बालकों की बहुभाषिक पृष्ठभूमि से आप क्या समझते हैं स्पष्ट कीजिए।

बालकों की बहुभाषिक पृष्ठभूमि से आप क्या समझते हैं स्पष्ट कीजिए।

उत्तर— बहुसांस्कृतिक समाज – भारतीय संस्कृति वह संस्कृति है जिसकी विशेषता है – समन्वय एवं श्रेष्ठ को संयोजित रखना। महर्षि अरविन्द, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, डॉ. राधाकृष्णन्, जैसे विद्वानों ने विश्व की संस्कृतियों को निकट लाकर एक वृहत- संस्कृति की व्याख्या प्रस्तुत की है। मानवता का विकास कर प्रत्येक नागरिक को विश्वनागरिकता प्रदान करना, वर्तमान समय में शिक्षा का कार्य है। यह कार्य तभी सम्भव है जब नई पीढ़ी में बहुसांस्कृतिक समाज का सदस्य बनने की क्षमता का विकास किया जाये।
वर्तमान समय में राष्ट्र की सीमाओं से परे अन्य राष्ट्रों की संस्कृति भी हमें प्रभावित कर रही है ऐसी स्थिति में अधिक सतर्क होकर शैक्षिक प्रक्रिया की व्यवस्था करनी होगी।
बहुसांस्कृतिक समाज हेतु शिक्षा – इस प्रकार की शिक्षा व्यवस्था में निम्न बातों को विशेष रूप से ध्यान में रखना होगा—
(1) शिक्षकों के लिए व्यावसायिक विकास के पाठ्यक्रम व कार्यक्रम किये जाऐ।
(2) शिक्षक प्रत्येक प्रजातिय समूह की विशेषताओं को ज्ञात कर उनके साथ व्यवहार करें।
(3) सहयोगी अधिगम प्रणालियों का प्रयोग करके प्रत्येक उपसंस्कृति के विद्यार्थी को निर्णय के अवसर प्रदान किये जाये ।
(4) प्रत्येक विद्यार्थी में उसकी सांस्कृतिक विरासत के कौशलों को जीवित रखने पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए ।
(5) विभिन्न सांस्कृति समूहों के मूल्यों का सम्मान करना एवं मूल्यों को जीवन में उतारना सिखाना चाहिए।
(6) प्रत्येक संस्कृति के अनुरूप भाषा एवं सामाजिक कौशलों का प्रशिक्षण भी दिया जाना चाहिए।
(7) जटिल ज्ञानात्मक संप्रत्ययों एवं कौशलों के विकास के लिए बहुसांस्कृतिक संवेदी तकनीकों का प्रयोग किया जाना चाहिए।
(8) मल्टीमीडिया का प्रयोग कर संस्कृतिक का मूर्त एवं रूप बताया जाये ।
बहुभाषिय समाज – हमारे देश में 200 भाषाएँ हैं, 1600 बोलियाँ हैं तथा भारत की मुद्रा भी 15 भाषाओं में छपी है साथ ही साथ 8वीं अनुसूची संविधान में 22 भाषाएँ चिह्नित है— असमी, बंगाली, गुजराती, हिन्दी, कन्नड़, कश्मीरी, कोंकणी, मलयालम, मणिपुरी, मराठी, नेपाली, उड़िया, पंजाबी, संस्कृत, तमिल, तेलगू, उर्दू, संथाली, वोरो, मैथिली, डोगरी । भाषायी विविधता के इतने विस्तृत एवं व्यापक स्वरूप के होते हुए भी भाषा शिक्षा का एक सशक्त स्तम्भ है ।
अपने विचारों को अभिव्यक्त करने के लिए तथा दूसरों के विचारों को ग्रहण करने के लिये मानव को किसी न किसी माध्यम की आवश्यकता होती है। विचार विनिमय के इन साधनों में साधारणतः भावमुद्राओं, संकेतों अथवा भाषा का प्रयोग होता है। परन्तु विचार विनिमय के इन साधनों में सबसे सरल, सुगम व सर्वव्यापी साधन भाषा ही है। भावमुद्राओं तथा संकेतों का क्षेत्र अत्यन्त सीमित है। प्रथम, इनसे सूक्ष्म विचारों की अभिव्यक्ति सम्भव नहीं हो पाती है द्वितीय, इनका संकलन नहीं किया जा सकता है, तृतीय, ये क्षणिक व अस्थायी होते हैं। शब्दमयी भाषा ही व्यक्ति के मनोभवों को शीघ्रता, स्पष्टता व निश्चितता के साथ अभिव्यक्त कर सकती है। व्यक्ति के व्यक्तित्व की प्रभावशीलता उसके भाषाकौशल पर आधारित है। भाषा-कौशल में निपुण व्यक्ति ही अपनी जीवन में सफलता प्राप्त कर पाता है। परन्तु देश व काल के अनुसार भाषा का रूप एक सा नहीं रहता है प्रत्येक देश प्रान्त या समुदाय में एक ही भाषा का प्रचलन नहीं होता है, वरन् अनेक भाषायें प्रचलित रहती है।
भाषा के छः प्रकारों की चर्चा पूर्व में भी की गई है—
मातृभाषा – जिस भाषा को बालक अपने जन्म के साथ माता-पिता से सहज रूप से सीख लेता है उसे मातृ भाषा कहते हैं।
क्षेत्रीय भाषा — जिस भाषा को बालक अपने सम्पर्क में आने वाले अन्य व्यक्तियों से सामान्य व्यवहार के दौरान सीखता है उसे क्षेत्रीय भाषा कहते हैं। क्षेत्रीय भाषा किसी एक क्षेत्र विशेष के लगभग सभी नागरिकों के द्वारा बोलचाल में प्रयुक्त की जाने वाली भाषा होती है।
राष्ट्र भाषा—जिस भाषा में किसी देश की शासन प्राणली का कार्य सम्पन्न किया जाता है उसे राष्ट्र भाषा कहते हैं।
प्राचीन भाषा– जिन भाषाओं में देश की प्राचीन सभ्यता एवं संस्कृति को संभाला जाता है उन्हें प्राचीन भाषा कहा जाता है।
विदेशी भाषा – अपने राष्ट्र की भाषा से भिन्न अन्य देशों की भाषा को विदेशी भाषा कहा जाता है।
अन्तर्राष्ट्रीय भाषा – जिस भाषा के माध्यम से देश-विदेश के साथ सम्बन्ध स्थापित किया जाता है। उस भाषा को अन्तर्राष्ट्रीय भाषा कहा जाता है।
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