यू.पी.पी.एस.सी. 2018 मुख्य निबंध
यू.पी.पी.एस.सी. 2018 मुख्य निबंध
विशेष अनुदेश:
(i) प्रश्न-पत्र तीन खंडों में विभाजित है। प्रत्येक खण्ड से केवल एक-एक विषय का चयन कर कुल तीन निबंध हिन्दी अथवा अंग्रेजी अथवा उर्दू भाषा में लिखिए।
(ii) प्रत्येक निबंध में कुल प्रयुक्त शब्दों की अधिकतम सीमा 700 शब्दों की है।
(iii) प्रत्येक निबंध के लिए 50 अंक निर्धारित है।
खण्ड – क
1. साहित्य का सामाजिक दायित्व
> समाज
साहित्य हित्य का पहला काम मनोरंजन होता है, उसके बाद ही हम संवेदनशील और उससे ज्ञान प्राप्त करते हैं। साहित्य मनुष्य को सिर्फ संवेदनशील ही नहीं बनाती बल्कि समाज और व्यक्ति के समबंधों को उदात्त और मजबूत बनाती है, साहित्य मनुष्य भावनाओं का पुंज है, समाज में एक व्यक्ति की भावनात्मक और समाजात्मक हाव-भाव को साहित्य ही दिशा देता है। साहित्य मनुष्य के बुरी और संकुचित भावों से ऊपर उठाने का कार्य करती है। साहित्य सिर्फ मनुष्य को दिशा देती है और उसी से फिर समाज की दिशा तय होती है। साहित्य और मनुष्य, समाज के महत्पूर्ण अंग है। साहित्य हमेशा मनुष्य को उद्दात बनाती है।
साहित्य और समाज दोनों ही एक-दूसरे के पूरक माने जाते हैं। साहित्य समाज के मानसिक तथा सांस्कृतिक उन्नति और सभ्यता के विकास का साक्षी है। ज्ञान राशि के संचित कोष को साहित्य कहा जाता है। साहित्य एक ओर जहां समाज को प्रभावित करता है वहीं दूसरी ओर वह समाज से प्रभावित भी होता है। प्रत्येक युग का साहित्य अपने युग के प्रगतिशील विचारों द्वारा किसी-न-किसी रूप में अवश्य प्रभावित होता है । साहित्य हमारी कौतूहल और जिज्ञासा वृत्तियों और ज्ञान की पिपासा को तृप्त करता है और क्षुधापूर्ति करता है।
साहित्य से ही किसी राष्ट्र का इतिहास, गरिमा, संस्कृति और सभ्यता, वहां के पूर्वजों के विचारों एवं अनुसंधानों, प्राचीन रीति-रिवाजों, रहन-सहन तथा परंपराओं आदि की जानकारी प्राप्त होती है। साहित्य ही समाज का आईना होता है। किस देश में कौन-सी भाषा बोली जाती है, उस देश में किस प्रकार की वेशभूषा प्रचलित है, वहां के लोगों का कैसा रहन-सहन है तथा लोगों के सामाजिक और धार्मिक विचार कैसे हैं आदि बातों का पता साहित्य के अध्ययन से चल जाता है।
साहित्य का निर्माण साहित्यकार द्वारा होता है और साहित्यकार समाज का प्राण होता है। समाज में रहकर समाज की रीति-नीति, धर्म-कर्म और व्यवहार वातावरण से ही अपनी रचना के लिए प्रेरणा ग्रहण करता है और लोक भावना का प्रतिनिधित्व करता है। अतः समाज की जैसी भावनाएं और विचार होंगे वैसा ही तत्कालीन साहित्य भी होगा। इस प्रकार सामाजिक गतिविधियों तथा समाज में चल रही परंपराओं से समाज का साहित्य अवश्य ही प्रभावित होता है। साहित्यकार समाज का एक जागरूक प्राणी होता है । वह समाज के सभी पहलुओं को बड़ी गंभीरता के साथ देता है और उन पर विचार करता है, फिर उन्हें अपने साहित्य में उतारता है।
साहित्य समाज से भाव सामग्री और प्रेरणा ग्रहण करता है तो वह समाज को दिशाबोध देकर अपने दायित्व का भी पूर्णत: अनुभव करता है। परमुखापेक्षिता से बचाकर उनमें आत्मबल का संचार करता है। साहित्य का पांचजन्य उदासीनता का राग नहीं सुनता, वह तो कायरों और पराभव प्रेमियों को ललकारता हुआ एक बार उन्हें भी समर भूमि में उतरने के लिए बुलावा देता है।
राजा जयसिंह को अपने कर्त्तव्य का ज्ञान हो गया और उसके जीवन में बदलाव आ गया। भूषण की वीर भावों से ओतप्रोत ओजस्वी कविता से मराठों को नव शक्ति प्राप्त हुई। इतना ही नहीं स्वतंत्रता-संग्राम के दिनों में माखनलाल चतुर्वेदी, सुभद्राकुमारी चौहान जैसे कई कवियों ने अपनी ओजपूर्ण कविताओं से न जाने कितने युवा प्राणों में देशभक्ति की भावना भर दी।
साहित्य को जीवन और समाज का दर्पण बताने वाला साहित्यकार ही हुआ करता है। वह अपने वर्तमान अर्थात् आस-पास के जीवन समाज के व्यवहारों से प्रेरणा लेकर तो साहित्य का सृजन किया ही करता है, अपनी रचना के माध्यम से अतीत की अच्छाइयाँ उजागर कर, अच्छी और उपयोगी, प्रेरणादायक सास्कृतिक चेतनाएँ ग्रहण कर उस से वर्तमान को सबल, सजीव और उत्साही बनाया करता है। ऐसा करने के पीछे उसका स्पष्ट उद्देश्य यह रहता है कि वह अपने देश, जाति और राष्ट्रीयता के साथ-साथ मानवता के भविष्य को भी उज्ज्वल बनाने के कार्यों में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान प्राप्त कर सके ।
जो साहित्यकार ऐसा कर पाने में समर्थ नहीं हो पाता, वह साहित्यकार होने का अपना अधिकार खो बैठता है । सत्य तो यह है कि ऐसे व्यक्ति को साहित्यकार होने या कहने का अधिकारी ही नहीं माना जाता। रीतिकाल में कहने को हजारों कवि हुए। साहित्य का इतिहास बताने वाली पुस्तकों में शायद उनके नाम भी हैं; पर आम जन तो क्या विशेष जन भी केवल उन्हीं के नाम-काम से परिचित है कि जिन्होंने देश- जाति और सारी मानवता के प्रति अपने दायित्वों का निर्वाह सजग सतर्क भाव से किया। बाकी अतीत की कब्रों या इतिहास के पन्नों में दब कर रह गए हैं। जो सच्चा साहित्यकार हुआ करता है, यह संभव ही नहीं कि जीवन-समाज संकट से ग्रस्त होते रहें, आदमी और आदमीयत का अपमान होता रहे और वह अपने सुख-दुःख या व्यक्तिवादी प्रेम के राग ही आलापता रहे ।
कहने का तात्पर्य यह है कि जीवन – समाज की नब्ज को पहचान कर सच्चा साहित्य हमेशा अपने सामाजिक दायित्वों का उचित निर्वाह करता आया है। वह कभी सहन नहीं कर सका कि ‘श्वानों को मिलता दूध’ और मानव सन्तानें भूख से बिलखती रहें।
2. हिन्दी भाषा राष्ट्रीय एकता का प्रतीक है
> संस्कृत
