हिन्दी साहित्य में कहानियों का उद्भव और विकास

हिन्दी साहित्य में कहानियों का उद्भव और विकास

कहानी के मूल में जिज्ञासा और अभिव्यक्ति दो प्रबल मनोवृत्तियाँ कार्य करती हैं।  सभ्यता  के प्रारम्भिक क्षणों में जब मनुष्य ने भाषा सीखी होगी तब मनोगत अनुभवों को दूसरों पर व्यक्त करने और दूसरों के अनुभव सुनने के लिये कहानी का आश्रय लिया होगा। अतः कहानी साहित्य की सबसे हिन्दी साहित्य में कहानियों प्राचीन विद्या है। इन कहानियों का प्रारम्भ ऋग्वेद में होता है । इन कहानियों में कहानी के सभी तत्व विद्यमान हैं, उनमें वार्तालाप है,कथावस्तु और उद्देश्य हैं। आगे चलकर ब्राह्मण ग्रन्थों में उपनिषदों, पुराणों और जातकों में कहानियाँ मिलती हैं। इसके पश्चात् बृहत्कथा,  बेतालपंचविंशति, सिंहासन-द्वात्रिंशिका, शुभ सन्तति  आदि कथाएँ प्राप्त होती हैं। इन कहानियों में नीति कथन तथा मनोरंजन का आदेश था। पंचतन्त्र और  हितोपदेश आदि ग्रन्थ भी इसी प्रकार के हैं। प्राकृत और अपभ्रंश साहित्य में भी कथा साहित्य का लिखित और मौलिक क्रम मिलता रहा। नाथपंथियों और सिद्धों के उपदेश भी कथाओं के माध्यम से प्रभावित होते थे। हिन्दी साहित्य के क्रमिक विकास के आरम्भ के पूर्व कथा साहित्य का यही रूप था। उसमें नीति, धर्म एवम् सदाचार के प्रतिपादन के लिए घटना और पात्रों की योजना जाती की थी।
हिन्दी साहित्य में कहानियों का श्रीगणेश वीरगाथाकाल से ही प्राप्त होता है। वीरों की कथाएँ गीतों में पायी जाती थीं। इन वीरगाथाओं को जनता पद्य के माध्यम से ही कहती और  ( सुनती थी। ढोला-मारु, हीर-रांझा, बेताल पच्चीसी आदि कहानियाँ जन-साधारण में बड़े चाव से सुनी जाती थीं। इन्हीं गाथाओं में शनैः शनैः प्रेम कथाओं का समावेश होने लगा और आगे चलकर सूफी कवियों ने इन्हें प्रेम गाथाओं के रूप में जनता के समक्ष प्रस्तुत किया। भक्तिकाल में लेखकों ने अनेक भक्तों को कथाओं का संग्रह किया, जिनमें “चौरासी वैष्णवों की वार्ता” तथा “दो सौ बावन वैष्णवों की वार्ता” अधिक प्रसिद्ध हुईं। इनमें केवल उनके जीवन से सम्बन्ध रखने वाली घटनाओं की विशेषता रहती थी। इनकी भाषा ब्रजभाषा होती थी जो गद्य के लिए अधिक उपयुक्त नहीं थी। खड़ी बोली में गद्य रचना सन् १८०० से प्रारम्भ होती है और तभी से उनमें कहानियों का प्रारम्भ होता है। हिन्दी गद्य के प्रवर्तकों में लल्लूलाल और सदल मिश्र ने संस्कृत कथाओं के आधार पर कहानियाँ लिखीं। लल्लूलाल ने सिंहासन बत्तीसी, बैताल पच्चीसी, माधवानल, काम कला, शकुन्तला तथा प्रेम सागर की रचना की, सदल मिश्र ने “नासिकेतोपाख्यान” लिखा। इन लेखकों का अभिप्राय भाषा के स्वरूप को स्थिर करना अधिक था अपेक्षाकृत कहानी लिखने के । इसके पश्चात् फारसी तथा उर्दू से “किस्सा तोता-मैना”, “किस्सा साढ़े तीन यार”, “चार दर्वेश”, “बागो बहार” आदि के अनुवाद हुए। इसी समय इन्शाअल्ला खाँ ने ‘रानी केतकी की कहानी’ लिखी, राजा शिवप्रसाद ने ‘राजा भोज का सपना’ लिखा। इन्शाअल्ला खाँ की ‘रानी केतकी की कहानी’ को विद्वान् मौलिक एवं हिन्दी की प्रथम कहानी स्वीकार करते हैं। भारतेन्दु जी ने भी “कुछ आपबीती और जगबीती” लिखी। उस समय देश में राष्ट्रीयता की भावनाएँ जग रही थीं। भारतीयों का अंग्रेजों से सम्पर्क स्थापित हो चुका था, देश सुधार की भावनाएँ लोगों में उठने लगी थीं। बालकृष्ण भट्ट, राधाचरण गोस्वामी, राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द आदि ने अनेक व्यंग्यात्मक कथाएँ लिखीं परन्तु इन कहानियों में कहानी के नूतन तत्वों का अभाव था। उन्हें आधुनिक कहानी नहीं कह सकते हैं।
