‘जित-जित मैं निरखत हूँ’ का सारांश लिखें।
‘जित-जित मैं निरखत हूँ’ का सारांश लिखें।
उत्तर :- बिरजू महाराज कथक नृत्य के महान कलाकार हैं। उनका जन्म लखनऊ के जफरीन अस्पताल में 4 फरवरी, 1938 को हुआ। वे घर में आखिरी संतान थे। तीन बहनों के बाद उनका जन्म हुआ था। बिरजू महाराज के पिताजी भी नृत्यकला विशारद थे। वे रामगढ़, पटियाला और रामपुर के राजदरबारों से जुड़े रहे। छह साल की उम्र में ही बिरजू महाराज रामपुर के नवाब साहब के यहाँ जाकर नाचने लगे। बाद में वे दिल्ली में हिंदुस्तानी डान्स म्यूजिक में चले गए और वहाँ दो-तीन साल काम करते रहे। उसके बाद वे अपनी अम्मा के साथ लखनऊ चले गए।बिरजू महाराज के पिताजी अपने जमाने के प्रसिद्ध नर्तक थे। जहाँ-जहाँ उनका प्राग्राम होता था, वहाँ-वहाँ वे बिरजू महाराज को अपने साथ ले जाते थे। इस तरह बिरजू महाराज अपने पिताजी के साथ जौनपुर, मैनपुरी, कानपुर, देहरादून, कलकत्ता (कोलकाता), बंबई (मुंबई) आदि स्थलों की बराबर यात्रा किया करते थे। आठ साल की उम्र में ही बिरजू महाराज नृत्यकला में पारंगत हो गए। बिरजू महाराज को नृत्य की शिक्षा उनके पिताजी से ही मिली थी।
बिरजू महाराज जब साढ़े नौ साल के थे तब उनके पिताजी की मृत्यु हो गई। उनके साथ बिरजू महाराज का आखिरी प्रोग्राम मैनपुरी में था। पिताजी की मृत्यु के पश्चात उस छोटी-सी अवस्था में बिरजू महाराज नेपाल चले गए। फिर, वहा स मुजफ्फरपुर और बाँसबरेली भी गए। बिरजू महाराज कानपुर में दो-ढाई साल रह। उन्होंने आर्यनगर में 25-25 रुपए की दो टयूशन की। टयूशन से प्राप्त पैसों से इन्होंन अपने पढ़ाई जारी रखी। पारिवारिक चिंताओं के कारण वे हाईस्कूल की परीक्षा पास नहीं कर सके।
चौदह साल की उम्र में वे लखनऊ गए। वहाँ उनकी भेंट कपिलाजी से हुई। उनकी कृपा से बिरजू महाराज ‘संगीत-भारती’ से जुड़े। बिरजू महाराज वहां चार साल रहे। स्वच्छंदता नहीं होने के कारण बिरजू महाराज ने वहाँ की नौकरी छोड़ दो। लखनऊ आकर वे भारतीय कला केंद्र से संबद्ध हो गए। वहाँ उन्होंने रश्मि नाम का एक लड़की को नृत्यकला में पारंगत किया। इससे प्रभावित होकर दूसरी सयानी लड़किया उनकी ओर आकृष्ट हुईं जिनको उन्होंने मनोयोगपूर्वक नृत्यकला की शिक्षा दी।
कलकत्ते में (कोलकाता में) इनके नत्य का आयोजन हुआ। वहा का दर्शक मंडली ने इनकी खूब प्रशंसा की। उसके बाद उनका प्रोग्राम मुंबई में हुआ आर इस तरह वे भारत के विभिन्न प्रसिद्ध महानगरों और नगरो म नृत्य दिन-प्रतिदिन उनकी ख्याति बढ़ने लगी। इन्होंने उन आयोजनों से अच्छी कमाई का। वे तीन साल तक ‘संगीत भारती’ में रहे। इन्हीं दिनों उन्होंने नृत्य का खूब रियाज किया। इन्होंने उन दिनों विभिन्न वाद्ययंत्रों का भी अच्छा-खासा अभ्यास किया। मध्य यौवन में ही इन्हें काफी प्रसिद्धि मिल गई। उन्होंने 27 साल की उम्र में ही दुनिया भर में अनेक नृत्य किए और खूब नाम और पैसा अर्जित किया । बिरजू महाराज का पहला विदेशी ट्रिप रूस का था।
अठारह साल की उम्र में बिरजू महाराज की शादी हो गई। छोटी उम्र में ही वे परिवार की नानाविध चिंताओं से घिर गए। पर, वे अपनी कला के प्रति निष्ठावान बने रहे। बिरजू महाराज के भीतर यह भावना बराबर बनी रही कि जब शागिर्द को सिखा रहे हैं तब पूर्ण रूप से मेहनत करके सिखाना और अच्छा बना देना है। ऐसा बना देना जैसा कि मैं स्वयं हूँ। बिरजू महाराज के प्रसिद्ध शागिर्दो में कुछ नाम इस प्रकार हैं-शाश्वती, वैरोनिक (विदेशी लड़की), फिलिप मेक्लीन टॉक (विदेशी लड़का), तीरथ प्रताप, प्रदीप, दुर्गा आदि। बिरजू महाराज की माँ ही उनकी असली गुरवाइन थीं।
उपलब्धियाँ :- पंडित बिरजू महाराज कथक नृत्य के महान कलाकार हैं। कलाप्रेमी जनसाधारण तथा नृत्य रसिकों के बीच कथक और बिरजू महाराज एक-दूसरे के पर्याय से बन गए हैं। अपनी अथक साधना, एकांत तपस्या, कल्पनाशील सर्जनात्मकता और अटूट लगन के कारण ही बिरजू महाराज को यह सफलता प्राप्त हो सकी है। कथक नृत्य को बिरजू महाराज ने एक नया व्याकरण दिया है और नई अभिव्यक्ति भंगिमा से सँवारा है। परंपरा की रक्षा करते हुए उन्होंने इस नृत्य के साथ कतिपय नई रुचिकर परंपराएँ जोड़ी हैं। बिरजू महाराज ने कथक को नई दिशा और विस्तृति दी है। उन्होंने इस नृत्य की शास्त्रीयता में विमोहक गतिशीलता और समकालीन बोध का समावेश किया है। बिरजू महाराज की निश्छल एवं सहज प्रकति में प्रतिभा वैभव सबको आश्चर्य विमूढ़ कर देता है। अपने नृत्य ‘के माध्यम से बिरजू महाराज ने भरतीय कला और संस्कृति के सौरभ को दिगंतव्यापी बनाया है। निश्चय रूप से बिरजू महाराज भारतीय कला के जीवंत प्रमाण हैं। अपने नृत्य आयोजनों से उन्होंने देश-विदेश में अपनी प्रतिभा का लोहा तो मनवाया ही है, साथ ही साथ भारतीय कला एवं संस्कृति की भव्यता की प्रस्तुति से उन्होंने सारी दुनिया में भारत का सिर ऊँचा किया है।
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