आपके विचार में आधुनिक भारतीय समाज की शिक्षा के क्या उद्देश्य व लक्ष्य होने चाहिए ?
आपके विचार में आधुनिक भारतीय समाज की शिक्षा के क्या उद्देश्य व लक्ष्य होने चाहिए ?
उत्तर– आधुनिक भारतीय समाज की शिक्षा के उद्देश्य—
(1) अन्तर्राष्ट्रीय व विश्व बन्धुत्व में बाधक तत्त्वों की समाप्ति शिक्षा द्वारा बालकों के मन मस्तिष्क से उन प्रवृत्तियों को आमूलचूल नष्ट करने की आवश्यकता है जो अन्तर्राष्ट्रीय एकता, विश्व बन्धुत्व और वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना का पोषण व संवर्धन करना ।
(2) आज विश्व के समस्त राष्ट्रों में वैज्ञानिक प्रवृत्ति की होड़ लगी है। भारत इस होड़ में सम्मिलित होना चाहता है तो यह जरूरी है कि वह इस होड़ में सफल हो । भारत इस होड़ में तभी खड़ा रह सकता है जब उसके नागरिकों में वैज्ञानिक चिन्तन व वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास हो ।
(3) कार्यकुशलता में वृद्धि – आज भारत के नागरिकों में कार्यकुशलता का अपेक्षित अभाव सर्वत्र दिखाई दे रहा है। कार्यकुशलता के बिना विश्व की स्पर्द्धा में भारतीय टिक नहीं सकेंगे और भारत की स्थिति डाँवाडोल हो जायेगी। भारत गुणात्मक उत्पादन के अभाव में व्यावसायिक स्पर्द्धा में कार्यकुशलता की दृष्टि से निचले स्तर पर आकर आर्थिक संकट से जूझेगा ।
(4) शान्ति के विकास के लिए शिक्षा – शिक्षा का वर्तमान अशान्त विश्व के संदर्भ में शान्ति के लिए शिक्षा, शिक्षा के उद्देश्यों की दृष्टि से सर्वोच्च स्थान रखती है। शांति होगी तो विकास होगा, मनुष्य का जीवन सुखपूर्ण होगा। हर क्षेत्र में मानवता व्याप्त होगी और मनुष्य सुखी होगा। भेदभाव व हिंसक प्रतिद्वन्द्विता से विश्व मुक्त होगा।
(5) भारतीय संस्कृति को आत्मसात करने की क्षमता का विकास – भारतीय संस्कृति अपने मूलरूप में सदैव वसुधैव कुटुम्बकम् को जीवन का प्रमुख तत्त्व मानती है। ऋषियों व महर्षियों के महानतम प्रयास से उद्भूत मानव कल्याण की भावना से आप्लावित होकर सर्वजनहिताय सर्वजन सुखाय के माध्यम से व्यावहारिक स्तर पर भारतीय संस्कृति केवल मानव कल्याण ही नहीं अपितु विश्व के समस्त प्राणियों, वनस्पतियों, वनों आदि का पोषण और हित को ही प्राथमिकता देती है। भारतीय संस्कृति को जीवन शैली के रूप में आत्मसात करना शिक्षा के महत्त्वपूर्ण उद्देश्य के रूप में माना जाना ही श्रेयस्कर है।
(6) कार्य निष्ठा का विकास – वैश्विक प्रतिस्पर्द्धा में बने रहकर ऊपरी स्तर पर रहना किसी भी देश की शिक्षा का उद्देश्य हो सकता है। भारत भी उससे अछूता नहीं है। आज भारत की अधिकांश पीढ़ी परिश्रम और निष्ठा के अभाव में मात खा रही है। जिस तरह अल्प परिश्रम या बिना परिश्रम के अधिकाधिक लाभ पाना चाहते हैं। यह बात किसी से छिपी हुई नहीं है । परिणामतः सामाजिक वैश्वीकरण नकारात्मक दृष्टि से प्रभावित हो रहा है।
(7) विश्व नागरिकता का विकास — आज देशों की संकीर्ण सीमाएँ अप्रत्यक्ष रूप से सिमट रही हैं। आज संकीर्ण राष्ट्रीयता की मानसिकता का युग नहीं है। राष्ट्रीयता उसी सीमा तक विकसित हो जहाँ अन्तर्राष्ट्रीय नागरिकता में बाधा उत्पन्न न करें। अन्तर्राष्ट्रीय नागरिकता के विकास को पोषक वैश्विक मानव हित की पोषक हो । अन्तर्राष्ट्रीय नागरिकता के संदर्भ में मानव का अन्तर्राष्ट्रीय मानव के रूप में विकास हो अर्थात् विश्वमानवता व मानवीय दृष्टिकोण अन्तर्राष्ट्रीय नागरिकता का आधार हो ।
