ब्लूम के अनुसार अनुदेशनात्मक उद्देश्यों का वर्गीकरण कीजिए।
ब्लूम के अनुसार अनुदेशनात्मक उद्देश्यों का वर्गीकरण कीजिए।
अथवा
ब्लूम द्वारा प्रतिपादित शैक्षिक उद्देश्यों का वर्णन कीजिए।
अथवा
प्राथमिक व्यवहार एवं अंतिम व्यवहार के मध्य अंतर स्पष्ट कीजिए। ब्लूम द्वारा प्रतिपादित अनुदेशन उद्देश्यों के वर्गीकरण का वर्णन कीजिए ।
अथवा
ब्लूम टैक्सोनोमी की विवेचना कीजिए।
अथवा
ब्लूम ने शैक्षिक उद्देश्यों को किस प्रकार वर्गीकृत किया है ? विस्तार से वर्णित कीजिए।
अथवा
ब्लूम की शैक्षणिक लक्ष्य / उद्देश्यों की टेक्सोना को बताइये।
अथवा
ब्लूम के संज्ञानात्मक क्षेत्र के उद्देश्यों के विनिर्देशों को सूचीबद्ध कीजिये ।
उत्तर— किसी भी अधिगम अनुभव को सुगम एवं मूल्यांकन को सुनिश्चित करने के लिए शैक्षिक उद्देश्यों का वर्गीकरण शिक्षक को अध्यापन व सीखने के उद्देश्यों के निर्धारण में सहायता प्रदान करता है।
टैक्सोनॉमी का अर्थ है—वर्गीकरण प्रणाली। डॉ. ब्लूम और उनके सहयोगियों ने व्यवहार के तीनों पक्षों का वर्गीकरण प्रस्तुत किया ।
डॉ. ब्लूम ने उद्देश्यों को तीन भागों में बाँटा है—
(i) ब्लूम के आधार पर ज्ञानात्मक उद्देश्यों का वर्गीकरण
(ii) भावात्मक पक्ष के उद्देश्यों का वर्गीकरण
(iii) क्रियात्मक पक्ष के उद्देश्यों का वर्गीकरण
(i) ब्लूम के आधार ज्ञानात्मक उद्देश्यों का वर्गीकरण–डॉ. बी. एस. ब्लूम ने संज्ञानात्मक पक्ष के उद्देश्यों को 6 वर्गों में वर्गीकृत किया है—
(1) ज्ञान– इसके अन्तर्गत विद्यार्थियों को विषय-वस्तु के विभिन्न पद, प्रत्ययों, परम्पराओं, प्रचलनों, वर्गों, सूत्र, संकेत आदि का प्रत्यास्मरण व प्रत्यभिज्ञान (पहचान) (Recognition) कराया जाता है । कक्षा में इसके लिए समुचित परिस्थितियाँ उत्पन्न की जाती हैं।
(2) बोध ( दूसरे क्रम का निम्न स्तर)– अर्थग्रहण करने की क्षमता ही बोध कहलाती है। इसके अन्तर्गत निम्न तीन भाग सम्मिलित है—
(3) प्रयोग (Application) (तीसरे क्रम का निम्न स्तर)– प्राप्त किए गए ज्ञान का नवीन या विभिन्न परिस्थितियों में उपयोग करना ही इस उद्देश्य के अन्तर्गत आता है। अतः इस उद्देश्य को ज्ञान व बोध उद्देश्यों को प्राप्त करने के बाद ही किया जा सकता है। इसके भी निम्न 3 स्तर हैं जो इस प्रकार हैं—
(4) विश्लेषण (Analysis) (उच्च-स्तर )– सीखी गई विषयवस्तु के विभिन्न तत्त्वों का विश्लेषण इस उद्देश्य के अन्तर्गत आता है। यह उद्देश्य उपर्युक्त तीनों उद्देश्यों को प्राप्त करने के बाद प्राप्त किया जाता है इसके भी तीन स्तर होते हैं जो इस प्रकार हैं—
(5) संश्लेषण ( उच्चतर स्तर)– इसके अन्तर्गत विभिन्न तत्त्वों को नवीन ढाँचे या संरचना में समन्वित करके सम्पूर्ण का निर्माण किया जाता है तथा अमूर्त सम्बन्धों की खोज की जाती है। इसकी भी तीन अवस्थायें होती हैं—
(6) मूल्यांकन (उच्चतम स्तर)– इसके अन्तर्गत आन्तरिक एवं बाह्य मानदण्डों के आधार पर निर्णय करके सीखे गये ज्ञान का मूल्यांकन करना आता है। इसमें किसी वस्तु, घटना, तथ्यों आदि के प्रति आलोचनात्मक दृष्टिकोण अपनाकर उसकी उपादेयता एवं उपयोगिता के सम्बन्ध में निर्णय लेते हैं। इसके अन्तर्गत निम्न बिन्दु आते हैं—
