ठीक व पुनर्निर्मित किया जा सकता है।
(b) इसके द्वारा शैक्षिक उपकरणों का निर्माण किया जा सकता है तथा अपने वातावरण की आवश्यकता को उसमें ढाल कर बनाने का कौशल प्राप्त किया जा सकता है।
(c) शिक्षण में नवीन उपागमों का प्रशिक्षण प्राप्त किया जा सकता है।
(d) इसके द्वारा क्रियात्मक कार्यों में रुचि विकसित की जा सकती है।
(e) व्यक्तिगत रूप से क्रियाशील रह कर विचार एवं क्रियाओं को विकसित किया जा सकता है।
कार्यशाला आयोजित करने के चरण-कार्यशाला निम्न चरणों के आधार पर आयोजित की जाती है—
(1) सैद्धान्तिक पक्ष का ज्ञान देना ।
(2) क्रियात्मक कार्य किया जाना ।
(3) मूल्यांकन ।
(1) सैद्धान्तिक पक्ष का ज्ञान देना– यदि सम्भागी विद्यालय के शिक्षार्थी हैं तो कार्यशाला के प्रकरण सम्बन्धी सैद्धान्तिक पक्ष के ज्ञान देने का कार्य एक शिक्षक कर सकता है। यदि सम्भागी सेवारत शिक्षक है तो यह कार्य एक विशेषज्ञ द्वारा किया जाता है। इसमें सैद्धान्तिक ज्ञान विस्तृत रूप से न देकर केवल वहीं तक दिया जाता है जहाँ तक सम्भागी कार्य कर सकने में सक्षम हो जाये। इससे उनके क्रियात्मक कार्य करने के समय में कोई कमी नहीं होगी। सैद्धान्तिक पक्ष के ज्ञान देते समय ही कार्य की दिशा निर्धारित हो जाती है।
(2) क्रियात्मक कार्य किया जाना– कार्यशाला में क्रियात्मक कार्य सम्भागियों को समूहों में बाँट कर पूर्ण करवाया जाता है। प्रत्येक लघु समूह में एक सन्दर्भ व्यक्ति होता है जो कि समूह के सदस्यों को में आवश्यक निर्देशन प्रदान करता है। सन्दर्भ व्यक्ति वही होता है जिसे कार्य के क्रियात्मक पक्ष की पूर्ण जानकारी होती है । इस कार्य हेतु सभी समूहों को अलग-अलग कार्य सौंपा जाता है।
चूँकि कार्यशाला में क्रियात्मक पक्ष को अधिक महत्त्व दिया जाता है। अतः क्रियात्मक कार्यों को समय भी अधिक मिलना चाहिए। उन्हें सम्बन्धित सामग्री की उपलब्धता होनी चाहिए।
(3) मूल्यांकन– किसी भी कार्य में मूल्यांकन का अहम् स्थान रखता है। इसी के द्वारा ही पता लगता है कि किया गया कार्य किस सीमा तक सफल हुआ है। कार्यशाला में किये गये कार्यों की परीक्षा नहीं ली जा सकती। इसके कार्य का मूल्यांकन विशेषज्ञों द्वारा किया जाता है। इसमें सभी पक्षों को सम्मिलित किया जाता है ।
कार्यशाला को भविष्य में और भी अधिक प्रभावशाली बनाया जाए इसके लिये सम्भागियों से सुझाव आमन्त्रित किये जाते हैं तथा सुझाव प्रेषित भी किये जाते हैं।
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