छायावाद क्या है? | छायावाद : उद्भव और विकास

छायावाद क्या है? | छायावाद : उद्भव और विकास

छायावाद के जन्म के संबंध में कई मत प्रचलित हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का मंतव्य है, “हिन्दी कविता की नयी धारा (छायावाद)
का प्रवर्तक इन्हीं को विशेषत: मैथिलीशरण गुप्त और मुकुटधर पाण्डेय को समझना चाहिए।” शुक्लजी के अनुसार छायावाद का जन्म-काल
ई. सन् 1905 के लगभग माना जाना चाहिए। परंतु इस संबंध में अनेक विद्वानों को आपत्ति है। सुप्रसिद्ध साहित्यकार इलाचन्द्र जोशी छायावाद
का प्रारंभ ई. सन् 1913-14 के लगभग मानते हुए जयशंकर प्रसाद को छायावाद का जनक मानते हैं। इलाचन्द्र जोशी के शब्दों में, “प्रसादजी
अविवादास्पद रूप से हिन्दी के सर्वप्रथम छायावादी कवि ठहरते हैं। सन् 1913-14 के आसपास ‘इन्दु’ प्रतिमास उनकी जिस ढंग से कविताएँ
निकलती थीं, वे निश्चय रूप से तत्कालीन हिंदी काव्य क्षेत्र में युग-विवर्तन की सूचक थी।” हिंदी के प्रसिद्ध आलोचक नन्ददुलारे वाजपेयी
सुमित्रानन्द पंत को छायावाद का प्रथम कवि मानते हुए लिखते हैं, “साहित्यिक दृष्टि से छायावादी काव्यशैली का वास्तविक अभ्युदय सन् 1920
के आसपास सुमित्रानन्दन पंत की ‘उच्छवास’ नाम की काव्य-पुस्तिका के साथ माना जा सकता है।”
हिंदी के समकालीन श्रेष्ठ आलोचक डॉ. नामवर सिंह अपनी पुस्तक ‘छायावाद’ में छायावाद का आरंभ 1920 के आसपास मानते हैं।
उन्हीं के शब्दों में “छायावाद का आरंभ सामान्यत: 1920 ई. के आसपास से माना जाता है। तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं से पता चलता है कि
1920 तक ‘छायावाद’ संज्ञा का प्रचलन हो चुका था। मुकुटधर पाण्डेय ने 1920 की जुलाई, सितम्बर, नवम्बर और दिसम्बर की ‘श्री शारदा’ में
‘हिंदी में छायावाद’ शीर्षक से चार निबंधों की एक लेखमाला छपवायी थी। जब तक किसी प्राचीनतर सामग्री का पता नहीं चलता, इसी को
छायावाद संबंधी सर्वप्रथम निबंध कहा जा सकता है।”
 छायावाद क्या है?
बस्तुत छायावाद मध्यवीय चेतना के काव्यात्मक विद्रोह का दूसरा नाम है। उस विशिष्ट काल की परिस्थितियों और विचारधाराओंने विविध रूप में जीवन और काव्य को प्रभावित किया था। पूँजीवाद का विकास और व्यक्तिवाद का जन्म, स्वच्छंदतावाद की प्रवृत्तियों का उपय, प्रथम महायुद्ध का प्रभाव, राजनीतिक क्षेत्र में महात्मा गाँधी का आंदोलन और संपूर्ण समाज में स्वातंत्र्य प्रेम का जागरण, नयी पीढ़ी पर पश्चिमी सभ्यता का रंग चदना तथा अंग्रेज रोमेटिक कवियों से प्रभावित होना, बैंगला कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर के प्रति श्रद्धा, बंगाल में ब्रह्म समाज का आंदोलन और राजाराम मोहन राय के प्रांतिकारी विचार-जन विभिन्न सांस्कृतिक परिस्थितियों ने मिलजुल कर छायावाद को जन्म दिया।
साहित्य के क्षेत्र में यद्यपि रीतिकाल के विरुद्ध आवाज उठ चुकी थी, भाषा तो बदल रही थी किंतु छंद के वर्णवृत्त पूर्ववत् थे। वासना का रंग छूटा
था तो उपदेश की रंगहीनता आ गयी थी। रस के ऊपर इतिवृत्त चढ़ बैठा था द्विवेदी युगीन इतिवृत्तात्मकता से ऊब कर छायावाद ने नयी काव्य
भाषा विकसित की जिसमें लाक्षणिकता, वक्ता और व्यंजकता के सहज दर्शन होते हैं। छायावादी कवियित्री महादेवी वर्मा के शब्दों में, “उस युग
की कविता की इतिवृत्तात्मकता इतनी स्पष्ट हो चली कि मनुष्य की सारी कोमल और सूक्ष्म भावनाएं विद्रोह कर उठी। ….स्थूल सौंदर्य की
