हिन्दी साहित्य में उपन्यासों का उद्भव और विकास
हिन्दी साहित्य में उपन्यासों का उद्भव और विकास
१९वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में समय की कठोर आवश्यकताओं ने जहाँ गद्य के विकास में योग दिया, वहाँ उपन्यास साहित्य की भी श्रीवृद्धि हुई। अंग्रेजी तथा उससे प्रभावित बंगाली तथा मराठी उपन्यासों में हिन्दी साहित्यकारों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया। भारतेन्दु जी के समय में अनेकों अन्य भाषा के उपन्यासों का हिन्दी में अनुवाद किया गया, मौलिक उपन्यासों की रचनायें भी हुई। मौलिक व सामाजिक उपन्यासों में श्रीनिवासदास के ‘परीक्षा गुरु’, राधाकृष्णदास का “निःसहाय हिन्दू” तथा बालकृष्ण भट्ट का “सौ अजान एक सुजान” और “नूतन ब्रह्मचारी” समाज में विशेष आदृत हुए। भारतेन्दु जी ने भी एक उपन्यास लिखना आरम्भ किया था, वह दुर्भाग्यवश पूरा न हो सका । बंगला आदि से अनूदित उपन्यासों हिन्दी साहित्य में उपन्यासों का में ‘दुर्गेश नन्दिनी’, ‘सरोजिनी, ‘दीप निर्वाण’ आदि प्रसिद्ध थे. इसी प्रकार अंग्रेजी या मराठी भाषाओं से भी कई उपन्यासों का अनुवाद हुआ। तिलस्मी ऐय्यारी के उपन्यास लिखे जाने लगे। इस क्षेत्र में बाबू देवकीनन्दन खत्री को विशेष सफलता प्राप्त हुई। इन उपन्यासों ने हिन्दी उपन्यासों के पाठक और लेखक दोनों ही पैदा किये। प्रेमाख्यानक उपन्यासों में किशोरी लाल गोस्वामी और जासूसी उपन्यासकारों में गोपालराम गहमरी मुख्य थे। इन दोनों के उपन्यासों ने बड़ी प्रसिद्धि प्राप्त की। इसके अतिरिक्त उस काल में कुछ ऐतिहासिक उपन्यासों की भी रचना हुई, जिसमें किशोरीलाल गोस्वामी का ‘रजिया बेगम’ तथा मिश्र बन्धुओं का “वीरमणि” उल्लेखनीय हैं। इस प्रकार बीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक तक सभी विषयों के उपन्यास हिन्दी के क्षेत्र में आ चुके थे, परन्तु उनमें उच्च कोटि के साहित्य का प्रायः अभाव था, कृत्रिमता अधिक थी।
प्रेमचन्द पूर्व युग- प्रेमचन्द से पूर्व का युग सन् १८७० से १९१६ तक माना जाता है। इस युग के उपन्यासों को हम पाँच भागों में विभाजित कर सकते हैं-सामाजिक उपन्यास, तिलस्मी ऐय्यारी के उपन्यास, जासूसी उपन्यास, प्रेमाख्यानक और ऐतिहासिक उपन्यास । सामाजिक उपन्यासों में श्रद्धाराम फिल्लौरी का “भाग्यवती” सामाजिक समस्या को लेकर लिखा हुआ सबसे प्रथम मौलिक उपन्यास था। इसकी रचना १८७७ में हुई थी। यह अपने समय में बहुत लोकप्रिय रहा। श्रीनिवासदास में में का “परीक्षा गुरु” भी मौलिक सामाजिक उपन्यास है, परन्तु इसका वस्तु विन्यास अधिक सुन्दर नहीं है, स्थान-स्थान पर अंग्रेजी, फारसी और संस्कृत के नीतिपूर्ण उद्धरणों के कारण पाठक का हृदय ऊबने लगता है। बालकृष्ण भट्ट का ‘नूतन ब्रह्मचारी’, किशोरी लाल गोस्वामी का ‘हृदयहारिणी’, लज्जा राम मेहता का ‘परतन्त्र लक्ष्मी’ कार्तिक प्रसाद का ‘दीनानाथ’, हनुमन्तसिंह का ‘चन्द्रकला’ राधाकृष्णदास का ‘निःसहाय हिन्दू’ अच्छे सामाजिक उपन्यास थे । कुछ और भी उपन्यास लिखे गये थे जिनमें सामाजिक कुरीतियों पर प्रकाश डाला गया था, परन्तु उनमें उपदेश वृत्ति इतनी अधिक है कि उपन्यास की रोचकता नष्ट हो जाती है। >
