उत्तर – पूर्व क्षेत्र का विद्रोह

उत्तर – पूर्व क्षेत्र का विद्रोह

 पूर्वोत्तर भारत

भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र में आठ राज्य हैं। इनमें सात बहनें- अरुणाचल प्रदेश, असम, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नगालैंड और त्रिपुरा हैं। इनके साथ सिक्किम को मिला कर कुल आठ राज्य होते हैं। पूर्वोत्तर क्षेत्र देश के कुल भू-भाग का आठ फीसद हिस्से और सकल आबादी के चार फीसद का प्रतिनिधित्व करता है। इस क्षेत्र की कुल 6,387 किलोमीटर की सीमा का 99 फीसद हिस्सा अंतर्राष्ट्रीय सीमा है, जो भूटान (699 कि.मी.), चीन (1,345 कि.मी.) म्यांमार (1,643), और बांग्लादेश (2,700 कि.मी.) से लगती है। पूर्वोत्तर क्षेत्र की आबादी का 68 फीसद अकेले असम में रहती है और असम को छोड़कर प्राय सभी राज्यों का इलाका मुख्य रूप से पहाड़ी है। पूर्वोत्तर प्रमुख रूप से ग्रामीण क्षेत्र है, जहां क्षेत्र की 84 फीसद आबादी बसती है।
4.1 उत्तर-पूर्व क्षेत्र की ऐतिहासिक पृष्टभूमि 
4.1.1 स्वतंत्रता पूर्व-कालक 
भारत के समस्त उत्तर पूर्व क्षेत्र में 100 से भी अधिक विभिन्न आदिवासी प्रजातियाँ हैं जो अपनी विभिन्न भाषाओं एवं रीति-रिवाजों के साथ समृद्ध एवं विस्तृत सांस्कृतिक धरोहर के साथ जीवन व्यापन करती हैं। ब्रिटिश शासनकाल के दौरान स्थानीय तौर पर ये बहुसंख्यक थे जहां पर इनकी जनजाति के अलावा अन्य लोगों की संख्या कुछ खास नहीं थी। अंग्रेजों ने इन क्षेत्रों को विशेष प्रशासनिक क्षेत्र का दर्जा प्रदान किया था। सोची-समझी नीति के तहत अन्य लोगों को इस क्षेत्र में घुसने से रोकने के लिए अंग्रेजों ने इस क्षेत्र के सामाजिक सांस्कृतिक व राजनीतिक ढांचे के साथ कोई खिलवाड़ नहीं किया। बाहर के लोगों को इन आदिवासी / कबाइली क्षेत्रों में जमीन खरीदने की इजाजत नहीं थी ।
 इस दौरान ब्रिटिश सरकार ने ईसाई मिशनरियों को भी इस क्षेत्र में स्कूल, चिकित्सालय तथा चर्च बनाने के लिए प्रोत्साहित किया। उत्तर-पूर्व क्षेत्र की सामाजिक व्यवस्था में ईसाई मिशनग्या के कारण महत्वपूर्ण बदलाव आया जिससे आदिवासी नवयुवकों में आधुनिक विचारों को अपनाने के लिए बल मिला। इस कार्रवाई से अंग्रेजों को भी आदिवासी बहुल क्षेत्रों से राष्ट्रवादी विचारधाग दूर रखने में मदद मिली। इस नीति का परिणाम यह निकला कि यह क्षेत्र असम तथा देश की आबादी से अलग-थलग रहा । को
उत्तर-पूर्व क्षेत्र के इन आदिवासियों का अन्य भारत के साथ किसी भी प्रकार का राजनीतिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, भौगोलिक, धार्मिक या व्यावसायिक संबंध न के बराबर था। अतः भारत के स्वतंत्रता संग्राम का उत्तर-पूर्व के इन आदिवासियों के ऊपर कुछ खास प्रभाव नहीं पड़ा। इस प्रकार उन्होंने कभी भी स्वतंत्र भारत का हिस्सा होने की भावना का अनुभव नहीं किया। उनका मुख्य अनुभव केवल बाहरी लोगों का था जिसमें ब्रिटिश अधिकारी और ईसाई मिशनरी थे।
4.1.2 स्वतंत्रता पश्चात का काल
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत सरकार ने लोगों के बीच परस्पर संबंध बनाने पर ध्यान केंद्रित किया तथा आदिवासी नीति पर विशेष ध्यान दिया। भारतीय संविधान के छठी अनुसूची में इस क्षेत्र के लिए विशेष व्यवस्था की गई है, जिसमें स्व: शासन, स्वायत्तता तथा विकेंद्रीकरण शामिल हैं। इस प्रकार इन क्षेत्रों में जिले तथा स्थानीय क्षेत्रीय समिति का गठन किया गया।
प्रारंभिक तौर पर एक ही राज्य असम तथा एक केंद्रशासित क्षेत्र (नेफा – नार्थ-ईस्ट फ्रंटियर ऐजेंसी) था जिसमें पूरा उत्तर-पूर्व शामिल था। बाद में नेफा को अरुणाचल प्रदेश का नाम दिया गया, जिसे 1987 में अलग राज्य का दर्जा दिया गया। नेफा का विकास देश के अन्य भागों के साथ सहज एवं शांतिपूर्ण रूप से हुआ जबकि असम के प्रशासनिक नियंत्रण वाले क्षेत्र के अंदर आदिवासी क्षेत्रों में कई समस्याएं पनपने लगी।
इसकी शुरुआत 1950 के दशक में नागालैंड में फिजो द्वारा विद्रोह का झंडा खड़ा करने के साथ हुई जो बाद में मिजोरम, मणिपुर, त्रिपुरा तथा मेघालय तक फैल गयी।
1960 में आसामी भाषा को राज्य की भाषा का दर्जा दिया गया जिसका आदिवासी जिलों में तत्काल एवं पुरजोर विरोध किया गया। जल्द ही पहाड़ी भाग के आदिवासी बहुल आबादी वाले विभिन्न राजनीतिक दल समतल भाग के आसामी तथा बंगाली लोगों से अलगाव का अनुभव करने लगे। सरकारी नौकरी तथा अन्य व्यवसाय जैसे- डॉक्टर, कारोबारी आदि में सरकार की असमिया भाषा को लागू करने की नीति के कारण आदिवासी लोगों को अपनी पहचान खो देने का खतरा पैदा होने लगा।
4.1, 3 सर्वदलीय पहाड़ी नेताओं का सम्मेलन
1960 में पहाड़ी क्षेत्र के प्रतिनिधियों ने एक ऑल पार्टी हिल लीडर कांफ्रेंस की स्थापना की तथा भारतीय संविधान के अंतर्गत एक अलग राज्य की मांग रखी। ऑल पार्टी हिल लीडर कांफ्रेंस ने असम विधानसभा में आरक्षित स्वायत पहाड़ी जिले के लिए 15 सीटों में 11 सीटों पर विजय हासिल की।
 एक के बाद हुए कई प्रदर्शनों ने बाद में बड़े आंदोलन का रूप ले लिया। वर्ष 1962 के चुनाव में अलग राज्य की मांग करने वाले उम्मीदवारों को भारी बहुमत मिला जिन्होंने बाद में राज्य विधानसभा का बहिष्कार किया।
वर्ष 1969 में ‘राज्य के अन्दर राज्य की तर्ज पर असम राज्य के अन्दर मेघालय राज्य की स्थापना की गई जिसे उच्च न्यायालय, कानून व्यवस्था, लोकसेवा आयोग तथा राज्यपाल के अलावा पूर्ण स्वायत्ता प्राप्त थी। अंत में वर्ष 1972 में मेघालय, मणिपुर, त्रिपुरा को पूर्व राज्य का दर्जा दिया गया।
इस बीच नागालैंड तथा मिजोरम में भी अलगाववादी आंदोलन का विस्तार हुआ। नागालैण्ड को 1963 में ही राज्य का दर्जा दिया गया था, जबकि मिजोरम को 1987 में एक राज्य का दर्जा दिया गया।
4.1.4 उत्तर-पूर्व अलगाववाद की वर्तमान स्थिति
विभिन्न अलगाववादी दलों की अनेक परस्पर विरोधी मांगों के कारण उत्तर-पूर्व राज्यों में सुरक्षा की स्थिति अत्यंत जटिल रही है।
असम, मणिपुर तथा नागालैंड हमेशा से चिंता का विषय रहा है । असम के निचले क्षेत्र तथा कार्बी-आंगलोंग के क्षेत्रों में हमेशा से जातीय तथा सांप्रदायिक दंगे होते रहे हैं। बोडो क्षेत्र में आदिवासी तथा गैर-आदिवासी लोगों के बीच अविश्वास की भावना बढ़ रही है। मेघालय में गारो अलगाववाद जारी है तथा मणिपुर में गैर-मणिपुरी लोगों को ज्यादा क्षति पहुंचाई जाती है।
मिजोरम तथा त्रिपुरा में स्पष्ट तौर पर सफलता मिली है और लंबे समय से ये क्षेत्र शांत है। हाल ही में सरकार ने उत्तर-पूर्व क्षेत्र में विद्यमान अधिकांश अलगाववादी दलों के साथ युद्ध विराम तथा ऑपरेशन स्थगन संबंधी समझौतों पर हस्ताक्षर किए हैं। सरकार ने ऐसे दल, जो हिंसा छोड़कर भारतीय संविधान की परिधि के अंतर्गत बातचीत को तैयार है, के साथ लगातार बातचीत की नीति अपनाई है। विगत 5 वर्षों के दौरान उत्तर-पूर्व के राज्यों में सुरक्षा की स्थिति में बहुत सुधार हुआ है।
गैर-कानूनी गतिविधियाँ (निवारण) अधिनियम 1967 के अंतर्गत ‘गैर कानूनी संघ’ और ‘आतंकवादी संगठन’ घोषित किए गए और उत्तर-पूर्व राज्यों में सक्रिय मुख्य उग्रवादी समूह
♦वर्तमान स्थिति
पूर्वोत्तर में सुरक्षा के हालात जातीय समूहों और बहुत से उग्रवादी संगठनों की भिन्न-भिन्न मांगों के कारण कुछ समय के लिए जटिल रहे थे; लेकिन वर्ष 2017 में काफी हद तक सुधार हुआ है। क्षेत्र में उग्रवादजनित वारदातों में वर्ष 2016 की तुलना में 36 फीसद से अधिक की कमी आई है। वर्ष 2016 में जहां ऐसी 484 वारदातें हुई थीं, वहीं 2017 में 308 घटनाएं हुईं। वर्ष 1997 के बाद उग्रवाद की घटनाओं में पहली बार इतनी कमी हुई है। इसी तरह, सुरक्षा बलों और नागरिकों के हताहत होने की संख्या में भी कमी आई है। वर्ष 2016 में जहां 17 जवान हताहत हुए थे, वहीं 2017 में 12 जवान। इसी प्रकार, 2016 में जहां 48 नागरिक हताहत हुए थे तो 2017 में 37 हताहत हुए ।
♦2012 के बाद से उत्तर पूर्व क्षेत्र में सुरक्षा स्थिति
4.2 राज्यवार स्थिति
4.2.1 नागालैंड
सबसे पहले नागालैंड से फिजो के नेतृत्व में 1950 के पूर्व दशक में महत्त्वपूर्ण अलगाववाद आंदोलन की शुरुआत हुई।
नागा, पूर्वी हिमालय के पहाड़ी क्षेत्रों के निवासी हैं जिनकी सीमा बर्मा के साथ लगती है। इनमें अनेक प्रकार की जनजाति हैं जो विभिन्न प्रकार की भाषा बोलते हैं। 1826 में असम पर नियंत्रण करने के पश्चात् अंग्रेजों ने धीरे-धीरे 1892 तक नागा पहाड़ियों पर अपना प्रभुत्व जमाया।
अंग्रेजों के शासन काल में नागाओं का अन्य भारत के सामाजिक तथा राजनीतिक विकास के साथ कोई संबंध नहीं था। अंग्रेजों ने भारत के अन्य भागों की तुलना में यहां पर एक नरम नीति को अपनाया। बाहर वालों को यहां पर आने की इजाजत नहीं थी । अंग्रेज प्रशासन द्वारा आदिवासी संस्कृति तथा परंपराओं को अक्षुण्ण रखा गया । तथापि ईसाई मिशनरियों द्वारा यहां आदिवासियों को ईसाई धर्म में परिवर्तन करवाया था। यहां पर ईसाई मिशनरी की लंबे समय से मौजूदगी के कारण नागा समाज अपेक्षाकृत उत्तर-पूर्व के अन्य राज्यों की तुलना में ज्यादा पढ़े-लिखे हैं।
अप्रैल 1945 में जिले में नागा के विभिन्न दलों के एक फोरम के रूप में ‘नागा पहाड़ी जिला . आदिवासी’ समिति की स्थापना की गईं। फरवरी 1946 में नागा राष्ट्रीय समिति (एनएनसी) के रूप में इसे राजनीतिक मान्यता प्राप्त हुई एनएनसी का उद्देश्य अंग्रेजों की वापसी के बाद भारत सरकार के साथ किस प्रकार का संबंध हो, की शर्तें तैयार करना था। एनएनसी बंगाल में असम के सम्मिलित होने के खिलाफ था । यह चाहता था कि स्वतंत्र भारत में नागा पहाड़ी जिलों को असम में एक स्वायत राज्य के रूप में शामिल किया जाए। इसके अतिरिक्त एनएनसी ने नागा पहाड़ी जिलों के लिए स्थानीय रूप से स्वायत्ता तथा नागा जनजाति के लिए एक पृथक मत सूची पर जोर दिया।
