समाज और संस्कृति के विशेष सन्दर्भ में विद्यालय में ज्ञान प्राप्ति के कौन-कौन से साधन हैं ?
समाज और संस्कृति के विशेष सन्दर्भ में विद्यालय में ज्ञान प्राप्ति के कौन-कौन से साधन हैं ?
उत्तर— समाज के विशेष संदर्भ में विद्यालय में ज्ञान प्राप्ति के स्रोत–प्रसिद्ध विद्वान ओटावे ने कहा है कि “किसी भी समाज में दी जाने वाली शिक्षा समय-समय पर उसी प्रकार बदलती है, जिस प्रकार समाज बदलता है।”
इससे स्पष्ट होता है कि ज्ञान और समाज का अटूट सम्बन्ध है । समाज में संस्कृति तथा जीवन विधि का जो स्वरूप होता है, उसी के अनुरूप उस समाज की आवश्यकताएँ होती हैं। उन्हीं आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर उस समाज में शिक्षा (ज्ञान) की व्यवस्था की जाती है। समाज की आवश्यकताओं में परिवर्तन के साथ-साथ ज्ञान (शिक्षा) का स्वरूप भी परिवर्तित करने की आवश्यकता होती है। प्रत्येक समाज की अपनी सांस्कृतिक धरोहर होती है जिसे भावी पीढ़ी को देने के लिए उत्सुक रहता है, इसलिए शिक्षा और समाज में घनिष्ठ सम्बन्ध है। इस सन्दर्भ में ब्राउन ने कहा है कि “ज्ञान के सम्बन्ध में समाज का कार्य दोहरा है। प्रथम तो वह अपने बालकों में न केवल लोक रीतियों के माध्यम से ज्ञान को जागृत करता है। अपितु दृष्टिकोणों एवं जीवन मूल्यों का भी विकास करता है। द्वितीय वह सम्पूर्ण जीवन के ढाँचे को तैयार करता है जिससे विद्यालय एक संस्था के रूप में कार्य करता है। “
समाज में मिलने वाली अनौपचारिक शिक्षा, विद्यार्थी में अपना ज्ञान स्वयं सृजित करने की स्वाभाविक क्षमता को विकसित करती है जिससे विद्यार्थी में अपने आसपास के सामाजिक एवं भौतिक वातावरण से और विभिन्न कार्यों से जुड़ने की क्षमता बढ़ती है। इसके लिए ऐसे मौकों का मिलना बहुत जरूरी है जिससे विद्यार्थी नयी चीजों को आजमाएँ, जोड़तोड़ करें, गलतियाँ करें और अपनी गलतियाँ खुद सुधारें । यह बात भाषा सीखने के लिए भी उतनी ही सच है जितनी किसी हस्तकौशल या विषय को सीखने के लिए। संस्थानों के तौर पर स्कूल सभी विद्यार्थियों को स्वयं के बारे में सीखने के, दूसरों के समाज के बारे में जानने के लिए अवसर प्रदान करते हैं ताकि वे अपनी विरासत को समझ कर उससे जुड़ पाएँ, फिर चाहे उन्होंने किसी भी परिवार या समुदाय में जन्म लिया हो। स्कूल औपचारिक शिक्षा की जिन प्रक्रियाओं को सम्भव बनाता है वे विद्यार्थियों के जीवन में समझ व दुनिया से जुड़ने की नयी सम्भावनाएँ खोल सकती हैं ।
संस्कृति के विशेष सन्दर्भ में विद्यालय में ज्ञान प्राप्ति के साधन–प्रत्येक विद्यालय में भिन्न-भिन्न संस्कृति एवं परम्पराओं के विद्यार्थी होते हैं, जो अपनी संस्कृति व परम्पराओं का ज्ञान अपने परिवार से लेकर आते हैं। विद्यार्थी परस्पर अन्तःक्रिया के द्वारा एक-दूसरे की संस्कृति एवं परम्पराओं का ज्ञान प्राप्त करते हैं । इस प्रकार विद्यालय संस्कृति के ज्ञान प्राप्ति स्रोत बन जाते हैं।