(8) वैश्विक व्यावसायिक प्रतिस्पर्द्धा में भाग लेने की क्षमता का विकास – कुटीर उद्योग और लघु उद्योगों को वैश्वीकरण के संदर्भ में व्यवसाय व व्यापार की प्रतिस्पर्द्धा में भाग लेने की क्षमता का समग्र विकास करना वैश्वीकरण की माँग है। इस माँग की पूर्ति इस प्रकार की क्षमता के विकास द्वारा ही संभव है। प्रतिस्पर्द्धा में भाग लेना ही पर्याप्त नहीं है अपितु प्रतिस्पर्द्धा में श्रेष्ठतम स्तर पर सफल होना भी आवश्यक है। यह प्रयास शासन की सहायता से ही संभव है।
(9) भारतीय प्रकृति को व्यापार के विश्वव्यापीकरण के अनुकूल बनाना – विश्व व्यापीकरण के रूप में व्यापार की प्रक्रिया भारत की प्रकृति, उसके इतिहास तथा उसकी वर्तमान स्थिति के अनुकूल प्रतीत नहीं होती । व्यापार का यह विश्वव्यापीकरण भारतीय अर्थव्यवस्था, राजनीति एवं सामाजिक, सांस्कृतिक संरचना की दृष्टि से चिन्ताजनक स्थिति है। किन्तु विश्व में यदि अपना अस्तित्व बनाना है तो इस स्थिति से उबरने के लिए सक्षम बनना होगा और यह सक्षमता शिक्षा के माध्यम से ही विकसित होगी। अतः व्यापार के विश्वव्यापीकरण से भारत को अनुकूलता स्थापित करनी होगी।
(10) आधुनिकीकरण करना – शिक्षा के द्वारा रूढ़िवादिता, अन्धविश्वास व भाग्यवादिता से बाहर निकलकर नई वैज्ञानिक दुनिया के सामने आधुनिकीकरण के माध्यम से उन्नति के नये-नये साधनों के प्रयोग की क्षमता का विकास करना है और आधुनिकीकरण की प्रक्रिया की गति देना।
(11) व्यावसायिक व व्यापारिक प्रतिस्पर्द्धा हेतु विद्यार्थियों में कुशलता व विशेषज्ञता का विकास – आज विकसित देश विकासशील देशों को व्यापार और उद्योग पर आधारित कड़ी प्रतिद्वन्द्विता में भाग लेने को बाध्य कर रहे हैं और इस कार्य को ही वैश्वीकरण का रूप दे रहे हैं। यदि भारत के नागरिक इस कुशलता से वंचित रहे तो देश को इसका घातक परिणाम भोगना पड़ेगा और भारत पिछड़ जायेगा। पिछड़ने के साथ ही अपनी स्वतंत्रता को भी दाव पर लगा देना।
(12) उत्पादन का विकास करना – भारत में किसान व श्रमिक दोनों ही प्रतिव्यक्ति उत्पादन क्षमता अन्य राष्ट्रों से बहुत कम है। इनकी अशिक्षा इसका कारण है। शिक्षा द्वारा नई तकनीकों के प्रयोग के माध्यम से उत्पादन की क्षमता बढ़ाना है।
(13) विश्व लोकतान्त्रिकता का विकास – आज के वैश्वीकरण के युग में लोकतांत्रिक प्रशासन व्यवस्था व जीवन शैली का विकास करना महत्त्वपूर्ण है। नागरिकों के नेतृत्व गुणों के विकास से यह संभव है ।
(14) आर्थिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त करना — आर्थिक उन्नति से विश्व व्यापीकरण में भारत अपना स्थान बना सकेगा। निष्कर्षत: यह स्वतः सिद्ध है कि वैश्वीकरण का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पक्ष सांस्कृतिक व सामाजिक है । सम्पूर्ण मानव समाज एक परिवार बन जाए। जिसके पीछे वैश्वीकरण की यह भावना हो “सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया, सर्वे मद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद् दुखभाग्मवेत् ।” उत्पीड़न, दलन, शोषण, आक्रमण की भावना हिंसक है जो आज सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त है, यह मानव संस्कृति के लिए घातक है। वर्तमान वैश्वीकरण विशेषत: व्यापार का विश्व व्यापीकरण मूलतः शोषण दोहन की भावना लिए हुए है। अपना विकास और दूसरे के विनाश की भावना सृजनात्मक न होकर विध्वंसात्मक है।
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