जयशंकर प्रसाद : संक्षिप्त जीवनी | जयशंकर प्रसाद : साहित्यिक जीवन

जयशंकर प्रसाद : संक्षिप्त जीवनी | जयशंकर प्रसाद : साहित्यिक जीवन

जयशंकर प्रसाद : संक्षिप्त जीवनी

आप छायावाद के बारे में थोड़ा बहुत जान गए हैं। थोड़ी और रोचक जानकारी दूसरे छायावादी कवि सुमित्रानन्दन पंत को पढ़ते हुए मिलेगी। यहाँ आप जयशंकर प्रसाद की जिंदगी के उतार चढ़ाव को देखेंगे। इस उतार-चढ़ाव में आपको यह समझते देर नहीं लगेगी कि साहित्य रचना किरण की जागीर नहीं होती। जिस किसी जाति, व्यवसाय या पेशे का व्यक्ति साहित्य-लेखन करना चाहेंगे कर सकते हैं। शर्त यह है कि साहित्य रचना के अध्ययन-अध्यापन-लेखन संबंधी जो मानदंड हैं, उस पर खरे उतरना चाहिए।
जयशंकर प्रसाद का जन्म सन् 1889 ई0 (माघ शुक्ल दशमी, संवत, 1946 वि0) को वाराणसी में हुआ। प्रसाद के दादाजी शिव रत्न साहु वाराणसी के अत्यंत प्रतिष्ठित नागरिक थे और एक विशेष प्रकार के सुरती (तंबाकू) बनाने के कारण सुँघनी साहु के नाम से विख्यात थे। उनकी दानशीलता सर्वविदित थी और उनके यहाँ विद्वानों, कलाकारों का खूब आदर-सत्कार होता था। जयशंकर प्रसाद के पिता देवी प्रसाद साहु ने अपने पूर्वजों की परंपरा का पालन किया।
जयशंकर प्रसाद की शिक्षा घर पर ही आरंभ हुई। संस्कृत, हिंदी, फारसी, उर्दू के लिए शिक्षक नियुक्त थे। कुछ समय बाद स्थानीय क्वीन्स कॉलेज में इनका नाम लिखा दिया गया। पर यहाँ वे आठवीं कक्षा तक ही पढ़ सके। आपको यह जानकर आश्चर्य लगा होगा कि एक ही बार वं कॉलेज में कैसे चले गए? कॉलेज में छठी, सातवीं और आठवीं की पढ़ाई कैसे होती होगी? उस समय पढ़ाई की ऐसी ही व्यवस्था थी।
मात्र बारह वर्ष की उम्र में इनके पिताजी का देहांत हो गया। फलस्वरूप इनका पुस्तैनी व्यवसाय इस कदर घाटे में चला गया कि जहाँ धन संपत्ति की कमी नहीं थी, वह परिवार ऋण ‘के भार से दब गया। पिता की मृत्यु के तीन वर्ष के अंदर प्रसाद की माँ भी चल बसीं। प्रसाद की परीक्षा की इंतहा तो तब हो गयी जब उनके बड़े भाई शंभू रतन की मृत्यु हो गयी। मात्र सत्रह वर्ष की उम्र में प्रसाद पर पूरे परिवार की जिम्मेदारी आ गयी। इन्हें काव्य साहित्य लिखने की प्रेरणा घर पर होनेवाली समस्यापूर्तियों से प्राप्त हुई, जो विद्वानों की मंडली में उस समय प्रचलित थी। यक्ष्मा के कारण कवि का देहांत 15 नवम्बर 1937 ई0 में हो गया।