संस्कृति और शिक्षा का घनिष्ठ सम्बन्ध इस तथ्य से भी स्पष्ट होता है कि शिक्षा का एक प्रमुख लक्ष्य बालक को उसकी सामाजिक विरासत, उसकी संस्कृति प्रदान करता है। प्रत्येक मानव समूह में हजारों सालों के विकास के परिणामस्वरूप संस्कृति के विभिन्न अंगों का विकास होता है। यह संस्कृति प्रत्येक पीढ़ी द्वारा नई पीढ़ी को सौंप दी जाती है। इस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी संस्कृति में जन्म लेता है। इस सांस्कृतिक विरासत में उसे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में कार्य करने के निश्चित प्रतिमान और प्राप्त करने के मूल्य (Values) मिल जाते हैं और उसे हर समय नए सिरे से प्रयोग नहीं करने पड़ते। अस्तु संस्कृति का मनुष्य के जीवन में अत्यधिक महत्त्व है। इस महत्त्व के विवेचन से यह स्पष्ट होगा कि संस्कृति के विभिन्न अंगों की शिक्षा से मनुष्य को लाभ होता है। संक्षेप में, संस्कृति के कार्य अथवा व्यक्ति को उसका योगदान निम्नलिखित है—
(1) व्यक्तित्व का विकास–व्यक्तित्व मनुष्य के व्यवहार के प्रतिमानों से स्पष्ट होता है। मानव व्यवहार पर समूह की संस्कृति का महत्त्वपूर्ण प्रभाव होता है। मानवशास्त्रियों ने अनेक अध्ययनों से यह बात स्पष्ट कर दी है कि भिन्न-भिन्न संस्कृतियों में पाए जाने वाले भेदों के अनुसार भिन्न-भिन्न समाजों में मूल व्यक्तित्व प्रतिमान में भेद पाए जाने वाले भेदों के अनुसार भिन्न-भिन्न समाजों में मूल व्यक्तित्व प्रतिमान में भेद पाया जाता है। कहीं पर मनुष्य अधिक आक्रामक होते हैं तो अन्य समाज में उनमें समर्पण की प्रवृत्ति अधिक पायी जाती है। भारतीय मनुष्य के व्यक्तित्व पर भारतीय संस्कृति की और पाश्चात्य मनुष्य के व्यक्तित्व पर पाश्चात्य संस्कृति की स्पष्ट छाप देखी जा सकती हैं। संस्कृति व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, संवेगात्मक, नैतिक और सौन्दर्यात्मक सभी पहलुओं को प्रभावित करती है। व्यक्तियों के प्रयासों से संस्कृति में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन होते हैं, किन्तु फिर दूसरी ओर संस्कृति से ही सामान्य मनुष्यों के व्यवहार निर्धारित होते हैं।
(2) सामाजीकरण–सामाजीकरण की प्रक्रिया में संस्कृति का महत्त्वपूर्ण योगदान है। इसलिए भिन्न-भिन्न समाजों में व्यक्ति के सामाजीकरण की मात्रा और दिशाओं में भेद पाया जाता है। हर एक समाज का अपना एक एथोस (Ethos) होता है, जो कि विभिन्न माध्यमों से व्यक्तियों को प्रदान किया जाता है। राल्फ लिन्टन के अनुसार, व्यक्ति तीन प्रकार से संस्कृति के अंगों में भाग ले सकता है। सबसे पहले वह सार्वभौमिक रूप में संस्कृति में भाग लेता है, अर्थात् उन आदतों, विचारों और संवेगात्मक प्रतिक्रियाओं को अपनाता है, जो समाज के सभी प्रौढ़ व्यक्तियों के व्यवहार में पाए जाते हैं। दूसरे व्यक्ति विशेष रूप से संस्कृति के अंगों में भाग लेता है, अर्थात् संस्कृति के उन तत्त्वों को अपनाता है जो कि समाज के विशिष्ट अंग विशेष व्यवस्था अथवा विशिष्ट लिंग वाले व्यक्तियों में पाए जाते हैं। तीसरे व्यक्ति वैकल्पिक