नौ सूत्रीय समझौता
26 जून, 1947 को कई दौर की बातचीत के बाद असम के राज्यपाल ने नागा नेताओं के साथ नौ सूत्रीय समझौते पर हस्ताक्षर किए। इसमें यह निर्णय लिया गया कि नागाओं को न्यायिक, कार्यकारी तथा वैधानिक अधिकारों के साथ भू-संबंधी मामलों में स्वायतत्ता प्रदान की जाएगी। यह प्रावधान दस साल के लिए लागू होगा, जिसके पश्चात नागाओं को इस व्यवस्था को बढ़ाने या नए समझौते के बीच एक पक्ष को चुनना होगा। नागा नेताओं को आसपास के जिलों से नागा बहुल क्षेत्र को भी नागा पहाड़ी जिले में शामिल कर देने का आश्वासन दिया गया। तथापि इस समझौते को संविधान सभा द्वारा मान्यता नहीं दी गई, तब नागा नेताओं ने देश के अंदर स्वायत राज्य का प्रस्ताव दिया, जिसमें भारत को दस वर्ष के लिए अभिभावक की शक्ति प्राप्त होगी। इस पर भारतीय संवैधानिक सभा ने यह निष्कर्ष दिया कि नौ सूत्रीय समझौता भारतीय संविधान के अंदर नागाओं को केवल जिले की स्वायत्ता प्रदान करता है न कि राज्य की ।
अलगाववादी आंदोलन की शुरुआत
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत सरकार ने नागा क्षेत्रों का असम राज्य के साथ तथा समस्त भारत के साथ एकीकरण करना प्रारंभ किया। नागाओं के सख्त नेता, एजैड फिजो ने इस एकीकरण का विरोध किया तथा ‘नागा राष्ट्रीय समिति’ के झंडे तले विद्रोह का बिगुल बजाया। नागाओं ने एक पृथक स्वायत राज्य की मांग की। इस कार्य में कुछ अंग्रेज अधिकारी तथा ईसाई मिशनरियों से उन्हें सहयोग प्राप्त था। 1955 में इन पृथकवादी नागाओं ने एक स्वतंत्र सरकार की स्थापना की घोषणा की। इन्होंने सशस्त्र आंदोलन की भी शुरुआत की। 1956 की शुरुआत में भारत सरकार ने नागालैंड में शांति स्थापना हेतु भारतीय सेना को भेजा। विद्रोह को कुचलने तथा बातचीत न करने के सिद्धांत को मानते हुए भारत सरकार ने नागा क्षेत्र में पृथक स्वतंत्र राज्य का कठोरता से विरोध किया।
दूसरी तरफ भारत सरकार ने नागा लोगों के दिल जीतने तथा समझौते की आवश्यकता भी महसूस की, क्योंकि विद्रोह को पूर्ण रूप से कुचला जाना न तो संभव था न ही आवश्यकता थी। इसलिए सरकार ने दोस्ती का हाथ बढ़ाते हुए नागा लोगों को अन्य भारत के साथ दिल से एकीकृत होने के लिए प्रोत्साहित किया। केंद्र सरकार ने यह भी स्पष्ट किया कि भारत द्वारा नागा लोगों की सांस्कृतिक स्वायत्ता का आदर किया जाएगा।
इस बीच केंद्र ने फीजो या अन्य पृथकवादी दलों के साथ तब तक बातचीत करने से मना कर दिया, जब तक वे स्वतंत्र राज्य की मांग का त्याग नहीं करते या सशस्त्र संघर्ष खत्म नहीं करते। इसके साथ ही केंद्र ने नागाओं में अहिंसक एवं नरम तथा अपृथकवादी नेता डा. इमकोंग्गलिबा आओ के साथ बातचीत करना आरम्भ किया।
1957 के मध्य तक सशस्त्र विद्रोह पर काबू पा लिया गया। तब नागाओं के नरम नेताओं ने डा. इमकोंग्गलिबा आओ की अध्यक्षता में भारत सरकार के साथ भारतीय संघ के अंदर नागालैंड राज्य की मांग की। भारत सरकार ने लंबी बातचीत के बाद उस मांग को स्वीकार किया तथा 1963 में भारत संघ के 16वें राज्य के रूप में नागालैंड राज्य की स्थापना हुई। इस कदम से देश की अखंडता एवं सुरक्षा को ही मजबूती नहीं मिली बल्कि हमारे संविधान में समाहित प्रजातांत्रिक मूल्यों में भी लोगों का विश्वास बढ़ा। समस्त भारत में अहिंसक रास्ता अपनाने के प्रति लोगों का विश्वास बढ़ा। विद्रोहियों ने अपना समर्थन खो दिया। नागालैंड में उग्रवाद पर नियंत्रण पा लिया गया है, परंतु नागा विद्रोहियों द्वारा छिटपुट गोरिल्ला संघर्ष 1964 से अब तक जारी है, जिसमें अभी तक किसी प्रकार की राजनीतिक सफलता नहीं मिली है। वर्तमान स्थिति को विभिन्न दलों के बीच परस्पर विरोधी लक्ष्य, योजना तथा सामर्थ्य के बीच एक जटिल पहलू के रूप में समझा जा सकता है। इसके फलस्वरूप 50 साल के अंतराल में एक अनिश्चित ‘स्थिरता’ प्राप्त हुई है जबकि संघर्ष विराम उल्लंघन की घटना लगातार एवं सामान्य तौर पर घट रही है।
♦मुख्य आतंकवादी दल जो नागालैंड में सक्रिय हैं
♦नेशनललिस्ट सोसलिस्ट काउंसिल ऑफ नागालैंड (एनएससीएन) : एनएससीएन एक नागा राष्ट्रवादी दल है जो उत्तर-पूर्व भारत में सक्रिय है। इस संगठन का मुख्य उद्देश्य एक स्वतंत्र नागा राज्य ‘नागालिम’ की स्थापना करना है जिसमें उत्तर-पूर्व भारत तथा बर्मा के नागा बहुल क्षेत्र शामिल होंगे।
 एनएससीएन की स्थापना जनवरी 1980 में इशाक चीसी सूव थुंगलैंग मुईवाह तथा एसएस खपलांग द्वारा भारत सरकार तथा नागा राष्ट्रीय समिति के बीच हुई शिलांग समझौता के विरोध में की गई थी। बाद में इस दल के विभिन्न नेताओं के बीच भारत सरकार के साथ बातचीत करने के मसले पर काफी गलतफहमी पैदा हुई। 1980 में यह दल दो भागों में बंट गया। एक दल ‘एसएस खापलैंग की अगुवाई में एनएससीएन तथा दूसरा इशाक चीसी सूव’ थुंगलैंग मुईवाह की गुवाई में एनएससीएन-आईएम। इस बंटवारे के बाद इन विरोधी दलों के बीच हिंसक तथा गुटबाजी संघर्ष की शुरुआत हुई।
एनएससीएन के दोनों पक्षों का मुख्य लक्ष्य उत्तर-पूर्व भारत तथा उत्तर बर्मा के नागा बहुल क्षेत्रों का एकीकरण करके ‘नागालिम’ नाम का एक स्वतंत्र राज्य स्थापित करना है। इस संगठन का मुख्य उद्देश्य सभी नागा आदिवासियों को एकीकृत करके एक प्रशासन तथा भारत से स्वतंत्र ‘नागालिम’ बनाना है।
वर्तमान घटनाएं
>  एनएससीएन इशाक मुईवाह (एनएससीएन-आईएम) ने 2001 में भारत सरकार के साथ संघर्ष विराम पर हस्ताक्षर किए, परंतु अन्य पक्षों द्वारा उग्रवाद की घटना जारी है।
>  निरंतर संघर्ष विराम का उल्लंघन।
>  भूमिगत दलों की मौजूदगी जो धन ऐंठते हैं तथा हथियार और मादक पदार्थों की तस्करी करते हैं।
>  विभिन्न आदिवासी दल तथा पक्षों के बीच संघर्ष।
>  मुख्यत: एनएससीएन-के तथा एनएससीएन-केके के बीच तनाव ।
 > विद्रोहियों के भूमिगत कार्यकलापों के विरूद्ध आम लोगों का विरोध |
>  समानांतर सरकार ।
 भारत ने 2015 में एनएससीएन (खपलांग) के विरुद्ध सीमा पार कर सफलतापूर्वक सर्जिकल स्ट्राइक किया था, जो म्यांमार उग्रवादी गतिविधियाँ चला रहा था।
नागा शांति समझौता-2015
नागा शांति समझौता, फ्रेमवर्क समझौते के रूप में परिभाषित, को नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नागालिम-डस्क – मुईवाह (एनएससीएन-आईएम) और भारत सरकार के मध्य 3 अगस्त, 2015 को हस्तांतरित किया गया था। इसमें, आर. एन. रवि, भारत सरकार की तरफ से मुख्य मध्यस्थ और वार्ताकार थे। यह पूर्ण संप्रभुता और अधिक ‘नागालिम’ लक्ष्यों को स्वेच्छा से परिवर्तित कर संवैधानिक फ्रेमवर्क की स्वीकृति के सम्बंध में एनएससीएन (आईएम) की तन्मयता और यथार्थवाद को दर्शाता है, यद्यपि यह स्वायत्त जिला परिषदों की स्थापना के माध्यम से नागालैण्ड के बाहर बसे लोगों को अधिक स्वायत्ता प्रदान करता है। यह वस्तुतः बातचीत में बाधा है। चूंकि अरुणाचल प्रदेश, असम और मणिपुर ने विशिष्टतः किसी प्रादेशिक विभाजन के प्रति अपनी आपत्ति जताई है। अभी समझौते पर दस्तखत होना बाकी है क्योंकि छह नगा राजनीतिक समूहों (एनएनपीजी) के साथ बातचीत चल रही है। यहां तक कि मणिपुर के विभिन्न जातीय समूह परस्पर सहमति से समाधान के लिए तैयार नहीं हो रहे हैं। एनएससीएन-आईएम के साथ 2015 में हुए ढांचागत समझौता के बाद से नागा शांति समझौते पर बवाल मचा हुआ है। नागा समूहों ने नागा शांति समझौते को जल्द ही अंतिम रूप दिये जाने की मांग को लेकर फरवरी 2019 में दिल्ली में एक रैली निकाली थी।
4.2.2 मणिपुर
मणिपुर की आबादी में मैती, कुकी तथा नागा जनजाति शामिल हैं। कुल आबादी का लगभग 60 प्रतिशत मैती जनजाति के लोग हैं। मैती हिंदु धर्म को मानते हैं तथा वैष्णव परंपरा का पालन करते हैं। मैती में कुछ लोग मुस्लिम तथा ईसाई भी हैं। मैती समतल भाग में बसे हैं जबकि नागा तथा कुकी पहाड़ी जिलों में बसे हैं।
वर्ष 1964 में यहां अलगाववादी उग्रवाद की शुरुआत हुईं। 1972 में मणिपुर को एक पृथक् राज्य का दर्जा दिया गया। 1978 में पुनः हिंसात्मक आंदोलन की शुरुआत हुई जब पृथकतावादी पक्षों ने विकास का अभाव, स्थानीय स्रोतों का दोहण तथा जन आक्रोश के आधार पर भारत संघ से अलग राज्य के स्थापना की मांग की। भारतीय सुरक्षा बलों के द्वारा मानवाधिकार के उल्लंघन की कथित घटनाओं से भी इस आंदोलन को बढ़ावा मिला है। –
वर्तमान में लगभग 34 दल हैं जिसमें अहिंसक पक्ष भी शामिल हैं, जो भारत से स्वतंत्र होने की मांग करते हैं। 1999 में इन दलों में से कुछ दलों ने एक नए संगठन का निर्माण किया जिसे ‘मणिपुर पिपुल लिबरेशन फ्रंट’ का नाम दिया गया। इनमें से तीन दल यूएनएलएफ, पीआरईपीएके तथा पीएलए प्रमुख हैं। यूएनएलएफ के पास लगभग 2500 सक्रिय आतंकवादी हैं जबकि पीआरईपीएके के पास 1500 तथा पीएलए के पास 3000 है। आज जहां तक आतंकवाद का प्रश्न है उत्तर-पूर्व भारत में मणिपुर की स्थिति सबसे खतरनाक है । एक तथ्य यह भी है कि मणिपुर राज्य में उग्रवादियों की संख्या अन्य किसी भी राज्य की तुलना में सबसे अधिक है और इन दलों के बीच आपसी दुश्मनी के कारण ज्यादा हिंसक वारदात होती हैं।
कुकी उग्रवादी अपनी जनजाति के लिए मणिपुर राज्य से अलग पृथक् राज्य की मांग करते हैं। कुकी उग्रवादी दो संगठनों की छत्रछाया के अंदर केएनओ तथा यूपीएफ के रूप में कार्य करते हैं।