 जयशंकर प्रसाद : साहित्यिक जीवन

कहा जाता है कि नौ वर्ष की अवस्था में ही जयशंकर प्रसाद ने ‘कलाधर’ उपनाम से ब्रजभाषा में एक सवैया लिखकर अपने गुरु
रसमयसिद्ध को दिखाया था। इस सवैया को देखकर उनके गुरुजी बहुत खुश हुए होंगे। उनकी आरंभिक रचनाएं यद्यपि ब्रजभाषा में मिलती हैं, पर क्रमश: वे खड़ी बोली को अपनाते गए और इस समय उनकी ब्रजभाषा की जो रचनाएं उपलब्ध हैं, उनका महत्व केवल ऐतिहासिक है। प्रसाद की आरंभिक रचनाएं ‘इन्दु’ नामक पत्रिका में छपती थी। कालक्रम के अनुसार ‘चित्राधारा’ (1918) प्रसाद का प्रथम संग्रह है। इसमें कविता, कहानी, नाटक, निबंध सभी का संकलन था और ब्रजभाषा तथा खड़ीबोली दोनों भाषाओं का प्रयोग इसमें हुआ था। ‘कानन कुसुम’ प्रसाद की खड़ीबोली की कविताओं का प्रथम संग्रह है।
‘झरना का प्रथम प्रकाशन 1918 ई0 में हुआ। ‘झरना’ में प्रसाद के व्यक्तित्व का प्रथम बार स्पष्ट प्रकाशन हुआ है और इसमें आधुनिक काव्य की प्रवृत्तियों को अधिक मुखर रूप में देखा जा सकता है। इसमें छायावाद युग की सारी विशेषताएं देखी जा सकती है। ‘आँसू प्रसाद की विशिष्ट रचना है। ‘आंसू’ एक श्रेष्ठ गीतिकाव्य है, जिसमें कवि की प्रेमानुभूति व्यंजित है। इसका मूल स्वर विषाद का है पर अंतिम पंक्तियों में आशा-विश्वास के स्वर हैं। लहर’ में प्रसाद की सर्वोत्तम कविताएँ संकलित हैं। इसमें कवि की प्रौढ़ रचनाएँ है। ‘कामायनी’ प्रसाद का प्रबंध काव्य है। ‘कामायनी’ कवि का गौरव ग्रंथ है। इसमें आदि मानव मनु की कथा है, पर कवि ने अपने युग के महत्त्वपूर्ण प्रश्नों पर विचार किया है।
प्रसाद के नाटकों की संख्या 12 है। इनका पहला नाटक ‘सज्जन’ इंदु में 1910-11 में प्रकाशित हुआ। इनके अन्य महत्त्वपूर्ण नाटक है-राज्यश्री, कामना, जनमेजय का नागयज्ञ, स्कन्छगुप्त, एक घुट, चंद्रगुप्त तथा ध्रुवस्वा आदि। छाया, प्रतिध्वनि, आकाशदीप, आंधी तथा इंद्रजाल प्रसाद के कथा-संग्रह हैं। कंकाल, तितली और इरावती इनुके उपन्यास हैं। ‘काव्य कला तथा अन्य निबंध’ प्रसाद का महत्त्वपूर्ण निबंध संग्रह है।
प्रसाद के संपूर्ण साहित्य पर अगर आप दृष्टि डालें तो आपको ज्ञात होगा कि वे एक विकासमान व्यक्तित्व के कलाकार हैं। उनकी आरंभिक रचनाएँ थोड़ी शिथिल जरूर हैं, पर प्रसाद ने अनुभूति और शिल्प दोनों ही दिशाओं में सतत् जागरूक दृष्टि का परिचय दिया है। प्रसाद ने मुख्यतया गहन अनुभूति के रचनाकार हैं। उनके अनुभव की सीमाएँ हैं और इसी कारण यथार्थवादी लेखकों जैसी व्यापकता उनमें प्राप्त नहीं होती। पर अध्ययन, मनन के द्वारा उन्होंने अच्छी इतिहास दृष्टि प्राप्त की थी और कामायनी में उनका युगबोध सहज ही देखा जा सकता है।
प्रसाद का समस्त साहित्य मानवीय और सांस्कृतिक भूमिका पर प्रतिष्ठित है। प्रेम, सौंदर्य आदि की अनुभूतियाँ उनकी मानवीयता से संबंध रखती है। नाटकों में उनकी सांस्कृतिक दृष्टि अधिक प्रखरता से आयी है। कविताओं में प्रसाद की आंतरिक अनुभूतियों का प्रकाशन अधिक स्पष्ट है, ‘आंसू’ तो उनके व्यक्तित्व का पूर्ण प्रतिफलन ही बन गया है। नाटकों में इतिहास के माध्यम से वे भारतीय अतीत की सांस्कृतिक चेतना को अभिव्यक्ति देना चाहते हैं। भारतीय इतिहास, दर्शन और संस्कृति के प्रति कवि की रागात्मकता सर्वत्र देखी जा सकती है।
प्रसाद छायावाद युग के प्रतिनिधि कवि हैं। इस साहित्य आंदोलन की जितनी अधिक प्रवृत्तियाँ उनके साहित्य में मिलती है, उतनी अन्य किसी में नहीं। अनुभूति की गहनता, लाक्षणिक शैली, गीतिमयता, प्रेमानुभूति, सौंदर्य-चेतना, कल्पना तत्व, सांस्कृतिक भावना, आदर्शवादी दृष्टि तथा आत्म प्रकाशन आदि के जो गुण छायावादी काव्य में प्रमुखता से प्राप्त है, उनका सर्वाधिक प्रतिफलन प्रसाद में मिलता है। आप कह सकते हैं कि ‘कामायनी’ जैसी कृतियों में छायावाद अपने चरम बिन्दु पर व्यक्त हुआ है। उसमें उसका सर्वोत्तम प्रतिफलन है।

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