हिन्दी में तिलस्मी और ऐय्यारी का भाव फारसी कहानियों के अनुकरण से आया। सन् १८९१ में देवकीनन्दन खत्री ने ‘चन्द्रकान्ता’ और ‘चन्द्रकांता संतति’ नामक दो उपन्यास लिखे। ये ऐय्यारी की रचनायें इतनी लोकप्रिय हुई कि जो हिन्दी पढ़ना भी नहीं जानते थे उन्होंने केवल इन उपन्यासों को पढ़ने के लिए ही हिन्दी पढ़ना सीखा। इससे प्रभावित होकर अन्य उपन्यासकारों ने भी तिलस्मी और ऐयारी का प्रयोग किया। किशोरीलाल गोस्वामी जैसे प्रसिद्ध लेखक भी अपने ‘स्वर्गीय कुसुम’ और ‘लवंगलता’ नामक उपन्यासों में इस बीमारी से बच न सके। देवकीनन्दन खत्री के अतिरिक्त देवीप्रसाद शर्मा ने ‘सुन्दर सरोजनी, हरे कृष्ण जौहर,ने भयानक भ्रम’,जगन्नाथ प्रसाद चतुर्वेदी ने ‘बसन्त मालती’ आदि उपन्यास लिखकर हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में इस प्रकार के उपन्यासों का एक ढेर-सा लगा दिया। 1
हिन्दी के उपन्यासकारों को जासूसी उपन्यासों की प्रेरणा, पश्चिम की पुलिस खोजों से भरे हुए उपन्यासों में प्राप्त हुई। इस शाखा के सबसे प्रमुख लेखक गोपालराम गहमरी थे। इनके कथानक स्वाभाविक होते थे। ‘जासूस की चोरी’, ‘जासूसों पर जासूस’, ‘किले में खून’, ‘खून का भेद’, ‘खूनी खोज’ आदि आपके प्रसिद्ध उपन्यास थे। चन्द्रशेखर के ‘अमीर अली ठग’ ‘शशिबाला’, किशोरीलाल गोस्वामी का ‘जिन्दे की लाश’ आदि इस कोटि के उपन्यास हैं।
सामाजिक उपन्यासों को छोड़कर अधिकांश अन्य सभी उपन्यासों का विषय प्रेम ही होता था। तिलस्मी और ऐय्यारी के उपन्यासों में भी प्रेम के अतिरिक्त रूप के दर्शन होते हैं। इनके अतिरिक्त किशोरीलाल गोस्वामी ने भी ‘लीलावती’, ‘चन्द्रावती’, ‘तरुण तपस्विनी’ आदि उपन्यासों में भी प्रेम का ही वर्णन किया है।
ऐतिहासिक उपन्यास भी इस युग में लिखे गये, परन्तु उनमें ऐतिहासिक अनुसंधान के आधार पर राजनैतिक एवम् आर्थिक परिस्थितियों के चित्रण का अभाव है । ब्रजनन्दन सहाय ने ‘लाल चीन’ जिसमें गयासुद्दीन बलबन के एक गुलाम की कहानी है, लिखा । मिश्र बन्धुओं का ‘वीरमणि’, किशोरीलाल गोस्वामी का ‘राजकुमारी, ‘तारा’,’चपला’ ‘लखनऊ की कब्र’ इस प्रकार के उपन्यास हैं। प्रेमचन्द के पूर्ववर्ती उपन्यासों में औपन्यासिक तत्वों के समुचित सामंजस्य का अभाव था। अधिकांश उपन्यास घटना-प्रधान, मनोरंजन या कौतूहलवर्धक होते थे। फिर भी आगे के युग के श्रेय इन्हीं उपन्यासों एवं उपन्यासकारों को है। उपन्यास के पाठकों को तैयार करने का देवकीनन्दन खत्री की व्यावहारिक भाषा को ही प्रेमचन्द ने अपना आधार बनाया ।