आधुनिक मौलिक कहानियों का आरम्भ द्विवेदी युग से माना जाता है। इस समय तक भारतीय पाश्चात्य संस्कृति से पूर्ण परिचय प्राप्त कर चुके थे। बंगाल की छोटी-छोटी कहानियों का प्रभाव हिन्दी पर पड़ता जा रहा था। रातों-रात महल बनकर तैयार हो जाना, फूंक मार कर मुर्दा जिन्दा कर देना, पशु-पक्षियों का तर्क-वितर्क करना आदि अस्वाभाविक बातें हिन्दी कहानियों में से निकल गई थीं तथा उनका स्थान बुद्धिवाद एवं मनोविज्ञान ने ले लिया था। ‘सरस्वती’ के प्रकाशन के साथ ही साथ आधुनिक कहानियों का जन्म समझना चाहिए। किशोरी लाल गोस्वामी की ‘इन्दुमती’ कहानी सन् १९०० में सरस्वती में प्रकाशित हुई। आचार्य शुक्ल का विचार है, “यदि इन्दुमती किसी बंगला कहानी की छाया नहीं है, तो यह हिन्दी की सबसे पहली मौलिक कहानी ठहरती है, वास्तव में इस कहानी पर अंग्रेजी कवि शेक्सपियर के टेम्पेस्ट नाटक की छाप है, साथ ही साथ इसमें यथार्थ जीवन की अभिव्यक्ति भी नहीं है।” सन् १९०३ में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने ‘ग्यारह वर्ष का समय, गिरिजादत वाजपेयी ने पंडित और पंडितानी’ लिखी । १९०७ में बंग महिला की ‘दुलाई वाली’ तथा ‘जाम्बुकीय न्याय १९०९ में वृन्दावनलाल वर्मा की ‘राखीबंध भाई’ तथा मैथिलीशरण गुप्त की ‘नकली किला’ , और ‘निन्यानवे का फेर’, १९१० में जयशंकर प्रसाद की ‘ग्राम’, १९११ में राधिकारमण सिंह का ‘कानो में कंगना, १९१३ में विशम्भरनाथ कौशिक की ‘रक्षा-बन्धन’, १९१५ में चन्द्रधर शर्मा गुलेरी की उसने कहा था, नामक कहानियाँ उल्लेखनीय हैं । इनमें से केवल तीन–’दुलाई वाली’, ‘ग्राम’ और ‘उसने कहा था’ में ही नूतन तत्वों का समावेश हो पाया है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी की भी ‘ग्यारह वर्ष का समय’ कहानी आधुनिक लक्षणों से युक्त है।
हिन्दी के क्षेत्र में प्रेमचन्द की कहानियों से एक नवीन युग का आरम्भ हुआ। हिन्दी के क्षेत्र में आने से पूर्व प्रेमचन्द उर्दू में लिखा करते थे। सन् १९०७ में ‘सोजे वतन’ के नाम से इनकी पाँच कहानियों का संग्रह उर्दू में प्रकाशित हो चुका था। उन कहानियों में तीव्र राष्ट्रीय भावना होने के कारण सरकार ने उसे जब्त कर लिया था। सन् १९१५ से वे हिन्दी में लिखने लगे थे। सन् १९१६ में हिन्दी में उनकी पहली कहानी पंच-परमेश्वर’ प्रकाशित हुई थी। प्रेमचन्द अपने युग के प्रतिनिधि कलाकार थे। उन्होंने लगभग २०० कहानियाँ लिखीं जो लगभग बीस-पच्चीस संग्रहों में प्रकाशित हो चुकी हैं। उनकी कहानियाँ घटना-प्रधान, चरित्र प्रधान, सामाजिक, ऐतिहासिक, मनोवैज्ञानिक, हास्य-प्रधान सभी प्रकार की हैं। पूस की रात, बूढ़ी काकी, शतरंज के खिलाड़ी, पंच-परमेश्वर, गुल्ली डण्डा, बड़े घर की बेटी, इनकी कुछ सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ हैं। प्रेमचन्द जी को हिन्दी का सर्वप्रिय कहानीकार बनाने का श्रेय उनकी भाषा शैली को है। उन्होंने सर्वत्र साधारण व्यवहार में काम आने वाली चलती और मुहावरेदार भाषा का प्रयोग किया है। उर्दू क्षेत्र से आने के कारण मुहावरों में लोकोक्तियों की झड़ी-सी लगा देना तथा मीठा व्यंग्य करना इनकी शैली की साधारण-सी बात है। सामाजिक कुरीतियों, राजनैतिक दोषों, धार्मिक पाखण्ड का उल्लेख करते हुए प्रेमचन्द बीच-बीच में चुटकी लेते चलते हैं। प्रेमचन्द उपन्यास की अपेक्षा कहानी के क्षेत्र में अधिक सफल हुए। भारतीय जीवन का कोई वर्ग या कोई पक्ष ऐसा नहीं जो उनकी दृष्टि से बचा हो ।
