अज्ञेय : कवि के रूप में

अज्ञेय : कवि के रूप में

अज्ञेय : कवि के रूप में
अज्ञेय का पूरा राम सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन था। इनका जन्म सन् 19।। ई0 में और मृत्यु सन् 1986 ई0 में हुआ। अज्ञेयजी ने जब कविता की भूमि पर कदम रखा, एक और तो छायावाद का लाजवंती रूप था, जिसे जीवन की धूप बर्दाश्त नहीं होती थी, दूसरी ओर प्रगतिवाद की कड़ी चट्टान थी, जिस पर फल नहीं उगाए जा सकते थे और तीसरी ओर व्यक्तिवादी गीति- काव्यधारा थी, तो चौथी ओर राष्ट्रीय और सांस्कृतिक भावनाओं को उदात्त शिखरों पर प्रतिष्ठित करने का प्रयास था। इन सब काव्य धाराओं में से किसी में मध्यवर्ग के संघर्षरत मानव की संवेदनात्मक जटिलताओं को बौद्धिक संयम के साथ कलात्मक सावधानी से सृष्ट करने का प्रयास नहीं दिखाई देता है।
अज्ञेय ने इस दिशा में सफल प्रयास किया। इसलिए इनकी कविताएं शहर के मध्यवर्गों की कविताएँ हैं। अज्ञेय मुख्यतः अन्तर्मुखी कलाकार हैं, उनके जीवन का उनके साहित्य से विशेष संबंध है। क्रांतिकारी जीवन तथा जेल का अनुभव
उनके उपन्यास ‘शेखर एक जीवनी’ तथा कहानी संग्रह ‘कोठरी की बात’ की आधार प्रेरणा है। सन् 1948 में अज्ञेय का ‘हरी घास पर क्षण भर’ काव्य संकलन प्रकाशित हुआ प्रौढ़ता और उपलब्धि की दृष्टि से यह संग्रह न केवल ‘चिंता’ (1941) और ‘इत्यलम’ (1946) से बहुत आगे है बल्कि आगामी संग्रहों ‘बाबरा अहेरी’ (1954) ‘इन्द्रधनुष रौंदे हुए थे’ (1957) तथा ‘अरी ओ करुणा प्रभामय’ (1951) को देखते हुए कवि की सबसे सिद्ध कृति मानी जा सकती है। हरी घास पर क्षण भर’ संग्रह में कवि की भाष, प्रतीक, शब्द, बिंब, लय, विचार आदि संबंधी कई धारणाओं की व्यावहारिक पुष्टि हुई, जिनका आज की कविता के संदर्भ में क्रांतिकारी महत्व है।
अज्ञेय की कविताओं में व्यष्टि और समष्टि का द्वंद्व सर्वत्र देखने को मिलता है। ‘बाबरा अहेरी’ में जहाँ कवि समष्टि के प्रति दायित्व अनुभव करता है, वहीं व्यक्ति की प्रतिष्ठा में विश्वास भी व्यक्त हुआ है। कवि का व्यक्तित्व उसकी सीमा नहीं सुंदर द्वारा श्रेष्ठ तक पहुँच का साधन है। अज्ञेय के अनुसार, “उच्च कोटि का नैतिक-बोध और उच्च कोटि का सौंदर्य-बोध, कम-से-कम कृतिकारों में प्राय: साथ चल हैं। क्यों? इसलिए कि दोनों बोध मूलत: बुद्धि के व्यापार हैं, मानव का विवेक ही दोनों के मूल्यों का स्रोत है (समालोचना और नैतिकमा शीर्षक लेख से)।
व्यक्तित्व कवि के लिए रति नहीं, वह विकसित मानव है मानव को प्रतिष्ठा दे सकने योग्य हो – अन्यायों और कुरीतियों व
विरुद्ध आवाज उठा सके। वह अपने को औरों से अलग नहीं मानता,
“मैं सेतु हूँ  
किंतु शून्य से शून्यतक का सतरंगी सेतु नहीं
वह सेतु जो मानव से मानव का हाथ मिलने से बनता है।” (इन्द्रधनुष रौंदे हुए)
