‘अति सूथो सनेह को मारग है, मो अँसवानिहि लै बरसौ कविता का सारांश लिखें।

‘अति सूथो सनेह को मारग है, मो अँसवानिहि लै बरसौ कविता का सारांश लिखें।

उत्तर :- पाठयपुस्तक में उन्मुक्त प्रेम के स्वच्छंद मार्ग पर चलने वाले महान प्रेमी धनानंद (धन आनंद) के दो सवैये पाठयपुस्तक में संकलित है। प्रथमा. सवैया में प्रेम के सीधे, सरल और निश्छल मार्ग की बात कही गई है और दूसरे सवैया में मेघ की अन्योक्ति के द्वारा विरह-वेदना से भरे हृदय की तड़प को अत्यंत कलात्मक ढंग से अभिव्यक्त किया गया है।
धनानंद कहते हैं कि कौन कहता है कि प्रेम का मार्ग अत्यंत कठिन होता है। प्रेम का मार्ग तो अत्यंत सीधा, सरल और निश्छल होता है। यहाँ चतुराई के लिए कोई स्थान नहीं होता। हृदय से सीधे लोग ही प्रेम कर सकते हैं, सांसारिक और चतुर लोग नहीं । यहाँ तनिक भी चतुराई का टेढ़ापन नहीं चलता। यहाँ सच्चे हृदय का चलता है। जो अपने अहंकार का त्याग कर देता है, वही प्रेम कर सकता है। कपटी लोग प्रेम नहीं कर सकते। प्रेम शंकामुक्ति की अवस्था है। शंकालु हृदय प्रेम नहीं करा सकता। धन आनंद कहते हैं कि प्रेम में ऐकांतिकता होती है। ‘सुजान’ को उपालंभ देता हुआ कवि कहता है कि आपने कौन-सी विद्या पढ़ी है कि आसानी से चित्त का हरण कर लेते हैं, पर दर्शन देने में कोताही करते हैं। लेने के लिए तो बहुत कुछ (मन, एक माप) ले लेते हैं, पर देने के नाम पर कुछ भी नहीं (छटाँक, एक मान)!
दुसरे सवैया में मेघ की अन्योक्ति के माध्यम से घनानंद ने अपनी विरह-वेदना की अभिव्यक्ति की है। कवि कहता है-हे मेघ, तुमने दूसरों के लिए ही देह धारण की है, अपना यथार्थ स्वरूप दिखलाओ, यानी अपनी वर्षा से मुझे तृप्त करो। अपनी सज्जनता का परिचय देते हुए अपने अमृतरूपी जल से मुझे परितृप्त करो, मुझे रससिक्त करो। हे जल देनेवाले और उसके माध्यम से जीवन प्रदान करनेवाले मेघ, मैं वेदना से तडप रहा हूँ, मेरे हृदय की वेदना को अपने शीतल स्पर्श से दूर करो। कभी तो उस ‘विश्वासी’ (व्यंग्य और उपालंभ से पूर्ण शब्द, सुजान के लिए प्रयुक्त शब्द) के आँगन में मेरे आँसुओं को (मुझसे लेकर) बरसाओ कि उन्हें मेरी याद आए और वे मेरी सुध ले सकें।

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