प्रेमचन्द युग के प्रमुख लेखकों में सुदर्शन, विशम्भरनाथ कौशिक, जयशंकर प्रसाद, रायकृष्ण दास, बेचन शर्मा उग्र तथा चतुरसेन शास्त्री आदि हैं। सुदर्शन तथा विशम्भरनाथ कौशिक दोनों ही कहानी क्षेत्र में प्रेमचन्द के अनुयायी हैं। दोनों की कहानियाँ प्रेमचन्द के आधार पर ही चली हैं। इनकी भाषा प्रेमचन्द के समान ही सरल एवं आकर्षक है। इन्होंने पारिवारिक जीवन से सम्बन्ध रखने वाली कहानियाँ लिखीं। सुदर्शन ने तो कुछ सांस्कृतिक कहानियाँ भी लिखी हैं। उनके – ‘परिवर्तन, ‘नगीना’, ‘पन-घट’, ‘तीर्थयात्रा’, ‘गल्पमंजरी’, ‘सुप्रभात’, ‘चार कहानियाँ’, ‘सुदर्शन सुधा’ आदि के अनेक कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। कौशिक जी ने भी लगभग ३०० कहानियाँ लिखीं, जिनमें “ताई”, अशिक्षित का हृदय ‘दुबे जी की चिट्ठियाँ’ बहुत प्रसिद्ध हैं। प्रेमचन्द की भाँति सुदर्शन जी ने भी यथार्थ और आदर्श का सुन्दर समन्वय प्रस्तुत किया है
प्रसाद जी की कहानियों में जीवन का स्थूल समस्याओं की ओर इतना ध्यान नहीं दिया गया जितना मानव के हृदय में होने वाले संघर्ष को मूर्तरूप देने का। भाषा और शैली की दृष्टि से भी प्रेमचन्द और प्रसाद में आकाश और पाताल का अन्तर है। प्रसाद जी मुख्य रूप से कवि थे, अत: उनके कवित्व का प्रभाव उनकी भाषा पर पड़ना स्वाभाविक ही था । प्रसाद जी की कहानियाँ भावुकता और कल्पना-प्रधान हैं। ये कहीं-कहीं रहस्य भावना से भी प्रभावित दृष्टिगोचर होती हैं। इनकी कहानियों में काव्यतत्व की प्रधानता है। प्रतिध्वनि, आकाशदीप, आँधी तथा इन्द्रजाल प्रसाद . जी के कहानी संग्रह हैं।
जिस प्रकार सुदर्शन तथा कौशिक प्रेमचन्द की धारा के कहानीकार थे उसी प्रकार प्रसाद जी की शैली के भी कुछ अनुयायी थे, जिनमें रायकृष्ण दास, विनोद शंकर व्यास, चण्डीप्रसाद हृदयेश आदि प्रमुख थे, जिन्होंने प्रसादं जी से मिलती-जुलती शैली में कहानियाँ लिखीं। रायकृष्ण दास ने भावप्रधान कहानियाँ लिखीं, जिनकी भाषा मधुर और अलंकारमयी होती है । चित्रात्मक दृश्य उपस्थित करने में रायकृष्ण दास जी अधिक सफल हुए थे। थे
प्रेमचन्द और प्रसाद के अतिरिक्त एक तीसरी धारा भी थी, जिसके प्रवर्तक थे बेचन शर्मा उग्र और चतुरसेन शास्त्री। ये लोग यथार्थवादी थे। इन्होंने समाज की कुरीतियों का नग्न चित्रण प्रस्तुत किया है। उग्र जी सामाजिक कहानियों की अपेक्षा राजनीतिक कहानियों में अधिक सफल । उनकी फड़कती हुई भाषा और क्रान्तिकारी भावना ने उन्हें उनकी सफलता में पर्याप्त योग दिया। उग्र जी के ‘दोजख की आग’, ‘चिनगारियाँ’, ‘बलात्कार’, ‘सनकी अमीर’ नाम के चार कहानी संग्रह हैं। शास्त्री जी के ‘राजकण’ और ‘अज्ञात’ नाम से दो कहानी संग्रह प्रकाशित हुए । हैं। ‘दे खुदा की राह पर’, ‘दुखवा कासो कहूं मोरी सजनी’, ‘भिक्षुराज’, ‘कंकड़ों की कीमत’ ये शास्त्री जी की प्रसिद्ध भावपूर्ण कहानियाँ हैं। इस युग के कहानीकारों में राधिकारमण प्रसाद सिंह, शिव पूजन सहाय, वृन्दावनलाल वर्मा, पन्त, निराला, भगवतीचरण वर्मा, भगवतीप्रसाद वाजपेयी आदि का स्थान प्रमुख है।