लेकिन इस भावना का निर्वाह कहाँ तक कवि की कृतियों से संभव हो सका है, शंकाएं उठती रहती है। व्यक्ति तथा समष्टि के बीच वैसा सामंजस्य नहीं मिलता जैसा कवि घोषित करता है। कविताओं में बराबर एक सूक्ष्म या स्पष्ट संघर्ष परिलक्षित होता है, मानो कवि– तथा समष्टि के का अंतर्मन उस विषमता के प्रति सचेत है जिसका व्यक्ति विशेषकर यदि वह एक मौलिक एवं क्रांतिकारी कलाकार है बीच बना रहना लाजिमी है। ऐसी दशा में कवि का झुकाव किधर होगा, स्पष्ट है,
“अच्छी कुंठा रहित इकाई।
सांचे ढले समाज से, अच्छा।
अपना ठाठ फकीरी,
मंगनी के सुख साज से।” (अरी आ करूणा प्रभामय)
अज्ञेय प्रयोगवाद और नयी कविता के जनकों में एक प्रमुख जनक रहे हैं। प्रथम ‘तार सप्तक’ (1943) के संपादन से वे प्रयोगवादी कवियों में अगली पंक्तियों में खड़े दिखते हैं। दूसरा सप्तक (1951) एवं तीसरा सप्तक (1951) में कई प्रयोगवादी कवियों की श्रेष्ठ कविताएं संकलित हैं। दूसरे सप्तक की भूमिका में वे लिखते हैं, ‘प्रयोग का कोई वाद नहीं है। हम वादी नहीं रहे, नहीं है। प्रयोग अपने आप में इष्ट या साक्ष्य नहीं है। ठीक इसी तरह कविता का भी कोई वाद नहीं है, कविता भी अपने आप में इष्ट या साध्य नहीं है। अत: हमें प्रयोगवादी कहना इतना ही सार्थक या निरर्थक है जितना हमें कवितावादी कहना।”
अज्ञेय की कविताओं में प्रकृति का विराट् और विविध रूप अद्भुत सौंदर्य के साथ उपस्थित हुआ। अज्ञेय के पूर्व काव्य में यह रूप सर्वाधिक निखार पर है। अज्ञेय की कविता प्रकृति के विविध रंगों और कलखों से भरी हुई एक भरी-पूरी दुनिया है। यहाँ कलय का झोंका बहता है, टेसुओं की आरती सजाकर पूरी वन-स्थली खड़ी है, पलाश के फूलों का टहटहाता लाल रंग कवि के लिये प्रणय का मार्ग प्रशस्त कर रहा है, शिरीश ने रेशम की वेणी बांध ली है, कचनार की कली खिलखिलाकर हँस. रही है, नीम के पेड़ में भी बौर आ गये हैं और बृल के रूइले फूलों पर भौरों को मदमस्त झुंड हूल हूल के आता है। इन फूलों के साथ पक्षियों का संसार भी कम वैविध्यपूर्ण और आकर्षक नहीं है। यहाँ पौरूष से मदमाता हुआ हारिल है जो अंतहीन गगन में उड़ा जा रहा है…….. वह तब तक लगातार उड़ता रहेगा जबतक कि उसकी प्रेयसी उस न मिल जाय। यदि पूर्व अज्ञेय की इन प्रकृति संबंधी कविताओं को एक जगह इकट्ठा कर दें तो लगेगा जैसे किसी
कलाकार ने अपनी कूची सं धरती के आसमान तक नयनाभिराम रंगों में रंग डाला है, जैसे चारों दिशाएं पक्षियों के कलरव से गुंजायमान हो रही हों।
प्रकृति सौंदर्य और नागर जीवन के अतिरिक्त अज्ञेय की कविताओं में प्रेम का विशेष महत्व है। अज्ञेय में प्रेम के माध्यम से व्यक्तित्व की उपलब्धि की ढेर सारी कविताएं मिल जायेंगी। ठेठ रोमेंटिकों की भांति कई बार प्रेम में छले जाने का सघन भाव भी इनकी कविताओं में देखने को मिलता है, लेकिन कहीं भी प्रेम के अनुभव को धिक्कारने का भाव नहीं है, बल्कि उल्टे उत्कट स्वीकार का भाव है। प्रेम दुनिया की किसी भी अन्य वस्तु या भाव की भांति ही परिवर्तनशील और नश्वर भी है, इसलिए वह कभी- कभी माया का छलावा लगे तो आश्चर्य नहीं, किंतु अज्ञेय इस छलावे के अनुभव को भी सच्चा मानते हैं। प्रेम स्वयं भले ही छलावा हो उसका अनुभव अवश्य ही सच्चा है जो व्यक्तित्व को नयी आभा प्रदान करता है,