प्रेमचन्द युग- प्रेमचन्द युग सन १९१७ से १९३६ तक माना जाता है। प्रेमचन्द ने हिन्दी कथा साहित्य को एक नया मोड़ प्रदान किया, अपनी कृतियों से अपने समकालीन अन्य साहित्यकारों को प्रेरणा दी । प्रेमचन्द जी के लिखने के समय देश में राष्ट्रीय आन्दोलन आरम्भ हो गये थे। आर्य समाज का सुधार आन्दोलन तेजी से चल रहा था। प्रेमचन्द जी के उपन्यासों पर तत्कालीन सामाजिक एवम् राजनैतिक परिस्थितियों का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है। उन्होंने उपन्यास को तिलस्मी और प्रेमाख्यान की दलदलों से निकालकर मानव जीवन की दृढ़ नींव पर लाकर खड़ा कर दिया। उनके उपन्यासों की कथावस्तु कल्पना-प्रसून न होकर मानव-जीवन की वास्तविकता से ओत-प्रोत है। चरित्र-चित्रण के क्षेत्र में प्रेमचन्द जी ने नवीन परिवर्तन उपस्थित किया। उसमें उन्होंने स्वाभाविकता की प्रतिष्ठा की। उनकी सूक्ष्म दृष्टि महलों से लेकर झोंपड़ियों तक,खेतों और खलियानों से लेकर बड़ी-बड़ी मिलों तक समान रूप से पड़ी। उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि कोरा यथार्थवाद या कोरा आदर्शवाद जन कल्याण नहीं कर सकता। अतः उनका साहित्य आदर्शोन्मुख यथार्थवादी ही रहा। उन्होंने इस तथ्य का उद्घाटन किया कि मनुष्य का चरित्र कोई स्थिर वस्तु नहीं, संगति और सम्पर्क से उसमें परिवर्तन होता रहता है। भले आदमी बुरे बन सकते हैं और बुरे आदमी भले। जो लोग यह चिल्लाते हैं कि कला, कला के लिये है उनका उन्होंने खूब विरोध किया। उनका विचार था कि कला वह है, जिससे हमारी सुरुचि जाग्रत हो, हमें आध्यात्मिक और मानसिक तृप्ति प्राप्त हो, हममें शक्ति और गति आये । यही कारण है कि उन्होंने सभी समस्याओं के विषय में चाहे वह राजनैतिक हो या सामाजिक, आर्थिक हो या धार्मिक, अपना पृथक् दृष्टिकोण प्रस्तुत किया। यह निश्चित है कि कहीं-कहीं वे साहित्यकार न रह कर एक उपदेशक का रूप ग्रहण कर लेते हैं, परन्तु समाज में फैली कुरीतियों का स्पष्ट दिग्दर्शन कराने में वे पूर्ण सफल हुए हैं। ‘सेवा सदन’ में उस भयंकर सामाजिक दोष का चित्रण किया गया है, जिससे विवश होकर हमारी कुल कन्यायें और कुल वधुएँ वैश्या बन जाती हैं। ‘प्रेमाश्रम’ में एक ओर भारतीय किसान की निर्धनता और विवशता तथा दूसरी ओर विधवाओं की समस्या दिखाई गई है। ‘निर्मला’ वृद्ध विवाह और दहेज प्रथा के दुष्परिणामों का भंडाफोड़ करता है। ‘गबन’ में यह दिखाया गया है कि स्त्रियों का आभूषण-प्रेम, हरी-भरी गृहस्थी को किस प्रकार ध्वस्त कर देता है । ‘गोदान’ में किसान की विवशता तथा कर्मभूमि में जमीदार-किसान सम्बन्ध, अछूतोद्धार,मन्दिर प्रवेश,म्युनिसिपल कमेटी आदि सामाजिक समस्याओं पर प्रकाश डाला गया है। प्रेमचन्द जी ने हिन्दी में ग्यारह उपन्यास लिखे हैं जिसमें सेवासदन प्रेमाश्रम, रंगभूमि, कर्म-भूमि, कायाकल्प, निर्मला, गबन और गोदान प्रमुख हैं। प्रेमचन्द युग के अन्य प्रतिभासम्पन्न उपन्यासकारों में जयशंकर प्रसाद, विशम्भर नाथ कौशिक, बेचन शर्मा उग्र,ऋषभचरण जैन तथा वृन्दावन लाल वर्मा आदि प्रमुख हैं।