हिची दी विश्व की एक प्राचीन, समृद्ध तथा महान भाषा होने के साथ ही हमारी राजभाषा भी है। भारत की स्वतंत्रता के बाद 14 सितम्बर 1949 को संविधान सभा ने एक मत से यह निर्णय लिया कि हिन्दी की खड़ी बोली ही भारत की राजभाषा होगी। इस महत्वपूर्ण निर्णय के बाद 1953 से सम्पूर्ण भारत में 14 सितम्बर को प्रतिवर्ष हिन्दी दिवस के रूप में मनाया जाता है जो हिंदी भाषा के महत्व को दर्शाता है। वसुधैव कुटुम्बकम की भावना की अलख जलाती हमारी हिन्दी भाषा, दक्षिण से उत्तर तक तथा पश्चिम से पूरब तक राष्ट्रीय एकता का प्रतीक है। महात्मा गाँधी ने कहा था कि, ‘राष्ट्रीय व्यवहार में हिन्दी को काम में लाना देश की उन्नति के लिए आवश्यक है।’ दयानंद सरस्वती ने कहा था कि, ‘हिन्दी ही राष्ट्रीय एकता को शास्वत और अक्षुण्ण बना सकती है। ‘
हिन्दी ने भाषा, व्याकरण, साहित्य, कला, संगीत के सभी माध्यमों में अपनी उपयोगिता, प्रासंगिकता एवं वर्चस्व कायम किया है। हिन्दी की यह स्थिति हिन्दी भाषियों और हिन्दी समाज की देन है। हिन्दी उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, उत्तराखण्ड, । हिमाचल प्रदेश, हरियाणा और दिल्ली राज्यों की राजभाषा भी है। राजभाषा बनने के बाद हिन्दी ने विभिन्न राज्यों के कामकाज में आपसी लोगों से सम्पर्क स्थापित करने का अभिनव कार्य किया है। हमारे देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपनी विदेश यात्रा के दौरान अधिकतर उस देश में अपना सम्बोधन हिन्दी भाषा में ही देते हैं, जिससे हिन्दी भाषा का महत्व विदेशी धरती पर भी बढ़ने लगा है।
चीनी भाषा के बाद हिन्दी विश्व में सबसे अधिक बोली जाने वाली विश्व की दूसरी सबसे बड़ी भाषा है। नेपाल, पाकिस्तान की तो अधिकांश आबादी को हिंदी बोलना, लिखना, पढ़ना आता है। बांग्लादेश, भूटान, तिब्बत, म्यांमार, अफगानिस्तान में भी लाखों लोग हिंदी बोलते और समझते हैं। फिजी, सुरिनाम, गुयाना, त्रिनिदाद जैसे देश की सरकारें तो हिंदी भाषियों द्वारा ही चलायी जा रही हैं। हिन्दी के ज्यादातर शब्द संस्कृत, अरबी और फारसी भाषा से लिए गए हैं। यह मुख्य रूप से आर्यों और पारसियों की देन है। इस कारण हिन्दी अपने आप में एक समर्थ भाषा है। जहां अंग्रेजी में मात्र 10,000 मूल शब्द हैं, वहीं हिन्दी के मूल शब्दों की संख्या 2,50,000 से भी अधिक है। बीसवीं सदी के अंतिम दो दशकों में हिन्दी का अन्तर्राष्ट्रीय विकास बहुत तेजी से हुआ हैं। विश्व के लगभग 150 विश्वविद्यालयों तथा सैकड़ों छोटे-बड़े केन्द्रों में विश्वविद्यालय स्तर से लेकर शोध के स्तर तक हिन्दी के अध्ययन अध्यापन की व्यवस्था हुई है। विदेशों से हिन्दी में दर्जनों पत्र-पत्रिकाएं नियमित रूप से प्रकाशित हो रही हैं। हिन्दी भाषा और इसमें निहित भारत की सांस्कृतिक धरोहर सुदृढ़ और समृद्ध है। इसके विकास की गति बहुत तेज है।
हिंदी भाषा एक-दूसरे के साथ बातचीत करने के लिए बहुत आसान और सरल साधन प्रदान करती है। यह प्रेम, मिलन और सौहार्द की भाषा है। हिन्दी विविध भारत को एकता के सूत्र में पिरोने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
प्रत्येक वर्ग का व्यक्ति हिन्दी भाषा को आसानी से बोल- समझ लेता है। इसलिए इसे सामान्य जनता की भाषा अर्थात् जनभाषा कहा गया है। हिन्दी के प्रयोग एवं प्रचार हेतु मनाया जाने वाला हिन्दी दिवस न केवल हिन्दी के प्रयोग का अवसर प्रदान करता है, बल्कि इस बात का ज्ञान भी दिलाता है कि हिन्दी का प्रयोग भारतीय जनता का अधिकार है। महात्मा गांधी, स्वामी दयानन्द सरस्वती, पण्डित मदनमोहन मालवीय, राजर्षि पुरुषोत्तम दास टण्डन, आचार्य केशव सेन, काका कालेलकर तथा गोविन्दवल्लभ पन्त जैसे अनेक महान व्यक्तियों के अनेक वर्षों में किये गये अथक प्रयासों से हमें हिन्दी को राष्ट्रभाषा कहने का अधिकार मिला है।
हमें यह संकल्प लेना चाहिये की हम पूरे मनोयोग से हिन्दी भाषा के प्रचार-प्रसार में अपना निस्वार्थ सहयोग प्रदान कर हिन्दी भाषा के बल पर भारत को फिर से विश्व गुरु बनवाने का सकारात्मक प्रयास करेंगे। अब तो कम्प्यूटर पर भी हिन्दी भाषा में सब काम होने लगे हैं। कम्प्यूटर पर हिन्दी भाषा के अनेक सॉफ्टवेयर मौजूद हैं, जिनकी सहायता से हम आसानी से कार्य कर सकते हैं। कोई भी भाषा तब और भी समृद्ध मानी जाती है, जब उसका साहित्य भी समृद्ध हो । आदिकाल से अब तक हिन्दी के आचार्यों, सन्तों, कवियों, विद्वानों, लेखकों एवं हिन्दी-प्रेमियों ने अपने ग्रन्थों, रचनाओं एवं लेखों से हिन्दी को समृद्ध किया है। परन्तु हमारा भी कर्त्तव्य है कि हम अपने विचारों, भावों एवं मतों को विविध विधाओं के माध्यम से हिन्दी में अभिव्यक्त करें एवं इसकी समृद्धि में अपना योगदान दें। आचार्य केशवचन्द्र सेन के अनुसार, ‘भारत जैसे देश में जहाँ अनेक बोलियां बोली जाती हैं, वहाँ हिन्दी ही सम्पर्क, सर्वसुलभ ओर सार्वभौमिक भाषा सिद्ध होती है। ये राष्ट्रीय एकता और अखंडता की प्रतीक हैं। “
3. शिक्षा और नैतिक मूल्य
> शिक्षा
जब हम शिक्षा की बात करते हैं तो सामान्य अर्थो में यह समझा जाता है कि इसमें हमें वस्तुगत ज्ञान प्राप्त होता है तथा जिसके बल पर कोई रोजगार प्राप्त किया जा सकता है। ऐसी शिक्षा से व्यक्ति समाज में आदरणीय बनता है। समाज और देश के लिए इस ज्ञान का महत्व भी है क्योंकि शिक्षित राष्ट्र ही अपने भविष्य को सँवारने में सक्षम हो सकता है। आज कोई भी राष्ट्र विज्ञान और तकनीक की महत्ता को अस्वीकार नहीं कर सकता, जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में इसका उपयोग है। वैज्ञानिक विधि का प्रयोग कृषि और पशुपालन के क्षेत्र में करके ही हमारे देश में हरित क्रांति और श्वेत क्रांति लाई जा सकी है।
