‘कला में शिक्षा’ व ‘शिक्षा में कला’ की संकल्पना को परिभाषित कीजिए ।
‘कला में शिक्षा’ व ‘शिक्षा में कला’ की संकल्पना को परिभाषित कीजिए ।
अथवा
‘कला में शिक्षा’ और ‘शिक्षा में कला’ के मध्य अन्तर कीजिए।
उत्तर— कला में शिक्षा—यूरोप में 18वीं शताब्दी में सौन्दर्यशास्त्रियों ने कलात्मक कार्यों को तीन वर्गों में विभाजित किया—
(i) सौन्दर्यात्मक लक्ष्य से सम्बन्धित कार्य – ललित कला ।
(ii) नैतिक कार्य – आचरण कला ।
(iii) उपयोगी कार्य — उदार कला ।
उपर्युक्त वर्गीकरण से स्पष्ट होता है कि कलाओं से मानव कल्याणकारी शिक्षा की प्राप्ति होती है। कला सत्यं, शिवं और सुन्दरम् को व्यावहारिक रूप प्रस्तुत कर व्यक्ति को कर्तव्य पथ पर अग्रसर करता है। कला रस प्रधान होती है, रस दशा व्यक्ति को वैयक्तिक स्वार्थों से ऊपर उठाकर सामाजिक हितों की ओर ले जाती है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने कहा है—“…हृदय की मुक्तावस्था रस- दशा कहलाती है। इस रस दशा में आने के पश्चात् ही मनुष्य अपनी पृथक् सत्ता को भूलकर अपने हृदय को स्वार्थ-सम्बन्धों के संकुचित मण्डल से ऊपर उठाकर लोक-सामान्य भावभूमि पर ले जाता है। इस भूमि पर पहुँचे हुए मनुष्य को कुछ काल तक अपनी सत्ता को लोक-सत्ता में लीन कर देना होता है।” इस प्रकार कला मनुष्यत्व की शिक्षा देता है। कला भावनाओं का परिष्कार कर उन्हें उदात्त बनाती है और भावनाओं का उदात्तीकरण जन-कल्याण की सृष्टि करता है।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1998) और राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 के अनुसार—”कला शिक्षा पर विशेष ध्यान देते हुए इसे सभी विषयों के साथ जोड़ना चाहिए। कला शिक्षा भी ध्यमिक एवं उच्चतर माध्यमिक स्तर तक एक विषय के रूप में पढ़ाया जाना चाहिए।” कला में शिक्षा के तत्वों की सम्पृक्तता के कारण ही विद्यालयी स्तर की शिक्षा में विविध अवसरों पर विविध प्रकार के कलात्मक गतिविधियों का आयोजन किया जाता रहता है। नृत्य, गायन, वादन, नाटक मंचन, कला प्रतियोगिताओं आदि का आयोजन कर विद्यालय शिक्षा के अभीष्ट लक्ष्यों को प्राप्त करने का प्रयास करता है।
शिक्षा में कला—कला सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन के उत्कर्ष की महत्त्वपूर्ण विधा है। कला मानव जीवन के उद्गम और विकास की अखिल कहानी का अभिव्यक्तीकरण है। सम्पूर्ण भूतकाल का अध्ययन और प्रतिवेदन है। भूतकाल के विषय में सजीवता की अनुभूति को जाग्रत करने में कला विशिष्ट भूमिका निभाती है इसीलिए विद्यालयी पाठ्यक्रमों में कला को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है ।
पाठ्यपुस्तकों में मात्र तथ्यों और सूचनाओं का ही संग्रह हो तो विषयवस्तु नीरस और उबाऊ लगने लगेगी। विद्यालयी शिक्षा विद्यार्थियों को बोझ लगने लगेगी । पाठ्यपुस्तकों को सूचना और तथ्यों की पोथी बनाने के बजाय कला के माध्यम से संज्ञानात्मक समझ का विकास किया जा सकता है। चित्रों के माध्यम से प्रस्तुत विषय वस्तु एक ओर तो विद्यार्थियों को आकर्षित करते हैं, तो दूसरी ओर उनमें जिज्ञासा जगाते हैं और आगे अध्ययन के द्वार खोलते हैं।
बालक शैशवावस्था से चित्रों को देखकर वस्तुओं को पहचानता है। चित्रों के द्वारा अध्ययन कर विद्यार्थी विषय-वस्तु को सरलता तथा स्पष्टता से सीखने में सक्षम होते हैं। चित्रों द्वारा विद्यार्थियों की रचनात्मक क्षमता, सौन्दर्यबोध व आलोचनात्मक समझ विकसित होती है। चित्र विभिन्न उद्दीपनों के माध्यम से अस्पष्ट और अमूर्त ऐतिहासिक तथ्यों को मूर्त एवं यथार्थ रूप में प्रस्तुत कर शीघ्र व स्थायी ज्ञानार्जन हेतु रोचक बनाते हैं।
बालकों में संवेदनाओं को जाग्रत करने में कला की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। अनुभव, आनन्द, अभिलाषा, अनुराग, रुचि बालकों की संवेदनाओं व अनुभूतियों को सशक्त व प्रभावशाली बनाते हैं। कला अनुभूति को जन्म देती है, अनुभूति वह मानसिक अवस्था है, जिसके लिए पाठ्यक्रम, पाठ्यवस्तु, संस्था के वातावरण से ऊर्जा वांछित है। शिक्षा के मनोवैज्ञानिक उपागम ने स्पष्ट किया है कि बालक के विकास का मूल, उत्स लक्ष्य का प्रत्यक्षीकरण और उसे प्राप्त करने की प्रबल सम्भावना संवेदना में निहित है। कला संवेदनाओं के माध्यम से बालक के व्यवहार को संशोधित और परिमार्जित करने में सक्षम है। कला ज्ञानेन्द्रियों को उत्तेजित करती है, जिससे मस्तिष्क क्रियाशील होता है, तब व्यक्ति अपनी सामाजिक और भौतिक स्थिति के बोध में सक्षम बनता है।
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