रूप से संस्कृति के अंगों में भाग लेता है, अर्थात् संस्कृति के उन तत्वों को अपनाता है जो समाज के कुछ ही व्यक्तियों द्वारा अपनाए गए हैं। संस्कृति के अंगों में भाग लेने के वैकल्पिक रूप से मनुष्यों के व्यक्तियों में अन्तर देखा जा सकता है। जॉर्ज एच. मीड के अनुसार संस्कृति को अपनाने में मनुष्य के अहम् को तीन अवस्थाओं से गुजरना होता है जो कि वास्तव में शिक्षा की अवस्थाएँ कही जा सकती हैं। पहली अवस्था में व्यक्ति अपने परिवेश के व्यक्तियों का अनजाने ही अनुकरण करता है। दूसरों को देखकर मुस्कराता है, हँसता है अथवा अन्य कार्य करता है। इस प्रकार बाल्यावस्था में मनुष्य अनुकरण के द्वारा समूह की संस्कृति को ग्रहण करता है। दूसरी अवस्था में बालक विभिन्न प्रकार के खेलों द्वारा समाज के भिन्न-भिन्न सदस्यों के कार्यों का अनुकरण करते हैं । इस प्रकार के खेलों से उनके व्यक्तियों में विभिन्न प्रकार के गुणों का समावेश होता है। संस्कृति ग्रहण करने को तीसरी अवस्था खेल है, जिसमें व्यक्ति अपने व्यवहार का संयम करना सीखता है । खेल की सामाजिक परिस्थिति में वह मनमाना व्यवहार नहीं कर सकता और उसे समूह की मान्यताओं के अनुसार व्यवहार करना पड़ता है । क्रमशः वह समूह के आदर्शों, सिद्धान्तों और विश्वासों को अपनाने लगता है। इस प्रकार के व्यक्ति को ही संसुस्कृत व्यक्ति कहा जाता है ।
(3) सामाजिक परिवेश में समायोजन–संस्कृति में रीति-रिवाज, परम्पराएँ और व्यवहार प्रतिमान सम्मिलित होते हैं। उसमें हमारे विश्वास और विचार, निर्णय और मूल्य तथा सामाजिक संस्थाएँ निहित हैं। इन सबसे व्यक्ति को सामाजिक परिवेश से समायोजन करने में सहायता मिलती है । वास्तव में, सामाजिक परिवेश में परिवर्तन के साथ-साथ इन सब में भी परिवर्तन होता रहता है। संस्कृति से ही सामाजिक नियंत्रण के प्रतिमान निश्चित होते हैं और इन प्रतिमानों से व्यक्ति पर सामाजिक नियंत्रण रहता है। अस्तु, बालक को समूह की संस्कृति को शिक्षा देने से वह समूह की परम्पराओं, रीति-रिवाजों, मूल्यों और व्यवहार के प्रतिमानों से परिचित हो जाता है। इससे उसे सामाजिक परिवेश में समायोजन करने में आसानी होती है और उसका समाजीकरण होता है ।
(4) प्राकृतिक परिवेश में समायोजन–सब मनुष्य किसी न किसी प्रकार के प्राकृतिक परिवेश में रहते हैं और इस परिवेश में समायोजन किए बिना उनका जीवन नहीं चल सकता हैं, परिवेश से समायोजन करने की प्रक्रिया में वे जो नए-नए आविष्कार करते हैं, वे संस्कृति का महत्त्वपूर्ण अंग है। प्राकृतिक परिवेश की भिन्नता के कारण भिन्न-भिन्न मानव समूहों में संस्कृति का अन्तर हो जाता है। इसी आधार पर आदिम और विकसित संस्कृति में अन्तर किया जाता है। भारतवर्ष में विभिन्न जनजातियों के सदस्य अपने प्राकृतिक परिवेश से समायोजन करने के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार से व्यवहार करते हैं और यह व्यवहार जनजाति द्वारा नई पीढ़ी को सिखाया जाता है।
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