सृजनात्मक शिक्षण क्या है ? सृजनात्मक रूप से पढ़ाने के तरीके स्पष्ट कीजिए।
सृजनात्मक शिक्षण क्या है ? सृजनात्मक रूप से पढ़ाने के तरीके स्पष्ट कीजिए।
उत्तर— सृजनात्मक शिक्षण – आधुनिक समाज तथा राष्ट्र प्रगति के लिए सृजनशील व्यक्तियों के प्रति ऋणी हैं और आज भी ऐसे व्यक्तियों को सत्कार दिया जाता है। वैसे तो हर युग में सृजनशील व्यक्ति पाये जाते थे लेकिन उनमें कम व्यक्तियों की पहचान हो पाती थी और उन्हें कम सुविधाएँ दी जाती थीं। अतः कम ही व्यक्तियों का योगदान संसार के सामने आता था। लेकिन आज सृजनशील व्यक्ति को ही अमूल्य निधि माना जाता है। इस कारण उसे इस योग्यता को विकसित करने के अनेक अवसर दिए जा रहे हैं। इसके लिए शिक्षा का आज यह कर्त्तव्य है कि ऐसे व्यक्तियों की योग्यता और रुचियों की ओर ध्यान दें, उनका पता लगायें और उन्हें सुविधायें प्रदान करें। अतः अध्यापक को भी इस सन्दर्भ में सतर्कता रखनी है कि वे ऐसे बालकों का पता लगाने में समर्थ होंगे। अतः यहाँ आवश्यक हो गया है कि हम सृजनशीलता का अर्थ बताएँ ।
अर्थ एवं परिभाषाएँसिम्पसन — कुछ परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं—
सिम्पसन के अनुसार, “सृजनात्मक योग्यता वह पहलू है, जिसे कोई भी बालक या व्यक्ति परम्परागत विचारक्रम से हटकर अपनी (बौद्धिक क्षमतानुसार अभिव्यक्त करता है।”
काल्विन के विचार से, “सृजनशीलता, कार्य के किसी भी क्षेत्र में प्रगतिकारक हो सकती है।’
बिने के अनुसार, “सृजनशीलता बहुमुखी है तथा इसका अर्थ सभी के लिये समान नहीं होता।”
स्टेगर कार्वोस्की के अनुसार, “सृजनात्मक का आशय किसी पूण्र या आंशिक नई वस्तु का उत्पादन करना है।”
स्किनर के अनुसार, “सृजनात्मक विचारक वह व्यक्ति है जो खोज करता है, नए अवलोकन करता है, नई भविष्यवाणी, जो नए क्षेत्रों में है, करता है तथा नए-नए परिणाम निकालता है। “
मेडनिक के शब्दों में, “सृजनात्मक चिन्तन में साहचर्य के तत्त्वों का समावेश होता है जो विशेष आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए संयोगशील होते हैं अथवा किसी अन्य में उपयोगी होते हैं । “
उपरोक्त परिभाषाएँ मुख्यतः निम्न तथ्यों पर विशेष बल देती हैं तथा उसी के अनुसार मनोवैज्ञानिकों ने सम्बन्धित परिभाषाओं की व्याख्या की है—
(1) सृजनात्मक को उत्पादन के रूप में
(2) सृजनात्मकता को सृजनशील व्यक्ति अथवा व्यक्तित्व के रूप में
(3) सृजनात्मकता एक प्रक्रम के रूप में
(4) सृजनात्मकता को सृजनशील परिस्थिति के रूप में देखना ।
मेडनिक ने अपनी परिभाषा सृजनात्मकता के प्रक्रम (Process) के रूप में दी है। इसी प्रकार ग्राहम (Grahm) ने अपनी परिभाषा भी इसी रूप में दी है और इस प्रक्रम में चार अवस्थाएँ स्पष्ट की हैं, जो इस प्रकार हैं—
(i) प्रकाश या प्रबुद्धि प्रेरणा – उद्भवन के बाद अचानक अचेतन मन में अन्तर्दृष्टि उत्पन्न होती है, जिससे समस्या का समाधान हो जाता है। इसका उदाहरण है वैज्ञानिक आर्कमिडीज जिसने अपनी समस्या उस समय हल की जब वह स्नान कर रहा था ।