अतः वस्तुपरक शिक्षा हर क्षेत्र में उपयोगी है, परंतु जीवन में केवल पदार्थ ही महत्वपूर्ण नहीं हैं। पदार्थो का अध्ययन आवश्यक है, राष्ट्र की भौतिक दशा सुधारने के लिए तो जीवन मूल्यों का उपयोग कर हम उन्नति की सही राह चुन सकते हैं। हम जानते हैं कि भारत में लोगों के बीच फैला भ्रष्टाचार किस तरह से विकास की धारा को अवरुद्ध किए हुए हैं।
हम देखते हैं कि मूल्यों में ह्रास होने से समाज में हर प्रकार के अपराध बढ़ रहे हैं। हम यह भी देखते हैं कि मूल्यविहीन समाज में असंतोष फैल रहा है। बेकारी के बढ़ने से युवक में असंतोष जैसी कई प्रकार की चुनौतियाँ खड़ी दिखाई देती हैं। छोटे से बड़े नौकरशाह निकम्मेपन और भ्रष्टाचार के अंधकूप में डुबकियाँ लगा रहे हैं, उन्हें समाज या राष्ट्र की कोई परवाह नहीं है।
इन परिस्थितियों में आत्ममंथन अनिवार्य हो जाता है। क्या हमारी शिक्षा प्रणाली दोषपूर्ण है ? यदि शिक्षा व्यवस्था त्रुटिहीन है तो निश्चित ही व्यक्तियों में दोष है? यदि शिक्षा प्रणाली पर गहराई से दृष्टिपात करें तो सरकारी तौर पर ही इसकी कमियाँ परिलक्षित हो जाएँगी । हमारे देश के आधे से अधिक शिक्षित व्यक्तियों के सामने कोई लक्ष्य नहीं है, उनके सामने अँधेरा ही अंधेरा है। जिसने अपने जीवन के पंद्रह बेशकीमती वर्ष शिक्षा में लगा दिए, जिसने इतना समय किसी कार्य के प्रति समर्पित कर दिया, उसके दो हाथों को कोई काम नहीं है। पंद्रह वर्षो के श्रम का कोई प्रतिफल नहीं तो ऐसी शिक्षा बेकार है ।
यह ठीक है कि कुछ नौजवान सफल हो गए, उनके भाग्य ने साथ दे दिया लेकिन बाकी लोगों का क्या होगा, जिन्हें बचपन से सिखाया गया था कि पढ़ोगे तो शेष जीवन सुखी हो जाएगा। इससे तो कहीं अच्छा था कि वह पाँचवी पास कर चटाई बुनना सीख लेता, घड़े बनाना सीख लेता, कृषि की बारीकियाँ समझ लेता अथवा ऐसा कोई गुण सीख लेता जिससे जीवन-यापन में उसे सुविधा होती ।
इसमें कोई संदेह नहीं कि अक्षर ज्ञान जरूरी है, चौदह वर्ष तक की शिक्षा जरूरी है ताकि बालक जीवन के हर क्षेत्र की मोटी-मोटी बातों को समझ सके। परंतु, कॉलेज की डिग्री उतने ही लोगों को दी जानी चाहिए जितने लोग डिग्री लेकर आसानी से रोजगार प्राप्त कर सकें।
यदि शिक्षा व्यवस्था में सचमुच सुधार लाना हो तो शिक्षा में नैतिक मूल्यों का समावेश जरूरी है क्योंकि कोई कार्य यदि सुस्पष्ट नीति के बिना किया जाए तो वह सफल नहीं हो सकता। नीति से ही नैतिक शब्द बना है जिसका अर्थ है सोच-समझकर बनाए गए नियम या सिद्धांत | लेकिन आज की शिक्षा में नैतिक मूल्यों का कोई समावेश नहीं है क्योंकि वह दिशाहीन है।
आज की शिक्षा का मुख्य उद्देश्य है – पढ़ लिखकर धन कमाना । चाहे धन कैसे भी आता हो, इसकी परवाह न की जाए। यही कारण है कि शिक्षित वर्ग भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने में सबसे आगे हैं।
शिक्षा प्राप्ति की एक सुविचारित नीति होनी चाहिए। छात्रों की शुरू से ही यह जानकारी देनी चाहिए कि जीवन में आगे चलकर तुम्हें किन समस्याओं से जूझना होगा। छात्रों को पता होना चाहिए कि जीने के मार्ग अनेक हैं तथा उस मार्ग को ही चुनना श्रेयस्कर है जो व्यक्ति विशेष के स्वभाव के अनुकूल हो ।
नैतिक शिक्षा की बातों में सत्य, क्षमा, दया, ईमानदारी, अहिंसा आदि बताने से कुछ खास हासिल नहीं होता यदि हम इन ऊँची-ऊँची बातों को जीवन में उतारने का बालकों को अवसर न प्रदान करें। बालकों की सहज बुदधि में प्रयोगात्मक सचाइयाँ अधिक सहजता से प्रवेश करती हैं। कोरे उपदेश उन्हें प्रभावित कर सकते तो आज समाज में इतनी बेईमानी और इतना भ्रष्टाचार न फैला होता।
वर्तमान समय में हमारे नैतिक मूल्य भी बदल रहे हैं क्योंकि नगरीकरण, आधुनिक सभ्यता, वैज्ञानिक दृष्टिकोण आदि के कारण नई पीढ़ी के लोग सभी पुरातनपंथी विचारधारा से चिपके नहीं रहना चाहते हैं। अत: शिक्षा में ऐसे नैतिक मूल्यों को जोड़ने का असफल प्रयास नहीं करना चाहिए जो समाय के अनुरूप नहीं रह गए हैं। इसमें धार्मिक कट्टरता, किसी एक धर्म के प्रति आग्रह जैसा भाव नहीं होना चाहिए क्योंकि इससे शिक्षा बोझिल हो जाती है।
खण्ड – ख
4. अन्तरिक्ष की दुनिया में भारत की प्रगति
> विज्ञान और प्रौद्योगिकी
भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम का प्राथमिक उद्देश्य राष्ट्रीय हित में अंतरिक्ष तकनीक एवं उसके | अनुप्रयोगों का विकास करना है। भारत ने जब अपने अंतरिक्ष कार्यक्रम की शुरुआत की थी तो कई विकसित देशों ने इसका मजाक बनाया था, परंतु भारत ने अपने कम बजट में भी उच्च अंतरिक्ष तकनीक को हासिल करने में सफलता प्राप्त की और आज वह श्रेष्ठ अंतरिक्ष तकनीक वाले देशों की कतार में शामिल है।
भारत में अंतरिक्ष कार्यक्रम की शुरुआत 1962 सें मानी जाती है। 1962 में ही भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान समिति का गठन हुआ। इसके बाद 1963 में केरल के निकट तिरुवनंतपुरम के निकट थुम्बा में राकेट प्रक्षेपण केन्द्र से अमेरिका से प्राप्त दो चरणों वाले रॉकेट को अंतरिक्ष में छोड़ा गया। 1969 में इस समिति का पुनर्गठन करके इसका नाम भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन कर दिया गया तथा इसका पहला अध्यक्ष विक्रम साराभाई को बनाया गया।
1972 में अंतरिक्ष अनुसंधान को वित्तीय आधार प्रदान किया गया। इसके तीन वर्ष बाद ही 19 अप्रैल, 1975 को भारत ने अपना पहला उपग्रह आर्यभट्ट अंतरिक्ष में छोड़ा। ‘आर्यभट्ट’ के प्रक्षेपण से उत्साहित होकर अंतरिक्ष वैज्ञानिकों ने इनसेट शृंखला के उपग्रहों, इनसेट 1ए से इनसैट 1 डी का निर्माण भारतीय अंतरिक्ष वैज्ञानिकों द्वारा निर्धारित मानदण्डों के आधार पर अमेरिकी वैज्ञानिकों ने किया था। लेकिन इस श्रृंखला के दूसरी पीढ़ी के उपग्रहों इनसेट 2ए से इनसेट 2डी का निर्माण पूर्णतः स्वदेशी तकनीक पर आधारित भारतीय वैज्ञानिकों द्वारा किया गया।
