जवाहरलाल नेहरू की विदेश नीति के प्रमुख लक्षणों का परीक्षण कीजिए ।
जवाहरलाल नेहरू की विदेश नीति के प्रमुख लक्षणों का परीक्षण कीजिए ।
(60-62वीं BPSC/2018)
अथवा
जवाहरलाल नेहरू की विदेश नीति गुट निरपेक्षता एवं पंचशील पर आधारित थी। इसके प्रमुख लक्षणों का वर्णन करें।
उत्तर– 1946 में जब पहली बार भारतीयों को अपनी विदेश नीति स्वतंत्र रूप से निर्धारण करने का अवसर मिला तो उस समय तक संसार लगभग दो गुटों में बंट चुका था। दोनों गुट के नेता अन्य दुर्बल शक्तियों को अपने गुट में सम्मिलित होने के लिए दबाव डाल रहे थे। 1946 में जब भारत में अन्तरिम सरकार का गठन हुआ और पंडित जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री बनें तो उन्होंने अपनी विदेश नीति का ब्यौरा इस प्रकार दिया था
‘यथासम्भव हम दोनों गुटों की शक्तियों की राजनीति से, जहां दो गुट एक-दूसरे के विरुद्ध डटे हुए हैं, से दूर रहना चाहते हैं, क्योंकि संसार का दो गुटों में बंटना ही दोनों विश्वयुद्धों का कारण था। हमारे अनुसार सिद्धान्त और व्यवहार में सभी जातियों के लिए समान अवसर प्राप्त होने चाहिए। हम किसी देश पर प्रभुत्व नहीं चाहते और न ही हम अपने लिए औरों पर कोई विशेषाधिकार चाहते हैं। “
नेहरू का भारतीय विदेश नीति के उद्भव और विकास में मुख्य योगदान यह था कि उन्होंने निष्पक्षता अथवा सम दूरी की नीति को अपनाया तथा भारत को दोनों गुटों से दूर रखा । निष्पक्षता की नीति का मुख्य तत्व यह था कि प्रत्येक प्रश्न पर स्वतंत्रतापूर्वक निर्णय लिया जाए तथा किसी एक गुट के प्रभाव में आकर निर्णय न लिया जाए। नेहरू तथा भारत की नीति मुख्य रूप से यही रही है कि शान्ति, निःशस्त्रीकरण तथा समानता का पक्ष लिया जाए तथा अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को महत्व दिया जाए ताकि अन्तर्राष्ट्रीय झगड़े शान्तिपूर्वक सुलझाए जा सकें।
भारत ने अपने निष्पक्ष रूख पर अधिक बल देने के लिए मिस्र के नासिर तथा युगोस्लाविया के टीटो के साथ मिलकर गुट निरपेक्षता की नींव रखी। इस निष्पक्ष कांफ्रेंस की लोकप्रियता इतनी बढ़ी कि एक समय पर लगभग 100 देश इसके सक्रिय सदस्य थे। इसका मुख्य उद्देश्य था – स्वतंत्रता, शान्ति, निःशस्त्रीकरण तथा आर्थिक विकास। पं. जवाहरलाल नेहरू के विदेश नीति के दर्शन हम भारत-चीन के बीच हुए पंचशील समझौते (1954) में देख सकते हैं जो इस प्रकार हैं
1. एक-दूसरे के क्षेत्रों तथा प्रभुसत्ता का आदर करेंगे ।
2. अनाक्रमण की नीति अपनाएंगे।
3. एक-दूसरे के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेंगे।
4. समानता तथा आपसी लाभ पर बल देंगे।
5. शान्तिपूर्ण सह अस्तित्व की नीति का अनुसरण करेंगे।
नेहरू द्वारा शुरू की गई यह पंचशील नीति दशकों से भारत के विदेश नीति की धुरी रही है। छोटे से छोटे देशों को भी बराबरी का दर्जा देने की नीति की शुरुआत नेहरू जी द्वारा ही की गई थी। नेहरू द्वारा शुरू की गई, इस पंचशील नीति को कई अन्य देशों द्वारा अपने देश की विदेश नीति में शामिल किया गया। नेहरू के विदेश नीति के सन्दर्भ में ही भारत की परमाणु शस्त्र नीति भी बनाई गई। इस नीति के द्वारा भारत ही एक ऐसा परमाणु सम्पन्न देश है जो अपने परमाणु शस्त्र को श्छव पितेज नेमश् की नीति द्वारा संचालित करता है जिसे कई मौकों पर अन्य देशों द्वारा सराहना भी मिली है।
नेहरू की सबसे बड़ी असफलता सम्भवतः अन्तर्राष्ट्रीय संबंधों में ही छीपी थी। उनकी पहली असफलता बिना सोचेसमझे ‘कश्मीर समस्या’ को संयुक्त राष्ट्र संघ में ले जाना था तथा शान्ति स्थापित होने के पश्चात् कश्मीर में जनमत संग्रह कराने का प्रस्ताव रखना भी था। इसी प्रकार भारत-चीन सीमा विवाद के सन्दर्भ में भी समस्या का सही निर्णय न लेना भी एक बड़ी असफलता में गिना जाता है। वह भारत के लिए दो ऐसी समस्याएं छोड़ गए हैं, जिन्हें सुलझाना कठिन है।
इस प्रकार, यदि हमें नेहरू के विदेश नीति का मूल्यांकन करना हो तो यह नकारात्मक – सकारात्मक दोनों होते हुए भी कश्मीर और चीन नीति को छोड़ दें तो भारत के लिए एक मील का पत्थर साबित हुआ। उनकी भारत-रूस मैत्री नीति आज भी देश को सबलता प्रदान कर रहा है। नेहरू जी द्वारा शुरू की गई गुट निरपेक्षता का सिद्धान्त आज भी भारत की विदेश नीति का मार्गदर्शन करता है। विदेश नीति में दिया गया इनका योगदान भारतीय इतिहास में सदा अविस्मरणीय रहेगा। हजारों वर्ष पुराने इतिहास के सफर में भी हमारी सांस्कृतिक विरासत की शान्ति, अहिंसा और सहनशीलता में ही वसुधैव कुटुम्बकम् एवं विश्व कल्याण की भावना रही है। साधन और साध्य दोनों की पवित्रता में विश्वास ही हमारी विदेश नीति की नींव रही है।
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