विभिन्न दलों का किसी एक मांग के ऊपर सहमति न बनने के कारण राज्य में उग्रवाद की समस्या और भी जटिल हो जाती है। नागा आदिवासी मणिपुर के भागों को बृहद नागालैंड या ‘नागालिम’ में मिलाना चाहते हैं जा कि मैती जनजाति के स्वतंत्र राज्य के सपने के विरुद्ध है। इस प्रकार विभिन्न जनजातियों के बीच अनेक प्रकार के तनाव हैं जिसके कारण इस राज्य में नागा, कुकी, मैती तथा मुसलमानों के बीच कई हिंसक संघर्ष हुए हैं।
उग्रवादी दल एक ‘वैकल्पिक व्यवस्था’ की मांग करते हैं तथा आबादियों के बीच से गैर-आदिवासी लोगों को भगाने के उद्देश्य से एक ‘इनर लाइन परमिट’ की व्यवस्था करने की मांग करते हैं ।
नागालैंड के साथ निरंतर संघर्ष में पीएलए सामान्य तौर पर एनएच-37 हाईवे को बंद कर देते हैं। यह माना जाता है कि माओवादी तथा मणिपुरी उग्रवादियों के बीच संबंध है। पीएलए ने माओवादियों को प्रशिक्षण दिया है तथा संचार के साधन एवं हथियार भी उपलब्ध कराए हैं।
4.2.3 मिजोरम
जातीय एवं अलगाववादी संघर्षों के बीच मिजोरम की समस्या का समाधान एक महत्त्वपूर्ण सफलता है। दो दशक से ज्यादा समय से मिजोरम में सशस्त्र संघर्ष जारी था। मिजो नेशनल फ्रंट द्वारा चलाए जा रहे आंदोलन के जातीय तथा धार्मिक आयाम थे और इनका घोषित उद्देश्य मिजोरम की भारतीय संघ से स्वतंत्रता प्राप्त करना था। 1966 में यहां एक सशस्त्र संघर्ष की शुरुआत हुई और यह हिंसात्मक संघर्ष के रूप में 1980 तक जारी रहा। जून 1986 में मिजोरम समझौते के द्वारा पिछले दो दशक से चला आ रहा यह सशस्त्र संघर्ष संतोषजनक निष्कर्ष के रूप में खत्म हुआ। इस ऐतिहासिक संघर्ष को समाप्त करने के तीन प्रमुख कारण थे। प्रथम, प्रधानमंत्री राजीव गांधी के सकारात्मक तथा सद्भावपूर्ण रवैये का मिजोरम की जनता एवं नेताओं द्वारा स्वागत किया गया जो कि आगे होने वाली बातचीत का आधार बना। द्वितीय, मिजो के तत्कालीन दो राजनीतिक व्यक्तित्व, अलगाववादी पक्ष के निर्विवाद नेता लालदेंगा तथा तत्कालीन मुख्यमंत्री लाल थंगहवाला का लालदेंगा को मुख्यमंत्री बनाने के पक्ष में अपना एक पक्षीय त्यागपत्र और अंत में मिजो सिविल समाज, खासकर महिलाएं जिन्होंने हिंसा के दौर में अपने प्रियजनों को खोकर जो इस हिंसा से प्रभावित हुए थे, का सौहार्दपूर्ण प्रभाव एवं दबाव।
जून 1986 में भारत सरकार ने मिजो नेशनल फ्रंट के नेता लालदेंगा के साथ शान्ति समझौते पर हस्ताक्षर किए जिसकी शर्त के अनुसार एमएनएफ के उन विद्रोहियों को कानूनी कार्यवाही से छूट दी गई जिन्होंने हथियार डाले थे। भारत सरकार ने मिजोरम को राज्य का दर्जा देने हेतु अपनी सहमति व्यक्त की तथा लालदेंगा ने कांग्रेस के तत्कालीन नेता से मुख्यमंत्री का पदभार स्वीकार किया।
 इस घटना में 1975 के कश्मीर समझौते का अनुसरण किया गया था जिसमें शेख अब्दुल्ला ने इसी प्रकार की स्थिति में शासन का भार संभाला था।
इस समझौते से मिजोरम राज्य में शांति बहाली हुई ।
 मिजो नेशनल फ्रंट के नेताओं ने अद्भुत हृदय परिवर्तन का परिचय दिया था। एक समय जंगल में रहे विद्रोही अब मतपेटी के द्वारा सचिवालय में बैठे राजनीतिज्ञ थे। शांति स्थापना के फलस्वरूप कई अच्छे परिणाम सामने आए, जैसे- जल वितरण हेतु पाईप लाईन, सड़क निर्माण और सबसे बेहतर स्कूल का निर्माण। 1999 तक मिजोरम ने केरल को सबसे शिक्षित राज्य की दौड़ में पीछे छोड़ दिया था। देश के अन्य भागों के साथ मिजोरम के एकीकरण ने रफ्तार पकड़ ली थी। मिजो लोग राजभाषा हिंदी सीखने लगे तथा बहुप्रचलित खेल क्रिकेट खेलने लगे। चूंकि मिजो लोग फर्राटेदार अंग्रेजी बोलते थे (अंग्रेजी मिजोरम की राज्य भाषा है), मिजो पुरुष एवं महिलाएं सर्विस सेक्टर में खासकर होटल तथा एअरलाइन में अच्छी नौकरी प्राप्त करने सफल हुए। मिजोरम के मुख्यमंत्री जोरामथंगा ने मिजोरम को पूर्व का स्विट्जरलैंड बनाने की घोषणा की। उनकी योजना के अनुसार यूरोपीय तथा भारतीय पर्यटक मिजोरम आएंगे और इसके साथ पड़ोसी देश बर्मा तथा बांग्लादेश के साथ व्यापार के द्वारा राज्य की आर्थिक स्थिति को मजबूत किया जाएगा। इन देशों को मिजोरम से फल तथा सब्जी का निर्यात तथा वहां से मछली तथा चिकन का आयात किया जाएगा। जोरामथंगा भारत सरकार, नागा तथा आसामी विद्रोहियों के बीच समझौता कराने हेतु भी सक्रिय रूप से बातचीत कर रहे हैं।
4.2.4 मेघालय
उत्तर-पूर्व भारत में मेघालय, उग्रवाद से शायद सबसे कम प्रभावित राज्य है। मेघालय में विभिन्न जनजातियों के बीच अलगाव तथा आदिवासी एवं बाहर से आकर बसे अन्य जातियों के बीच विभाजन, पहचान की समस्या, बढ़ता भ्रष्टाचार और बांग्लादेश से आए घुसपैठियों के बसने से आई जनसांख्यिकी में परिवर्तन से समस्या पैदा होती है। देशी आदिवासी आबादी में भी अल्पसंख्यक होने का डर विद्यमान है।
मेघालय में निम्न मुख्य उग्रवादी दल सक्रिय हैं:
गारो नेशनल लिबरेशन आर्मी (जीएनएलए): जीएनएलए का उद्देश्य गारो लोगों के लिए एक पृथक् ‘गारोलैंड’ की स्थापना करना है। इसकी स्थापना 2009 में हुई थी जिसमें 70 सदस्य हैं, जिनमें अधिकांश भूतपूर्व एएनवीसी, एलएईएफ तथा एनडीएफबी के सदस्य हैं। जीएनएलए धमाके, हिंसात्मक प्रहार तथा धन ऐठने में लिप्त हैं। जीएनएलए की गतिविधियों के कारण मेघालय में हिंसा को बढ़ावा मिला है। मेघालय में जीएनएलए एक मुख्य सक्रिय दल है ।
एएनवीसी (अचिक नेशनल वालंटियर काउंसिल ): 1995 में एएनवीसी की स्थापना का उद्देश्य गारो पहाड़ी इलाके में अचिक लैंड बनाना था। वर्तमान में भारत सरकार तथा एएनवीसी के बीच 23 जुलाई, 2004 को हुई सहमति के कारण इनका संघर्ष स्थगित है। एचएनएलसी मेघालय में एचएनएलसी एक उग्रवादी संगठन हैं, जिसकी स्थापना 1992 में हुई थी। यह दल स्वयं को खासी-जैंतिया आदिवासी आबादी का प्रतिनिधि बताता है तथा इनका उद्देश्य मेघालय को गारो तथा बाहर से आकर बसे गैर आदिवासी लोगों की प्रभुत्व से बचाना है। वर्ष 2000 में केंद्र द्वारा इस दल पर पाबंदी लगा दी गई थी।
विगत वर्षों के दौरान एचएनएलसी ने उत्तर-पूर्व में सक्रिय अन्य अलगाववादी संगठन, जिसमें एनएससीएन-आईएम, एनडीएफबी त्रिपुरा का एनएलएफटी, तथा उल्फा शामिल है, के साथ मजबूत संबंध बनाए। एनएससीएन ने एचएनएलसी को प्रारम्भिक दिनों में आर्थिक तथा मनोबल सहायता प्रदान की। एचएनएलसी का बांग्लादेश के अंदर कई व्यावसायिक कार्यकलाप हैं।
उग्रवादी दल गारो हिल लिबरेशन आर्मी, जो पुलिस से भगोड़े हुए व्यक्तियों द्वारा संगठित किया गया संगठन था, पुलिस तथा सेना के ऊपर हमले करते आ रहा है। राज्य के पश्चिमी जिलों में अपहरण तथा फिरोती सामान्य बात है। उग्रवादियों द्वारा फिरोती के लिए राज्य के धनी व्यक्तियों को निशाना बनाया जाता है खासकर कोयला खान के मालिकों को राज्य में बांग्लादेश से आए गैर कानूनी प्रवासी तथा स्थानीय आदिवासी आबादियों के बीच भी तनाव बढ़ रहा है। इस संबंध में यह जानना आवश्यक है कि तनाव का कारण धर्म नहीं बल्कि जातिगत मामले हैं। यहां गैर कानूनी प्रवासी तथा स्थानीय लोगों के बीच संघर्ष है। स्थानीय लोगों में काफी लोग मुस्लिम समुदाय के हैं। तथापि, आपराधिक कार्यकलाप सबसे बड़ा चिंता का विषय है। मादक पदार्थ, जैसे- गांजा, कोकीन, ओपियम आदि के साथ हथियार, नारकोटिक्स तथा काला बाजारी की तस्करी होती है। यह राज्य बांग्लादेश तथा भारत के बीच सबसे बड़े तस्करी मार्ग पर स्थित है।
4.2.5 त्रिपुरा
वर्ष 1990 से त्रिपुरा में आतंकवादी गतिविधियों में बढ़ोतरी हुई है। नई दिल्ली, त्रिपुरा राज्य सरकार तथा त्रिपुरा आदिवासी क्षेत्र स्वायत जिला समिति के बीच एक त्रिपक्षीय समझौते के पश्चात समिति के नियंत्रण क्षेत्र को बढ़ा दिया गया। इसके पश्चात सरकार को राज्य में उग्रवादी गतिविधियों को कम करने में सफलता मिली है तथा राज्य सरकार ने भी इसे सीमित करने में सफलता प्राप्त की है। 2003 के बाद यहां हिंसा की घटनाओं में कमी आई है।
त्रिपुरा में उग्रवाद की समस्या का जन्म वर्ष 1978 में राज्य में उपजाति जूबा समिति के बाद 1981 में त्रिपुरा नेशनल वालंटियर की स्थापना के साथ हुई। एनएलएफटी की स्थापना मार्च 1989 में हुईं। एनएलएफटी त्रिपुरा में त्रिपुरा नेशनलिस्ट ईसाई उग्रवादी संगठन है। एनएलएफटी भारत से स्वतंत्र होकर एक स्वतंत्र त्रिपुरा राज्य की स्थापना करना चाहता है। इसने सक्रिय रूप से त्रिपुरा विद्रोह संघर्ष में भाग लिया है। वर्तमान में यह भारत में एक प्रतिबंधित आतंकवादी संगठन है। इसके दो अंग हैं- नेशनल होली आर्मी तथा एटीटीएफ । भारतीय संघ के साथ त्रिपुरा राज्य के विलय का विरोध करते हुए इन दोनों गुटों ने अलगाववादी एजेंडा अपनाते हुए त्रिपुरा के लिए स्वायतता, गैर-कानूनी प्रवासियों की वापसी, त्रिपुरा विलय समझौते का अनुपालन तथा त्रिपुरा भूमि सुधार अधिनियम-1960 के अंतर्गत आदिवासी लोगों की भूमि की वापसी की मांग की।
1990 तथा 1995 के बीच राज्य में उग्रवादियों की गतिविधि कम हो गई, परंतु 1996 तथा 2004 के बीच इनकी गतिविधियों में बढ़ोतरी हुई और फिर उसके बाद कम हो गईं इस राज्य में प्रारंभिक दौर में उग्रवादियों की सफलता का राज राज्य की टूटी-फूटी पहाड़ी भौगोलिक स्थिति है जिसे बांग्लादेश के साथ पारगमन की व्यवस्था के कारण अधिक बल मिला। बांग्लादेश में सुरक्षित स्थान, तत्कालीन बांग्लादेशी प्रशासन तथा वहां की बाहरी आसूचना एजेंसी से प्राप्त सहायता तथा अन्य उग्रवादी दलों के साथ मेलजोल के कारण उग्रवाद को यहां बल मिला। हथियार, बारूद तथा बेतार संचार सुविधा की प्राप्ति के साथ फिरोती एवं कर वसूली के कारण यहां उग्रवादियों को फलने-फूलने का भरपूर अवसर मिला।
