‘हो’ विद्रोह, सरदारी आंदोलन और खरवार आंदोलन
‘हो’ विद्रोह, सरदारी आंदोलन और खरवार आंदोलन
‘हो’ विद्रोह (‘Ho’ Rebellion)
यह विद्रोह सन् 1821-22 छोटानागपुर के ‘हो’ लोगों ने सिंहभूम के राजा जगन्नाथ सिंह के विरुद्ध किया। जगन्नाथ सिंह के प्रति ‘हो’ लोग तटस्थ थे और इनका किसी से भी कोई झगड़ा नहीं था। नागवंश के राजा ने इन पर एक-दो बार आक्रमण किया था, लेकिन सिंहभूम के राजा के साथ इनके मैत्रीपूर्ण संबंध थे। जब बाद में सिंहभूम के राजा ने अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार कर ली और अंग्रेजों की नीति के फलस्वरूप अपने ही ‘हो’ मित्रों के साथ वह दुर्व्यवहार करने लगा तो ‘हो’ लोग भडक उठे। मेजर रफसेज ने भी इन लोगों को अपने कई स्वार्थों में प्रयोग किया और इन्हें झूठे आश्वासन देकर बेवकूफ भी बनाया।
‘हो’ लोग जल्दी ही समझ गए थे कि उन्हें मूर्ख बनाकर उनके भोलेपन का लाभ उठाया जा रहा है। जब उन्होंने इसका विरोध किया तो रफसेज समझ गया कि वे लोग विद्रोही होते जा रहे हैं। उनके विद्रोह की झलक चाईबासा में एक वापसी दल को लूटने और कुछ लोगों की जान लेने से मिली। रफसेज ने तुरंत एक सेना की टुकड़ी ‘हो’ लोगों के विरुद्ध भेजी। ‘हो’ लोगों ने एकत्रित होकर इस सेना को तहस-नहस कर दिया। इससे रफसेज घबरा गया, इसलिए उसने अपनी सेना को गुटियालोर गाँव भेज दिया, जहाँ ‘हो’ लोगों की संख्या अधिक थी। अंग्रेजों ने गाँव में आग लगाने के साथ-साथ वहाँ बहुत तबाही मचाई। ‘हो’ लड़ाकों ने भी हथियार नहीं डाले और वे जी-जान से लड़ते रहे। रफसेज को हालात चिंताजनक लगने लगे, अत: उसने और सैनिक बुला लिये। एक महीने तक लगातार संघर्ष करने के बाद ‘हो’ विद्रोहियों को आत्मसमर्पण करना पड़ा। इस प्रकार कुछ शर्तों और करों के साथ अंततः शांति स्थापित हो सकी।
कोल्हान में अंग्रेजो का प्रवेश
हो विद्रोह Ho Revolt
परिचय
यह विद्रोह 1821- 22 ई में कोल्हान क्षेत्र के हो जनजातियों द्वारा सिंहभूम के सिंह वंशी राजा जगन्नाथ सिंह के विरुद्ध किया गया था यह विद्रोह अंग्रेजों के साथ-साथ छोटानागपुर खास के नागवंशी शासकों तथा जमींदारों के खिलाफ भी था। आधुनिक कोल्हान प्रमंडल का दक्षिण-मध्य भाग हो-देशम या कोल्हान कहा जाता था। इस भाग में हो जनजातियो का निवास स्थान था। यह क्षेत्र सदियों से आजाद रहा। यहाँ न कभी मुगलों की न ही मराठो की सत्ता स्थापित हो सकी।
इस क्षेत्र के एक किनारे पर पोरहाट के सिंहवंशियो का शासन था और दूसरे किनारे पर धालभूम के ढाल राजाओ का। सिंह और ढाल राजाओ का इसपर नाममात्र का नियंत्रण था। ये समय समय पर पोरहाट के राजा को कुछ भेंट या उपहार दे देते थे पर नियमित टैक्स कभी नही दिए।
हो जनजाति लड़ाकू स्वभाव के थे, वे स्वतंत्रता प्रेमी थे, इसलिए सिंहवंशियो की अधीनता कभी स्वीकार नही की। उधर सिंहवंशी राजा जगन्नाथ सिंह इस क्षेत्र को अपने नियंत्रण में रखना चाहता था।
आरंभ में सिंहवंशी राजा के साथ हो लोगों का मैत्रीपूर्ण संबंध था। 1820 ई में पोड़ाहाट के राजा और अंग्रेजों के बीच एक संधि हुई थी जिस संधि का हो लोगों ने विरोध किया था। सिंहभूम के शासक जमींदारों के समर्थन से हो जाती पर अत्याचार करने लगे थे। इसके बाद हो जाति के लोगों ने लूटपाट मचाना प्रारंभ कर दिया था। बाद में सिंहभूम के राजा ने अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार कर ली थी। अंग्रेजों की नीति के फलस्वरूप अपने ही “हो” मित्रों के साथ सिंहभूम के राजा दुर्व्यवहार करने लगे जिससे हो लोग विद्रोही बन गए। इस विद्रोह को दबाने के लिए कंपनी सरकार ने पॉलिटिकल एजेंट मेजर रफसेज को भेजा। मेजर रफसेज हो लोगों में फूट डालने के लिए दो प्रभावशाली मुंडा ओं को अपने पक्ष में किया।