इन श्रेणी के उपग्रहों के बाद दूर संवेदी उपग्रहों की श्रृंखला आई. आर. एस. 1ए से 1डी तक का निर्माण किया गया। इन उपग्रहों का भारतीय संसाधनों के सर्वेक्षण 1993 में आई. आर. एस. -1ई को ध्रुवीय उपग्रह प्रमोचक रॉकेट पीएसएलवी से अंतरिक्ष में छोड़ा गया। किंतु, इसको निर्धारित कक्षा में स्थापित नहीं किया जा सका, लेकिन इसकी अलग-अलग प्रणालियों ने ठीक तरह से काम किया था। 29 सितम्बर, 1997 को पीएसएलवी- 1सी से 1डी को सफलतापूर्वक अंतरिक्ष की कक्षा में स्थापित कर दिया गया। इस प्रक्षेपण के साथ ही भारत विश्व का छठा देश हो गया, जो एक हजार कि.ग्रा. वर्ग के उपग्रह को पृथ्वी की निचली कक्षा में स्थापित करने की क्षमता रखते हैं। अन्य पांच देश अमेरिका, रूस, चीन, जापान और यूरोपीय संगठन हैं।
भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम का मूल उद्देश्य दूरसंचार, टेलीविजन प्रसारण, मौसम अध्ययन और संसाधनों के सर्वेक्षण तथा प्रबंधन के क्षेत्र में अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी विकसित करना, उन पर आधारित सेवाएँ उपलब्ध कराना तथा इसके लिए उपग्रहों, प्रक्षेपण यानों तथा सम्बद्ध भू-प्रण लियों को विकसित करना है। आज विभिन्न देशों में नौ भू- केन्द्र हैं, जो भारतीय उपग्रहों से सूचनाएँ प्राप्त करते हैं। भारत के लिए गर्व की बात है कि विश्व बाज़ार में जितने उपग्रह डाटा बेचे जाते हैं, उनमें भारत के आई. आर. एस. डाटा का 5वां हिस्सा है।
आज भारतीय अंतरिक्ष संगठन अपनी अंतरिक्ष उड़ान को ऊँचा करते हुए चन्द्रमा तक अंतरिक्ष यान भेजने की योजना बना रहा है। भारत चंद्रमा के वे रहस्य उजागर करना चाहता है, जिनका अभी तक पता नहीं लगाया जा सका पिछले कुछ सालों से भारत ने मनुष्य और समाज की समस्याओं के समाधान में अंतरिक्ष टेक्नोलॉजी के उपयोग में महत्त्वपूर्ण प्रगति की है। संचार, प्रसारण और मौसम सम्बंधी सेवाओं के लिए दुनिया की सबसे बड़ी, घरेलू बहुउद्देशीय उपग्रह प्रणाली इनसैट के साथ-साथ दूर संवेदन के लिए विश्व की विशालतम दूर संवेदन प्रणाली का जाल बिछाया गया है ।
आई. आर. एस. श्रेणी के उपग्रहों के प्रक्षेपण के लिए ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान पी.एस.एल.वी. का उपयोग प्रारंभ हो गया है। इसके बाद इनसैट श्रेणी के उपग्रहों के प्रक्षेपण के लिए भू-समकक्ष उपग्रह प्रक्षेपण यान जी. एस. एल.वी. के विकास की दिशा में भी शानदार प्रगति आने वाले समय में अंतरिक्ष कार्यक्रम के अंतर्गत अंतरिक्ष टेक्नोलॉजी के बड़े पैमाने पर उपयोग पर जोर जारी रहेगा। लेकिन, साथ ही हमें जटिल तथा बदलती हुई चुनौतियों का सामना करने के लिए भी उपाय करने होंगे।
15 अगस्त, 2012 के भारत के प्रधानमंत्री ने मंगल ग्रह पर रोबोट अंतरिक्ष यान भेजने की मंशा के बारे में दुनिया को जानकारी दी थी। इसरो स्थित भारतीय अंतरिक्ष वैज्ञानिकों को लगभग एक वर्ष की अवधि में एक ऐसे सक्षम अंतरिक्ष यान का निर्माण करना था जिसे मंगल की कक्षा में स्थापित किया जा सके। इसरो के वैज्ञानिक अंतरिक्ष में भारत की सफलताओं में एक नया आयाम जोड़ने की कोशिशों में पूरे उत्साह से जुट गये थे।
अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में भारत ने निरंतर प्रगति की है और कई मामलों में साबित कर दिखाया है कि दुनिया के किसी भी विकसित देश से वह पीछे नहीं है। अब कई देश भारत के प्रक्षेपण यान से अपने उपग्रहों को अंतरिक्ष में भेजने लगे हैं, इनमें ऐसे देश भी शामिल हैं जिनके पास उपग्रह प्रक्षेपण की उन्नत तकनीक है। भारत द्वारा एक साथ 104 उपग्रहों का प्रक्षेपण इस बात का ज्वलंत उदाहरण है। इस तरह उपग्रह प्रक्षेपण कारोबार में भारत तेज़ी से आगे बढ़ रहा है। इसी प्रगति की एक उल्लेखनीय उपलब्धि मिशन शक्ति है।
5. महात्मा गांधी आज भी प्रासंगिक हैं
> दर्शनशास्त्र
21 वीं सदी को आमतौर पर “विकास की युग” के रूप में जाना जाता है। क्या हम नहीं वृद्धि, उत्पादन और खपत, बेरोजगारी, गरीबी, नस्लीय भेदभाव, आर्थिक असमानता, सामाजिक अन्याय, भ्रष्टाचार जैसी सभी प्रकार की समस्याओं के बीच हमें आज जीना पड़ रहा है। औद्योगीकरण मानव जाति के लिए अभिशाप होने जा रहा है। वर्तमान में राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और नैतिक अधिकारों के साथ-साथ मूल्यों का उन्नयन और शोषण हो रहा है। विकास के साथ हमें इन समस्याओं के बारे में सोचना होगा और अपनी आवश्यकताओं के अनुकूल समाधानों का पता लगाने की कोशिश करनी चाहिए।
समकालीन दुनिया की उपरोक्त समस्याओं के लिए सबसे उपयुक्त समाधान गांधीजी के सिद्धांतों का पालन करना है। यह गांधी का दर्शन है जो हमें इस विधेय से बचा सकता है। गांधी के विपुल लेखन, भाषण और वार्ता अपने समय के साथ-साथ वर्तमान दुनिया के भारतीय जीवन के हर बोधगम्य पहलू को कवर करते हैं।
गांधी जी का जीवन मानव जीवन में सत्य और अहिंसा के मूल्यों को स्थापित करने के प्रयास की कहानी है। महात्मा गांधी केवल उनकी ही श्रेणी में आते हैं। वह भी एक आविष्कारक थे, लेकिन एक अलग तरह के एक अनोखा तरीका था विरोध का संघर्ष का, मुक्ति का और सशक्तिकरण का। उनकी सेना युद्ध करने में नहीं, बल्कि शांति स्थापित करने में लगी थी। उनका हथियार, हथियार और गोला-बारूद, नहीं था बल्कि “सत्य बल” और “सत्याग्रह था।
उन्होंने भारत की स्वतंत्रता के संघर्ष में सत्य और अहिंसा के प्रयोग का सहारा लेकर भारत और ब्रिटेन को आपसी द्वेष और बदले की भावना से बचाया। भारत की स्वतंत्रता ने एक ऐसा उदहारण पेश किया जिसने एशिया और अफ्रीका के अन्य देशों से बिना रक्तपात के मुक्ति को संभव बना दिया, जिनको उन्नीसवीं शताब्दी में कुछ यूरोपीय देश अथवा ब्रिटिशों ने अपने अधीन कर लिया था।