वर्तमान युग श्री जैनेन्द्रकुमार से प्रारम्भ होता है। सन् १९१७ में जैनेन्द्र हिन्दी क्षेत्र में आ चुके थे। प्रेमचन्द की मृत्यु १९३६ में हुई, उनके जीवन काल में ही कहानी में परिवर्तन होने लगा था। ग्रामीण जीवन के स्थान पर नागरिक जीवन, कृषकों के स्थान पर मजदूर और धर्म के स्थान पर अर्थ का विश्लेषण होने लगा था। जैनेन्द्र ने हिन्दी को एक नवीन दिशा प्रदान की। इनकी भाषा,शैली और दृष्टिकोण सबमें एक निजी विशेषता है। इनका दार्शनिक व्यक्तित्व इनकी कहानियों में सर्वत्र स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। जैनेन्द्र ने कहानी के विषयों का मनोवैज्ञानिक चित्रण किया । इनके एक रात, स्पर्धा, जयसन्धि, ध्रुव यात्रा, दो चिड़ियाँ, वातायन, फाँसी, कथा माला, पाजेब, नीलम देश की राजकन्या, आदि कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। इस युग के अन्य प्रतिनिधि लेखक श्री इलाचन्द जोशी, अज्ञेय, भगवतीचरण वर्मा, उपेन्द्रनाथ अश्क, यशपाल और निराला हैं।
इलाचन्द जोशी की कहानियों में मानव जीवन की विभिन्न प्रवृत्तियों और दुर्बलताओं का यथार्थ चित्रण मिलता है। इनकी सभी कहानियों में वातावरण एक-सा रहता है इसलिये कहानी की रोचकता पाठक की दृष्टि में कम हो जाती है। अज्ञेय भी वातावरण तथा भावप्रधान कहानियों के सफल लेखक हैं । इन्होंने पात्रों के कथोपकथन और चरित्र-चित्रण में मानव प्रवृत्तियों को मार्मिकतापूर्ण चित्रित किया है। भगवतीचरण वर्मा की कहानियाँ मानव जीवन की उलझी और गम्भीर परिस्थितियों को लेकर चलती रहती हैं। ‘खिलते फूल’, ‘दो बांके’, ‘इंस्टालमेंट’ इनके कहानी संग्रह हैं । उपेन्द्रनाथ अश्क समाज की कुरीतियों और रुढ़ियों को अपना लक्ष्य बनाकर उन पर तीक्ष्ण प्रहार करते हैं, ये यथार्थवादी लेखक हैं। एकांकी नाटक तथा कहानी दोनों पर इनका समान अधिकार है। यशपाल प्रगतिवादी कलाकार हैं। मनोविज्ञान के आधार पर इन्होंने अपनी कहानियों में बड़े सुन्दर चित्र प्रस्तुत किये हैं। इनकी कहानियों में प्रौढ़ता, रमणीयता, व्यापक सहानुभूति, मनोविश्लेषण आदि सभी गुण हैं । निराला जी की चित्रण-शक्ति अपूर्व है, इनकी शैली कवित्वमयी है,कहानियाँ भावात्मक हैं ।
और वातावरण प्रधान हैं। स्थान-स्थान पर व्यंग्य और विनोद के भी दर्शन हो जाते हैं। इन्होंने अपनी कहानियों के वैसवाड़े के ग्राम्य जीवन के बहुत सुन्दर और स्वाभाविक चित्र उतारे हैं। वृन्दावनलाल वर्मा ने अपनी कहानियों का कथानक मध्य युग के भारतीय इतिहास से लिया है, ‘शरणागत’ और ‘कलात्मकता का दण्ड’ इनके दो कहानी संग्रह हैं । उपर्युक्त कहानीकारों के अतिरिक्त अन्य कितने ही कलाकार अपनी रचनाओं द्वारा कहानी साहित्य के भण्डार को भर रहे हैं।
विकास की दृष्टि से हिन्दी के कथा साहित्य की उत्तरोत्तर उन्नति हो रही है। भारतीय कथाकारों ने वर्णनात्मक तथा घटना-प्रधान कहानियों से प्रारम्भ करके आज विश्व की समस्त प्रचलित शैलियों को अपना लिया है। अभी हास्यरस की कहानियाँ लिखने की ओर बहुत कम लेखकों का ध्यान है। आशा है, भविष्य में इस अभाव की पूर्ति हो जाएगी। ।

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