‘भाषा’ में ‘साहित्य’ की भूमिका को स्पष्ट कीजिए। भाषा व साहित्य को आप कैसे संबंधित करेंगे ?
‘भाषा’ में ‘साहित्य’ की भूमिका को स्पष्ट कीजिए। भाषा व साहित्य को आप कैसे संबंधित करेंगे ?
उत्तर— भाषा व साहित्य में सम्बन्ध– भाषा एवं साहित्य पूरक विधाएँ हैं। साहित्य में अनेक रूपों का समावेश होता है जबकि भाषा में कौशलों का प्रयोग किया जाता है। भाषा और साहित्य के ज्ञानात्मक पक्ष एक ही होता है। कौशलों एवं रूपों की दृष्टि से अन्तर होता है।
(1) भाषा और साहित्य का अन्योन्यश्रित सम्बन्ध है। एक के अस्तित्व के बिना दूसरे का अस्तित्व नहीं है । इमरसन ने कहा, और साहित्य के विज्ञान-भवन के निर्माण में प्रत्येक मानव ने एक ईंटपत्थर रखकर अपना योगदान दिया है।” साहित्य की व्युत्पत्ति ‘संहित’ शब्द से हुई जिसका अर्थ हितयुक्त । व्युत्पत्ति से विदित होता है कि वाक्य राशि का जो अंश जनहित का साधक हो उसे साहित्य कहा जाना चाहिये। समाज साहित्य को अपने लिये हित साधक व उपयोगी समझकर ही सुरक्षित रखता है।
(2) भाषा पर पूर्णाधिकार साहित्य व गठन अध्ययन से ही सम्भव– यदि कोई बालक प्रभावाशली वक्ता, लेखन, बनना चाहता है तो उसके लिए भाषा पर पूर्णाधिकार प्राप्त करना आवश्यक होगा, लेकिन भाषा पर पूर्णाधिकार साहित्य के विस्तृत व गहन अध्ययन से ही सम्भव होगा। साहित्य शब्दों, मुहावरों, लोकोक्तियों, सूक्तियों का भण्डार है। साहित्य अध्ययन द्वारा विधि विविध भाषा-शैलियों से बालक परिचित होता है व धीरे-धीरे उसकी विचाराभिव्यक्ति व भावाभिव्यक्ति स्मरणीय एवं अभीष्ट प्रभावात्पादक हो जाती है।
(3) भाषा पर पूर्णाधिकार व साहित्य अध्ययन का परिणाम मौलिक साहित्य सृजन-भाषा– भाषा का पूर्णाधिकार प्राप्त कराते हुए शिक्षक साहित्यिक कृतियों से विद्यार्थी को परिचित कराता है व एक समय ऐसा आता है कि धीरे-धीरे विद्यार्थी अपनी व्यक्तिगत भाषा-शैली का निर्माण कर लेता है जिस पर उसके अपने व्यक्तित्व की छाप होती है व स्वतंत्र रूप से चिन्तन करने के कारण मौलिक ग्रन्थों का सृजन कर देता है।
(4) भाषा केवल अभिव्यक्ति है व साहित्य हितकारिता के कारण सुरक्षणीय– भाषा और साहित्य में अन्योन्याश्रित सम्बन्ध होते हुए भी अन्तर विद्यमान है। भाषा तो केवल विचाराभिव्यक्ति एवं भावाभिव्यक्ति मात्र है लेकिन जब उसमें हितकारिता को भी सम्मिलित कर दिया जाये तो हितकारिता के कारण सुरक्षणीयता उत्पन्न हो जाती है जिससे कि वह उस भाषा में लिखा हुआ साहित्य कहलाने लगता है।
(5) भाषा का आश्रित होते हुए भी साहित्य भाषा का आश्रयदाता भी है– भाषा के आधार पर ही साहित्य सत्तावान होता है। यदि साहित्य का रूप प्रदान करने वाले विचार, भाव, कल्पना तथा शैली तत्त्व सम्भवतः सत्ताहीन हो जायेंगे। यदि वे बिल्कुल सत्ताहीन न हों तो भी सशक्त विचाराभिव्यक्ति व भावाभिव्यक्ति सम्भव न हो सकेगी। भाषा का आश्रित होते हुए भी वास्तव में देखा जाये तो साहित्य भाषा का आश्रयदाता भी है । साहित्य द्वारा प्रयुक्त शब्दों से ही भाषा स्वरूप सँवरता है व निखरता है उसी से उसमें शक्ति भी उत्पन्न होती है। कोष में एकत्र शब्द निर्जीव से प्रतीत होती है लेकिन जब वही शब्द किसी साहित्यिक रचना में स्थान