दुर्वादल : काव्य सौंदर्य

दुर्वादल : काव्य सौंदर्य
सन् 1947 में नई कविता की पहली आहट की तरह अज्ञेय का कविता संग्रह ‘हरी घास पर क्षण भर’ प्रकाशित हुआ। संग्रह के फ्लैप की यह टिप्पणी गौरतलब है, ‘अज्ञेय के इस नये संग्रह में एक नयी ताजगी है। अनुभूति की कोमलता के साथ बुद्धि की ललकार भी।’
‘दूर्वादल’ कविता इसी संग्रह की एक अत्यंत महत्वपूर्ण कविता है। प्रकृति के आंतरिक और वाह्य स्वरूप को रेखांकित करने वाली इस कविता में कवि ने पर्वतीय प्रदेश का सुंदर और मनोरम वर्णन किया हैं कवि पर्वतीय प्रदेश की यात्रा पर है। कवि कहता है कि पर्वत प्रदेश के नम्र चीड़वन के बीच पहाड़ को ऊँचाई तक पहुँचने वाली सड़कें ऐसी लग रही हैं जैसे लोगों के भीतर का उमंग उँचा चढ़ रहा हैं दूसरी तरफ पहाड़ का तराई में विछी नदी दर्द की रेखा-सी जान पड़ती है। घने झुरमुट पेड़ों पर बने घोसले में पक्षी के छोटे-छोटे बच्चे मौन हैं। इस अद्भुत प्राकृतिक सौंदर्य को कवि भर मन निहारता है।
अपने मन को यहाँ फिर लौट कर आने का दिलासा देता है। कवि कहता है कि मैं यहाँ दुबारा जरूर आऊँगा, भले ही बरस, दिन या अनगिनत युग ही क्यों न लग जाय। क्षितिज पलक खोलकर भर आँख कवि को देख रहा है और दामिनी तमक कर कवि को बोलती है कि, यह सब तुम्हें क्या याद रहेगा?
इस कविता की महत्ता को रेखांकित करते हुए हिंदी के वरिष्ठ आलोचक परमानंद श्रीवास्तव लिखते हैं कि यह कविता शुरू होती है ‘पार्श्व की भंगिमा से। नई समीक्षा का ‘जेस्चर’ अपर्याप्त है, इस अर्थव्याप्ति के संकेत के लिए। कवि ने प्रसिद्ध अवयव के अतिरिक्त ध्वनित होनेवाले लावण्य के लिए इतना सारा ढाँचा तैयार किया है। पहली ही पंक्ति का वाक्यगठन सीधा नहीं है- प्रस्तुत-अप्रस्तुत से अधिक विशेष ‘नम्र’ महत्वपूर्ण है। ‘पार्श्व गिरि का नम्र । चीड़ों में / डगर चढ़ती / उमंगों सी। क्या व्यंग्य है – नम्र गिरि का पार्श्व, जिसके बरअक्स दूसरा दूसरा दृश्यबिंब है – ‘डगर चढ़ती उमंगों-सी! चढ़ाई उर्ध्व की ओर’! फिर एक निम्माभिमुख बिंब – दूर नीचे बहती नदी! कैसी क्या क्षीणतन! दर्द की रेखा जैसी बिछी । नदी के लिए अप्रस्तुत – दर्द की रेखा।
कविता में मौन नीड़ों में झांकते विहग – शिशु – पर्यटक प्रेमी-युगल के स्नेह के लिए उत्सुक। पर पर्यटक के पास इतना समय कहाँ होता है? आँख भर देख लिया यही बहुत होता है। प्रेमियों का भविष्य भी तो हो सकते हैं गर्म कोटर से झांकते विहग शिशु। पर्यटक यही कह सकता है, फिर मिलेंगे। अगली बार! अगले सफर में। जो कभी संभव नहीं होता। क्योंकि काल से अधिक क्षण या मूहूर्त महत्वपूर्ण है। यों दुख पर्यटक को भी होता है और उस जगह का भी जिसे वह छोड़कर आगे की ओर बढ़ जाता है। संबंधों की दुनिया में स्टेशनों का भाग्य कौन जानता है। कहाँ उतरेंगे पहाड़ से चले पर्यटक। किस होटल में, किस कमरे में रूकेंगे। नई कविता में भी रूप का आग्रह कम नहीं है। ‘दूर्वादल’ कविता में भी शब्द, भाषा, बिंब, विचार के जटिल संबंधों को समझा जा सकता है।
