‘संगीत’ से आप क्या समझते हैं? सांगीतिक वाद्य यंत्रों के विविध प्रकारों को विस्तार से लिखिये ।
‘संगीत’ से आप क्या समझते हैं? सांगीतिक वाद्य यंत्रों के विविध प्रकारों को विस्तार से लिखिये ।
उत्तर— सांगीतिक वाद्य यंत्रों के विविध प्रकार–वादन क्रिया एवं वाद्यों की संरचना के आधार पर वाद्यों को चार वर्गों में विभाजित किया गया है। वाद्यों के प्रमुख चार प्रकार निम्नलिखित हैं—
(1) तंतु वाद्य–तन्तु वाद्य श्रेणी में वे वाद्य यंत्र आते हैं, जिनमें तार द्वारा स्वर उत्पन्न किए जाते हैं; जैसे—वीणा, सितार, इकतारा, वायलिन आदि ।
(2) अवनद्ध वाद्य–कपड़े से मढ़े हुए वे वाद्य यंत्र, जिन पर आघात कर बजाया जाता है, उसे अवनद्ध वाद्य कहते हैं; जैसे—ढोलक, चंग, डमरू, नगाड़ा, डफली आदि ।
(3) सुषिर वाद्य–हवा या फूँक से बजने वाले वाद्य यंत्रों को सुषिर वाद्य कहते हैं; जैसे—शंख, बाँसुरी, हारमोनियम, बीन, शहनाई आदि।
(4) घन वाद्य–मिट्टी, धातु, लकड़ी आदि से बने वे वाद्य यंत्र जिन्हें चोट या आघात द्वारा बजाया जाता है, उसे घन वाद्य कहते हैं; जैसे—घुँघरू, घंटा, मंजीरा, खड़ताल आदि ।
प्रमुख वाद्य यंत्र निम्न प्रकार से हैं—
(1) सारंगी–राजस्थान के देवी के मन्दिरों में या प्राचीन कथा सुनाने वालों द्वारा इसका उपयोग किया जाता है। घूँघरू लगे गज से इसे बजाया जाता है। यह तत लोक वाद्य है।
(2) रावण हत्था–यह राजस्थान का सबसे पुराना वाद्य है। नारियल के ऊपर बाँस लगाकर बनाया जाता है। कसे हुए चमड़े पर सुपाड़ी की लकड़ी की घोड़ी लगाकर 9 तार लगाए जाते हैं। गज से बजाया जाता है। राजस्थान में लोककथा गायन में प्रयोग किया जाता है । गज के तार और रावण हत्था का प्रमुख बाज तार घोड़े की पूँछ के बालों का होता है। गज में ताल देने के लिए घूँघरू बँधे रहते हैं। यह भी तत लोकवाद्य है।
(3) कामाइचा–कामाइचा भी तत लोकवाद्य है, इसमें 27 तार होते हैं, जिसकी तबली गोल होती है। नाग-पंथी साधु कामाइचा पर भर्तृहरि एवं गोपीचन्द की कथा के गायन में प्रयोग करते हैं। यह राजस्थान का प्रमुख वाद्य है।
(4) इकतारा–तत श्रेणी का यह वाद्य तँबे पर बाँस जोड़कर बनाया जाता है। घुमक्कड़ साधु प्रायः इकतारा का ही प्रयोग करते हैं।
(5) रबाब–वर्तमान सरोद रबाब का ही परिष्कृत रूप है। इसमें 3 से 7 तक तार होते हैं। यह अफगानिस्तान से पंजाब तक प्रचलित तत श्रेणी का लोकवाद्य है।
(6) नड़–माता या भैरव की भक्ति में राजस्थान के भोपे लोग मशक की तरह जिस सुषिर वाद्य को फूंक द्वारा बजाते हैं, उसे नड़ कहते हैं। उत्तर भारत में इसे ‘बीन’ कहा जाता है। मुँह की फूँक द्वारा मशक में पहले पूरी हवा भर ली जाती है फिर उसमें लगी हुई नली के छिद्रों पर उँगली के संचालन से स्वर पैदा किए जाते हैं।