उग्रवाद की बढ़ती घटनाओं के कारण यहां नागरिक जीवन तथा संचार ठप हो गया जिसके फलस्वरूप यहां कई शैक्षिक एवं आर्थिक संस्थान बंद हो गए जिससे राज्य सरकार के प्राधिकार का हनन हुआ । योग्य एवं दूरदृष्टि रखने वाले मुख्यमंत्री मानिक सरकार के नेतृत्व में राज्य सरकार ने इस समस्या के समाधान हेतु एक योजनात्मक तरीका अपनाया। उन्होंने स्थिति से निपटने के लिए बहुआयामी तथा सुनियोजित योजना तैयार की। नियंत्रण तंत्र को उग्रवाद विरोधी ऑपरेशन, जिसका लक्ष्य त्वरित क्षेत्र प्रभुत्व स्थापित करना था, के ऊपर केंद्रित किया गया तथा इसके साथ ही मानसिक एवं विश्वास के निर्माण के कदम उठाए। इसके साथ ही विकास की गतिविधि को तेज करना, मीडिया प्रबंधन, सुरक्षा बलों के नागरिक कल्याणकारी कार्यक्रम तथा राजनीतिक प्रयास भी इस प्रयास के अन्य आयाम थे।
उग्रवाद को खत्म करने तथा संघर्ष समाधान के विषय पर त्रिपुरा ने एक नया इतिहास रचा जिससे यह साबित हुआ कि उग्रवाद एक ऐसी समस्या है जिससे सफलतापूर्वक निपटा जा सकता है। इसके लिए आवश्यक है एक सुनियोजित एवं बहुआयामी योजना, मजबूत इच्छा शक्ति, उपयुक्त दृष्टिकोण, ईमानदार तथा विश्वसनीय नेतृत्व विकास एवं चुनौती के प्रति सकारात्मक रवैया तथा समाज के सभी वर्गों को सामाजिक-आर्थिक सुविधाओं का वितरण | इसके अतिरिक्त सुरक्षा बलों द्वारा सुनियोजित मानविकता से भरी मानसिकता जिससे कि स्थानीय आबादियों में पृथकता की भावना न आए। “
4.2.6 अरुणाचल प्रदेश
” अरुणाचल प्रदेश के तीन पूर्वी जिले- तीराप, चांगलैंग तथा लोंगडिंग के निवासी इस क्षेत्र में एनएससीएन के दोनों गुटों के विद्रोहियों की मौजूदगी के कारण, जो अपहरण, फिरोती तथा परस्पर संघर्ष में लिप्त रहते हैं, स्थाई तौर से डरे हुए रहते हैं। ये तीन जिले एनएससीएन-आईएम द्वारा लक्षित नागालिम (बृहतर नागालैंड) के भाग हैं।
यहां नागाओं के दो दलों के अतिरिक्त उल्फा- आई भी भारी संख्या में मौजूद हैं। उल्फा-आई के विद्रोही म्यांमार में, जहां इस दल का कैंप स्थापित है, घुसपैठ के लिए लोहित, चांगलांग तथा तीराप जिलों का उपयोग करते हैं। इस क्षेत्र का यह दल अस्थाई ट्रांजिट कैंप तथा असम में हो रहे उग्रवाद विरोधी ऑपरेशन से बचने के लिए करते हैं।
इस बीच इस राज्य में सीपीआई – माओवाद की संख्या में बढ़ोतरी के कारण यहां उग्रवाद का एक नया चेहरा सामने आया है। सीपीआई-माओवाद के विद्रोहियों की गतिविधि अरुणाचल प्रदेश के लोहित और निचले दिबांग घाटी जिलों में देखी गई है ।
अरुणाचल प्रदेश में 53,000 चकमा तथा हाजोंग शरणार्थियों के होने के कारण तथा अन्य घुसपैठियों के कारण समय-समय पर स्थानीय आबादियों में चिंता का भाव रहा है। अखिल अरुणाचल प्रदेश विद्यार्थी संगठन ने राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी को भेजे गए ज्ञापन में लिखा है ‘चकमा तथा हाजोंग शरणार्थियों के गैर-कानूनी प्रवास से अरुणाचल प्रदेश के सुदूर-पूर्व भाग ने स्वदेशी आदिवासी लोग हाशिए पर आ गए हैं जबकि राज्य के पश्चिम भाग में तिब्बती, भूटानी तथा नेपाली स्वदेशी आदिवासियों के ऊपर अपना प्रभुत्व जता रहे हैं। राज्य के मध्य भाग में बांग्लादेशियों की एक घुमक्कड़ आबादी है जिन्होंने यिन्यसी, आदि, गालो, आपातनी तथा ताजीन आदिवासियों में तैनाव पैदा कर दिया है । ‘
परम्परागत रूप से राज्य के दक्षिण-पूर्वी तीराप तथा चांगलांग जिले, नागालैंड की सीमा पर है, एनएससीएन के दोनों गुटों के लिए एक सुगम शिकार स्थल रहा है। खापलांग गुट (एनएससीएन-के) ने 1990 के दशक में जब पहली बार अक्षुण्ण क्षेत्रों में प्रवेश किया तो एनएससीएन-आईएम गुटों ने जिले के अलग भाग में अपने प्रभाव का क्षेत्र बनाया। हाल ही में दोनों जिलों में दोनों गुटों के बीच कई संघर्ष देखे गए हैं। दोनों गुट इस क्षेत्र में फिरौती गतिविधियों के लिए मशहूर हैं।
असम के उल्फा ने भी अरुणाचल प्रदेश का प्रयोग आवागमन मार्ग के रूप में किया है। असम के सूदूर- पूर्व जिले तथा म्यांमार में सागेंग डिविजन में स्थित अपने कार्यालय के बीच आवागमन हेतु उल्फा ने अरुणाचल प्रदेश का उपयोग 1980 से शुरू किया। उल्फा के लिए अरुणाचल प्रदेश का सामरिक महत्त्व दिसंबर, 2003 में भूटान से खदेड़े जाने तथा सैनिक कार्रवाई के बाद कई गुना बढ़ गया। असम में हिंसा की घटना के बाद म्यांमार में स्थित 28 बटालियन के मुख्यालय में शरण लेने के लिए उल्फा के पास अरुणाचल प्रदेश के अलावा और कोई विकल्प नहीं है। तथापि उल्फा की 28 बटालियन की दो आक्रामक यूनिटों का जून, 2008 में सरकार के साथ संघर्ष विराम के समझौते के पश्चात उल्फा की फायर पावर को गहरा धक्का लगा। उल्फा ने असम- अरुणाचल प्रदेश तथा म्यांमार में आसान आवाजाही के लिए लोहित जिले में स्थित मानाभूम रिजर्व जंगल में अपना आवागमन कैंप तथा सुरक्षित शरण स्थल बनाया है, जो 1500 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है।
4.2.7 असम
नागालैंड के बाद असम इस क्षेत्र का सबसे खतरनाक राज्य है। 1979 से असम के लोग यह मांग कर रहे हैं कि बांग्लादेश से असम में आए गैर-कानूनी प्रवासियों को पहचान कर उन्हें वापस बांग्लादेश भेजा जाए । अखिल असम विद्यार्थी संघ के नेतृत्व में यह आंदोलन अहिंसा, सत्याग्रह, बहिष्कार तथा गिरफ्तारी देने पर आधारित रहा।
जो लोग लगातार विरोध कर रहे थे उनके विरूद्ध पुलिस कार्यवाही की गई। 1983 में एक चुनाव किया गया जिसका इस आंदोलन के नेताओं ने बहिष्कार किया। इस चुनाव के बाद हिंसा की घटनाएं बढ़ गईं। इस आंदोलन की समाप्ति केंद्रीय सरकार तथा आंदोलन के नेताओं के बीच 15 अगस्त 1985 को हस्ताक्षरित समझौते के साथ हुई ।
इस समझौते के प्रावधान के अनुसार वे लोग जिन्होंने गैर-कानूनी रूप से जनवरी 1966 तथा मार्च 1971 के बीच राज्य में प्रवेश किया था, को दस वर्ष के लिए मताधिकार से वंचित कर दिया गया, जिन्होंने 1971 के बाद प्रवेश किया था, उन्हें वापस भेजा जाना निश्चित हुआ। भारतीय नागरिकता कानून में नवंबर 1985 में लाए गए संशोधन के अनुसार वे नागरिक जो असम में 1961 तथा 1971 के बीच आए थे, को सभी नागरिकता अधिकार के बजाय दस वर्ष के मताधिकार का प्रयोग प्राप्त हुआ।
ऐसे कई संगठन हैं जो असम को स्वतंत्र किए जाने की बात करते हैं, इनमें उल्फा प्रमुख में स्थापित उल्फा के दो लक्ष्य हैं- असम की स्वतंत्रता तथा एक सामाजिक सरकार की स्थापना ।
राज्य के अंदर उल्फा ने भारतीय सेना पर तथा गैर-सैनिक नागरिकों पर भी कई आतंकवादी हमले किए हैं। यह दल राजनीतिक विरोधियों की हत्या करते हैं, पुलिस तथा अन्य सुरक्षा बलों के ऊपर हमला करते हैं, रेल तथा सड़क मार्गों पर विस्फोट करते हैं तथा मूलभूत ढांचे को नुकसान पहुंचाते हैं। उल्फा का एनएससीएन, माओवाद तथा नक्सलियों के साथ मजबूत संबंध बताए जाते हैं।
यह माना जाता है कि उल्फा अधिकांश हमले भूटान में रहकर करता है। उल्फा की बढ़ती सक्रियता के कारण 1986 में भारत सरकार ने इस दल को प्रतिबंधित कर दिया तथा असम को समस्याग्रस्त क्षेत्र घोषित कर दिया। नई दिल्ली के दबाव के कारण भूटान ने अपने क्षेत्र से उल्फा उग्रवादियों को खदेड़ने के लिए एक विस्तृत अभियान चलाया।
भारतीय सेना की मदद से भूटान ने सीमित हानि के साथ 1000 से ज्यादा उग्रवादियों को मार गिराया तथा कईयों को भारत को सौंप दिया। भारतीय सेना ने उल्फा के आतंकी हमलों को रोकने के लिए कई प्रभावी अभियान चलाए हैं। इसके बावजूद इस क्षेत्र में अभी भी उल्फा सक्रिय है। 2004 में उल्फा ने असम में एक पब्लिक स्कूल के ऊपर हमला कर 19 बच्चे तथा 5 नागरिकों को मार डाला था।
14 मार्च, 2011 को रंजन दायमरी के आंतकी संगठन ने बीएसएफ के गश्मी दल पर असम के चिरांग जिले के बुलानाडोबा और कोकराझाड़ के अत्यादनी के रास्ते में हमला कर दिया, जिसमें 8 जवान मारे गए। हाल ही में परेश बरूआ, उल्फा नेता को बांग्लादेश में गिरफ्तार किया गया है तथा न्यायालय द्वारा वहां उसे मृत्यु दंड दिया गया है।
विगत में ऊपरी असम ( तिनसुखिया तथा डिब्रूगढ़) तथा अरुणाचल प्रदेश में माओवादी नई भर्ती, प्रशिक्षण तथा धन ऐंठने की गतिविधियों में लिप्त हैं।
 केन्द्र सरकार ने राज्य में बोडो को विशेष प्रशासनिक स्वायत्तता भी दी। हालांकि, अलग बोडोलैंड की मांग की, जिसके कारण बंगाल बोडो और भारतीय सेना के बीच संघर्ष हुआ जिसमें सैकड़ों लोगों को अपनी जान गँवानी पड़ी।
कामतापुर लिबरेशन ऑर्गनाइजेशन
पूर्वोत्तर में स्थित कामतापुर लिबरेशन ऑर्गनाइजेशन (केएलओ) एक उग्रवादी संगठन है। इसका मकसद कामतापुर को भारत से अलग कर उसे एक राष्ट्र घोषित करना है। कामतापुर प्रस्तावित राज्य पश्चिम बंगाल के छः जिलों और इनसे सटे हुए असम के चार जिलों को मिला कर बनाया जाना है। इसका केंद्र कूच बिहार होगा, जो अभी पश्चिम बंगाल का जिला है। कामतापुरी पहचान की सांस्कृतिक-राजनीतिक अस्मिता को लेकर 20वीं सदी की शुरुआत से ही आंदोलनों की एक धारावाहिकता रही है । यद्यपि कामतापुर और कामतापुरियों की कला, संस्कृति, इतिहास और साहित्य को सहेजने का का बहुत थोड़ा प्रयास किया गया है।
4.2.7.1 बोडोलैंड मामले तथा एनडीएफबी
बोडो, ने 1980 मध्य में एक पृथक् राज्य की स्थापना के लिए सशस्त्र संघर्ष शुरू किया, जो असम के सबसे बड़े समतल भाग का आदिवासी हैं। इस सशस्त्र संघर्ष के दौरान ब्रह्मपुत्र नदी के उत्तरी किनारे पर बसे गैर-बोडो जातियों का सफाया कर दिया गया। 1993 में बोडोलैंड स्वायत समिति समझौते पर हस्ताक्षर किए गए और 1990 के बाद के वर्षों में बोडोलैंड आंदोलन और अत्यधिक हिंसात्मक हो गया। फरवरी 2003 में 15 वर्ष पुराने बोडोलैंड आंदोलन को समाप्त करने के लिए बोडोलैंड क्षेत्रीय समिति समझौते पर हस्ताक्षर किए गए। इस समझौते का गैर-बोडो लोगों द्वारा तथा बांग्ला बोलने वाले मुस्लिम के द्वारा विरोध किया गया, जो बांग्लादेश से आकर यहां बसे हैं। गैर-बोडो जाति के लोग बोडो उग्रवादी तथा इसके सहायकों द्वारा हमला, धमकी, हत्या, अपहरण तथा जबरन वसूली का आरोप लगाते हैं।