‘मैं हूँ छलित, किंतु जीवन आरंभ तभी जब जाएँ छले इन्द्र तुल्य शोभने, तुषार शीतले।”
अज्ञेय की कविता में अवसाद और मृत्यु की महत्वपूर्ण भूमिका है। अज्ञेय के यहाँ आसन्न मृत्यु की निकटता का अवबोध इतना गाढ़ा है; मौत जीवन के अर्थ को ही नष्ट कर देगी, इस बात की मनोग्रस्ति इतनी अधिक है कि कवि इस प्रश्न को हल्कं, फक्कड़ ढंग से सोच ही नहीं पाता। भानभूत, चिंता और इत्यलम मौत की इसी औचक उपस्थिति के माहौल में लिखी रचनाएं हैं जहाँ मौत का प्रेक्षण विन्दु से पलटकर जीवन को संतृष्ण आँखें से देखा गया है। मौत की उपस्थिति ने जीवन की प्यास और उत्कट और तेज कर दी है, ‘उषा से पहले ही आकर जीवन दीप बुझा जाना प्रिय आ जाना।’
 गीत : भावार्थ
प्रयोगवादी काव्यधारा के अग्रणी कवि अज्ञेय रचित ‘भानदूत’ (1933) काव्य-संग्रह उनकी प्रारंभिक रचनाओं में एक है। इस संग्रह पर छायावादी कविता का प्रभाव स्पष्ट रूप से लक्षित किया जा सकता है। प्रस्तुत कविता में रात्रि का बड़ा ही सुंदर वर्णन कवि ने किय है। रात्रि घिरने पर माँझी की अधीरता को कवि ने काव्यात्मक वाणी प्रदान की है। कवि कहता है कि, हे मांझी! तुम अधिक अधीर मत हो शाम होते ही चारों और रात ने अपना काला चादर बिछा दिया है, अर्थात् अंधेरा चहुँ ओर फैल गया है। आकाश से अंजन रूपी अंधकार बरर रहा है जिससे नदी का किनारा भी नहीं दिखता। कवि नाविक को मुग्धा नायिका के पाँवों में बंधे घुघरूओं की आवाज सुनने का आग्रह क रहा है। कवि नाविक से धैर्यपूर्वक परीक्षा देने का आग्रह कर रहा है।
स्पष्ट है कि मांझी के सम्मुख उसका अपना कर्म उसे कर्मरत रहने को बाध्य कर रहा है, जबकि रात्रि के घने अंधकार में समी मुग्ध वधुओं के चरणों के धुंघरूओं के गंभीर शब्द लिय उसकी ओर आता है। ऐसी द्विविधात्मक स्थिति में पड़े मांझी को थोड़ी देर रूर साहसपूर्वक अपनी परीक्षा करते हुए ही कोई निर्णय लेना चाहिए। निश्चय ही मांझी जो कर्मवीर है, उसे अपना कर्म छोड़ कर प्रेमान्मुख नह होना चाहिए क्योंकि मनुष्य का कर्म ही प्रधान होता है, प्रणय-भावना उसके बाद आनी चाहिए।
अज्ञेय अपनी कविताओं में भाषा के प्रति अत्यंत सचेत रहते हैं। ‘गीत’ कविता भी इसका एक सुंदर उदाहरण है। ‘गीत’ की तर उनकी कई प्रसिद्ध कविताओं में भाषा और अनुभूति के अद्वैत को व्याख्यायित करने का यत्न हुआ है। प्रसिद्ध आलोचक रामस्वरूप चतुर्वे के अनुसार ”यह सृजन-क्रिया को आधुनिक सचंतन भाव से समझने का उपक्रम है। ऐसी कविता की मूल वस्तु सर्जन और भाषा ८ अंतर-संबंध है।” (प्रसाद-निराला- अज्ञेय-रामस्वरूप चतुर्वेदी, लोकभारती प्रकाशन) अज्ञेय ने एक जगह लिखा है, “मैं उन व्यक्तियों में हूँ – और ऐसे व्यक्तियों की संख्या शायद दिन-प्रतिदिन घटती जा रही है, जो भाषा का सम्मान करते हैं और अच्छी भाषा को अपने अ में एक सिद्धि मानते हैं।” (आत्मनेपद से) यहाँ अच्छी भाषा’ से अज्ञेय का अर्थ अलंकृति या चमकदार भाषा से नहीं है, वरन् ‘अच्छी भाष् की अच्छाई इसी में है कि वह भाषा और अनुभूति के अद्वैत को स्थापित करे। प्रस्तुत कविता ‘गीत’ में अज्ञेय की भाषा संबंधी अवधार को व्यावहारिक रूप दिया गया है।