जयशंकर प्रसाद जी के उपन्यासों में सुधार का मूल मन्त्र निहित है। ‘कंकाल’, ‘तितली’ ‘इरावती’ (अपूर्ण) में ‘कंकाल’ आपकी सर्वश्रेष्ठ रचना है। उपन्यासकार प्रसाद की भाषा न दुरूह है और न दार्शनिकता से युक्त । वह स्वाभाविक है, फिर भी प्रेमचन्द की सी नहीं। विशम्भरनाथ कौशिक उपन्यास लेखन में प्रेमचन्द जी के अनुयायी थे। उनके वर्णन, कथोपकथन, पात्रों का चरित्र-चित्रण सभी कुछ प्रेमचन्द के समान थे। परन्तु मन को आन्दोलित करने की जितनी क्षमता कौशिक जी में है, उतनी प्रेमचन्द में नहीं। ‘माँ’ और ‘भिखारणी’ इनके दो उपन्यास हैं। बेचन शर्मा उग्र, ऋषभचरण जैन तथा चतुरसेन शास्त्री आदि उपन्यासकार प्रेमचन्द युग के ऐसे उपन्यासकार हैं, जिन्होंने केवल यथार्थ के नग्न चित्रण पर ही अपनी दृष्टि डाली। इनकी दृष्टि केवल वैश्यालय और मदिरालयों के चारों ओर चक्कर लगाकर ही लौट जाती है। वृदावन लाल वर्मा ने इस युग में हिन्दी उपन्यास के एक विशेष अभाव की पूर्ति की । प्रेमचन्द के पहले और भी बहुत से ऐतिहासिक उपन्यास लिखे गये थे, परन्तु उनसे न लेखकों का ऐतिहासिक ज्ञान प्रकट होता था और न तत्कालीन चित्रण । इतिहास के आवरण में केवल प्रेम कलाएँ होती थीं। वृन्दावन लाल वर्मा ने ‘गढ़ कुण्डार’ और विराट की पद्मनी’ उपन्यास लिखकर इस दिशा के नये मार्ग का प्रदर्शन किया। भगवती चरण वर्मा का ‘चित्रलेखा’ इस युग का महत्वपूर्ण उपन्यास है। इसमें ‘पाप क्या वस्तु है’ इसका व्यक्तिगत ढंग से बहुत सुन्दर विवेचन किया गया है।
प्रेमचन्द उत्तर युग- सन् १९३६ से प्रेमचन्द के उत्तर युग में उपन्यास क्षेत्र में व्यक्ति के मनोविश्लेषण की प्रवृत्ति बढ़ी। एक पात्र को विभिन्न परिस्थितियों में डालकर उसके हृदयगत भावों प्रेरणाओं, रहस्यों का उद्घाटन और विश्लेषण करना ही उपन्यासकारों का उद्देश्य हो गया। सामाजिक समस्यायें अब भी उपन्यास से होती हैं, परन्तु लक्ष्य व्यक्ति ही होता है, समाज नहीं, समाज को गौण स्थान दिया जा रहा है। इस नवीन धारा के प्रवर्तक श्री जैनेन्द्र जी ने ‘परख’ ‘तपोभूमि’ ‘सुनीता’ ‘कल्याणी’ ‘त्यागपत्र’ आदि उपन्यास लिखे हैं। इलाचन्द्र जोशी ने कथा-क्षेत्र में फ्राइड और एडरर के मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों का प्रयोग किया है। ‘संन्यासी’ इनका सर्वोत्तम उपन्यास है। ‘शेखर’ एक जीवनी अज्ञेय जी का उपन्यास के क्षेत्र में एक नवीन प्रयोग है । कथावस्तु की दृष्टि से न उसमें कोई कथा है और न घटनाओं का तारतम्य । इसलिये इसमें कोई मनोरंजन की सामग्री भी नहीं है, केवल व्यक्ति विशेष द्वारा अतीत की घटनाओं का विश्लेषण मात्र है।
