सृजनात्मकता को परिभाषित करें। सृजनात्मकता की अवधारणा को विस्तार से समझाइए ।

सृजनात्मकता को परिभाषित करें। सृजनात्मकता की अवधारणा को विस्तार से समझाइए । 

उत्तर— सृजनात्मकता–’सृजन’ करना अर्थात् नवीन निर्माण करना । सृजनात्मकता एक कल्पना शक्ति का परिणाम है। जब कोई व्यक्ति कोई मौलिक कृति बनाता है या कहीं देखकर उस आधार पर कोई निर्माण करता है तो वह किसी प्रकार का ‘सृजन’ करता है। अनेक कलाओं को कागज पर उतारना, पोस्टर बनाना, फूल-पत्तियों का निर्माण करना, किसी मूर्ति का निर्माण करना, पेन्टिंग के अनेक आयाम प्रस्तुत करना, यहाँ तक कि नारी अपने आपको संवारती है, तो वह भी एक प्रकार का सृजन ही है। मेहंदी को कई प्रकार के डिजाइनों में बनाना, फैशन डिजाइनर जब कपड़ों के डिजाइन तैयार करते हैं तब वे आधुनिकता के अनुरूप नया सृजन करते हैं।
टॉलस्टाय के अनुसार, “रेखा, रंग, ध्वनि, शब्द-रचना तथा क्रिया आदि कलाकारों के भावों की वह अनुभूति है जो दर्शक श्रोता अथवा पाठक के मन में विभिन्न भावों को जगाकर उसे आनन्दित करती है, वही सच्ची सृजनात्मक कला है। नया या पुराना होना कला की कसौटी नहीं होता बल्कि उसका मूल लक्षण सौन्दर्य बोध है और सौन्दर्य बोध सम्बन्धी मान्यताओं में समय-समय पर परिवर्तन भी होते रहते हैं।” जब कोई बालक अपनी अनुभूति को बिना किसी दबाव के स्वाभाविक रूप से जो अभिव्यक्त करता है, उसे उस बालक की सृजनात्मक अभिव्यक्ति कहते हैं। सृजनात्मकता प्रत्येक बालक में जन्मजात रूप से पायी जाती है। इस सृजनात्मक कला में बालक पेन्सिल, रंग, कोयले आदि से सफेद दीवार पर कुछ टेढ़ी-मेढ़ी रेखाएँ खींचता है, तो वह चित्रकला कहलाती है और जब बालक अपनी तोतली वाणी में स्वाभाविक रूप से बोलता है तो यह अभिनय या नाट्य कला कहलाती है और जब बालक स्वतन्त्र रूप से गुनगुनाता है तो यह गायन कला कहलाती है।
सृजनात्मकता की अवधारणा—यह वह कला है जिसमें कोई भी व्यक्ति अपने मनोरंजन के लिये नवीन सृजन करता है। इस कला का सम्बन्ध विशेषकर आत्मरंजन से है भले ही उसका अप्रत्यक्ष रूप में अर्थ से सम्बन्ध बन जावे । जैसे—एक कवि अपने मन के भावों को कविता में व्यक्त करके काव्यों का सृजन करता है ये काव्य भले ही अर्थ की दृष्टि से उपयोगी बन जावे लेकिन कवि का उद्देश्य अर्थ प्रदान नहीं होता। इसी प्रकार चित्रकार, मूर्तिकार, अपने मनोरंजन के लिये नवीन चित्रों का और मूर्तियों का सृजन करता है। महात्मा तुलसीदास ने स्वांतः सुखाय रामचरित्रमानस की रचना की। राजा रवि वर्मा ने चित्रकला की नई सृजना नहीं की वरन् आधुनिक धारा को अबोध गति से पालन किया। उन्होंने पाश्चात्य शैली का अध्ययन किया और सैकड़ों वर्षों की परम्परागत रूढ़िबद्ध चित्र प्रणाली से विमुख हुए।