महात्मा गांधी, एक प्रतिभावान और असामान्य व्यक्तित्व थे। वह एक राजनीतिक रणनीतिकार थे, जिन्होंने पारंपरिक राजनीति से किनारा कर लिया और कोई पद नहीं संभाला।
महात्मा गांधी के राजनीतिक दर्शन का सार वर्ग, जाति, रंग, पंथ या समुदाय, इन सब को छोड़कर हर व्यक्ति का सशक्तिकरण था। उनके लिए अत्यधिक गरीबी भी अपने आप में हिंसा का एक रूप था। 21वीं सदी में लोकतंत्र सरकार का पसंदीदा रूप बन गया है, फिर भी दुख की बात है कि उनकी “लोकतंत्र की धारणा ” सार्वभौमिक रूप से स्वीकृत नहीं है।
महात्मा गांधी ने हर दिन के जीवन में धर्म की महत्वपूर्ण भूमिका पर विश्वास किया। धर्म को, निजी और सार्वजनिक कार्यों के लिए एक नैतिकता रूप में देखा अर्थात् विश्व का कोई भी धर्म हिंसा नहीं सिखाता – ऐसा उनका कहना था । अपने पूरे जीवन में महात्मा गांधी सत्य के साधक और अहिंसा के सबसे बड़े प्रस्तावक थे। गांधीजी ने सत्य को जितना महत्व दिया, शायद उतना अधिक महत्व कभी नहीं दिया जा सकता है। उनका मानना था कि धर्मग्रंथों को पढ़ने से भगवान कभी नहीं मिलेंगे।
पश्चिमी सभ्यताओं ने इस महत्वपूर्ण भूमिका को महसूस करना शुरू कर दिया है कि गांधीवादी दर्शन आज के संकटग्रस्त वातावरण में शांति और अहिंसा की संस्कृति पैदा कर सकता है, जबकि पश्चिमी सभ्यताएं गांधीवादी दर्शन को अपने शैक्षिक पाठ्यक्रम के एक हिस्से के रूप में शामिल कर रही हैं, हम भारतीय “पश्चिमी संस्कृति” का अनुकरण करने के लिए उत्सुक हैं जबकि हमें इस तथ्य पर गर्व होना चाहिए कि सबसे महान मानव जो कभी जीवित थे, वह हमारे राष्ट्रपिता है। अगर हमें अपने देश के सर्वांगीण विकास के लिए प्रयास करना है, और साथ ही साथ सामाजिक समता सुनिश्चित करना है, शक्ति केंद्रीकरण को खत्म करना है और शक्ति और संसाधनों का उचित विकेंद्रीकरण करना है, तो हमें हमारी मुख्य धारा के विचार और नीतियों को गांधीवादी विचारों / दर्शन को एक उदाहरण देना होगा और उनका परिचय देना होगा।
यह सच है कि आज की दुनिया महात्मा गांधी की दुनिया से काफी अलग है। औपनिवेशिक अधीनता के साथ जिन बुनियादी मुद्दों पर उनका टकराव हुआ, वे हमारी दुनिया से गायब हो गए हैं। नस्लीय भेदभाव में भी काफी कमी आई है। परन्तु इसी समय, शांति, सद्भाव और स्थिरता के लिए नए खतरे उभरे हैं। और यह 21 वीं सदी के विरोधाभासों में से एक है, जबकि शांति की स्थापना दुनिया की सबसे बड़ी अनिवार्यता बन गई है। शांति को बनाए रखने के पारंपरिक उपकरण तेजी से अप्रभावी पाए गए हैं। चाहे वह जातीय राष्ट्रवाद हो, धार्मिक अराजकतावाद, आर्थिक असमानता या सैन्यता – ये सभी आज की दुनिया में संघर्ष के शक्तिशाली चालक हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि संघर्षों को सुलझाने के लिए हमें एक नए प्रतिमान की बहुत आवश्यकता है।
6. हरित क्रांति जीवन के लिए आवश्यक है
> पर्यावरण
65 के बाद भारतीय बीजों की उच्च उपज देने वाली किस्मों की शुरूआत और उर्वरकों 19और से जाना जाता है। इसने भारत में खाद्यान्न को आत्मनिर्भर बनाने के लिए आवश्यक उत्पादन में वृद्धि प्रदान की। कार्यक्रम की शुरुआत संयुक्त राज्य अमेरिका स्थित रॉकफेलर फाउंडेशन की मदद से की गई थी और यह गेहूं, चावल और अन्य अनाजों की उच्च उपज देने वाली
किस्मों पर आधारित थी जिसे मैक्सिको और फिलीपींस में विकसित किया गया था। अधिक उपज देने वाले बीजों में से, गेहूं ने सर्वोत्तम परिणाम दिए ।
दुनिया की सबसे खराब रिकॉर्डेड खाद्य आपदा 1943 में ब्रिटिश शासित भारत में बंगाल अकाल के रूप में जानी गई। उस वर्ष पूर्वी भारत में अनुमानित चार मिलियन लोग भूख से मर गए (जिसमें आज का बांग्लादेश भी शामिल है)। प्रारंभिक सिद्धांत ने यह बताने के लिए कि तबाही यह थी कि क्षेत्र में खाद्य उत्पादन में भारी कमी थी। जब 1947 में अंग्रेजों ने भारत छोड़ा, तो बंगाल भारत अकाल की यादों का सबब बना रहा। इसलिए यह स्वाभाविक था कि खाद्य सुरक्षा मुक्त भारत के एजेंडे में एक सर्वोपरि वस्तु थी । इस जागरूकता ने एक ओर भारत में हरित क्रांति और दूसरी ओर, विधायी उपाय यह सुनिश्चित करने के लिए किए कि व्यवसायी फिर से लाभ के कारणों के लिए भोजन नहीं बना पाएंगे।
हालाँकि, “हरित क्रांति” शब्द 1967 से 1978 तक की अवधि के लिए लागू होता है। 1947 और 1967 के बीच, खाद्य आत्मनिर्भरता हासिल करने के प्रयास पूरी तरह से सफल नहीं थे। 1967 तक के प्रयास बड़े पैमाने पर खेती के क्षेत्रों का विस्तार करने पर केंद्रित थे, लेकिन अखबारों में भुखमरी से मौतें अभी भी जारी थीं। माल्थुसियन अर्थशास्त्र के एक परिपूर्ण मामले में, जनसंख्या खाद्य उत्पादन की तुलना में बहुत तेज दर से बढ़ रही थी। इसने पैदावार बढ़ाने के लिए कठोर कार्रवाई का आह्वान किया । यह कार्रवाई हरित क्रांति के रूप में सामने आई। “हरित क्रांति” एक सामान्य शब्द है जो कई विकासशील देशों में सफल कृषि प्रयोगों पर लागू होता है।
कुल मिलाकर, हरित क्रांति भारत के लिए एक बड़ी उपलब्धि है, क्योंकि इसने खाद्य सुरक्षा का उत्साह स्तर प्रदान किया है। यह कृषि में उसी वैज्ञानिक क्रांति के सफल अनुकूलन और हस्तांतरण का प्रतिनिधित्व करता है जो औद्योगिक देशों ने पहले से ही अपने लिए विनियोजित किया था। इसने बड़ी संख्या में गरीब लोगों को गरीबी से बाहर निकाला है और कई गैर-गरीब लोगों को गरीबी और भूख से बचने में मदद की है जो उन्होंने अनुभव किया होगा, यह नहीं हुआ था। गरीबों को सबसे बड़ा लाभ ज्यादातर कम खाद्य कीमतों, प्रवास के अवसरों में वृद्धि और ग्रामीण गैर-कृषि अर्थव्यवस्था में अधिक रोजगार के रूप में अप्रकाशित है।