(7) तुरही–यह सुषिर वाद्य मांगलिक पर्वों पर बजाया जाता है। महाराष्ट्र में इसका व्यापक चलन है। इसमें कोई छिद्र नहीं होता, केवल हवा फूँककर, उसके विभिन्न दबावों से ऊँचे-नीचे स्वरों की उत्पत्ति की जाती है।
(8) अलगोजा–यह सुषिर श्रेणी का वाद्य है। बॉस से बनी बाँसुरी को अलगोजा या मुरली कहते हैं। अलगोजा प्राय: दो होते हैं, जिन्हें एक साथ मुँह में दबाकर फूँक कर बजाया जाता है। पशुओं को चराते समय, मेले या उत्सव के समय बजाया जाता है।
(9) सिंगी–यह सुषिर वाद्य भैंसे और हिरन की सींग का बनता है। सिंगी धातु से भी बनाया जाता है। लोक जीवन में सिंगी वादन द्वारा विभिन्न अवसरों पर अनुकूल प्रभाव उत्पन्न किया जाता है। युद्ध के समय बजने पर इसे ‘रण-सिंगा’ भी कहा जाता है।
(10) नफीरी–नफीरी सुषिर वर्ग का वाद्य है, इसे शहनाई या सुन्दरी भी कहते हैं। यह लाल चन्दन की लकड़ी से बनाई जाती है, जिसमें 8 छेद होते हैं। इसका मुख चार अंगुल लम्बा होता है, जिसमें हाथी-दाँत के पत्ते लगे रहते हैं।
(11) बीन–यह सुषिर वाद्य मुख्यतः सपेरों का वाद्य है, जिसे पुंगी भी कहा जाता है। छोटी तुम्बी में बाँस की नलिकाएँ लगी रहती हैं और बजाने वाले हिस्से में काठ की एक पोली नली रहती है। इसमें तीन या चार सूराख रहते हैं।
(12) चंग (डफ्)–लकड़ी के घेरे पर चमड़े से मढ़ा हुआ अवनद्ध श्रेणी का वाद्य है । इसके छोटे स्वरूप को ‘ढपली’ कहते हैं। चंग के माध्यम से लोक गाथाओं और शेरो-शायरी की प्रस्तुति भी की जाती है। होली पर ग्रामीण लोग इसे बजाकर लोकगीत गाते हैं। चंग को डफ भी कहा जाता हैं।
(13) डमरू–यह अवनद्ध वाद्य है। शिव की प्रतिमा में एक हाथ में डमरू रहता है। नट, जादूगर, जोगी लोगों का प्रतीक वाद्य है । डमरू के दोनों सिरों पर चमड़ा चढ़ा रहता है, दोनों सिरों को रस्सी से कसा जाता है। मध्य का हिस्सा एकदम पतला होता है, जिसमें एक रस्सी अलग से लटकी होती है, रस्सी के मुख पर घुण्डी बनी रहती है। पतले वाले हिस्से को पकड़कर रस्सी को इधर-उधर घुमाने पर रस्सी की घुण्डियाँ चमड़े पर चोट करके ध्वनि पैदा करती हैं।
(14) शंख–सुषिर श्रेणी का यह आदि वाद्य है, जिसे प्रकृति से प्राप्त किया गया है। शंख समुद्री जीव का ढाँचा है जो समुद्र की तलहटी में पाया जाता है। महाभारत में युद्ध का आरम्भ शंख नाद से होता था। बंगाल में इसका बहुत चलन है। सभी शंख वादन योग्य नहीं होते। मन्दिरों में पूजा के समय व कथा वाचन में इसका प्रयोग किया जाता है।
(15) ताशा–मुगलों के समय अवनद्ध जाति के इस वाद्य ने जन्म लिया था । मिट्टी की कटोरी जैसे वाद्य को चमड़े में मढ़कर ‘ताशा’ बनाया जाता है। इसे गले में लटकाकर दोनों हाथों में डंडियाँ लेकर बजाया जाता है।