बोडो समस्या की जड़ में ब्रह्मपुत्र नदी के पूर्व – उत्तरी किनारे पर बसे हुए पौराणिक बोडो आदिवासी लोग तथा विगत वर्षों में बांग्ला बोलने वाले बांग्लादेश से आए (हिंदू तथा मुस्लिम) लोगों के बीच पुरानी दुश्मनी है। बोडो जनजाति अपनी भाषा बोलते हैं। बोडो आदिवासी तथा बांग्लादेश से आए प्रवासी जिन्होंने धीरे-धीरे बोडो लोगों की खेती-बाड़ी की निपुणता अपना कर उनकी भूमि पर धीरे-धीरे कब्जा जमा रहे हैं, के बीच कई हिंसात्मक मुठभेड़ हुई हैं।
परंतु बोडो द्वारा पृथक राज्य की मांग के कारण गैर-बोडो लोग इस आंदोलन से अलग हो चुके हैं। गैर-बोडो लोगों द्वारा विरोध के बावजूद बीटीसी की स्थापना इस तर्क की ओर इशारा करता है। बोडो आदिवासी जो बीटीएडी में अल्पमत में आ चुके हैं, सदैव से बढ़ती मुस्लिम आबादी, खासकर बांग्ला बोलने वाले मुस्लिम समुदाय से खतरा महसूस करते हैं। मुस्लिम आबादी मुख्यतः जंगल भूमि या रेतीले इलाके पर बसी हुई है।
जुलाई-अगस्त 2012 के दौरान बोडो तथा मुस्लिम समुदाय के बीच सांप्रदायिक संघर्ष हुए जिसमें 100 से ज्यादा लोग मारे गए तथा 4 लाख से ज्यादा लोगों को घर-बार छोड़ना पड़ा। यह संघर्ष प्रारंभ में कोकराझार और चिराग जिले में शुरू हुआ जो बाद में निचले असम के बोडोलैंड जिले के सभी क्षेत्रों में फैल गया। बोडो संगठन मुस्लिम लोगों की जांच कर उनकी नागरिकता की सूची को अद्यतन बनाने की मांग करते हुए गैर-कानूनी प्रवास का विरोध करते हैं।
2012 की हिंसा के बाद देशी बोडो आदिवासी और बांग्ला बोलने वाले मुस्लिमों के बीच जातीय तनाव फैल गया। जहां एक तरफ मुस्लिम समुदाय अपने आप को अंग्रेजी शासन के दौरान पूर्वी बंगाल से लाकर असम में बसाए गए मुसलमानों की पीढ़ी बताते हैं, वहीं स्थानीय समुदाय बढ़ती मुस्लिम आबादी को 1971 की भारत-पाकिस्तान लड़ाई के दौरान तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान से आए शरणार्थी और बाद के वर्षों में बांग्लादेश से आए गैर-कानूनी प्रवासी बताते हैं।
यह परिस्थिति तब और बदतर हो गई जब इंटरनेट पर कुछ खास भड़काऊ एसएमएस/एमएमएस के फैलने से दक्षिण भारतीय राज्य आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक तथा केरल से उत्तर-पूर्व के लोग मुस्लिम समुदाय द्वारा हमले के डर से पलायन करने लगे।
बीटीएडी के क्षेत्र में वर्तमान परिस्थिति का सबसे बुरा परिणाम एक विशेष जनजाति आधारित क्षेत्रीय राज्य का विचार है। एक जनजातीय क्षेत्रीय समिति के रूप में बीटीसी बोडो लोगों के अलावा अन्य लोगों को सुरक्षा प्रदान करने में असफल रही है।
बोडोलैंड क्षेत्रीय समिति (बीटीसी)
असम में बाहरी लोगों के विरुद्ध 2008 में हुई हिंसा 2003 में हस्ताक्षरित बोड़ो समझौते का परिणाम था, जिसमें बोडो भाषा, भूमि, सामाजिक-सांस्कृतिक अधिकार तथा जनजातिय पहचान को बनाए रखने का प्रावधान रखा गया था। इस समझौते में यह स्पष्ट लिखा गया था कि असम में बीटीसी के रूप में ‘बोडो जनजाति के आर्थिक, शैक्षिक तथा भाषायी आकांक्षाओं को पूरा करने और इनके भूमि अधिकार, सामाजिक-सांस्कृतिक एवं जनजातीय पहचान को बनाए रखने हेतु’ एक स्वायत स्वः स्थापित संस्था होगी। इन प्रावधानों के बावजूद अल्पसंख्यक समुदायों के प्रति बोडो आदिवासी अपनी भूमि, जनजातीय पहचान और भाषा के लिए असुरक्षित समझते हैं। बीटीसी के अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत इलाकों को बीटीएडी कहा जाता है। बीटीसी
में 70 प्रतिशत लोग गैर-बोडो लोग हैं जो बोडोलैंड की स्थापना के विरुद्ध हैं। वे बीटीसी से ऐसे गांव, जिसमें 50 प्रतिशत से कम बोडो आदिवासी हैं, को बाहर निकालने के पक्ष में हैं। बीटीएडी में 27,100 वर्ग किलोमीटर में फैले (असम का 35 प्रतिशत) एवं परस्पर सटे हुए 4 जिले हैं- कोकराझार, बक्सा, उदालगुडी और चिरांग ।
इस समझौते के प्रावधान के अनुसार असम राज्य के अंदर बीटीसी नामक एक स्वायत स्वशासित संस्था का निर्माण करना था तथा संविधान की छठी अनुसूची के प्रावधानों के अनुसार बोडो लोगों के आर्थिक, शैक्षिक, भाषायी आकांक्षाओं को पूरा करना और उनके सामाजिक सांस्कृतिक एवं जनजातीय पहचान को बनाए रखना था। साथ ही बीटीसी क्षेत्र में मूलभूत सुविधाओं के विकास में तेजी लाना था। असम के चार जिलों में फैले बीटीसी के अंदर 3082 गांव आते हैं। बीटीसी के अंतर्गत 40 प्रतिनिधियों का लोगों द्वारा चुनाव किया जाता है तथा चार सदस्यों को असम सरकार द्वारा मनोनीत किया जाता है। चुने हुए सदस्यों में तीस पद आदिवासियों के लिए, 5 गैर-आदिवासियों के लिए तथा 5 अन्य लोगों के लिए आरक्षित हैं।
एनडीएफबी
एनडीएफबी एक सशस्त्र अलगाववादी दल है जो असम राज्य में एक स्वतंत्र बोडोलैंड की स्थापना चाहता है। एनडीएफबी की स्थापना 1998 में की गई थी जिसे भारत सरकार ने आतंकवादियों का दल घोषित किया है। एनडीएफबी बोडो लोगों के प्रतिनिधित्व का दावा करते हैं जिसकी जनसंख्या असम की कुल आबादी का 10 प्रतिशत है। इस दल की मुख्य मांग इस क्षेत्र में न्यूनतम विकास और शरणार्थियों की घुसपैठ है। इन समस्याओं के समाधान के लिए वे भारत से अलग होकर एक स्वतंत्र राज्य बोडोलैंड की स्थापना चाहते हैं ।
इस दल ने असम में आम नागरिकों, गैर-बोडो लोगों तथा सुरक्षा बलों के ऊपर कई हमले किए हैं। मई, 2005 में इस दल ने भारत सरकार के साथ संघर्ष विराम के समझौते पर हस्ताक्षर किए, परंतु अभी भी उस दल के कुछ पक्ष आतंकवादी गतिविधियों में शामिल हैं। मई 2014 में बातचीत का विरोध करने वालों के नेता आई. के. सोंगबीजीत (एनडीएफबी-एस) के विद्रोहियों ने असम के दो जिलों में विस्तृत रूप से हमले किए, जिसमें 22 लोग मारे गए एवं कई अन्य घायल हुए तथा हजारों लोग बेघर हो गए। असम सरकार ने इस घटना की जांच एनआईए को सौंप दी है। यह अंदाजा लगाया जाता है कि अपनी राजनीतिक ताकत को खोने के डर से बोडो ने असम के बीटीएडी के क्षेत्र में इस तरह के हमले किए हैं।
4.2.7.2 कार्बी-एंगलोंग मामला
असम के 27 जिलों में कार्बी – एंगलोंग जिला सबसे बड़ा है। इस जिले का प्रशासनिक मुख्यालय दीफु है। यह जिला देश के 640 जिलों में से 250 सबसे अत्यधिक पिछड़े जिलों में से एक है। असम के 11 जिलों में से इस जिले को भी वर्तमान में पिछड़ा क्षेत्र अनुदान राशि कार्यक्रम से सहयोग प्राप्त है। इस जिले में विभिन्न प्रकार के लोकल लोग रहते हैं जिसमें कार्बी सबसे प्रमुख है। अन्य लोकल जातियों में दीमासास, रेंगमास, कुकी, गारो, टीवास, खासी, मार्स, मिजो तथा चकमा शामिल है।
दिसंबर 2013 और जनवरी 2014 में असम के कार्बी – एंगलोंग जिले में केपीएलटी तथा आरएनएचपीएफ के जनजाति विद्रोहियों के बीच कई हिंसात्मक संघर्ष हुए थे। जिसमें कार्बी और रेंगमा नागा आदिवासी लोगों के 3000 से ज्यादा लोगों को घर छोड़कर भागना पड़ा था। केपीएलटी जनजातीय विद्रोही दल केएलएनएलएफ से अलग होकर बनाया गया एक दल है। केएलएनएलएफ असम के दो जिले कार्बी-एंगलोंग और दीमाहसाव को मिलाकर एक पृथक् राज्य की स्थापना करना चाहते हैं। वर्तमान में केएलएनएलएफ भारत सरकार तथा राज्य सरकार की बातचीत में भाग ले रही है। जब केएलएनएलएफ ने केंद्र तथा राज्य सरकार के साथ संघर्ष विराम समझौते पर हस्ताक्षर किया तो इस दल के लगभग 20 सदस्य अलग होकर 2010 में केपीएलटी दल बनाया। केपीएलटी कार्बी लोगों के लिए स्वशासित राज्य की स्थापना चाहते हैं। केएलएनएलएफ भी पूर्व विद्रोही दल यूपीडीएस से अलग बनाया गया एक विद्रोही दल था।
वर्ष 2012 में कार्बी-एंगलोंग में बसे रेंगमा नागा आदिवासियों की केपीएलटी के हमलों से बचने के लिए आरएनएचपीएफ की स्थापना की गई थी। यह दल कार्बी-एंगलोंग के रेंगमा नागाओं के लिए एक अलग क्षेत्रिय समिति बनाने की मांग कर रहे हैं। एनएससीएन (आईएम) के लोग केएलएनएलएफ को प्रशिक्षण दे रहे हैं। आरएनएचपीएफ को एनएससीएन (आईएम) का समर्थन प्राप्त है। केपीएलपी को एनएससीएन (खापलांग) का समर्थन प्राप्त है जब से यह दल उल्फा के प्रभाव क्षेत्र में आया है।
4.2.7.3 राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) का मुद्दा
असम में बांग्लादेशी शरणार्थियों का मुद्दा काफी लम्बे समय से विवाद में रहा है। वर्ष 1980 में चला असम का छात्र आंदोलन मुख्य रूप से इन्हीं विदेशी प्रवासियों के विरोध में था। असम में शरणार्थियों की खेप पर खेप आई है, पहले औपनिवेशिक राज्य में और आज़ादी बाद सीमावर्ती राज्य के रूप में।
 असम में नागरिकों की गिनती, उनके घरबार और जोत की थाह लेने के लिए एनआरसी की पहली शुरुआत 1951 में की गई थी। राज्य के सभी वैध नागरिकों के सरकारी दस्तावेज हैं, जिसमें उनके घरों और असबाबों के नम्बर एक श्रृंखला में हैं। व्यक्तियों के नाम के आगे उनके घर – बार और असबाबों के नम्बर से यह जाहिर होता है कि वह व्यक्ति यहां रह रहा है। पिछले कुछ वर्षों में नागरिक रजिस्टर को अद्यतन बनाने की मांग असम के कुछ जातीय समूहों ने उठाई
असम समझौता 1985
विदेशियों के विरुद्ध असम में चले आंदोलन के बाद 1985 में भारत सरकार और ऑल असम स्टुडेंट्स यूनियन के बीच असम समझौता हुआ, जिसके बाद नागरिक अधिनियम-1955 में संशोधन किया गया।