प्रो. ई.बी. हैवेल एक अंग्रेज महोदय थे जो उस समय कला विद्यालय के प्रधान थे। उन्होंने भारतीय चित्रकला का अध्ययन किया और बताया कि भारतीय चित्रकला संसार की एक श्रेष्ठ कला है। आजकल विद्यालयों में समाज उपयोगी उत्पादककारी (S.U.P.W.) एक नवीन अवधारणा बताई गई है। इसके अंतर्गत कला शिक्षा को विशेष महत्त्व दिया गया। छात्रों की सृजनात्मक, प्रतिभा का विभिन्न रूपों में उपयोग करने के लिए चित्रकला, मूर्तिकला, संगीत कला व साहित्य सृजन आदि को पाठ्यक्रम का एक महत्त्वपूर्ण विषय माना गया है। छात्र कक्षा में बाल सुलभ प्रतिभाओं के कारण तोड़फोड़ भी करते हैं और उन्हें यदि मार्ग सही दिया जाता है तो वे अपनी प्रतिभा व शक्ति का उपयोग नवीन वस्तु के सृजन में लगा सकते हैं। छात्र अपनी कल्पना से नये चित्र बनाते हैं। मिट्टी के खिलौने बनाते हैं, प्लास्टिक से रंग-बिरंगे चित्र बनाते हैं। सृजनात्मक कला से छात्रों का मन कला की ओर आकर्षित होता है और इस प्रकार बाल कलाकार आगे जाकर अच्छे कलाकार बन जाते हैं।
सौन्दर्य-शास्त्रियों ने मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से मानव मस्तिष्क के अन्तर्गत सृजनात्मक प्रक्रिया की घोर अवस्थाएँ बताई हैं। प्रत्येक कलाकार को सृजनात्मक प्रक्रिया के अन्तर्गत इन सभी अवस्थाओं में से होकर गुजरना पड़ता है, जो इस प्रकार से हैं—
(1) निरीक्षण या देखने की प्रक्रिया–सृजन प्रक्रिया में निरीक्षण’ या ‘देखना’ प्रथम प्रक्रिया है। निरीक्षण के द्वारा ही रूप का साक्षात्कार होता है। अतः कला में निरीक्षण का महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह प्रक्रिया हमारी ज्ञानेन्द्रियों से सम्बन्धित है। कला में निरीक्षण सामान्य क्रिया नहीं है वरन् निरीक्षण के माध्यम से ही कलाकार को किसी वस्तु विशेष के मर्म का बोध होता है । कलाकार को सौन्दर्य तत्त्व को ज्ञान होता है। किसी भी प्राकृतिक वस्तु का भली-भाँति अध्ययन करना, उसका आकार, रंग, रूप का तुलनात्मक अध्ययन एवं वातावरण में उसका स्थान ये सभी बातें कलात्मक दृष्टि से देखने की प्रक्रिया से सम्बन्धित हैं। यही सूक्ष्म निरीक्षण कलाकार को सृजन के लिए प्रेरित करता है। निरीक्षण के द्वारा कलाकार रूपाकृतियों के न केवल बाह्य स्वरूप का यथार्थ अंकन करने में समर्थ होता है, वरन् वह उनके आन्तरिक सौन्दर्य की भी समझ को सरलतापूर्वक विकसित कर पाता है।
(2) अनुभूति या ग्रहण करने की प्रक्रिया–यह क्रिया मानसिक क्रियाओं की मूल स्रोत है। आकृति की सौन्दर्य अनुभूति का सम्बन्ध ग्रहण शक्ति से है और सौन्दर्य अनुभूति कला की आत्मा है । श्रेष्ठ कला उन सहज अनुभूतियों का संकलन करती है, जो सदैव संवेदनाओं और प्रभावों से सम्बन्धित होती हैं। मनुष्य का मन ही सुन्दर, सत्य व प्रेम का आधार है। अतः अनुभूति एक मानसिक क्रिया है जो सौन्दर्य चेतना और रूप बोध के द्वारा हमें सन्तुष्टि देती है। पाश्चात्य विद्वान् क्रोचे ने अनुभूति को ‘सहज ज्ञान’ व कला का जनक माना है। उन्होंने इसे बौद्धिक ज्ञान से भिन्न माना है। टाल्सटॉय ने कला में अनुभूति को बहुत महत्त्वपूर्ण माना है। पाश्चात्य विद्वान् रस्किन ने भी कला में सौन्दर्य अनुभूति का महत्त्व स्वीकार किया है।