(i) आन्तरिक साक्ष्यों के आधार पर मूल्य निर्धारण
(ii) बाह्य कसौटियों के आधार पर मूल्य निर्धारण
किसी भी शिक्षण कार्य की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि विद्यार्थी यह निर्णय ले सके कि उसने जो अधिगम किया है वह मूल्य की दृष्टि से उपयोगी है या नहीं। अतः इस स्तर पर आंतरिक साक्ष्यों व बाह्य कसौटियों के आधार पर विद्यार्थियों में तथ्यों सिद्धान्तों तथा नियमों आदि के बारे में निर्णय लेने के योग्य बनाते हैं।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि विभिन्न शिक्षण विषयों में निहित तथ्यों, सिद्धान्तों आदि की सहायता से ज्ञान से लेकर मूल्यांकन तक के उद्देश्यों की प्राप्ति करके ज्ञानात्मक पक्ष को विकसित किया जाता है।
ब्लूम द्वारा दिए गए ज्ञानात्मक पक्ष को निम्न वर्गीकरण के
आधार पर स्पष्ट कर सकते हैं—
(1) ज्ञान– इसके अन्तर्गत विद्यार्थियों को पाठ्यवस्तु के विशिष्ट तथ्यों, पदों, परम्पराओं, विधियों, प्रनियमों, सिद्धान्तों, संरचनाओं, वर्गों, कसौटियों का प्रत्यभिज्ञान (Recognisation) और प्रत्यास्मरण (Recall) कराया जाता
(2) बोध– बोध के अन्तर्गत ज्ञान वर्ग में जिन तथ्यों, वर्गों, पदों, सिद्धान्तों आदि का जिससे विद्यार्थी प्राप्त ज्ञान को शब्दों में व्यक्त कर सकें, को रखा जाता है। ज्ञान के बिना बोध नहीं हो सकता है। अतः ज्ञान वर्ग बोध वर्ग का आधार है।
(3) प्रयोग– किसी भी वस्तु का ज्ञान व बोध होने के बाद ही उस वस्तु से सम्बन्धित तथ्य, नियम के सिद्धान्त का सामान्यीकरण किया जाता है। उनकी कमजोरियों का निदान किया जाता है तथा पाठ्यवस्तु का प्रयोग किया जाता है। अतः ज्ञान व बोध इस वर्ग के आधार हैं ।
(4) विश्लेषण– इस वर्ग में विद्यार्थी तथ्यों, नियम या सिद्धान्तों आदि का विश्लेषण करता है तत्पश्चात् उनके सम्बन्धों का विश्लेषण करता है तथा फिर उनका व्यवस्थित सिद्धान्तों के रूप में विश्लेषण करता है । इसके लिए ज्ञान बोध व प्रयोग के उद्देश्यों की पहले ही प्राप्ति आवश्यक होती है ।
(5) संश्लेषण– विद्यार्थी सीखी गई पाठ्यवस्तु के तथ्यों, नियमों एवं सिद्धान्तों आदि के तत्त्वों को एक नवीन रूप में व्यवस्थित करके एक नयी योजना या प्रारूप तैयार करने में सक्षम हो जाता है परन्तु उपर्युक्त चारों वर्गों के उद्देश्यों की प्राप्ति के बाद ही यह सम्भव ।
(6) मूल्यांकन– इस स्तर पर विद्यार्थी इतना सक्षम हो जाता है कि वह निर्णय ले सके कि उसने जो अधिगम किया वह मूल्य की दृष्टि से उपयोगी है या अनुपयोगी । यह ज्ञानात्मक पक्ष का सर्वोच्च स्तर होता है ।
अतः हम कह सकते हैं कि ज्ञानात्मक पक्ष में ज्ञान से लेकर मूल्यांकन तक के उद्देश्यों को प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है।