निजीब आवृत्तियों से थके हुए और कविता की परंपरागत नियम शृंखला से ऊबे हुए व्यक्तियों को फिर उन्हीं रेखाओं में बंधे स्थूल का न तो यथार्थ
चित्रण रुचिकर हुआ और न उनका रूदिगत आदर्श भाया। उन्हें नवीन रूप-रेखाओं में सूक्ष्म सौंदर्यानुभूति की आवश्यकता थी, जो छायावाद में
पूर्ण हुई।” डॉ, नगेन्द्र ने छायावाद की परिभाषा करते हुए लिखा-‘छायावाद स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह है।’
 छायावाद और राष्ट्रीय भावना
छायावादी कवियों पर बहुत दिनों तक यह आरोप लगाया जाता रहा है कि जिस समय देश ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध अपनी स्वाधीनता- संग्राम में लगा था, छायावादी कवि राष्ट्रीय प्रश्नों से उदासीन होकर क्षितिज के पार ताक-झांक कर रहे थे। वस्तुत: यह छायावादी कविता को एकांगी रष्टि से देखने का परिणाम है। सर्वप्रथम नंददुलारे वाजपेयी ने इस मत का खंडन किया। तत्पश्चात् सुधि समीक्षक डॉ. नामवर सिंह ने ‘छायावाद’ नामक पुस्तक लिखकर इन सारी प्रांतियों को दूर कर यह प्रमाणित किया कि छायावादी काव्य में जहाँ एक ओर राष्ट्रीयता का बोध है
वहीं ये कविताएँ सामाजिक सरोकार से युक्त हैं। छायावादी कविता में राष्ट्रीयता की भावना को रेखांकित करते हुए डॉ. नामवर सिंह लिखते हैं,
“बुद्धिजीवी मध्य वर्ग के नेतृत्व में भारतीय जनता ने अपनी राजनीतिक और सामाजिक स्वाधीनता के लिए जो संघर्ष किया, उसके कई पहलुओं
को छायावाद ने सच्चाई के साथ प्रतिबिंबित किया और यथाशक्ति उसे आगे बढ़ाने में योग भी दिया।” हर पराधीन देश में राष्ट्रीयता की भावना
का उदय पुनरुत्थान भावना से होता है। भारतवासियों ने वर्तमान पराधीनता के अपमान को झूलने के लिए अतीत के स्वर्ण युग का सहारा लिया।
वर्तमान की हार का उत्तर उन्होंने अतीत की जीत से दिया।
इस पुनरुत्थानपरक जातीय भावना को छायावादी कवियों ने प्रतिध्वनित किया। पुनरुत्थान भावना जयशंकर प्रसाद में सर्वाधिक थी।
चंद्रगुप्त आदि ऐतिहासिक नाटकों के द्वारा उन्होंने जातीय जागरण के प्रसार में सहयोग तो दिया ही, इस भावना के कई गीत भी लिखे। इनमें
‘स्कन्दगुप्त’ का प्रसिद्ध गीत ‘हिमालय के आँगन में उसे प्रथम किरणों का दे उपहार’ अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। आत्मगौरव का जैसा महिमामंडन इस
गीत में हुआ है, वैसा उस युग के किरदार में शायद ही मिले-
वही है खत, वही है देह
वही साहस है, वैसा ज्ञान
वही है शांति, वही है शक्ति
वही इस दिव्य आर्य संतान
जिएँ तो सदा उसी के लिए
यही अभिमान रहे यह हर्ष
निछावर कर दे हम सर्वस्व
हमारा प्यारा भारतवर्ष
‘पेशोला को प्रतिध्वनि’ और ‘शेर सिंह का शस्त्र ये दो और कविताएं प्रसाद की ऐसी हैं जिनमें आतीय पराजय की मार्मिक झाकी दिखलाते हुए आकांक्षा जगाई है। छायावादी कवियों में प्रसाद के बाद जिनमें अपनी परंपरा के गौरव का बोध सबसे अधिक था,वे हैं निराला। छत्रपति शिवाजी का पत्र, जागो फिर एक बार आदि कविताएँ इस भाव के श्रेष्ठ उदाहरण हैं। अतीत प्रेम के अतिरिक्त सीथ सीधे देश प्रेम की भावना भी छायावादी कविताओं में देखने को मिल जाते हैं। प्रसाद भावुक देश प्रेम से आगे बढ़कर स्वतंत्रता के लिएउद्बोधन गीत भी लिखते हैं-
“हिमाद्रि तुंग भंग से
प्रबुद्ध शुद्ध भारती
एवं प्रभा समुज्ज्वला
स्वतंत्रता पुकारती।”

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