पा जाते हैं तो उसमें चार चाँद लग जाते हैं साहित्यकार अपने शब्द निर्जीव से प्रतीत होते हैं लेकिन जब वही शब्द किसी साहित्यक रचना में स्थान पा जाते हैं तो उसमें चार चाँद लग जाते हैं साहित्यकार अपने शब्द चयन में शब्दों में प्राण फुंक देता है । डि. क्विन्सी ने साहित्य को दो भागों में बाँटा है— ज्ञान देने वाला साहित्य व प्रभावित करने वाला साहित्य । भाषा और साहित्य अभिन्न नहीं है। कुछ लोग सकते हैं कि भाषा सीख ली जाये और साहित्य का अध्ययन कर लिया जाये तो भाषा स्वतः आ जाती है लेकिन यह एक भ्रम है ।
(6) साहित्य समाज का दर्पण है और भाषा भी समाज में ही पनपती है– किसी समाज विशेष की भाषा उसके समग्र इतिहास के प्रवाह का फल है और असंख्य पीढ़ियों के कार्यरत और उद्यमशील जीवन की सामूहिक सुष्टि है। भाषा जड़े जन-जन की चेतना में गहराई तक पहुँचेती है और जनता ही अपनी महान निर्माण प्रतिभा द्वारा मौलिक और आध्यात्मिक कृतियों के साथ-साथ भाषा का भी सृजन करती रहती है अतः भाषा और साहित्य दोनों का ही सम्बन्ध समाज से है । साहित्य समाज का दर्पण होने के कारण सामाजिक सम्बन्धों का वर्णन साहित्यिक कृतियों जैसे नाटक उपन्यास, कहानियों में मिल जाता है लेकिन भाषा का विकास भी तो सामाजिक वातावरण की पृष्ठभूमि में ही सम्भव होता है अतः भाषा और साहित्य का कार्यक्षेत्र एक ही है । इसलिए दोनों में घनिष्ठ समबन्ध होना एक स्वाभाविक सी बात है।
(7) भाषा और साहित्य दोनों की पृथक्-पृथक सत्ता– यद्यपि भाषा और साहित्य का गहरा सम्बन्ध है। भाषा विषयक ज्ञान के बिना साहित्य में निहित साहित्यिक सौष्ठव से भी परिचित नहीं करवाया जा सकता है। लेकिन भाषा और साहित्य दोनों पृथक्-पृथक् है। उदाहरणार्थ, अहिन्दी भाषा-भाषी प्रदेशों में हमें हिन्दी के भाषा-विषयक ज्ञान को प्रदान करके ही सन्तुष्ट होना चाहिये। यदि विद्यार्थी हिन्दी में अभिव्यक्त विचारों को सुनकर समझ लेता है वे अपने शब्दों में अपने विचारों को व्यक्त कर लेता है तो भाषा का यह प्रयोग स्तर पर्याप्त है लेकिन हिन्दी भाषा-भाषी प्रदेशों में जहाँ विद्यार्थी की मातृभाषा हिन्दी है वहाँ इस स्तर की प्राप्ति पर्याप्त नहीं, वहाँ के बालकों को भाषा के साथ-साथ साहित्यक सौष्ठव से परिचित कराना भी आवश्यक होगा ताकि उनका स्तर कुछ ऊँचा उठा हुआ हो । यही कारण है कि अहिन्दी भाषा-भाषी प्रदेशों में हिन्दी – शिक्षण उद्देश्य ग्राहत्मक एवं अभिव्यंजनात्मक (भाषा और साहित्य दोनों) । अतः हिन्दी को यदि द्वितीय व तृतीय भाषा के रूप में पढ़ा जाये तो भाषा के साथ-साथ साहित्य प्रवेश भी आवश्यक होगा ताकि उचित ढंग से बालक का भावात्मक विकास हो सके। हिन्दी भाषा प्रदेशों में भाषा पर पूर्णाधिकार अत्यन्त आवश्यक है तभी मौलिक साहित्य सृजन सम्भव हो सकेगा। लेकिन अहिन्दी भाषा – प्रदेशों में भाषा का सामान्य ज्ञान पर्याप्त होगा। सुनकर समझना, बोलना, पढ़ना-लिखना आ जाये तो समझना चाहिये कि शिक्षण उद्देश्य की पूर्ति हो गई।