इस प्रकार बाह्य रूप, रंग आदि को आत्मसात करना या अनुभूत करना इस प्रक्रिया में सम्मिलित है, जिसके दो आधार हैं – (i) वस्तु एवं (ii) अनुभवकर्ता । वस्तु स्वतंत्र व बाह्य होती है, परन्तु अनुभवकर्ता एक संवेदनशील व्यक्ति होता है, जो सौन्दर्यानुभूति करता है।
(3) कल्पना की प्रक्रिया·कल्पना शक्ति कला में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। यह वह शक्ति है जो ‘संवेदना’ व बुद्धि के मध्य स्थित होती है। अतः कल्पना के लिए संवेदना आवश्यक होती है। पदार्थ-ज्ञान के लिए ‘दृष्टा’ और ‘दृश्य’ की आवश्यकता है। संवेदनशील व्यक्ति ही ‘दृष्टा’ कहलाता है और कलाकार एक संवेदनशील व्यक्ति होता है। इस प्रकार वह शक्ति जो अनुभूति व ज्ञान के पश्चात् हमारे मस्तिष्क पर प्रभाव डालती है, वह कल्पना है।
(4) सृजनात्मक अभिव्यक्ति की प्रक्रिया–प्रत्येक प्राणी में अपनी भावनाओं को व्यक्त करने की शक्ति होती है। बच्चे जन्म से ही रोना, हाथ-पैर हिलाना आदि के द्वारा अपनी भावनाओं को दूसरों पर अभिव्यक्त करना चाहते हैं। इसी प्रकार हम अपनी भूख, प्यास, क्रोध, दुख-सुख आदि भावनाओं को दूसरों पर अभिव्यक्त करते हैं। इन अभिव्यक्तियों के लिए किसी भी प्राणी पर कोई बाहरी दबाव नहीं होता, बल्कि ये उनकी आन्तरिक व सहज अभिव्यक्ति मानी जा सकती है। इस प्रकार ये अभिव्यक्तियाँ स्वच्छंद व मुक्त कही जा सकती हैं। जब ये ही मुक्त अभिव्यक्तियाँ किसी सृजन को प्रेरित होती हैं तो वह सृजनात्मक अभिव्यक्ति कहलाती है। यह सृजनात्मक अभिव्यक्ति कलाकार के अन्त:मन, परिपक्व विचारधारा व उसकी सृजनात्मकता की परिचायक होती है।
किसी कवि या कलाकार के मन में जब तीव्र वेदना या बेचैनी का प्रस्फुटन होता है तो वह उस पर ध्यान अर्थात् कल्पना का प्रकाश डालकर उस वेदना को समझ लेता है, इसी समझने का दूसरा नाम ‘अभिव्यक्ति’ या ‘प्रकाश’ है। इसी अभिव्यक्ति का नाम ‘कला’ है। जब कलाकार किसी माध्यम (चित्र, संगीत, मूर्ति आदि) के द्वारा अपने को अभिव्यक्त करता है तो वह अभिव्यक्ति ‘ कलाकृति’ का रूप धारण कर लेती है। इसे ही विचारक ‘भाषा’ कहते हैं। जिसके द्वारा कलाकार अपने भावों एवं विचारों का सम्प्रेषण करता है। चित्रकला, मूर्तिकला एवं नाटक में ‘रूप’ की भाषा का, काव्य में शब्दगत ध्वनियों की लय, संगीत और लयात्मकता आदि से मनःस्थितियों का उद्बोधन किया जाता है। आत्माभिव्यक्ति अथवा हृदय की बेचैनी की अभिव्यक्ति, एक स्वस्थ व मानसिक बेचैनी की पूर्ति है, और इस प्रकार की ‘आत्माभिब्यक्ति’ द्वारा कलाकार अपनी मानसिक वेदना से मुक्ति पाता है। अतः कलाकृति मानव मस्तिष्क की वह सृजन प्रक्रिया है, जहाँ वह अपने अनुभवों को निश्चित कला – तत्त्वों एवं सौन्दर्य सिद्धान्तों के आधार पर अभिव्यक्त करता है।
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