प्रायोगिक विधि सोपानों का वर्णन कीजिए ।
प्रायोगिक विधि सोपानों का वर्णन कीजिए ।
उत्तर— प्रायोगिक विधि (Experimental Method)– प्रयोगात्मक विधि एक वैज्ञानिक विधि है, जिसे प्राकृतिक विज्ञानों से लेकर मनोविज्ञान ने आत्मसात् (Assimilate) किया है। इसी विधि के आधार पर आज मनोविज्ञान को विज्ञान की श्रेणी में रखा गया है। इसमें प्रयोगकर्त्ता सदैव, कुछ-न-कुछ नवीन खोज के आधार पर ज्ञान प्राप्त करने को उत्साहित रहता है । इस विधि में प्रयोगकर्ता यह मानकर चलता है कि जिन परिस्थितियों में वह प्रयोग कर रहा है, वह पूर्व में अस्तित्व में नहीं थी, और न उनके समक्ष, प्रायोगिक परिस्थिति में मौजूद हैं। इसी कारण प्रयोग को परिकल्पना के परीक्षण की विधि के रूप में स्वीकार किया गया है ।
जॉन डब्ल्यू. बेस्ट ने प्रयोगात्मक अनुसन्धान की परिभाषा देते हुए लिखा है—“सावधानीपूर्वक नियन्त्रित स्थिति के अन्तर्गत क्या होगा, अथवा कौनसी घटना घटित होगी ? इसका वर्णन एवं विश्लेषण ही प्रयोगात्मक अनुसन्धान हलाता है। “
फेस्टिंगर के अनुसार, “मूल रूप से प्रयोग की व्याख्या, स्वतन्त्र चर के हस्तान्तरण से, परतन्त्र चर में होने वाले परिवर्तन के आधार पर की जा सकती है। “
प्रयोगात्मक विधि के सोपान (Aspects of Experimental Method)– शिक्षा मनोविज्ञान में जो भी प्रयोग किये जाते हैं, उनमें निम्नलिखित सोपानों या घटकों से होकर गुजरना पड़ता है—
(i) समस्या का चुनाव (Selection of Problem) – प्रयोगात्मक विधि के द्वारा सभी समस्याओं का अध्ययन नहीं किया जा सकता है, बल्कि वही समस्याएँ अध्ययन का विषय बन सकती हैं, जिनके लिए उपयुक्त परिस्थितियों का निर्माण किया जा सकता है; उदाहरण के लिए”चाय का अध्ययन और स्वास्थ्य पर क्या प्रभाव पड़ता है ?” यह समस्या भारतीय परिवेश में आज भी चर्चा का विषय बनी हुई है ।
(ii) उपकल्पना का निर्माण (Production of Preimagination)– उपकल्पनाओं का निर्माण प्रयोग करने से पूर्व समस्या के आधार पर किया जाता है। उपर्युक्त उदाहरण में अध्ययन एवं शारीरिक स्वास्थ्य पर चाय के प्रभाव को उपकल्पना में परिणित करना होगा; जैसे—“चाय के पीने से अध्ययन एवं शारीरिक स्वास्थ्य का ह्रास होता है।” बनायी जा सकती है। इस उपकल्पना की जाँच प्रयोग के द्वारा की जायेगी ।
(iii) स्वतंत्र तथा आश्रित चरों को अलग करना (Divide to Depend and Independent Variables)– पोस्टमैन एवं ईगन के अनुसार, “चर वह लक्षण एवं गुण है, जो विभिन्न प्रकार के मूल्य ग्रहण कर लेता है। “
मनोवैज्ञानिक प्रयोगों में दो प्रकार के चर पाते हैं और प्रयोग में दोनों का महत्त्व होता है। उपर्युक्त समस्या में चाय ‘स्वतन्त्र चर’ है, क्योंकि उसके प्रभाव का ही अध्ययन करना है और अध्ययन एवं शारीरिक स्वास्थ्य ‘आश्रित चर’ हैं, जो प्रयोग में स्थायी रहेंगे।
(iv) नियन्त्रण (Control)– परिवेश या परिस्थिति को प्रयोग में नियन्त्रण किया जाता है, ताकि निष्कर्ष सही प्राप्त हो सकें। टाउनसैण्ड (Townsend) के शब्दों में, “वातावरण को विनियमन करके एक घटना को विशुद्ध स्थिति में उत्पन्न करने का यत्न करना ‘नियन्त्रण’ या प्रयोग को नियन्त्रण करना कहलाता है। “
वर्तमान समय में छात्र वर्ग यह भी सिद्ध कर सकते हैं कि चाय पीने से किसी भी प्रकार की क्षति नहीं होती है। अतः छात्रों या प्रयोज्यों की आँखों को बाँध दिया गया। प्रयोज्यों के लिए असली चाय के भरे पात्र और सिर्फ बोर्नवीटा मिला गर्म दूध के पात्रों का बारी-बारी से प्रयोग किया गया। दोनों चाय के पात्रों की सुगन्ध को इलायची के द्वारा परिवर्तित कर दिया गया था। चाय पीने के पश्चात् उबली हुई चाय की पत्ती केतली एवं कपों की सतह में छोड़ दी जाती थी, ताकि वे दोनों में स्वाद सम्बन्धी कोई भी अन्तर न कर सकें। दोनों समूहों को बारी-बारी से निश्चित समय तक वास्तविक और अवास्तविक चाय पिलायी जाती थी और उनकी मानसिक एवं शारीरिक क्षमता को नोट किया जाता था।
(v) विश्लेषण (Analysis)— प्रयोगात्मक विधि में पाँचवाँ सोपान निष्कर्षों का विश्लेषण होता है। प्रयोगबद्ध दल को ‘स्वतन्त्र चर’ और नियन्त्रित दल को परतन्त्र चर के रूप में प्रयोग किया जाता है। इस प्रयोग में विशुद्ध चाय के प्रभाव से अस्वाभाविक चाय के प्रभाव की तुलना की गयी है। प्रयोग दल का विश्लेषण सांख्यिकीय विधियों के प्रयोग से किया जाता है।
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