 अपना गान : कविता का भाव-सौंदर्य
‘अपना गान’ कविता अज्ञेय की महत्वपूर्ण रचना इस दृष्टि से है कि इसमें अज्ञेय की अपनी काव्य-दृष्टि का पता चलता है। ‘अर गान’ और कुछ नहीं उनकी अपनी कविताएं हैं। कवि अपने गान (कविता) को जीवन का इतिहास मानता है। यह कविता कवि के ‘भानद काव्य संग्रह की अच्छी कविताओं में एक है। ‘भग्नदूत’ संग्रह में प्रकृति सौंदर्य का बड़ा ही सूक्ष्म विश्लेषण देखने को मिलता है। अज्ञेय प्रकृति संबंधी कविताएं न सिर्फ मात्रा की दृष्टि से विपुल है बल्कि गुणवत्ता की दृष्टि से भी उतनी ही श्रेष्ठ है। छायावाद के अवसान बाद प्रकृति के प्रति जो नयी सौंदर्य चेतना, एक नया राग संबंध विकसित होता है, उसकी प्रामाणिक अभिव्यक्ति अज्ञेय की इस कविता हुई है। कवि जीवन के आरंभ से अंत तक प्रकृति के प्रति उनका लगाव बना रहता है और इस लगाव के खरेपन को उनकी कविताएं बार- प्रमाणित करती रहती है।
कवि की काव्य संवेदना उषा के अनुराग से भरी हुई हैं। दिन भर की शांति और शाम से लेकर रात तक की उदभ्रांति सभी संयोग उनकी कविता में निहित है। कवि ने इस कविता में प्रकृति के सौंदर्य में अपना काव्य सौंदर्य तलाशने की चेष्टा की है। इस गीत तारों की शीतल झिलमिलाहट और आकाश गंगा का शांत प्रवाह भी है। कभी यह गीत मेघों की गर्जना से भर उठता है तो कभी फूल रस से सराबोर हो जाता है। उस फूल पर भौरें मंडराते हैं, कंटीली कांटों से वे भौरें घायल होते हैं, उसी तरह अज्ञेय की कविता कहीं ।
कवि की अभिव्यक्ति में स्वर्ण पराग भी है और सुगंधित पवन भी।  नदी के जल में तरंगित होनेवाली शृंखलाबद्ध उर्मियों का पागल नृत्य भी है और ओस की बूंदों का उल्लास भी। उसमें विरहिणी चकई रूदन और पस्मृताओं की कोमल तान भी है। इसी में अवहेलनाओं की टीस और प्रिय का आह्वान भी है। कवि के गान में करूणाशील नेत्रों की याचना भी है तो रिक्त हाथों से किए गए दान भी हैं। कवि ने आज तक अपनी पूर्ण अनुभूति  में भी सूनेपन का अहसास किया है। उसने शून्य में स्वप्नों के निर्माण का जोखिम उठाया है। कवि अपनी काव्य-चेतना के समक्ष खड़ी संवेदनशील मनुष्य की संवेदना पर प्रहार करने वाली तमाम विद्रोही शक्तियों के क्रूर प्रहार को भी अपने गान का प्रेरक-तत्व मानता है क्योंकि अगर क्रूर प्रहार हुआ है तो उसे स्नेह-सुधा का अपरिमित दान भी मिला है। कवि इसे जीवन का इतिहास कहे या केवल अपना गीत, यह तय नहीं कर पा रहा है।
‘अपना गान’ कविता छायावाद की याद तो दिलाती है किंतु अज्ञेय की प्रकृति परक कविता और छायावाद की प्रकृति परक कविता में कुछ मूलभूत फर्क है। छायावादी कविता जहाँ प्रबल भावाता है, वहीं प्रयोगवादी कविता विचार-तत्व से सबल है। वह भाव और विचार के तनाव विंदु पर रची जाती है। इसके अतिरिक्त नयी कविता आत्मसजगता की कविता है। यह महज संयोग की बात नहीं है कि नयी कविता के अधिकांश कवियों ने अपनी रचना-प्रक्रिया की चर्चा किसी-न-किसी रूप में अवश्य की है। ‘अपना गान’ कविता में भी कवि ने अपनी कविता के विषय-वस्तु को रेखांकित किया है।
