सरदारी आंदोलन (Sardari Movement)

सरदारी आंदोलन (Sardari Movement)

सरदारी आंदोलन (Sardari Movement)

1850 ई. और उसके बाद बिहार क्षेत्र में अनेक आदिवासियों द्वारा ईसाई धर्म अपना लेने से भूमि की समस्या और बदतर हो गई। ईसाई धर्म के व्यापक प्रचार-प्रसार के विरुद्ध जनजातीय सुधारवादी आंदोलन चले। इन्हीं में सरदारी आंदोलन सन् 1859 से 1881 के मध्य चला। इसका उल्लेख एस.सी. राय ने अपनी पुस्तक ‘द मुंडाज (The Mundaj)’ में किया है। वास्तव में यह भूमि के लिए लड़ाई थी। इसका मूल उद्देश्य जमींदारों को बाहर निकालना, बेगारी प्रथा को समाप्त करना और भूमि पर लगाए गए प्रतिबंधों का विरोध करना था। सामान्यतः यह आंदोलन तीन चरणों में पूर्ण हुआ।

Sardari Andolan(1858-95)

➧ इस आंदोलन को ‘ मुल्की व मिल्की (मातृभूमि व जमीन) का आंदोलन’ भी कहा जाता है

➧ 1931-32 के कोल विद्रोह के समय कोल सरदार असम के चाय बागानों में काम करने हेतु चले आए थे

काम करने के बाद जब वे अपने गांव लौटे तो पाया कि उनकी जमीनों को दूसरे लोगों ने हड़प लिया है तथा वे जमीन वापस करने से इंकार कर रहे थे

➧ इस हड़पे गए जमीन को वापस पाने हेतु कोल सरदारों ने लगभग 40 वर्षों तक आंदोलन किया। साथ ही बलात श्रम लागू करना तथा बिचौलियों द्वारा गैर-कानूनी ढंग से किराये में वृद्धि करना भी इस आंदोलन के कारणों में शामिल था

➧ इस आंदोलन में कोल सरदारों को उरांव व मुंडा जनजाति का भी समर्थन प्राप्त हुआ

➧ अलग-अलग उद्देश्यों के आधार पर इस आंदोलन के तीन चरण परिलक्षित होते हैं:- 

(i) प्रथम चरण भूमि आंदोलन के रूप में (1858-81 ईस्वी तक), 

(ii) द्वितीय चरण पुनर्स्थापना आंदोलन के रूप में 1881-90 ईसवी तक)

(iii) तथा तीसरा चरण राजनैतिक आंदोलन के रूप में (1890-95 ईस्वी तक) 

(i) प्रथम चरण (1858-81 ई0)

➧ आंदोलन का यह चरण अपनी हड़पी गयी भूमि को वापस पाने से संबंधित था अतः इसे भूमि आंदोलन कहा जाता है

➧ यह आंदोलन छोटानागपुर खास से शुरू हुआ दोयसा, खुखरा, सोनपुर और वासिया इसके प्रमुख केंद्र थे

➧ इस आंदोलन का तेजी से प्रसार होने के परिणाम स्वरुप सरकार द्वारा भुईंहरी (उरांव की जमीन) काश्त के सर्वेक्षण हेतु लोकनाथ को जिम्मेदारी प्रदान की गयी 

➧ इस सर्वेक्षण के आधार पर सरकार ने भूमि की पुनः वापसी हेतु 1869 ईस्वी में छोटानागपुर टेन्यूर्स एक्ट लागु किया इस आंदोलन में पिछले 20 वर्षों में रैयतों से छीनी गई भुईंहरी व मझियास भूमि (जमींदारों की भूमि) को वापस लौटाने का प्रावधान था। 

➧ इस क़ानून को लागू करते हुए 1869-80 तक भूमि वापसी की प्रकिया संचालित रही जिससे कई गावों के रैयतों को अपनी जमीनें वापस मिल गयीं। परंतु राजहंस (राजाओं की जमीन) कोड़कर (सदनों की जमीन) व खुंटकट्टी (मुण्डाओं की जमीन) की बंदोबस्ती का प्रावधान इस कानून में नहीं होने के कारण सरदारी लोग पूर्णत: संतुष्ट नहीं हो सके। 

(ii) द्वितीय चरण(1881-90 ईस्वी)

 आंदोलन के इस चरण का मूल उद्देश्य अपने पारंपरिक मूल्यों को फिर से स्थापित करना था अतः इससे पुनर्स्थापना आंदोलन कहा जाता है 

(iii) तीसरा चरण (1890-95 ईस्वी) 

➧ इस चरण में आंदोलन का स्वरूप राजनीतिक हो गया

 आदिवासियों ने अपनी हड़पी गयी जमीनें वापस पाने हेतु विभिन्न इसाई मिशनरियों, वकीलों आदि से बार-बार सहायता मांगी। परंतु सहायता के नाम पर इन्हें हर बार झूठा आश्वासन दिया गया। परिणामत: आदिवासी इनसे चिढ़ने लगे

➧ ब्रिटिश शासन द्वारा दिकुओं व जमींदारों का साथ देने के कारण आदिवासियों का अंग्रेजी सरकार पर भी भरोसा नहीं रहा 

➧ परिणामत: आदिवासियों ने 1892 ईस्वी मिशनरियों और ठेकेदारों को मारने का निर्णय लिया। परंतु मजबूत नेतृत्व के अभाव में वे इस कार्य में सफल नहीं हो सके

➧ बाद में बिरसा मुंडा का सफल नेतृत्व की चर्चा होने के बाद सरदारी आंदोलन का विलय बिरसा आंदोलन हमें हो गया

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