यह दीप : भाव सौंदर्य
अज्ञेय व्यक्तिवादी काव्य-चेतना के प्रतिनिधि कवि माने जाते हैं। सार्च के अस्तित्ववाद का सीधा प्रभाव भी कई आलोचकों ने खुले मन से स्वीकारा है। अहं, कुंठा, त्रास तथा अकेलेपन की पीड़ा भी इनकी कविताओं में मुखर होकर आयी है। अज्ञेय की कविताओं में व्यक्ति-चेतना और समष्टि चेतना विभिन्न प्रतीकों के माध्यम से अभिव्यक्त होती है, यथा दीप, सागर, आह्वान, अपना गान तथा मछली आदि कविता।
‘यह दीप’ कवि की दर्शन आधारित कविता है। इसमें कवि ने दीप के माध्यम से व्यक्ति-चेतना का समष्टि-चेतना में घुलमिल जाने की दार्शनिक और काव्यात्मक अभिव्यक्ति की है। अज्ञेय के मर्मज्ञ विद्वान डा0 रामस्वरूप चतुर्वेदी के अनुसार, “यह दीप कविता अज्ञेय के पूरे सामाजिक चिंतन की सर्जनात्मक अभिव्यक्ति है। और कवि के दर्शन को प्रतिफलित करती है।” दीप भारतीय साहित्य परंपरा में आत्म-चेतना के प्रतीक स्वरूप प्राचीन काल से वर्णित होता रहा हैं बौद्ध-दर्शन में ‘आप दीपो भव’ मनुष्य को अपनी चेतना के विकास द्वारा स्वयं को प्रकाशित करने का निर्देश देता है। घुप्प अंधेरे महासागर में संतरण करती ज्योति के पालवाल नौका की तरह दीप जो अपने लघु स्वरूप को अपनी सीमा में ही निरंतन तमस को चुनौती देता रहता है। दीप स्नेह के कारण प्रदीप्त होता है किंतु उसका स्नेह-भरा होना उसके गर्व या मद का भी आधार है। वह स्नेह आपूरित होकर अकेले ही स्वयं को संपूर्ण मान लेता है यही उसके गर्व का कारण होता है। आत्मकेंद्रित मनुष्य की भी यही गति-मति है। कविवर अज्ञेय व्यष्टि की इस द्वयत्ता को समष्टि की सामूहिकता
को समर्पित कर देना व्यष्टि का परम लक्ष्य मानते हैं। उनका दीप कई रूपों में प्रस्तुत कविता में उपस्थित हुआ है। कवि उसे जन, पनडुब्बा, समिधा, अद्वितीय, मधु, गोरस, अंकुर, प्रकृत, विश्वास, पीड़ा आदि नाम से संबोधित करता है।
कवि दीप को जन संबोधित करते हुए कहते हैं कि दीप उस जन के सदृश है जिसके कंठ से जीवन-संगीत मुखरित होता है, जिसे कोई दूसरा गा नहीं सकता है। वह पनडुब्बा है जो जल के तल से सच्चे मोती चुनना जानता है, वह स्वयं समिधा है जिससे सुलगती हुई आग विरला ही सुलगा सकता है। कवि उसे मधु, गोरस और अंकुर बताकर उसकी सरसता और संभवनाशील भविष्य को उद्घाटित करता है। कवि दीप को ऐसे विश्वास का प्रतीक मानता है जो अपनी लघुता के कारण कहीं भी कुंठाग्रस्त नहीं होता बल्कि अंधेरे के महासागर में भी दीप की लौ में कभी कंपन नहीं आता। वह ऐसी पीड़ा का प्रतीक है जिसकी गहराई वह स्वयं ही मापता है। उसके चारों ओर कुत्सा, अपभान और अवज्ञा का धुंधुआता हुआ कड़वा तम फैला हुआ है, फि भी दीप हमेशा जाग्रत और दुखित बना रहता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि उसके भीतर चिर अखंड अपनाया यानी स्नेह-सिक्त है। उसकी यही प्रबुद्धता उसे सबके बीच श्रद्धामय बनाए रखती है और श्रद्धालुओं की भक्ति विषय बन जाता है।