कृषि अपनाने, अधिक कृषि रोजगार और सशक्तीकरण के माध्यम से गरीबों को उनके स्वयं के माध्यम से प्रत्यक्ष लाभ अधिक मिला-जुला रहा है और स्थानीय सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों पर बहुत अधिक निर्भर करता है। कई मामलों में हरित क्रांति को अपनाने वाले क्षेत्रों और वर्गों के बीच असमानताएं घट रही हैं, लेकिन कई अन्य मामलों में उन्होंने ऐसा नहीं किया। इसके अलावा, इसने कई नकारात्मक पर्यावरणीय मुद्दों को जन्म दिया है, जिसे अभी तक पर्याप्त रूप से संबोधित नहीं किया गया है।
भारतीय कृषि नई चुनौतियों का सामना कर रही है। हरित क्रांति के प्रकार की संभावना समाप्त हो गई है। अनुसंधान और विकास के माध्यम से उपज बाधाओं को तोड़ना होगा। बड़ी संख्या में किसानों ने अभी तक मौजूदा उपज बढ़ाने वाली तकनीकों को अपनाया है। मौजूदा किसानों को व्यापक स्वीकृति के लिए ऐसे किसानों को विस्तार सुनिश्चित किया जाना चाहिए।
कृषि में एक और तकनीकी सफलता के कारण गरीबों को अप्रत्यक्ष लाभ भविष्य में कमजोर होने की संभावना है क्योंकि वैश्वीकरण और कृषि वस्तुओं में व्यापार खाद्य कीमतों को स्थानीय उत्पादन के लिए कम उत्तरदायी बनाता है। ग्रामीण क्षेत्र में फसल उत्पादन, मूल्य संवर्धन और कृषि व्यवसाय विकास में विविधता से ग्रामीण क्षेत्रों में आजीविका सुरक्षा की कुंजी है। हरित क्रांति की ताकत पर निर्माण करके, अपनी कमजोरियों से बचने की कोशिश करते हुए, वैज्ञानिक और नीति निर्माता देश में स्थायी खाद्य सुरक्षा प्राप्त करने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठा सकते हैं।
पिछले वर्षों में खाद्यान्न उत्पादन में वृद्धि में हरित क्रांति का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। कृषि विकास की वर्तमान रणनीतियों को निरंतरता बढ़ाने वाली आर्थिक और अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पारिदृश्य में परिवर्तनों की आवश्यकता को ध्यान में रखना चाहिए।
खण्ड – ग
7. वैश्विक आतंकवाद की समस्या: कारण और निदान
> सुरक्षा
वर्तमान समय में आतंकवाद एक राष्ट्र व राज्य के दायरे तक ही सीमित नहीं है, बल्कि लिए गैर-राष्ट्रीय कर्ता देश बहुत बड़ी चुनौती बन चुके हैं, लेकिन आज तक संयुक्त राष्ट्र संघ के द्वारा आतंकवाद पर कोई निर्णय नहीं लिया गया है। सुरक्षा परिषद के द्वारा आतंकवाद के विरुद्ध निर्णय लेने का कारण कुछ देशों के द्वारा इस समस्या पर असहमति प्रकट की गई है। आतंकवाद को नियंत्रित करने लिए किसी भी प्रकार के अंतर्राष्ट्रीय कानून का निर्माण नहीं किया गया है।
शीत युद्ध के समय बड़ी-बड़ी महाशक्तियों ने आतंकवाद का प्रयोग विदेश नीति के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किया था। 11 सितंबर, 2001 तथा 13 दिसंबर, 2001 को किए गए आतंकवादी हमलों से भी आतंकवाद को बढ़ावा मिला है। भारत के मुंबई में ताज होटल पर 26 नवंबर, 2008 को किए गए हमले से आतंकवादी गतिविधियों को बल मिला है। वर्तमान समय में पाकिस्तान के द्वारा किए गए भारत के बालाकोट क्षेत्र में आतंकवादी हमले ने पूरे विश्व को हिलाकर रख दिया है।
आतंकवाद का यह मुद्दा भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी’ ने संयुक्त राष्ट्र संघ में उठाया है। संयुक्त राष्ट्र संघ के अधिवेशन के समय पर उपस्थिति पाई महाशक्तियों ने आतंकवाद के इस
मुद्दे का स्वागत किया है। भविष्य में आतंकवाद को जड़ से समाप्त करने पर सहयोग किया गया है। पांच महाशक्तियों की सहमति के बाद 1 मई, 2019 को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के द्वारा पाकिस्तानी चरमपंथी एवं जैश-ए-मोहम्मद के संस्थापक मोहम्मद मसूद अजहर अल्वी को वैश्विक आतंकवादी घोषित किया गया है ।
इस प्रकार से आतंकवाद की समस्या एक देश व राज्य की समस्या न होकर समस्त विश्व की एक भयंकर चुनौती बन गई है।
यह समस्या दिन-प्रतिदिन एक उग्र रूप धारण करती जा रही है। आतंकवाद का मतलब है किसी संगठन के द्वारा आम नागरिकों की हत्या करना, विमान अपहरण करना, सामूहिक नरसंहार करना आदि। इसका उद्देश्य आम लोगों के मन में मनोवैज्ञानिक भय उत्पन्न करना है। आतंकवादी हिंसा का मूल उद्देश्य एक निश्चित समुदाय की समस्या की तरफ, विश्व का ध्यान आकर्षित करना है।
आतंकवाद के अनेक कारण माने जाते हैं, जैसे- आर्थिक, सांस्कृतिक, धार्मिक कारण आदि ।
आर्थिक कारण : आतंकवादी गतिविधियों में शामिल होने वाले अधिकतर लोग गरीब देशों से संबंधित थे। परंतु वर्ष 2005 में ‘लंदन’ में हुए बम विस्फोट में काफी संख्या में शिक्षित लोग शामिल पाए गए। आधुनिक युग में अत्यधिक शैक्षिक पृष्ठभूमि के लोग आतंकवादी घटनाओं से संबंधित है।
सांस्कृतिक कारण : विश्व के कुछ समुदाय ऐसे हैं, जो अपने मूल्यों की रक्षा के लिए ‘सशस्त्र संघर्ष’ का सहारा लेते हैं। ऐसे समुदाय अपनी अलग सांस्कृतिक पहचान कायम रखना चाहते हैं। वर्तमान में अनेक धार्मिक एवं नृजातीय संघर्ष होते रहते हैं।
धार्मिक कारण : 11 सितंबर 2001 के आतंकवादी हमले को ‘इस्लामी आतंकवाद’ भी कहा जाता है। आतंकवादी किसी एक धर्म से संबंधित नहीं होते हैं। उनका संबंध तो लगभग सभी धर्मों से जुड़ा होता है। विश्व के कुछ देश, विदेश नीति के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए आतंकवाद का प्रयोग करते हैं। पाकिस्तान आतंकवाद का प्रयोग करने वाला पहला देश है। पाकिस्तान में आतंक के विरुद्ध युद्ध में अमेरिका ने सहयोग किया है। आतंकवादियों ने भारतीय संसद तथा कश्मीर विधानसभा को अपना निशाना बनाया है। धार्मिक स्थलों पर हमले किए गए। महिलाओं और बच्चों को जानबूझकर निशाना बनाया गया।
21वीं सदी में साइबर आतंकवाद, नार्कों आतंकवाद जैसी अवधारणाएं उभर कर आई है। वर्तमान समय में मोबाइल संसार की वैश्विक व्यवस्था, ई-मेल, सेलफोन, ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टम आदि ने आतंकवाद को वैश्विक बना दिया है।