यशपाल के उपन्यासों में मार्क्सवादी सिद्धान्तों का प्रचार है। ‘दादा कामरेड’ ‘देश-विद्रोही’, ‘पार्टी कामरेड’, ‘मनुष्य के रूप आपके उपन्यास हैं। इन उपन्यासों में लेखक ने काँग्रेस कार्यक्रम की अपेक्षा कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यक्रम को अधिक उपयोगी सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। रामेश्वर शुक्ल अंचल ने ‘चढ़ती धूप’, ‘उल्का’, ‘नई इमारत’ और ‘मरु प्रदीप’ उपन्यास लिखे हैं। सामाजिक जीवन में परिवर्तन और क्रान्ति के लिए उनके उपन्यासों में विशेष प्रेरणा है। श्री राहुल सांकृत्यायन ने ‘जय-यौधेय’ और ‘सिंह सेनापति’ उपन्यासों में भारत के बहुत पुराने गणतन्त्रों की पृष्ठभूमि बनाकर कल्पित पात्रों का आश्रय लेकर ऐतिहासिक उपन्यासधारा को एक विशेष दृष्टिकोण में देखने का प्रयत्न किया है। वृन्दावन लाल वर्मा ने तो इस युग में ऐतिहासिक उपन्यासों की झड़ी-सी लगा दी । उनकी ‘झाँसी की रानी’ तथा ‘मृगनयनी’ उपन्यासों ने सर्वाधिक ख्याति प्राप्त की है। यशपाल की ‘दिव्या’ भी ऐतिहासिक उपन्यास है । ऐतिहासिक वातावरण की दृष्टि में लेखक पर्याप्त सफल हुआ है। चतुरसेन शास्त्री की ‘वैशाली की नगर वधू’ सर्वोत्तम ऐतिहासिक कृति है । गोविन्दबल्लभ पन्त के ‘अमिताभ’ नामक उपन्यास में गौतम बुद्ध की जीवन गाथा वर्णित है। यह उपन्यास और जीवन-चरित्र के बीच की वस्तु है ।
इसके अतिरिक्त भगवतीचरण वर्मा के ‘टेढ़े-मेढ़े रास्ते, ‘तीन वर्ष’,प्रताप नारायण श्रीवास्तव के ‘विदा’, ‘विकास’, ‘विसर्जन’, ‘विजय’, निराला की ‘अप्सरा’, ‘अल्का’, ‘चोटी की पकड़’, भगवती प्रसाद वाजपेयी का ‘प्रेम पथ’, ‘लालिमा’, ‘पिपासा’, पतिता की साधना’,उपेन्द्रनाथ अश्क की ‘गिरती दीवारें’, ‘सितारों का खेल, जयशंकर भट्ट की ‘वह जो मैंने देखा’, रांगेय राघव का ‘घरोंदे’, सियारामशरण गुप्त की ‘गोद’, अमित आशा’, ‘नारी’, ‘झूझ’,कंचनलता सब्बरवाल का ‘मूक तपस्वी’, ‘भोली भूल’ आदि उपन्यास आज के युग के महत्वपूर्ण उपन्यास हैं ।
आज के स्वतन्त्र भारत में हिन्दी साहित्य के उपन्यास अंग की जितनी वृद्धि हो रही है उतनी किसी और अंग की नहीं। धड़ा-धड़ उपन्यास लिखे जा रहे हैं। हिन्दी के राष्ट्र-भाषा घोषित हो जाने के कारण अन्य भाषा-भाषी विद्वान् भी हिन्दी की ओर आकृष्ट हो रहे हैं। भारतेन्दु युग में उपन्यासों के अनुवादों की धारा बड़ी तीव्रता से प्रवाहित हुई थी, वह प्रेमचन्द युग में आकर कुछ मंद पड़ गई थी। लोगों में मौलिक उपन्यास लिखने की प्रवृत्ति जागृत हो गई थी। आज के युग में फिर अनुवादों की धारा तीव्र गति से प्रारम्भ हो रही है। विभिन्न भाषाओं के उपन्यासों के हिन्दी में अनुवाद किये जा रहे हैं। कितना सुन्दर होता कि यदि भारतीय विद्वान् अपनी मौलिक कृतियों से हिन्दी साहित्य के कलेवर की श्रीवृद्धि करते ; परन्तु फिर भी उपन्यास साहित्य बड़ी तीव्र गति से आगे बढ़ रहा है।