असम समझौते के मुताबिक, 1951 और 1961 के बीच असम में आए हैं, उन्हें राज्य की पूरी नागरिकता दी जाएगी, जिसमें वोट देने का अधिकार भी होगा। इस हिसाब से जो भी व्यक्ति 1971 के बाद असम आए हैं, उन्हें उनके मूल देश निर्वासित किया जाना था। 1961 और 1971 के बाद आए विदेशियों को 10 साल तक मताधिकार से वंचित रखा गया था लेकिन इसके अलावा नागरिकता के अन्य सभी अधिकार उनको दिये गए थे। यही वजह है कि एनआरसी के लिए 1971 को आधार वर्ष बनाने का विचार किया गया।
वर्तमान अद्यतन
अवैध बांग्लादेशियों और अन्य देशों से असम में रह रहे विदेशियों को निर्वासित करने के लिए असम के एनआरसी को अद्यतन किया गया है। अभी हाल में ही असम ने राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर का अंतिम प्रारूप जारी किया है, जिसमें कुल 3.29 करोड़ आवेदकों में से 1.9 करोड़ नामों को शामिल किया गया है। एनआरसी के अंतिम प्रारूप को पिछले साल 30 जुलाई को जारी किया गया था, जिसमें 3.29 करोड़ लोगों में से 2.89 करोड़ लोगों को समाहित कर लिया गया था। इस सूची में 40 लाख लोगों के नाम दर्ज नहीं थे।
प्रभाव
अब यहां सवाल उठता है कि भारत की नागरिकता गंवा चुके उन 40 लाख लोगों की हैसियत क्या होगी? इसका तत्काल परिणाम तो यह होगा कि वे लोग मताधिकार से वंचित हो जाएंगे। एनआरसी के अद्यतन बनाने का काम का सबसे बुरा नतीजा तो यह होगा कि बांग्लादेश से भारत के संबंध खराब हो जाएंगे, जो प्रायः हमेशा ही अशांत रहे हैं।
देश की आतंरिक सुरक्षा के लिए जोखिम भरा होगा। इससे असम में राजनीतिक और सामाजिक असंतोष पैदा होगा। एनआरसी की सूची से बाहर लोगों का बड़ा वर्ग असम के उग्रवादी समूहों का आसान लक्ष्य हो जा सकता है।
4.3 उत्तर-पूर्व क्षेत्र में उग्रवाद के कारण
उत्तर-पूर्व में उग्रवाद के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं:
>  आदिवासी आबादियों के बीच पृथकता एवं पिछड़ा होने की भावना।
>  म्यांमार की तरफ सीमा पर समान जातीयता ।
>  कठिन भू-भाग के कारण म्यांमार की सीमा के साथ आच्छादन।
>  सीमा पार से घुसपैठियों के कारण आबादी संबंधी ढांचे में परिवर्तन ।
>  अन्य भारतीय लोगों से तथा देश के अन्य भागों से कटे होने की भावना ।
>  शासकीय लोगों में व्यापक भ्रष्टाचार ।
>  आदिवासी समुदायों में योग्य दिव्यदर्शी नेताओं का अभाव ।
>  विकास और बुनियादी सुविधाओं की कमी।
>  शस्त्र तथा बारूद की प्रचुर उपलब्धता ।
>  विभिन्न दलों से राजनीतिक सहायता।
>  म्यांमार में अस्थिरता ।
>  स्वर्ण त्रिभुज (गोल्डेन ट्राएंगल) के पास होने से पृथकतावादी संगठनों को अवैध मादक द्रव्य की तस्करी के जरिये वित्तीय पोषण मिलता है।
” हमारे कई पडोसी देशों को विभिन्न दलों द्वारा शरण तथा प्रशिक्षण के लिए उपयोग किया जाता है। नागा दल एवं असम स्थित उग्रवादी दल म्यांमार से संचालित हैं तो मेघालय तथा त्रिपुरा में सक्रिय उग्रवादी दल बांग्लादेश से सभी गतिविधि चलाते हैं। हथियार चीन से खरीदे जाते हैं। इनकी आय का मुख्य स्रोत जबरन धन ऐंठना और हथियार एवं मादक द्रव्यों की तस्करी है।
4.4  उत्तर-पूर्व क्षेत्र के उग्रवाद के प्रति सरकार की प्रतिक्रिया
उत्तर-पूर्व में भारत सरकार द्वारा एक संघटित योजना के अनुसार कार्य किया जा रहा है। इसमें ऐसे दल, जो हिंसा छोड़ने के लिए तैयार हैं, के साथ बातचीत तथा हिंसक दलों के विरुद्ध सख्त कार्रवाई के साथ निपटना शामिल है।
सरकार ने क्षेत्र में अधिकांश विद्रोही समूहों ( 17 से 18) के साथ युद्ध विराम और संचालन के निलंबन (एसओओ) पर हस्ताक्षर किए हैं। सरकार ने किसी भी संगठन के साथ वार्ता की नीति को लगातार आगे बढ़ाया है, जो हिंसा के रास्ते को पीछे छोड़ने और भारत के संवैधानिक ढांचे के भीतर शांति वार्ता के लिए आगे बढ़ने के लिए सहमत है।
सरकार के बुनियादी मार्गदर्शक सिद्धांत हैं:
>  पूर्वोत्तर के विकास के लिए विशेष योजनाएं,
>  पूर्वोत्तर क्षेत्र के ढांचागत विकास के लिए विशेष पैकेज,
>  शक्ति का आनुपातिक उपयोग,
>  संवाद और वार्ता,
>  राजनीतिक स्वायत्ता देने के लिए संरचनात्मक परिवर्तन,
>  आदिवासी अधिकारों का विकेंद्रीकरण और संरक्षण,
>  संपूर्ण क्षेत्र में सड़क और रेल कनेक्टिविटी में सुधार
>  उत्तर-पूर्व क्षेत्र के लिए ‘पूर्व की ओर देखें’ नीति,
>  पूर्वोत्तर क्षेत्र में निवेश को आकर्षित करने के लिए व्यापार सम्मेलन,
>  प्रदर्शनियों और सेमिनार ।
उत्तर-पूर्वी क्षेत्र के लिए उठाए गए कुछ प्रमुख विकासात्मक योजनाएं हैं: 
>  अक्टूबर 1996 में तत्कालीन प्रधानमंत्री ने ‘पूर्वोत्तर क्षेत्र के लिए योजनाओं’ की घोषणा की और निर्धारित किया कि केन्द्रीय मंत्रालयों/विभागों के कम-से-कम 10 प्रतिशत बजट पूर्वोत्तर राज्यों के विकास के लिए आरक्षित रखे जाएंगे। “
>  भारत सरकार ने वर्ष 1998-99 से पूर्वोत्तर राज्यों और सिक्किम के लिए केन्द्रीय स्त्रोत से एक समाप्त न होने वाली निधि की व्यवस्था की।
>  2001 में उत्तर-पूर्व क्षेत्र के विकास हेतु एक नए विभाग [The Department of Development of North-Eastern Region (DoNER) की स्थापना की गई, जिसे मई 2004 में एक पूर्ण मंत्रालय का दर्जा दिया गया। इस मंत्रालय का मुख्य काम उत्तर-पूर्व क्षेत्र के विकास के लिए मूल ढांचे का निर्माण करना है।
> 11वीं योजना से राज्य को विशेष दर्जा वित्तीय स्रोतों का समुचित एकीकरण के लिए एक सिद्धांत अपनाया गया कि केन्द्रीय मंत्रालयों/विभागों के योजना बजट की कम-से-कम 10 प्रतिशत राशि उत्तर-पूर्व राज्यों के विकास के लिए आबंटित की जाए।
इसके साथ ही बजटीय सहायता (जीबीएस) का 10 प्रतिशत भाग भी उत्तर-पूर्व राज्यों के लिए आरक्षित रखा जाए।
>  1971 में, संसद के एक अधिनियम द्वारा उत्तर-पूर्व समिति का गठन किया गया, जिसका 2002 में क्षेत्रीय योजना संस्था के रूप में पुनर्गठन किया गया।
>  उत्तर-पूर्व के राज्यों के लिए सामाजिक और बुनियादी तथा मूलभूत ढांचा विकास निधि (एसआईडीएफ), 2008-09 के लिए वित्त मंत्री का पैकेज |
>  उत्तर-पूर्वी क्षेत्र के लिए कुल बजट का 10 प्रतिशत अनिवार्य खर्च का छूट रहित 51 प्रतिष्ठात केंद्रीय मंत्रालयों/विभागों द्वारा परिवेक्षण |
> ‘तर्क एवं प्रचार’ योजना और ‘क्षमता निर्माण और तकनीकी सहायता’ (सीबी और टीए) की योजना।
> एशियन विकास बैंक की सहायता से उत्तर-पूर्व राज्य में सड़क निर्माण कार्यक्रम और विश्व बैंक की सहायता से उत्तर-पूर्व ग्रामीण जीवन-यापन (एनईआरएलपी) योजना।
>  उत्तर पूर्व औद्योगिक निवेश और संवर्धन नीति, 2007 ।
> सीमा क्षेत्र विकास परियोजना ( बीएडीपी)।
>  पूर्वोत्तर क्षेत्र में पहाड़ी क्षेत्र विकास कार्यक्रम ।
4.5 एक्ट ईस्ट पॉलिसी
भारत की एक्ट ईस्ट पॉलिसी परियोजनाओं को जोड़ने, अंतरिक्ष कार्यक्रमों, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी में सहयोग करने और लोगों से लोगों के परस्पर मिलने-जुलने पर केंद्रित है। जो इस नीति के जरिये एशिया प्रशांत क्षेत्र के देशों के साथ आर्थिक सहयोग करने, सांस्कृतिक संबंध बनाने और रणनीतिक संबंध के विकास को बढ़ावा देने के साथ क्षेत्रीय एकीकरण और समृद्धि के लिए प्रेरणा के रूप में काम करेगा।
पूर्वोत्तर दक्षिण-पूर्व एशिया का केवल प्रवेश द्वार ही नहीं है बल्कि यह भारत की संवृद्धि, प्रगति और समृद्धि का विस्तारित गलियारा भी है। पूर्वोत्तर क्षेत्र, खास कर मणिपुर, भारत की एक्ट ईस्ट पॉलिसी (एईपी) का प्राकृतिक और रणनीतिक सहयोगी है, जमीन, वायु और समुद्र के रास्ते आवाजाही बढ़ाते हुए गलियारों के सम्पर्क को आर्थिक सहयोग के गलियारों में रूपांतरित करता है। कुछ महत्त्वपूर्ण बड़ी परियोजनाओं में कलादान मल्टी मॉडल ट्रांजिट ट्रांसपोर्ट प्रोजेक्ट, भारत-म्यांमार-थाईलैंड त्रिपक्षीय उच्च पथ परियोजना, री- टिड्डीम सड़क परियोजना, सीमा पर हाट आदि।
वहीं, सभ्यता के स्तर पर बौद्ध धर्मावलम्बियों और हिन्दू धर्मावलम्बियों के बीच परस्पर जुड़ाव लोगों के बीच नये ताल्लुकात बनाने और संयोजकता बढ़ाने के काम में प्राण भर सकता है। रणनीतिक मसलों पर, भारत ने अपने सुरक्षा हितों को लेकर क्षेत्र के अहम साझेदार देशों के साथ द्विपक्षीय और बहुआयामी दोनों ही रूपों में अपनी नजदीकी बढ़ाई है।
4.6 उत्तर-पूर्व क्षेत्र में उग्रवाद और उनके विदेशी संबंध
उत्तर-पूर्व क्षेत्र में उग्रवाद का सबसे बड़ा संबंध म्यांमार से है। भारत की म्यांमार के साथ लम्बी अंतर्राष्ट्रीय सीमा है जो चार राज्य – अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड, मणिपुर और मिजोरम से सटा हुआ है। कठिन पहाड़ी क्षेत्र तथा सीमा के दोनों तरफ बसे लोगों का जनजातीय संबंध उग्रवादी भूमिगत दलों को सीमा के आर-पार जाने में तथा नई भर्तियों के लिए प्रशिक्षण तथा हथियार खरीदने के लिए सीमा पार कैंप स्थापित करना आसान हो जाता है।
सामान्य तौर पर थाईलैंड के हथियार बाजार में हथियार खरीदे जाते हैं और अंत में इन चारों राज्यों में लाए जाते हैं।
म्यांमार सरकार के साथ कूटनीति तथा राजनीतिक पहल के पश्चात कुछ सकारात्मक सफलता देखने को मिली है और इसी संदर्भ में म्यांमार सरकार ने एनएससीएन के साथ संघर्ष विराम समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं। मणिपुर के मेती उग्रवादी संगठन के लिए समय सीमा निर्धारित की है। परंतु जनजातीय नजदीकी तथा राजनीतिक विवशता के कारण इन दलों ने अपना कैंप सीमा के नजदीक बनाया है जिससे इनके लिए भारतीय सुरक्षा बलों पर हमले करना आसान हो गया है।