(8) भाषा और साहित्य एक-दूसरे के पूरक व सहायक है– भाषा के तुलनात्मक और ऐतिहासिक दोनों प्रकार के अध्ययन में साहित्य की सहायता लेनी पड़ती है। वास्तविकता तो यह है कि एक जीवित या मातृभाषा, पुरानी भाषा के चाहे जिस रूप का अध्ययन करना हो, पगपग पर साहित्य की सहायता तो लेनी पड़ेगी। जीवित भाषा के सम्बन्ध में भी क्यों, कब-कैसे आदि प्रश्नों के उत्तर खोजने के लिये निश्चित रूप से साहित्य की ही छानबीन करनी पड़ती है। जीवित भाषा बतलायेगी कि इस समय भाषा में शब्द का कौन-सा रूप मिलता है । तुलनात्मक व ऐतिहासिक अध्ययन से पता चलेगा कि शब्द की व्युत्पत्ति किस मूल शब्द से हुई व उसमें क्या-क्या परिवर्तन हुये । विद्यार्थी का पूर्णाधिकार यदि भाषा पर न हो तो वह साहित्य में निहित साहित्यिक सौष्ठव से भी परिचित न हो सकेगा व रसानुभूत अपूर्ण रह जायेगी। अतः भाषा और पूर्वक न करवाई जाये, एक – एक शब्द के दो तीन-तीन अर्थ है उन्हें न समझाया जाये तो साहित्यिक सौष्ठव की रसानुभूति अपूर्ण रह जायेगी क्योंकि साहित्य तो एक ऐसा अथाह सागर है जिसमें जितना गहरा गोता लगाइये उतने ही रत्न हाथ लगेंगे। राबर्ट लाडो ने कहा कि “कोई भी व्यक्ति भाषा के गठन से एकदम साहित्य की ओर बिना भाषा के मूल सांस्कृतिक पक्ष को समझे छलांग नहीं लगा सकता क्योंकि साहित्य भाषा के माध्यम से ही अभिव्यक्त होता है इसलिए बिना भाषा को समझे शब्दों के माध्यम से अभिव्यक्त सांस्कृतिक जीवन मूल्यों को समझे किसी भी साहित्यिक कृति को नहीं समझा जा सकता है।” आर. पी. भटनागर ने अपने लेख व्याकरण व भाषा-शिक्षण में लिखा है कि ” भाषिक विचारधारा के विकास का एक परिणाम तो यह हुआ कि शिक्षा-शास्त्रियों ने इसको स्वीकार किया कि विदेशी भाषा शिक्षण के क्षेत्र में साहित्य का शिक्षण व भाषा का शिक्षण दो पृथक विषय है भाषा प्रवीणता प्रधान है तथा साहित्य विचार तत्त्व प्रधान ।
(9) साहित्य प्रवेश– साहित्य समाज का दर्पण है। संसार के सभी देशों में साहित्यिक इतिहास पर दृष्टि डालने से पता चलता है कि प्रत्येक का समाज जैसी धाराओं में बहा है उसका उनके साहित्य पर अवश्यम्भावी प्रभाव दृष्टिगोचर हुआ है। साहित्य पर ही देश और जाति का भविष्य अवलम्बित होता है। अतः उत्कृष्ट साहित्य का अध्ययन बालक के जीवन के लिये व्यक्तिगत रूप से जितना उपयोगी है उतनाही देश और जाति की उन्नति के लिये भी । इसलिये यह समस्या आज हमारे मस्तिष्क को आन्दोलन करती है कि बालक का साहित्य से परिचय केसे कराया जाये ? परिचय कराने के साधनों को ज्ञान प्राप्त करने से पहले यह जानना आवश्यक है कि साहित्य का अर्थ क्या है ? द्विवेदी जी की यह परिभाषा “ज्ञान राशि के संचित कोष का नाम साहित्य है” साहित्य शब्दार्थ के अनुकूल ही है और सम्भवतः लिटरेचर शब्द की ज्ञायापक है । मैथ्यू आर्नल्ड ने अपने भाव इस प्रकार व्यक्त किये हैं कि “विश्व के सर्वश्रेष्ठ विचारों व कथन को ही साहित्य कहते हैं । ” श्री हेननी हडसन के शब्दों में “साहित्य मूलतः भाषा के माध्यम से जीवन की अभिव्यक्ति है।” अतः यदि बालक साहित्य का अध्ययन नहीं करेगा तो ज्ञान राशि के इस संचित कोष से वंचित रह जायेगा । इसलिये शिक्षक का यह पुनीत कर्त्तव्य है कि वह पाठ्य-पुस्तक मूल ग्रन्थ को पढ़ने के लिए लालायित हो उठे। भाषा पर पूर्णाधिकार प्राप्त कराने के लिये भी साहित्य का अध्ययन आवश्यक है।
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