इतिहास की हवा : प्रतिपाद्य
‘इन्द्रधनुष रौंदे हुए’ अज्ञेय की महत्वपूर्ण काव्य रचना है। इसी काव्य संग्रह में संकलित कविता ‘इतिहास की हवा’ कवि के इतिवृत्तात्मक कविता है। इस कविता के माध्यम से कवि ने सामाजिक विषमता और भेद-दृष्टि पर करारा व्यंग्य किया है। कवि ने इस पौराणिक मिथ को नया अर्थ प्रदान करने की चेष्टा की है।
कविता के आरंभ में कवि को झरोखे से आती हवा से इतिहास के पन्ने पलट जाते हैं। वह इतिहास के गर्भ में गोते लगाता है। छिटकी हुई चांदनी में चारों दिशाओं से चक़वाल में सिमटकर जैसे एक झरोखे से झरती हुई स्फटिक की तरह जम गई है और इस जमी हुई चांदी में जैसे ताजमहल झिलमिला रहा है। और उसके नीचे जैसे कि उजाड़ क्षेत्र में बने हुए झोपड़ों के छप्पर उभर रहे हैं। उनके घरों में उपरी जैसे किनारे आँखों को कोरों को चीर जाते हैं। छप्पर की छत पर चेतना और संवेदन विहीनता की प्रतीक, भैंस पागुर कर रही है। वह इतिहास के पन्नों पर पगुरा रही है। यहाँ यह भी ध्यान देने की बात है कि भैंस की आँखों में इतिहास के और पने दिखायी दे रहे हैं। साथ ही इतिहास के पन्नों को उड़ा देनेवाली बहकी हवाओं के अन्य झोंके भी हैं। अभावपूर्ण झोपड़ियों से न जाने कितने-कितने एकलव्य झांक रहा है। कवि को लगता है कि भैंसे की ये आँखें मिट्टी के बने द्रोण की आँखें हैं।
आगे कवि सामंती दमन को रेखांकित करते हुए लिखते हैं कि चांदनी में झिलमिलाते ताजमहल को देखना तो अच्छा लगता है लेकिन यह सोचना अवसाद से भर देता है कि ताजमहल बनाने वाले शिल्पियों के हाथ काट दिए गए थे। जिस तरह द्रोणाचार्य ने एकलव्य का अंगूठा हो मांग लिया था। यह द्रोणाचार्य पुराना गुरु था, जो इर्ष्या और द्वेष से भरा था। जिस प्रकार भैंस चेतनहीनता का प्रतीक है उसी तरह द्रोण को मट्टो को मूर्ति संवेदनहीन उस बौद्धिक वर्ग का प्रतीक है जो उपेक्षित किंतु तेजस्वी युवा पीढ़ी के भीतर छुपी तमाम संभावनाओं का शोषण अपने स्वार्थ के लिए करने को तैयार है। अर्जुन की राह कंटकविहीन करने के लिए ही द्रोणाचार्य ने एकलव्य के अंगूठे कटवा लिये थे।
कवि का कहना है कि नया द्रोण पुराने द्रोण से अधिक शातिर और चालाक है। प्रारंभ में वह अपने शिष्यों को उत्साहित करता हुआ कहता है “वीर पुत्र, उठो, धनुष उठाओ और धरती को विद्ध करो। बंजर धरती को चीर कर अमृत रूपी जल का सांता बहाओ। दूसरी तरफ वह द्रोण चुपके से एकलव्य के नये कुएं में भांग डाल देता है। आज का एकलव्य भी अब सचेत और सावधान हो गया है। संभव है अंगूठा मांगने पर वह अंगूठा देने से इंकार कर जाय। वह गुरु से कहता है कि, धन्यवाद गुरुदेव; आपने हमसे अंगूठा न मांगकर अच्छा किया, क्योंकि हुम पितरों को क्या कहते?