(16) खंजरी–डफली के घेरे में तीन या चार जोड़ी झाँझ लगे हों तो यह अवनद्ध श्रेणी का खंजरी कहलाता है। इसका वादन चंग की तरह हाथ के थाप से किया जाता है। ग्रामीण क्षेत्रों में इसे बहुत प्रयोग किया जाता है।
(17) नगाड़ा–प्यालीनुमा मिट्टी या लकड़ी की आकृति पर चमड़े को मढ़कर नगाड़ा बनाया जाता है। अवनद्ध श्रेणी के इस वाद्य को दो नुकीली लकड़ियों से लोकगीत के साथ बजाया जाता है। नौटंकी और तमाशे में नगाड़ा प्रमुख रूप से बजाया जाता है।
(18) घंटा–इस घन वाद्य को घड़ियाल भी कहा जाता है। यह पीतल या अन्य धातु से बनाया जाता है, जिसे एक डोरी की सहायता से लटकाकर बजाया जाता है। पूरे भारत में मन्दिरों में घण्टा बजाया जाता है।
(19) ढोल–ढोल अवनद्ध वाद्य है। बेलन के आकार का, अन्दर से पोला और दोनों ओर से चमड़े से मढ़ा होता है। विवाहआदि शुभ अवसरों पर इसे बजाया जाता है। यह पूरे भारत में बजाया जाता है। एक हाथ में लकड़ी लेकर आघात किया जाता है और दूसरे हाथ में उंगलियों, हथेली से ताड़न किया जाता है।
(20) ढोलक–यह अवनद्ध श्रेणी का ही ढोल की भाँति छोटे आकार का होता है। दोनों हाथों से बजाया जाता है। शुभ अवसरों पर, उल्लास के समय ढोलक बजाकर गीत गाया जाता है।
(21) मुखचंग–इस घनवाद्य का आकार त्रिशूल की तरह होता है। मुखचंग को दाँतों से दबाकर बीच की पत्ती को उँगली द्वारा स्प्रिंग की तरह । झटकारकर बजाया जाता है। इसे सुषिर वाद्य भी माना जाता है।
(22) मटका–पानी रखने वाला मिट्टी का मटका भी घन वाद्य है। दक्षिण भारत में इसका खूब प्रयोग किया जाता है।
(23) घुँघरू–धातु के गोल पोले टुकड़ों में लोहे या कंकड़ की छोटीछोटी गुटिकाएँ डाल दी जाती हैं। बहुत से घुँघरुओं को एक डोरी से बाँधकर लड़ी बनाकर पैरों में बाँधकर नृत्य किया जाता है। कुछ लोग तबला बजाते समय घुँघरू की लड़ी को हाथ में बाँधते हैं।
(24) चिमटा–यह घनवाद्य लोहे का बना होता है। लोहे की दो लम्बी पट्टियों के बीच में झंकार के लिए लोहे की गोल-गोल पत्तियाँ लगा दी जाती हैं। बाएँ हाथ में एक ओर से चिमटा पकड़कर दाहिने हाथ से अंगूठा और उंगलियों के झटके से बजाया जाता है। भजन-कीर्तन के समय चिमटा बजाया जाता है।
(25) कठताल–यह घन वाद्य खड़ताल के नाम से भी जाना जाता है। लकड़ी के बने हुए लम्बे दो गोल डण्डे को एक हाथ में ही ढीला पकड़कर बजाया जाता है।
(26) झाँझ / मजीरा–ये धातु से बने गोल वाद्य हैं। इस घन वाद्य के मध्य डोरी लगाई जाती है और उसी डोरी के सहारे दोनों गोल टुकड़ों को दोनों हाथों में पकड़कर, दोनों को एक-दूसरे के आघात से बजाया जाता है। झाँझ का ही छोटा रूप मजीरा होता है। पूजा-पाठ के संगीत में झाँझमजीरा बजाया जाता है।
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