वर्तमान समय में अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद एक साझा समस्या है। इस समस्या का समाधान वैश्विक स्तर पर साझा होना चाहिए । आतंकवाद से बचने के लिए सुरक्षा एजेंसियों के साथ-साथ सरकार को भी कार्य करने चाहिए। सभी देशों को आतंकवादी संगठनों के खिलाफ एक ठोस रणनीति तैयार करनी चाहिए। अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर आतंकवाद की कड़े शब्दों में निंदा करनी चाहिए। आतंकवाद को बढ़ावा देने वाले देशों का बहिष्कार करना चाहिए ।
विश्व में अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद एक बड़ी चुनौती बनकर उभरा है। वर्तमान समय में तकनीकी ज्ञान व सूचना प्रौद्योगिकी ने आतंकवादी संगठनों को काफी सहायता प्रदान की है। आतंकवाद से निपटने के लिए विश्व स्तर पर दीर्घकालिक रणनीति अपनानी आवश्यक है। अतः आतंकवाद की रोकथाम के लिए संपूर्ण विश्व को एकजुट होने की आवश्यकता है ताकि आतंकवाद को जड़ से समाप्त किया जा सके।
8. भारत की विदेश नीति शांति और समानता के सिद्धान्त पर आधारित है।
> अन्तर्राष्ट्रीय संबंध
भारत विदेश नीति समानता, स्वतंत्रता एवं बंधुत्व के लोकतांत्रिक सिद्धांतों पर आध भाारित है। साथ शांतिपूर्ण संबंधों को सुनिश्चित करना है और अंतर्राष्ट्रीय मामलों पर निर्णय लेने की स्वायत्तता की सुरक्षित करना है।
भारतीय विदेश नीति का सबसे महत्वपूर्ण तथा विलक्षण सिद्धांत गुटनिरपेक्षता है। जिस समय दोनों महाशक्तियाँ शीत युद्ध की नीति पर चल रही थीं तब भारतीय निर्माताओं ने विश्व शांति तथा भारतीय सुरक्षा तथा आवश्यकताओं के हित में यही ठीक समझा कि भारत को शांत युद्ध तथा शक्ति राजनीति से दूर रखा जाए। इस प्रकार भारत ने अलग रहते हुए गुटनिरपेक्षता की नीति को अपनाया। स्वतंत्रता से लेकर आज तक भारत इस नीति का पालन कर रहा है। इसके साथ ही भारत ने गुटनिरपेक्ष आंदोलन को चलाने में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर महत्त्वपूर्ण * भूमिका निभाई है।
ब्रिटिश साम्राज्यवाद के अधीन दासतां में पिसने के बाद भारत को साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद तथा नस्लवाद की शोषण प्रवृत्ति का पूर्ण आभास है। इन बुराइयों के विरोध को भारत ने अपनी विदेश नीति का मुख्य सिद्धांत माना है। भारत ने उपनिवेशीय शासन से छुटकारा पाने वाले देशों के स्वतंत्रता संघर्ष में उनका साथ दिया है। भारत और अन्य गुटनिरपेक्ष देशों की कोशिशों के कारण नामीबिया को 20 मार्च, 1990 को स्वतंत्रता प्राप्त हुई।
भारत नस्लों की समानता में विश्वास करता है तथा किसी भी नस्ल के लोगों से भेदभाव का पूर्ण विरोध करता है। अपनी इस वैदेशिक नीति के सिद्धांत के आधार पर ही भारत ने दक्षिण अफ्रीका के नस्लवादी शासन की कड़ी आलोचना की है और दक्षिण अफ्रीका के विरूद्ध कुछ प्रतिबंध भी लगाए तथा उससे कूटनीतिक संबंध तोड़ लिये। नेल्सन मंडेला के प्रयासों से दक्षिण अफ्रीका को श्वेत अत्याचारी शासन से मुक्ति मिली। अतः भारत ने भी दक्षिण अफ्रीका पर लगे प्रतिबंधों को समाप्त कर दिया।
साधनों की शुद्धता की गांधीवादी सदगुण के प्रभाव में भारत की विदेश नीति, झगड़ों के निपटारे के लिए, शांतिपूर्ण साधनों में अपना पूर्ण विश्वास प्रकट करती है। शांतिपूर्ण तथा अहिंसात्मक
साधनों द्वारा स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से ही भारत अंतर्राष्ट्रीय झगड़ों का शांतिपूर्ण निपटारा करने का दृढ़ समर्थक तथा अनुयायी रहा है। भारत युद्ध, आक्रमण तथा शक्ति का विरोध करता है।
साधनों की शुद्धता के विश्वास ने भारत को पंचशील का सिद्धांत अपनाने के लिए प्रेरित किया है। पंचशील सिद्धांत का अर्थ है व्यवहार या आचरण के पाँच नियम। 20 जून 1954 को प्रधानमंत्री नेहरू तथा चीनी प्रधानमंत्री चानु-एन. लाई के बीच पंचशील के एक समझौते पर हस्ताक्षर किये गए। दोनों ही राष्ट्रों द्वारा अपनी-अपनी विदेश नीतियाँ तथा अंतर्राष्ट्रीय संबंध में अपनाना था। पंचशील के सिद्धांतों को मान्यता देना स्थायी अंतर्राष्ट्रीय शांति लाने का सकारात्मक ढंग समझा जाता है।
भारत संयुक्त राष्ट्र संघ के मूल सदस्यों में से एक है। संयुक्त राष्ट्र की विचारधारा का समर्थन करने तथा इसके क्रियाकलापों में सक्रियता, सकारात्मक तथा रचनात्मक रूप से भाग लेना भारतीय विदेश नीति का महत्वपूर्ण सिद्धांत रहा है। भारत ने अंतर्राष्ट्रीय झगड़ों का निपटारा हमेशा ही संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में करने की नीति अपनाई है।
भारत ने पिछले कुछ वर्षों में संयुक्त राष्ट्र संघ के पुनर्गठन की माँग की है तथा इस संबंध में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता के लिए अपना दावा प्रस्तुत किया है। इन सभी सिद्धांतों ने अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में भारत को उसके उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायता प्रदान की है।
वर्तमान समय में अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के बदलते परिदृश्य के कारण भारत की विदेश नीति में भी बदलाव आया है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद विदेश नीति में जिन विचारों को अपनाया गया था उनमें समय-समय पर परिवर्तन होता रहा है। शीत युद्ध की स्थिति, सोवियत संघ का पतन, शीत युद्ध का अन्त, अमेरिका का इराक पर हमला, आतंकवादी घटनाएँ विशेषकर अमेरिका तथा भारत में और विश्व पर अमेरिकी दादागिरी तथा यूरोपियन युनियन का बनना, अफ्रीकी संघ का निर्माण, सार्क, जैसे क्षेत्रीय संगठनों का निर्माण आदि घटनाओं ने भारत की विदेश नीति को बदलते संबंधों के आधार पर पुनर्विचार करने के लिए एक नई दिशा प्रदान की।