नया एकलव्य अपने गुरु से कहता है कि आप मेरी देह छोड़ दें, मैं अपना तन नहीं मन आपको समर्पित कर देता हूँ। हमें धन्य-धन्य से पूरित कर दें। आजकल आत्मा तो किसी के पास होती नहीं है इसलिए हमें सिर्फ सम्पत्ति की चिंता है। हम शिष्य आपका दिग्बोध समाप्त कर देंगे, आप दिग्विजय कीजिए। कवि ने व्यंग्य करते हुए लिखा है कि अनगिनत एकलव्यों का उद्देश्य समझकर द्रोणाचार्य अपनी आँखों में भाँग का मद भरकर अपना हाथ झोपड़ियों से ऊपर उठाते हैं। और देखते-देखते सारे एकलव्य भैंस की आँखों (द्रोण को आँखों) में समा जाते हैं।
एक सन्नाटा बुनता हूँ : भावार्थ
‘एक सन्नाटा बुनता हूँ’ प्रयोगवादी कवि अज्ञेय को आकार में छोटी किंतु प्रभाव में व्यापक कविता है। प्रस्तुत कविता कुछ क्षणों का, लघु प्रसंगों का, लघु चित्रों का चित्रण नहीं करतीं, बल्कि कुछ संगत और असंगत बिंबों के माध्यम से क्षणों की परिधि में उफनते जीवन की संश्लिष्टता को मूर्तिमान कर देती हैं।
कवि मौन होकर सन्नाटा बुनने में तल्लीन है। वह सन्नाटा बुनने के लिए सर्वप्रथम ताना और बाना को अनिवार्य समझता है। इसलिए वह स्वर तार चुनता है। इसके बाद वह सोचता है कि मजबूत ताना की प्राप्ति उसे कहाँ से हो सकती है? वह सभी से पूछता है कि कोई है जो उसके पास पूर्व से उपलव्य ताने को बदल देगा, उसे रसों में भिंगोमा उसे रंजित करेगा क्योंकि वह ताना तभी खिल सकेगा। इसी क्रम में वह एक गाढ़े तार को जैसे ही उठाता है तब स्वयं को वह मरण से बंधा पाता है। लेकिन किसी और तार के सहारे काल तक से भिड़ने की हिम्मत जुटाता है।
निस्संदेह सन्नाटे का जाल तैयार हो जाता है किंतु अपने भीतर का कुछ कवि उससे घिरता हुआ महसूस होता है फिर भी कवि यकीन दिलाने के स्वर में कहता है कि कवि वह नहीं है क्योंकि जब तक अपने को पहचानता है तब तक वह स्वयं को जाल के सन्नाटे से बाहर पाता है। कवि को कुछ बंधता हुआ-सा अनुभव होता है जो कि वह स्वयं नहीं है। जो है वह बनने वाला है, यानी करपल जिसका कहा वह अपने अंदर ही सुनता है।
रचना प्रक्रिया के संदर्भ में यह भी स्पष्ट है कि कवि की क्रमशः संकुचित होती सार्थकता की केंचुल फाड़कर कवि उसमें नया, अधिक व्यापक तथा अधिक सारगर्भित अर्थ भरना चाहता है और ऐसा वह अपने अंतर की गहरी मांग से स्पंदित होकर करता है न कि अहं के वशीभूत होकर। क्योंकि व्यक्ति सत्य को व्यापक सत्य बनाने का सनातन उत्तरदायित्व निबाहने के लिए वह पूर्व से ही दृढ़ प्रतिज्ञ है। प्रस्तुत कविता में शब्द-संस्कार के प्रति जहाँ कवि की सजगता प्रकट होती है, वहीं वह अपनी शब्द साधना के अनन्तर अपने मन में सहज उठने वाले प्रश्नों को भी रेखांकित करता है। इससे कवि के द्वारा की जानेवाली शब्द साधना की निरंतरता प्रकट होती है जो व्यक्ति सत्य को व्यापक सत्य बनाने का सनातन उत्तरदायित्व निभाने के लिए जारी है।
 मैं वहाँ हूँ : कथ्य एवं भाव