बांग्लादेश सरकार की मदद से कई उग्रवादी संगठनों को बांग्लादेश से बाहर खदेड़ दिया गया है। इसलिए इन चार राज्यों में उग्रवादी दलों की संख्या बढ़ गई है।
4.6.1 अन्य उत्तरी-पूर्वी पड़ोसी
म्यांमार के बाद उत्तर-पूर्व के उग्रवादियों द्वारा बांग्लादेश का, खासकर चिटगांव पहाड़ी क्षेत्र का उपयोग किया गया है, परंतु बांग्लादेश में शेख हसीना की सरकार बनने के बाद उग्रवादी दलों के कई सदस्य पकड़े गए हैं तथा भारत को सौंप दिए गए हैं जिससे बांग्लादेश में इन उग्रवादी दलों की संख्या में कमी आई है।
चीन से सटे देशों में प्रवेश करने के लिए उग्रवादी संगठन छिपने के लिए नेपाल का इस्तेमाल करते हैं जहां काठमांडू हवाई अड्डा इसका ट्रांजिट कैंप है। असम स्थित भूमिगत संगठन, जैसेउल्फा और एनडीएफडी भूटान का इस्तेमाल करते हैं। इस संबंध में एकत्रित सूचना उत्तर-पूर्व के उग्रवादी दलों को चीन का समर्थन होने की ओर इशारा करता है।
4.6.2 मुक्त आवाजाही व्यवस्था ( फ्री मूवमेंट रीजिम / एफएमआर)
म्यांमार के साथ भारत की 1,643 किलोमीटर लम्बी सीमा लगती है, जो इसके चार राज्यों; अरुणाचल प्रदेश, नगालैंड, मणिपुर और मिजोरम होकर गुजरती है। 1935 में म्यांमार को एक अलग राज्य बनाया गया और 1947 में ब्रिटेन के औपनिवेशिक शासन से इस प्रायद्वीप की मुक्ति ने भारत-म्यांमार सीमा पर बसने वाले जातीय समुदायों को भौगोलिक रूप से बांट दिया।
ये समुदाय, खास कर नगाओं ने पाया कि यह नयी खींची सीमा रेखा को उनकी परम्परागत रिहाइश क्षेत्र में आवाजाही के लिहाज से मुनासिब नहीं है। उन्हें अपनी असुरक्षा का गहरा बोध हुआ क्योंकि सीमा के दोनों तरफ अल्पसंख्यक जातीय समुदाय में तब्दील हो गए थे। उनकी चिंता को दूर करने और उन समुदायों में परस्पर संपर्क बनाने के लिए भारत और म्यांमार ने फ्री मूवमेंट व्यवस्था (एफएमआर) बनाई, जो नगाओं को दोनों देशों में 16 किलोमीटर भीतर तक बैगर वीसा के आने-जाने की इजाजत देता है ।
लेकिन उग्रवादियों और सीमा आर-पार के अपराधियों द्वारा हथियारों की तस्करी, विनिषिद्ध वस्तुओं के व्यापार और जाली भारतीय करेंसी फैलाने में इस मुक्त आवागमन व्यवस्था का दुरुपयोग किया जाता है। इस व्यवस्था का लाभ उठा कर वे भारत में दाखिल होते हैं, यहां अपराध करते हैं और फिर जाकर अपने सुरक्षित ठिकानों में छिप जाते हैं। केंद्रीय मंत्रिमंडल ने जनवरी 2018 में भारत और म्यांमार के लोगों के परस्पर आर्थिक संबंध को बढ़ावा देने के मकसद से सीमा पार के संबंध एक सहमति पत्र को अपनी स्वीकृति दी थी। इसको कार्यरूप देने के लिए भारत सरकार ने म्यांमार के सीमावर्ती अपने चार राज्यों को यह निर्देश दिया था कि वे सीमा से 16 किलोमीटर के दायरे में आने वाले अपने नागरिकों को ‘सीमा- पारपत्र’ जारी करें। इतनी दूरी के अंतर्गत उन राज्यों के 250 गांव आते हैं, जिनकी कुल आबादी तीन लाख है। लेकिन म्यांमार ने इस राजीनामे पर अमल को अपनी घरेलू विवशताओं की वजह से पिछले सात महीने में दो बार स्थगित कर दिया था।
यह समझौता वैध पासपोर्ट और वीसा के आधार पर लोगों की आवाजाही को आसान बनाएगा, जो दोनों देशों के बीच आर्थिक और सामाजिक सम्पर्क बढ़ाएगा । यह पहले से ही मौजूद भारत-म्यांमार की सीमा के आर-पार 16 किलोमीटर के दायरे में रह रहे लोगों की मुक्त आवाजाही के अधिकार के नियमन और सामंजस्य को सरल बनाएगा। यह पूर्वोत्तर भारत की अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देगा और म्यांमार के साथ भौगोलिक संपर्क का फायदा उठाते हुए व्यापार और लोगों का लोगों से संबंध की संधि को प्रोत्साहन देगा। यह व्यापक अर्थों में सीमा से सटे भूभागों में रहने वाले जनजातीय समुदायों, जो मुक्त आवाजाही के अभ्यस्त हो चुके हैं, के परंपरागत अधिकारों की रक्षा भी करेगा।
4.7 आतंकवाद को रोकने के लिए उठाए जाने वाले क़दम
> बहुआयामी दृष्टिकोण आवश्यक है,
> संचार एवं संपर्क,
>  मूलभूत ढांचे का विकास,
> उग्रवादी दलों के साथ बातचीत,
> प्रत्युत्तर के लिए केंद्रीय बल को बेहतर तकनीकी तथा राज्य सरकार के बीच समन्वय,
> आतंकवाद हमले से संबंधित मामलों का त्वरित निपटारे के लिए सख्त कानून और त्वरित अपराध न्याय प्रणाली,
> हिंसा के प्रति जीरो टोलरेंस सिद्धांत,
> देश के अन्य भागों के साथ बेहतर सांस्कृतिक आदान-प्रदान,
> सामाजिक-आर्थिक विकास जिसमें समग्र समावेशी विकास शामिल है,
> सर्वत्र सरकार की दृष्टिगत उपस्थिति,
> सर्तकता के साथ विकेंद्रीकरण,
> प्रशासनिक कार्यक्षमता का विकास,
जनकल्याणकारी सरकार,
> मणिपुर, मेघालय तथा त्रिपुरा में उच्च न्यायालय का निर्माण,
>  क्षेत्रीय आकांक्षाओं का निपटारा।
4.7 मुख्य मामले 
4.7.1      उत्तर-पूर्व के नागरिकों में प्रदेशीपन / जातीय पक्षपात की भावना 
>  वे यह मानते हैं कि भारत के अन्य नागरिकों की तरह उनके साथ समान रूप से व्यवहार नहीं किया जाता।
 >  वे यह मानते हैं कि भारत के अन्य भागों में उनकी संस्कृति को समुचित रूप से रेखांकित नहीं किया जाता।
 >  वे यह मानते हैं कि उनके चेहरे का रूप-रंग तथा अन्य जनजातीय असमानता के कारण उनकी तुलना चीन के लोगों के साथ की जाती है। अभी हाल में दिल्ली में उत्तर-पूर्व के एक विद्यार्थी की हत्या के पश्चात यह मामला और भी संवेदनशील हो गया। भारत सरकार इस मामले प्रति बिलकुल सजग रहते हुए उत्तर-पूर्व के एक संसद सदस्य के नेतृत्व में एक विशेष समिति बनाई है जो इस तरह के पक्षपात को खत्म करने के लिए सुझाव देगी।
4.7.2 सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम
एएफएसपीए
यह एक कानून है जिसे 1958 में बनाया गया था। केंद्रीय गृह मंत्रालय द्वारा किसी अशांत घोषित किये गए क्षेत्र में सेना और केंद्रीय सैन्य बलों को बिना किसी वारंट के तलाशी लेने और वहां के लोगों की गिरफ्तारी एवं परिस्थितियों के मद्देनजर बल प्रयोग का अधिकार देता है।
(इस पुस्तक के अनुलग्नक-एक में सम्पूर्ण आर्म्ड फोर्स स्पेशल पॉवर एक्ट की जानकारी दी गई है।)
AFSPA देश के असम, जम्मू-कश्मीर, नगालैंड और मणिपुर (केवल इम्फाल नगरपालिका क्षेत्र को छोड़ कर) में लागू किया गया है। अरुणाचल प्रदेश में, केवल तिराप, चांगलांग और लांगडिंग जिलों के साथ असम की सीमा से लगे राज्य के 20 किलोमीटर के भूभाग में यह लागू है। मेघालय में यह असम-सीमा से लगे 20 किलोमीटर के क्षेत्र तक ही सीमित है।
यद्यपि भारतीय सुरक्षा बल अत्यंत ही कठिन परिस्थितियों के अंतर्गत कार्य करते हैं, परंतु कभी-कभी तनाव के कारण उनके व्यवहार के ऊपर भी उंगली उठाई जाती है। इस संदर्भ में कई निर्दोष लोगों की जाने गई होंगी, परंतु यह सत्य है कि गोरिल्ला हमले में भारतीय सेना ने अपने कई जवान और अधिकारियों को खोया है।
समस्त उत्तर-पूर्व क्षेत्र में लंबे समय से यह मांग की जा रही है कि सशस्त्र बलों को उत्तर-पूर्व में प्राप्त विशेषाधिकार को खत्म किया जाना चाहिए। एकमात्र विषय पर इरोम शर्मिला चानु 15 वर्ष से भूख हड़ताल पर है ।
यह सत्य है कि कभी-कभी सुरक्षा बलों के ऊपर मानवाधिकार उल्लंघन के आरोप लगाए जाते हैं, परंतु समस्त उत्तर-पूर्व में कई उग्रवादी दलों के सक्रिय होने कारण एएफएसपीए को खत्म करने की सलाह नहीं दी जा सकती। यदि सशस्त्र बलों को जांच करने तथा जब्त करने के अधिकार के बिना वहां तैनाती की जाती है तो उनकी तैनाती से कोई फायदा नहीं होगा। इसलिए एएफएसपीए को बनाए रखने की आवश्यकता है, परंतु सुरक्षा बलों को मानवाधिकार उल्लंघन के प्रति सजग होने की तथा अपनी कार्रवाई तथा व्यवहार के लिए लोगों के प्रति उत्तरदायी बनाने की आवश्यकता है।
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने मणिपुर में सैन्य बल के विरुद्ध 1500 मामलों में पुन: जांच का आदेश किया है। यहां कई लोग गुमशुदा हैं, लापता हैं या सैन्य बलों की कार्रवाइयों में उनके मारे जाने की आशंका है। सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट कहा है कि अफसपा सैन्यबलों को व्यापक क्षमादान नहीं दिलाता । न्यायालय ने हाल में भी कहा है कि अफसपा का लगातार बने रहने का मतलब सेना और भारत सरकार की विफलता का संकेतक है ।
>  हाल ही में, केंद्रीय गृह मंत्री ने अफ्सपा को निरस्त करने का अधिकार पूर्वोत्तर के सम्बद्ध राज्यों को दिया है।
> त्रिपुरा और मेघालय ने अपने राज्यों से अफसपा को पूरी तरह निरस्त कर दिया है। यह पूर्वोत्तर में शांति और स्थिरता कायम रखने की दिशा में एक बड़ा कदम है।
>  पहली जनवरी 2019 तक उपलब्ध सूचना के मुताबिक मौजूदा समय में अफसपा पूर्वोत्तर के निम्नलिखित क्षेत्रों में लागू है
1. नगालैंड
2. मणिपुर ( इम्फाल की घाटी को छोड़ कर )
3. अरुणाचल प्रदेश के आठ पुलिस थाना क्षेत्रों में
4. असम
जहां तक एएफएसपीप को हटाने का सम्बंध है, सभी पणधारकों के साथ अर्थपूर्ण वार्ता प्रारंभ करने की आवश्यकता है।      सेना और केन्द्रीय सशस्त्र पुलिस बल को शामिल कर ही एएफएसपीए को क्रमिक रूप में हटाने का निर्णय लिया जा सकता है, जहां स्थिति मणिपुर की तरह पर्याप्त अवधि हेतु शांतिपूर्ण और स्थिर हो, उल्लेखनीय है कि मणिपुर ने एएफएसपीए समाप्त करने हेतु उग्र विद्रोह शृंखला के बाद इम्फाल राजधानी के 20 वर्ग किमी क्षेत्र में एएफएसपीए को अगस्त 2004 में निरस्त किया था।
♦4.7.3 2012 का बोडो मुस्लिम संघर्ष
एनडीएफबी और एबीएसयू के अंतर्गत 1986 से बोडो एक पृथक् बोडोलैंड के लिए संघर्षरत हैं। इस मांग का गैरबोडो लोग, जिसमें बांग्ला बोलने वाले बांग्लादेश से विस्थापित मुस्लिम भी शामिल हैं, विरोध करते हैं।