(ii) उद्भवन– इस अवधि में कुछ रुकावट आ जाती है। व्यक्ति की चेतना समस्या पर कार्य नहीं करती लेकिन अचेत रूप में इस सम्बन्ध में कार्य होता रहता है। इससे ज्ञान मिलने में सहायता मिलती है और आगे कार्य करने के लिए प्रेरणा मिलती है।
(iii) आयोजन – इसमें व्यक्ति समस्या को गहराई से देखकर अध्ययन करता है। इसमें समस्या से सम्बन्धित तथ्य भी सम्मिलित किए जाते हैं।
(iv) पड़ताल अथवा वितरण – इस अवस्था में प्रदत्तों, विचारों अथवा तथ्यों की जाँच की जाती है। दूसरे शब्दों में यह एक तरहं से विचारों अथवा प्रदत्तों की पूर्ण चिन्तन की प्रक्रिया है जिसमें समाधानों का गहराई से तथा व्यस्थित रूप से अध्ययन किया जाता है ।
इसी तरह मासलों ने अपनी परिभाषा में सृजनात्मक व्यक्तित्व के गुणों का वर्णन किया है। उसने सृजनशील व्यक्ति के व्यक्तित्व में निम्न विशेषताएँ स्पष्ट की हैं—
(1) ऐसे व्यक्तियों में अभिव्यक्ति को सामर्थ्य होती है ।
(2) सृजनशील व्यक्ति में विरोध को सहने की शक्ति होती है।
(3) सृजनशील व्यक्ति में निरन्तर बहने वाले विचारों का प्रवाह होता है जो बिना किसी रुकावट के बहता रहा है।
(4) ऐसे व्यक्ति स्वभाव में भोले और सीधे होते हैं। उनमें छलकपट नहीं होता।
(5) ऐसे व्यक्ति तत्क्षण कार्य करने में सक्षम होते हैं।
सृजनशीलता की प्रकृति
सृजनशीलता के सम्बन्ध में जितनी भी बातें कही गयी, उनको ध्यान में रखते हुए सृजनशीलता की प्रकृति होगी—
(1) यह किसी कार्य विशेष को नया और मौलिक रूप देने से सम्बन्धित है।
(2) सृजनशीलता सदैव विकासोन्मुख होती है।
(3) सभी व्यक्तियों में सृजनशीलता उनकी बौद्धिक क्षमता के अनुसार अलग-अलग होती है ।
(4) सृजनशीलता से किसी वस्तु या बात की गुणवत्ता बढ़ती है ।
(5) सृजनशीलता का बुद्धि से सीधा सम्बन्ध है ।
(6) सृजनशीलता में चिन्तन, कल्पना और अन्तर्दृष्टि का प्राधान्य होता है ।
बालकों में सृजनशीलता के विकास हेतु अध्ययन-अध्यापन, पाठ्येतर और पाठ्य सहगामी सभी क्रियाओं में इन्हीं बातों अर्थात् मौलिकता, अपसारी, चिन्तन आदि पर विशेष बल दिया जाना चाहिए। सृजनशीलता का विकास स्वतः ही होने लगेगा। इस क्षेत्र में सम्पन्न हुए शोध कार्यों का निष्कर्ष भी यही है। उन शोध कार्यों का सार है कि बालकों में सृजनशीलता का विकास स्वत: ही होने लगेगा। इस क्षेत्र में सम्पन्न हुए शोध कार्यों का निष्कर्ष भी यही है । उन शोध कार्यों का सार है कि बालकों में सृजनशीलता के विकास हेतु—
(1) पाठ्यक्रम इतना लचीला हो कि विद्यार्थी अपनी रुचि के अनुसार पाठ्य विषयों का चयन कर सकें और उन विषयों के अध्ययन द्वारा अपनी प्रतिभा का परिचय दे सकें ।
(2) मौलिक कार्यों को बढ़ावा दिया जाये ।
(3) प्रश्न विचार – प्रधान हों ।
(4) विद्यार्थियों के अपसारी चिन्तन को अधिक से अधिक बढ़ाया जाए।
(5) शिक्षण विधियाँ – नवीन, रुचिकर और मौलिक हों।
(6) छात्रों को पढ़ाते समय यह सोचने के लिए उत्प्रेरित किया जाए कि जो तथ्य जैसे हैं, वैसे ही क्यों हैं ? उनमें कहीं यदि कोई परिवव्रन करना हो तो कैसे किया जाए?
(7) छात्रों द्वारा किये गये मौलिक विचारों की प्रशंसा की जाए।
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