‘हरी घास पर क्षण भर’ काव्य-संग्रह अज्ञेय का ऐसा संकलन है जिसमें सामाजिक सरोकार की कई कविताएँ हैं। इन्हीं कविताओं है, ‘मैं वहाँ हूँ’। इस कविता पर प्रगतिवाद काव्य-प्रवृत्ति का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है। मूल रूप से कवि कहता है कि जहाँ कहीं कष्ट और अभाव है, मैं वहाँ-वहाँ पहुँच जाता हूँ। इस कविता में कवि स्वयं को एक सेतु मानता है जो स्वस्थ और सहज समाजोन्मुखता को प्रश्रय देता है। गंभीर आलोचक डा0 रमेशचंद्र शाह के अनुसार, “इसमें कवि स्वयं को ‘सेतु’ की भूमिका में देखता है वह सेतु जो मानव से मानव का हाथ मिलाने से बनता है, जो हृदय को हृदय से, कल्पना से कल्पना को, विवेक को विवेक से मिलाता है।”
कवि अपने को पलायनवादी न मानते हुए साफ लहजे में कहता है कि मैं भागने वाला नहीं हूँ। मैं वर्तमान और भूत दोनों को मिलने वाला सेतु हूँ। अपने होने और संतु के रूप में होन का पूरा-पूरा अहसास कवि को है। कवि श्रमिकों के श्रम-साधना में अपने को तलाशत है। वह कहता है कि जो मिट्टी तोड़ता है, महलों को बनाता है, मैं उसकी साधना हूँ। जो मिट्टी तोड़ता है, मड़िया में रहता है, बर बनाता है, उसकी मैं आस्था हूँ। वह ऐसे सभी लोगों की व्यथा को करीब से पहचानता है जो अर्थ (पैसा) के दवाब में हैं। जो कारखानों में कम करता है, जो हवाई जहाज उड़ाता है, जो पानी में उतरकर मोती निकालने का काम करता है, जो सुबह से शाम तक कलम घिसता है. उस सब की मैं व्यथा हूँ।
इस सब के अतिरिक्त जो कचड़ा ढोता है, जो बेघर है, गदहे हाँकता है, कीचड़ में काम करता है, जो चूड़ी बनाती-बचती है, जो कपड़े धोती है, जो रद्दी बटोरता है, बीड़ी बनाता है, ठेला चलाता है, बर्तन मांजता है, रूई धुनता है, रिक्शा खींचता है, जो श्रप करता हुआ जिंदगी को चुनौती देते हुए जीता चला जाता है, ऐसे पीड़ित किंतु दुर्जेय श्रमिक, शिल्पी की मैं व्यथा-कथा हूँ। आगे कवि कहता है कि मैं वैसी सब जगह हूँ जहाँ मानवता कराह रही हो। कवि यथा स्थितिवादी नहीं है। वह कहता है कि मैंने जो कुछ है, उस सब को स्वीकार नहीं किया है। अगर मैं आस्था हूँ तो निरंतर उठते रहने की शक्ति भी हूँ; अगर व्यथा हूँ तो मुक्ति को सांस भी हूँ; मैं अगर गाथा हूँ तो मानव-जाति का अलिखित इतिहास भी हूँ, मैं अगर साधना हूँ तो शिथिल और शांत न हो जाने का निश्चय भी हूँ। मैं विश्राम नहीं संघर्ष हूँ। मैं परिवर्तन का आकांक्षी हूँ, मैं कर्म निरंतता में विश्वास करता हूँ, इसमें मुझे संयम या धैर्य नहीं है।
कवि घृणा से घृणा करता है क्योंकि वह अपने को डरपोक नहीं मानता। वह अपने को अभय, भक्ति और जयी मानता है।
अज्ञेय गद्य में काव्य रचते हैं। कवि के अनुसार कविता के लिए गद्य की अपनी सामान्य लय से काम चलता है, जहाँ पहुँच कर गद्य और कविता के बीच दिखाई पड़ने वाला अंतर कम-से-कम रह जाता है, जब कि गुणात्मक अंतर अत्यंत प्रभावी हो जाता है। ‘मैं वहाँ हूँ’ इसी तरह की गद्यात्मक कविता है। भाषा का रूप स्वभावतः बोलचाल का है, जिसकी लय कवि के अभीष्ट पाठक श्रोता की अत्यंत परिचित है। भाषा के इस गहरे रिश्ते से कवि सब को बांधना चाहता है। कवि का आग्रह रहा है कि रचना की भाषा बोलचाल से चूर न हो, बोलचाल ही हो। प्रस्तुत कविता कवि के इस आग्रह का प्रमाण है।

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