जुलाई 2012 में बोडो तथा मुस्लिम के बीच हुए साम्प्रदायिक हिंसा में कई लोग मारे गए तथा 4 लाख से ज्यादा लोग बेघर हो गए। प्रारम्भ में कोकराझार तथा चिराग जिले में हिंसा शुरू हुई जो बाद में असम के निचले भाग में स्थित सभी जिलों में फैल गई बोडो संगठनों ने गैर-कानूनी प्रवासियों के खिलाफ अपने रुख को कड़ा करते हुए मुस्लिम समुदाय की नागरिक जांच और उनकी नागरिकता की स्थिति को अद्यतन बनाने की मांग की।
वर्ष 2012 में हुई हिंसा ने स्वदेशी बोडो लोगों और बंगाली बोलने वाले मुसलमानों के बीच जातिय तनाव को और अधिक बढ़ा दिया। मुसलमानों का कहना है कि वे ब्रिटिशराज के दौरान पूर्वी बंगाल में रहने वाले मुसलमानों के वंशज है वहीं दूसरी ओर स्थानीय समुदायों का आरोप है कि मुस्लिम आबादी बढ़ी है जिसका कारण 1971 के युद्ध से पहले पूर्वी पाकिस्तान से आए हुए शरणार्थियों का अवैध प्रवास है।
इस चुनौती का सामना करने के लिए मुस्लिम विद्यार्थी परिषद ने एकत्रित होकर यूएमएफपीआर की स्थापना की।
4.7.4 म्यांमार से रोहिंग्या मुस्लिमों का पलायन
म्यांमार के राहाइन राज्य के उत्तर में बसे रोहिंग्या समुदाय मुख्यतः मुस्लिम हैं जिनकी आबादी लगभग 8-9 लाख है। यद्यपि ये लोग वहां सदियों से रह रहे हैं, परंतु बौद्ध धर्म बहुल बर्मा ने इनको नागरिकता का अधिकार नहीं दिया है। उन्हें वहां तंग किया जाता है तथा बांग्लादेश एवं थाईलैंड के शरणार्थी शिविर में शरण लेना पड़ता है।
रोहिंग्या मुसलमानों का पलायन म्यांमार के उत्तर में राखीन राज्य में जून, 2013 में राखीन बौद्ध तथा रोहिंग्या के बीच दंगे के बाद शुरू हुआ। अक्टूबर के अंत में मुसलमानों एवं बौद्धों के बीच हिंसा फिर शुरू हो गई। इन दंगों में कम-से-कम 80 लोग मारे गए, 20 हजार से अधिक लोग बेघर हुए तथा हजारों घरों को जला दिया गया। शुरुआत से लेकर अब तक इस संघर्ष में लगभग 1 लाख आदमी बेघर हो चुके हैं। रोहिंग्या लोगों को पृथक् बस्ती में रहना पड़ रहा है तथा उन्हें इन बस्तियों को छोड़ने का अधिकार नहीं है। जो लोग मुसलमानों के साथ व्यापार करते हैं उन्हें बौद्ध-भिक्षुओं द्वारा धमकी के साथ व्यापारिक बहिष्कार का सामना करना पड़ता है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने रोहिंग्या को विश्व का सबसे ज्यादा प्रताड़ित अल्पसंख्यक माना है।
विगत दो वर्षों के दौरान भारत में आने वाले रोहिंग्या मुसलमानों की संख्या में काफी वृद्धि हुई है। इनमें से अधिकांश लोगों ने देश के मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्रों में शरण ले रखी है। म्यांमार में बौद्ध बहुसंख्यक द्वारा जातीय संगत सफाई अभियान में भारत का हैदराबाद शहर रोहिंग्या मुस्लिमों के लिए शरण स्थल बना हुआ है। यह बताया जाता है कि बांग्लादेश के रोहिंग्या मुस्लिम पश्चिम बंगाल के कूचबिहार तथा दीनाजपुर जिलों से होकर भारत में घुसते हैं।
जानकारों के अनुसार रोहिंग्या मुसलमानों का भारत के मुसलमानों के साथ धर्म के अलावा कोई समानता नहीं है। उनके जीवन-यापन का तरीका बिलकुल भिन्न है जिसके कारण वे यहां सामंजस्य नहीं बना पाते।
म्यांमार में बौद्धमुस्लिम तनाव के कारण भारत में क्षेत्रीय स्तर पर एक राजनीतिक समस्या पैदा हो गई है जिसका सीधा संबंध भारत की सुरक्षा से है।
 माना जाता है कि बौद्ध लोगों से हिंसात्मक कार्रवाई द्वारा बदला लेने के लिए रोहिंग्या को मदद का आश्वासन देकर लश्कर-ए-तैयबा उन्हें भर्ती कर रहा है। आतंकवादी दल लश्कर-ए-तैयबा ारा रोहिंग्या समुदाय को समर्थन देने की सूचना के बाद भारत के गृह मंत्रालय ने भारत में रोहिंग्या मुस्लिमों की गणना करने का निर्णय किया है।
लश्कर-ए-तैयबा तथा जमात-उद-दावा ने दीफा-ए-मुसलमान आराकान (बर्मा) नामक एक संगठन की स्थापना की है। इस संगठन को म्यांमार तथा बांग्लादेश में अन्य इस्लामिक संगठनों के साथ संपर्क बनाने के लिए कहा गया है। ऐसे अन्य कई आतंकवादी संगठन हैं जो रोहिंग्या के साथ संलिप्त हैं। एक तरफ रोहिंग्या को सऊदी अरब से धन प्राप्त हो रहा है तो दूसरी तरफ थाईलैंड से हथियार प्राप्त हो रहे हैं।
उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ में, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र तथा जम्मू-कश्मीर में भी रोहिंग्या की खासी आबादी है। रोहिंग्या शरणार्थियों को दिल्ली में स्थित संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग के समक्ष शरणार्थी के दर्जे की मांग करते हुए देखा जा सकता हैं।
यह विश्वास किया जाता है कि बोध गया में महाबोधी मन्दिर के ऊपर 7 जुलाई 2013 को हुआ हमला म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों का बदला लेने के लिए अंतर्राष्ट्रीय बौद्ध पर्यटकों को लक्ष्य बनाया गया था।
♦रोहिंग्या (आधुनिक घटनाक्रम )
म्यांमार के राखिन राज्य में 25 अगस्त, 2017 से शुरू हुई हिंसा और अत्याचार से आजीज आकर 7 लाख रोहिंग्याओं ने अपना देश छोड़ दिया है। एक मिलियन (लगभग 10 लाख) रोहिंग्या बांग्लादेश में शरण लिये हुए हैं, जो एक बड़े मानवीय संकट का कारण हैं। गृह मंत्रालय ने उन्हें ‘अवैध शरणार्थी’ माना है और उन्हें ‘राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा’ बताते हुए उन्हें अपने मूल देश भेजने के लिए सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका भी दायर की है। भारत पहले से ही कश्मीर और पूर्वोत्तर में आतंकवाद – उग्रवाद से संघर्षरत है। अब रोहिंग्या मुसलमानों की मौजूदगी और आग लहकाएगी।
सरकार ने रोहिंग्याओं की वापसी के लिए एक सख्ती नीति अख्तियार की है और इसे एक प्रशासनिक निर्णय बताया है, जिसमें राजनयिक और अन्य विचारणीय पक्षों को शामिल किया है। इसके साथ ही, राष्ट्रीय हित के विचार सर्वाधिक प्रश्रय दिया है। लेकिन मानवाधिकार समूहों ने सरकार के इस निर्णय की आलोचना की है। ह्यूमन राइट्स वॉच ने कहा कि ‘रोहिंग्याओं का निर्वासन उन्हें गंभीर उत्पीड़न और अधिकार हनन के जोखिम में डाल देगा।’ एमनेस्टी इंटरनेशनल ने कहा कि उनका निर्वासन, ‘अंतर्राष्ट्रीय कानूनी प्रथा का उल्लंघन’ है।
भारतीय संविधान का केवल अनुच्छेद 19 ही भारत के नागरिकों को देश के किसी भी हिस्से में रहने और बसने के अधिकार का विवरण देता है लेकिन यह अधिकार भी रोहिंग्याओं के लिए सुलभ नहीं हैं।
♦रोहिंग्या कानूनी आधार पर रिहाइश के अधिकार का दावा नहीं कर सकते, क्योंकि भारत ने शरणार्थियों का दर्ज देने के 1951 कन्वेंशन पर हस्ताक्षर नहीं किया है और न ही 1967 के प्रोटोकॉल रिलेटिंग टू स्टेट्स ऑफ रिफ्यूजी का ही अधोहस्ताक्षरी है। अतः वापस नहीं भेजने के प्रावधान को शरणार्थियों तक विस्तारित नहीं किया जा सकता।
♦ इसके अतिरिक्त, 1946 का विदेशी अधिनियम केंद्र सरकार को अवैध अप्रवासी के निर्वासन का सांविधिक अधिकार देता है।
♦इसके अलावा, सरकार ने दावा किया है कि इन अप्रवासियों की मौजूदगी से भारतीय नागरिकों के ऊपर प्रतिकूल असर पड़ेगा। ये अप्रवासी देश के रोजगार क्षेत्र, सस्ती दरों पर मिलने वाले आवास, चिकित्सा और शैक्षणिक सुविधाओं में भारतीय नागरिकों की वैध हिस्सेदारी से भी वंचित रहना पड़ेगा। संसाधनों में खिंचाव अप्रवासियों के विरुद्ध शत्रुतापूर्ण वातावरण बना सकता है, जिसका अवश्यंभावी दुष्परिणाम सामाजिक तनाव और विधि-व्यवस्थाजनित समस्याओं में दिखेगा।
सुरक्षा के लिए खतरा
♦सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में दिये अपने शपथ पत्र में कहा है कि म्यांमार से एजेंट और दलालों के जरिये भारत के बेनापोले- हरिदासपुर (प. बंगाल), हिली (प. बंगाल), सोनामुरा (त्रिपुरा), कोलकाता एवं गुवाहाटी के माध्यम से भारत में अवैध प्रवासियों / रोहिंग्याओं की सुविधा थी।
♦सुरक्षा एजेंसियों से मिली सूचनाओं से जाहिर होता है कि रोहिंग्या हवाला चैनल, मानव तस्करी और फर्जी भारतीय पहचान पत्र हासिल करने के जरिये धन उगाही में लगे हैं।
♦खुफिया रिपोर्ट ने रोहिंग्याओं के साथ आईएसआई और आईएसआईएस के प्रतीकात्मक दावे को रेखांकित किया है, जो देश में साम्प्रदायिक हिंसा भड़का सकता है तथा बौद्ध धर्म केंद्रित पूर्वोत्तर को अस्थिर कर सकता है।
♦भारत को मौजूदा मानवीय संकट के समाधान के लिए म्यांमार और बांग्लादेश के साथ बातचीत करनी चाहिए। ठीक इसके साथ ही, भारत-बांग्लादेश और भारत-म्यांमार की अंतर्राष्ट्रीय सीमा पर सक्रिय गश्त बढ़ा देना चाहिए।
4.7.5 इनर लाइन परमिट (आईएलपी) आंतरिक वीजा
आंतरिक वीजा की व्यवस्था (आईएलपी) एक विशेष पास या परमिट या अर्ध वीजा है, जो कि भारतीय नागरिकों को किसी राज्य के प्रतिबंधित या संरक्षित इलाकों में सीमित अवधि तक के लिए जाने के समय जरूरी होता है। इसे ब्रिटिश भारत की सरकार ने स्वदेशी जनजातीय लोगों को उनके क्षेत्र में बाहरी लोगों के अतिक्रमण से बचाने के लिए लागू किया था। बाद में, उसने इसका उपयोग अपने उच्च व्यावसायिक हितों को साधने के लिए करने लगी थी। इस स्थिति में आईएलपी व्यवस्था के अंतर्गत आने वाले संरक्षित / प्रतिबंधित इलाकों की अधिसूचना संघीय सरकार जारी करती थी और आंतरिक वीजा बंगाल, ईस्टर्न फ्रंटियर रेगुलेशन- 1873 के तहत राज्य सरकारें जारी करती थीं। यह परमिट या अर्ध वीजा की व्यवस्था वर्तमान में पूर्वोत्तर के तीन राज्यों; अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम और नगालैंड में लागू है।
बाद में मणिपुर, मेघालय आदि राज्यों से भी आंतरिक वीजा (यानी इनर लाइन परमिट सिस्टम) को लागू करने और एनआरसी के भी क्रियान्वयन की मांग हो रही है।
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