(ii) भावात्मक पक्ष के उद्देश्यों का वर्गीकरण–भावात्मक उद्देश्यों का सम्बन्ध ‘भावना’ से होता है। डॉ. ब्लूम तथा उनके सहयोगियों ने भावात्मक पक्ष के शैक्षिक उद्देश्यों को छः वर्गों में बाँटा जो इस प्रकार हैं—
(a) आग्रहण–इसका अर्थ छात्र की ग्रहण करने की इच्छा अथवा ध्यान से होता है। इसके तीन स्तर होते हैं—
(i)चेतना
(ii) ग्रहण करने की इच्छा शक्ति
(iii) नियंत्रित ध्यान ।
(b) अनुक्रिया करना– इसके अन्तर्गत छात्र को प्रेरित किया जाता है। यह ग्रहण करने के बाद की अगली स्थिति होती है तथा इसमें छात्र ज्ञान को स्वयं अनुक्रिया करके ग्रहण करता है इसके भी तीन स्तर होते हैं—
(i) अनुक्रिया सहमति
(ii) अनुक्रिया करने के लिए इच्छा होना
(iii) अनुक्रिया करने में संतुष्टि होना ।
(c) आकलन(अनुमूल्यन)– इसका सम्बन्ध छात्र के विशिष्ट मूल्यों से होता है। इसके भी तीन स्तर होते हैं—
(i) किसी मूल्य की स्वीकृति
(ii)किसी मूल्य के लिए अधिक लगाव
(iii) प्रतिबद्धता ।
(d) धारणा/विचार– मूल्यों के प्रति एक निश्चित धारणा बनाने के लिए प्रत्यय निर्माण इसके अन्तर्गत आता है। विभिन्न मूल्यों का प्रतिपादन करना। मूल्यों में विविधता के फलस्वरूप प्राप्त किए गए मूल्यों के सम्बन्ध में प्रत्यय-निर्माण (Concept-Formation) करना ।
(e) संगठन/व्यवस्थापन– व्यवस्था का अर्थ मूल्यों रखने से होता है । इसके दो स्तर होते हैं—
(i) एक समान मूल्यों का एक प्रणाली में संगठित करना ।
(ii) मूल्यों में अन्तः सम्बन्ध का निर्धारण करना ।
ब्लूम और उनके सहयोगियों क्रथवाल एवं मसीहा द्वारा दिए
गए भावात्मक पक्ष को हम निम्न ढंग से स्पष्ट कर सकते हैं–
(a) आग्रहण या ध्यान देना– इसके अनुसार भावात्मक विकास की दृष्टि से सर्वप्रथम मानव मूल्यों की अनुभूति करानी होती है—
(i) इस अनुभूति के लिए किसी न किसी प्रकार का उद्दीपन होना जरूरी है।
(ii) उद्दीपन के प्रति छात्रों का आकृष्ट होना आवश्यक है।
(iii) उसके बाद छात्रों में उसके प्रति अनुक्रिया करने की इच्छा होनी चाहिए ।
अतः शिक्षक को अपने विद्यार्थी को इस प्रकार से अभिप्रेरित करना चाहिए कि वह मानवीय मूल्यों को भली-भाँति ग्रहण करने के लिए पर्याप्त इच्छा जाग्रत करें ।
(b) अनुक्रिया– दूसरा स्तर विद्यार्थियों की उचित अनुक्रिया से सम्बन्धित है। उचित अनुक्रिया तभी हो सकती है जब—
(i) विद्यार्थी में मूल्यों को उचित रूप से ग्रहण करने की इच्छा जाग्रत हो ।
(ii) जब विद्यार्थी स्वेच्छा से शैक्षिक गतिविधियों में भाग लेना प्रारम्भ करें।
अतः शिक्षक को विद्यार्थियों को अनुक्रिया के लिए तैयार करना चाहिए, उनमें अनुक्रिया करने की इच्छा जाग्रत करनी चाहिए और इस प्रकार के प्रयत्न करने चाहिए जिससे अनुक्रिया करने में पर्याप्त सन्तुष्टि का अनुभव करें।
(c) आंकलन– जब कोई विद्यार्थी किसी वस्तु या विचार के प्रति आकर्षित होकर अपनी अनुक्रिया व्यक्त करता है तब उसके विचार बहुत ही मूल्यवान होते हैं । अतः शिक्षक को विद्यार्थियों में किसी विशेष मूल्य को स्वीकार करने व किसी विशेष मूल्य के प्रति अधिक लगाव रखते हुए उसके पालन के लिए वचनबद्ध होने की योजना को विकसित करने का प्रयास करना चाहिए।