आज आवश्यकता इस बात की है कि भारत अपने वैदेशिक संबंधों को फिर से नये रूप में प्रस्तुत करे। आज अमेरिका पाकिस्तान के बजाय भारत के साथ अधिक मित्रता की नीति अपना रहा है। भारत को सांच-समझकर अमेरिका के साथ आर्थिक विकास की नीति अपनानी होगी। इसी प्रकार पाकिस्तान से आतंकवाद का मुद्दा तथा कश्मीर का मुद्दा द्विपक्षीय बातचीत के आधार पर हल करने के प्रयास ढूँढने होंगे।
9. सीमा सुरक्षा बल हमारी राष्ट्रीय संप्रभुता के प्रमुख कारक हैं।
> सुरक्षा
सीमा सुरक्षा बल भारत का एक प्रमुख अर्धसैनिक बल है एवं विश्व का सबसे बड़ा सीमा रक्षक बल है। इसका गठन 1 दिसम्बर 1965 में हुआ था। इसकी जिम्मेदारी शांति के समय के दौरान भारत की अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं पर निरंतर निगरानी रखना, भारत भूमि
सीमा की रक्षा और अंतर्राष्ट्रीय अपराध को रोकना है। इस समय बीएसएफ की 188 बटालियन है और यह 6,385.39 किलोमीटर लंबी अंतरराष्ट्रीय सीमा की सुरक्षा करती है जो कि पवित्र, दुर्गम रेगिस्तानों, नदी-घाटियों और हिमाच्छादित प्रदेशों तक फैली है। सीमावर्ती इलाकों में रहने वाले लोगों में सुरक्षा बोध को विकसित करने की जिम्मेदारी भी बीएसएफ को दी गई है। इसके अलावा सीमा पर होने वाले अपराधों जैसे तस्करी/घुसपैठ और अन्य अवैध गतिविधियों को रोकने की जवाबदेही भी इस पर है।
1971 के भारत-पाकिस्तानी युद्ध में बीएसएफ की क्षमताओं का इस्तेमाल उन क्षेत्रों में पाकिस्तानी ताकतों के खिलाफ किया गया था, जहां नियमित बल कम फैल गए थे; बीएसएफ सैनिकों ने लांगवाला की प्रसिद्ध लड़ाई समेत कई परिचालनों में हिस्सा लिया। वास्तव में, बीएसएफ के लिए दिसम्बर 1971 में युद्ध वास्तव में समाप्त होने से पहले पूर्वी मोर्चे पर युद्ध शुरू हो गया था। बीएसएफ ने “मुक्ति बाहनी” का हिस्सा प्रशिक्षित, समर्थित और गठित किया था और वास्तविक शत्रुताएं टूटने से पहले पूर्व पूर्वी पाकिस्तान में प्रवेश कर चुका था। बीएसएफ ने बांग्लादेश के लिबरेशन में एक बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। “
भारत की विशाल सीमा रेखा को देखते हुए इसकी सुरक्षा हेतु कई तरह के सुरक्षा बलों की तैनाती की गई है; जैसे कि भारत-नेपाल सीमा पर सशस्त्र सीमा बल (SSB), भारत-चीन सीमा पर ITBP और भारत-म्यांमार सीमा पर असम राइफल्स । इसी प्रकार भारत-पाकिस्तान और भारत-बांग्लादेश की सीमा पर सुरक्षा बल की तैनाती की गई है।
उल्लेखनीय है कि सीमा सुरक्षा बल गृह मंत्रालय के अधीन एक अर्द्धसैनिक बल है जो शांति काल में भारत की स्थल सीमा की रक्षा करता है और अंतर्राष्ट्रीय अपराध की रोकथाम करता है।
सीमा सुरक्षा बल की भूमिका
शांति काल में
> वर्ष 2017 के दौरान BSF द्वारा जम्मू के अर्निया उप-क्षेत्र में हमला नूल्लाह वन क्षेत्र में सीमा पारीय सुरंग का पता लगाया गया था।
> BSF द्वारा विगत दो वर्षों से मणिपुर में आंतरिक सुरक्षा की जिम्मेदारी का भी निर्वहन किया जा रहा है और विद्रोह को सफलतापूर्वक दबाया गया है।
> 2001 के गुजरात भूकंप के दौरान कर्मियों ने सबसे पहले उपस्थिति दर्ज कराई थी और आपदाग्रस्त लोगों को बचाने का कार्य किया था।
> वर्तमान में BSF भारतीय थल सेना के साथ सीमा की रक्षा करता है और पाकिस्तान के साथ मौजूदा गतिरोध के दौरान घुसपैठियों की जाँच करता है।
युद्ध काल में
> युद्ध के दौरान सेना की आक्रामक कार्यवाही को तेज करने के लिये भी BSF की तैनाती की जाती है। यहाँ तक कि बड़े हमलों में, जिनसे स्वतंत्र रूप से BSF नहीं निपट सकती है, उनमें भी सेना के तोपखाने व अन्य सहयोगी के साथ तैनाती की जाती है।
> महत्त्वपूर्ण प्रतिष्ठानों की रक्षा हेतु विशेष रूप से वायु क्षेत्रों में दुश्मन के कमांडों, अर्द्ध सैनिकों या छापे के विरुद्ध । अन्य दवाइयों के संयोजन के मुख्य रक्षा पंक्ति को विस्तार देना।
> छापों आदि से जुड़ी खुफिया जानकारी हेतु विशेष कार्यों का निष्पादन करना ।
> सेना के अधीन प्रशासित दुश्मन के क्षेत्र में विधि व्यवस्था का प्रबंधन करना।
> 1999 के कारगिल संघर्ष के दौरान BSF के जवान पहाड़ों की ऊँचाई पर बने रहे और सेना के आह्वाहन पर देश की एकता और अखंडता के बचाव में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
अन्य उपलब्धियां
> सीमा सुरक्षा बल प्रत्येक वर्ष यू. एन. मिशन में अपने कार्मिकों को भेजकर इस अभियान में सहयोग करती है।
> मई-जुलाई 1999 में कारगिल युद्ध के दौरान, सीमा सुरक्षा बल पर्वतों की चोटियों पर आर्मी के साथ सामंजस्य बिठाते हुए, देश की सुरक्षा में तैनात रही।
> सीमा सुरक्षा बल के कार्मिक विगत दो वर्षों से मणिपुर में आंतरिक सुरक्षा ड्यूटी में तैनात हैं तथा इन क्षेत्रों में इंसरजेंसी के विरुद्ध सफलतापूर्वक कार्रवाई कर रहे हैं।
> 26 जनवरी 2001 को गुजरात में आये भूकंप के दौरान सीमा सुरक्षा ने सबसे पहले पहुंच पर व्यथित लोगों की सहायता की थी।
> गुजरात में हुए साम्प्रदायिक उत्तेजना में, सीमा सुरक्षा बल ने लोगों के बीच जाकर उनमें मैत्री एवं भाइचारा को पुनः स्थापित किया।
> पाकिस्तान द्वारा हमारी योजना को विफल करने के लाख प्रयासों के बावजूद, बल ने जम्मू एवं कश्मीर में सीमा पर तारबंदी लगाने का कार्य सफलतापूर्वक पूर्ण किया। के वर्तमान
> सीमा सुरक्षा बल आर्मी के साथ सीमाओं की सुरक्षा करते हुए पाकिस्तान रूखे व्यवहार के दौरान सीमा पर घुसपैठ को रोकने का कार्य करती है।
इन उपलब्धियों को देखते हुये यह कहना अपरिहार्य हो जाता है कि सीमा सुरक्षा बल हमारी राष्ट्रीय संप्रभुता के प्रमुख कारक हैं।
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