चाईबासा के पास रोरो नदी के तट पर मेजर रफसेज की सेना और हो लोगों के बीच भयंकर युद्ध हुआ जिसमें सैकड़ों हो लोग मारे गए थे। उनके गांव जला दिए गए थे। गुमला पीर के 24 गांव के हो विद्रोहियों को आत्मसमर्पण करना पड़ा। इस युद्ध के बाद उत्तरी कोल्हान के हो लोगो ने पोरहाट राजाओ को टैक्स देना स्वीकार किया। दक्षिण कोल्हान अब भी स्वतंत्र रहा। दक्षिण कोल्हान के हो लोगो ने अंग्रेजो और पोरहाट क राजाओ के खिलाफ अब भी विद्रोह जारी रखा। हो लोगो ने सीमावर्ती राज्यो पर उत्पात मचाना शुरू कर दिया। इससे तंग आकर पोरहाट के राजा ने फिर से मेजर रफसेज से सहायता माँगी।
हो विद्रोह का दूसरा चरण
6 अप्रैल 1820 ई को सरायकेला खरसावां जिला के गम्हरिया पीर में पुनः विद्रोह हो गया। यहां विद्रोहियों ने दो अंग्रेज सैनिकों को मार डाला था लेकिन आज अजंबर सिंह के सहयोग से स्वयं रफसेज भागने में सफल रहा था। घासी सिंह के नेतृत्व में बार बरांडा पीर के हो जनजाति ने भी विद्रोह कर दिया था। यहां पर कंपनी के सैनिकों द्वारा महिलाओं पर अत्याचार किए जाने के कारण विद्रोह ज्यादा भड़क उठा था। 1821 ई में हो लोगों ने पोखरिया में कंपनी सेना पर हमला कर दिया था। जिसमें अनेक कंपनी के सैनिक मारे गए थे। इस आक्रमण में अंग्रेजों का साथ दे रहे पोरहाट के राजा को भी काफी नुकसान पहुंचा था। 6 फरवरी 1821 ई को हो लोगों ने चैनपुर पर भी आक्रमण कर दिया था, जिनमें अनेक कंपनी के सिपाही मारे गए थे।
इस आक्रमण में जमादार रतन सिंह जान बचाकर सरायकेला भागने में सफल रहा था।हो के आक्रमण से डरकर पोरहाट का राजा आनंदपुर भाग गया था। हो विद्रोहियों ने बामनघाटी पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया था। धीरे-धीरे बहुत बड़े कोल्हान के क्षेत्र पर हो लोगों ने अधिकार कर लिया था।
इस तरह बड़े क्षेत्र पर खेल चुके हो विद्रोह को दबाने के लिए अंग्रेजों ने नई रणनीति बनाना शुरू की। इस विद्रोह को दबाने के लिए भारी संख्या में सैनिकों को बुलाया गया। रामगढ़ से फोरिशोर, बांकुड़ा से रेबन, मिदनापुर से कर्नल रिचर्ड तथा करक से मकलियोड के नेतृत्व में सैनिकों को बुलवाकर रफसेज़ ने हो विद्रोहियों पर चारों ओर से हमला कर दिया। 1821 में कर्नल रिचर्ड के नेतृत्व में एक बड़ी सेना के समक्ष हो लोगों का युद्व शुरू हो गया। हो लोगो ने एक महीना रिचर्ड की सेना का मुकाबला किया। अंततः हो लोगो को संधि करनी पड़ी।
हो विद्रोह की शर्तें
इस संधि की कुछ प्रमुख शर्ते थी:-
1) हो लोगो ने कंपनी की अधीनता स्वीकार कर ली।
2) हो लोगो ने 5 वर्षों तक 8 आना (50 पैसे) सालाना प्रति हल टैक्स देना स्वीकार कर लिया। 5 वर्ष के बाद यही टैक्स 1रु/हल हो गया था।
3) हो लोगों ने लूटपाट छोड़कर कोल्हान के मार्गों को यात्रियों के लिए खुला एवं सुरक्षित रखने का वजन दिया।
4) हो लोगों ने सभी जातियों के लोगों को अपने गांव में बसने की अनुमति दी तथा अपने बच्चों को हिंदी और उड़िया भाषाओं को पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करने का वचन दिया।
5) हो लोगों ने किसी समस्या का समाधान के लिए हथियार उठाने के बजाय सरकार से फरियाद करने का वचन दिया।
इस संधि के बावजूद कोल्हान में गड़बड़ी समाप्त नही हुई। इस संधि को हो लोग अपमानजनक मान रहे थे। उनके अंदर अंदर ही कंपनी सरकार के खिलाफ आक्रोश था। जब 1831 में मुंडाओं ने कोल विद्रोह का आगाज़ किया उस समय सारे हो लोग विद्रोह में शामिल हो गए।
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