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4.4.3 आहवान : काव्य-सार
‘आह्वान’ कविता अज्ञेय रचित जागरण गीत है। इस तरह की कविता अज्ञेय ने कम लिखी है। सन् 1933 ई0 में प्रकाशित ‘भग्नदूत’ काव्य संग्रह में संकलित इस कविता में आततायी कदाचित ब्रिटिश राज को ही कहा गया होगा। क्योंकि उस समय ब्रिटिश राज की निरंकुशता अपने चरम पर थी। किंतु कुछ आलोचकों ने इस कविता को भी अस्तित्ववादी कविता की संज्ञा दी है। इन आलोचकों के अनुसार प्रस्तुत रचना में अज्ञेय का अस्तित्ववादी दर्शन के परिप्रेक्ष्य में एक आत्मसंवाद उपस्थित हुआ है। यहाँ संबोध्य ‘आततायी’ दरअसल कवि के भीतर बैठा हुआ उसा परम शत्रु कुंठाओं और वर्जनाओं का पुंज है जो हमेशा ही उसके सर्जनात्मक पक्ष को चुनौती देता रहा है। संभव है, आलोचक की यह मान्यता सही हो किंतु समय के परिप्रेक्ष्य में वह आततायी अंग्रेजी सत्त ही परिलक्षित होता है।
कवि आततायी को रूकने का आदेश देता हुआ कहता है कि मेरे क्रुद्ध वीर्य की पुकार आज तुम सुन लो। तुमने हमारी अवहेलना बहुत कर ली। हमारी अवहेलना रागातीत, दर्फस्फीत, अतल और अतुलनीय हैं वह ‘आततायी’ कवि के अंदर की कुंठा हो या बाहरी वह उसे थोड़ी देर के लिए ही सही किंतु ठहर जाने को चुनौती देता है और उसे अपने शक्तिशाली पौरूष का वार सहने को कहता है। कवि अपनी पहचान को खोजता हुआ, रण के लिए अपने को तैयार करता हुआ आततायी को आवाज दे रहा है। कवि के अनुसार आज दीन, दुखी, हारा हुआ, पददलित सभी जग गए हैं। वे अपना स्वर्णिम अतीत को याद कर क्रुद्ध साँप सा फन उठाये, खम ठोककर खड़े हो गए हैं। कवि कहता है कि आज मेरे ‘मैं’ का विस्तार ‘हम’ में हो गया। मैंने अपने झूठे अहंकार को छोड़ दिया है। आज मेरी बाहों में अपार ताकत आ गयी है,
आज मेरे हृदय में अकूत शक्ति का संचार हो रहा है क्योंकि आज मेरे साथ मेरा सुनहला अतीत है। आज मेरे आगे आदिहीन और अंतहीन पथ है जिस पर मेरे दृढ़ पाँव पड़े हुए हैं। भविष्य का एक अजन्मा प्रवाह और भावी नवयुग के ज्वलंत प्राण-दाह से प्रबल प्रतापवान मैं अपने तेज की चिंगारी छोड़ता हूँ। उन चिंगारियों के आसपास क्षार और धूल मिश्रित हो रही है मगर दूसरे शब्दों में कहें तो वह धूल तेरे ही अहं की धूल है और मेरा पथ तेरे ही ध्वस्त गौरव का पथ है। तेरा अतीत (आततायी) काले पापों में प्रवाहमान रहा है जबकि अग्नि की लाल लपटें मेरे भावी गौरव के रथ जैसा है जो लगातार गतिमान है। काव्य सौंदर्य की दृष्टि से कवि ने इस कविता में संस्कृतनिष्ठ, परिष्कृत, परिमार्जित एवं रूचिपूर्ण भाषा का प्रयोग किया है। कविता में कई नये उपमानों का प्रयोग महत्वपूर्ण है।

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