(d) धारणा– जब कोई विद्यार्थी उपर्युक्त निर्मित मूल्यों में समता, भिन्नता व सम्बन्ध स्थापित कर धारणाओं का निर्माण करता है तो उसका यह व्यवहार इस उद्देश्य के अन्तर्गत आता है।
(e) संगठन– जब कोई विद्यार्थी व्यवहार सम्बन्धी अनुक्रिया करता है तो इस दिशा में विभिन्न प्रकार के व्यक्तिगत व सामाजिक मूल्यों को ग्रहण करता है, जिससे कई परिस्थितियों में टकराव की स्थिति आ जाती है। इस टकराव को रोकने के लिए तथा मूल्यों को अर्जित करने के लिए मूल्यों के स्वरूप और संप्रत्यय का ज्ञान कराना आवश्यक है । इसके बाद ही इनका व्यवस्थापन और संगठन करना होता है। अतः शिक्षक को मूल्यों को अच्छी तरह समझकर ऐसी प्रणाली में गठित करना चाहिए जिससे विद्यार्थियों में एक सशक्त चरित्र उभरे।
(f) मूल्यों का चारित्रीकरण– इस स्तर पर पहुँचने से पहले पाँचों वर्गों के उद्देश्यों की प्राप्ति आवश्यक है। चरित्र सम्बन्धी यह स्तर अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। इस स्तर पर विद्यार्थी के व्यक्तिगत व सामाजिक मूल्यों के समन्वय से उत्पन्न जिस मूल्य प्रणाली अथवा चरित्र की भूमिका बन चुकी होती है उसे विशेष रूप से प्रदान करने का प्रयास किया जाता है। इसके आधार पर ही विद्यार्थी के व्यक्तित्व की पहचान होती है। अतः चारित्रीकरण भावात्मक पक्ष के उद्देश्यों में सबसे महत्त्वपूर्ण है।
(iii) क्रियात्मक पक्ष के उद्देश्यों का वर्गीकरण–क्रियात्मक पक्ष से सम्बन्धित उद्देश्यों को सिम्पसन ने (1969) में किया था । क्रियात्मक पक्ष से उद्देश्यों का सम्बन्ध विद्यार्थियों की क्रिया करने से होता है। इसके द्वारा विद्यार्थियों की क्रियाओं के परीक्षण तथा कौशलों के विकास पर बल दिया जाता है ।
क्रियात्मक पक्ष की वर्गिकी को इस प्रकार समझा सकते हैं–
(a) उद्दीपन– यह प्रथम चरण है। यह आवश्यकता केन्द्रित है इसमें किसी कार्य के प्रति उद्दीपन प्रदान किया जाता है या उत्तेजना उत्पन्न की जाती है । इसके निम्न दो स्तर होते हैं—
(b) कार्य करना– इसमें किसी उद्दीपन या उत्तेजना के आधार पर कार्य का सम्पादन होता है। इसके अन्तर्गत किसी भी कौशल में निहित विभिन्न तत्त्वों को क्रमबद्ध किया जाता है। इसके तीन स्तर होते हैं—
(c) नियंत्रण– कार्य का संपादन करते समय बालक अपनी क्रियाओं एवं गतिविधियों पर नियंत्रण रखता है। इसके निम्न दो स्तर होते हैं—
(d) समायोजन– पारस्परिक अन्तःसम्बन्ध ही समायोजन है। बालक अपनी क्रियाओं पर नियंत्रण करके विभिन्न कार्यों या क्रियाओं में समन्वय स्थापित करता है।
(e) स्वाभावीकरण– बालक की कार्य करने की एक कार्य शैली बन जाती है तथा बालक फिर अपनी सभी गतिविधियों का कार्य का सम्पादन अपने स्वाभाविक ढंग से करने लगता है ।
(f) आदत निर्माण– इसमें बालक के कार्य करने की शैली उसकी आदत बन जाती है तथा उसमें कार्य करने की आदत का विकास हो जाता है।
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