‘आँसू’ : विषय-वस्तु एवं भाव पक्ष
‘आँसू’ : विषय-वस्तु एवं भाव पक्ष
‘आँसू’ : विषय-वस्तु एवं भाव पक्ष
‘आँसू’ हिन्दी साहित्य का एक श्रेष्ठ प्रणय-मूलक विरह काव्य है। इसमें कवि ने अपने व्यक्तिगत जीवन के वेदनामय क्षणों को मूर्त रूप दिया है। वेदना से पूर्ण होने पर भी इसमें एक आशावादी संदेश दिया गया है, भावनाओं का उदात्रीकरण किया गया है। सुप्रसिद्ध आलोचक आचार्य नंददुलारे वाजपेयी के अनुसार, “आँसू सब प्रकार से एक मानवीय विरह काव्य है। उसके अंत में जो तात्विक निष्कर्ष है, वह हमारे इस जीवन के लिए आशाप्रद और उपयोगी सिद्ध हो सकता है।…. ‘आँसू’ की अंतिम पंक्तियों की शिक्षा हम पर तभी प्रभाव डाल सकेंगे, जब हम उसे मानवीय आत्मकथा मानें।”
आँसू एक विरहमूलक प्रेम काव्य है। इसका आलंबन संयोग-सुख की स्मृतियाँ तथा उससे उत्पन्न वेदना है। अत: ‘आँसू’ शृंगार रस की रचना है। शृंगार के दो पक्ष हैं-1. संयोग शृंगार, 2. वियोग शृंगार। यह काव्य वियोग-शृंगार प्रधान है। ‘आँसू’ के आलंबन के विषय में सामान्यत: दो मत हैं। आलोचकों का एक वर्ग मानता है कि आँसू का आधार लौकिक प्रेम है किंतु आलोचकों का दूसरा वर्ग अलौकिक प्रेम को ही इसका आधार मानता है। लौकिक प्रेम के समर्थकों का कहना है कि ‘आँसू’ का आलंबन इसी लोक के बीच का कोई व्यक्ति है जिसे कवि ने कभी प्रेम किया था, जिस पर उसे पूर्ण विश्वास था, जिसे वह जी-जान से चाहता था। किंतु जब उस प्रेमी द्वारा वह उपेक्षित कर दिया गया, उसका प्रेम पाने में असफल रहा, तब उसका भग्न हृदय असीम व्यथा से कराह उठा। उसकी स्मृतियाँ कवि के हृदय में उठ-उठ कर उसे संतृप्त करती रही और जब वह सीमा का अतिक्रमण कर गयी और उनको अंतर में छिपा रखना कवि के लिए कठिन हो गया, तब वे ‘आँसू’ के रूप में एक बार पूर्ण वेग से बरस उठी-
जो घनीभूत पीड़ा थी
मस्तक में स्मृति-सी छायी
दुर्दिन में आंसू बनकर
वह आज बरसने आयी।
आँसू की पंक्ति-पंक्ति में वेदना की अटूट धारा अजस्र वेग से बहती है। कवि अपनी वेतना की गाथा कुछ दिन आँख-मिचौनी से लेकर भागने वाले उस निष्ठुर प्रेमी से कहता रहा पर वह ‘जानी-अनजानी’ करते हुए उसे सुनता रहा, उसका उसके हृदय पर कोई प्रभाव न पडा।
रो रोकर सिसक सिसक कर
कहता मैं करुण कहानी।
तुम सुमन नोचते सुनते
करते जानी-अनजानी।
‘आँसू’ में व्यक्त प्रेम-भाव को लौकिक मानने वालों का सबसे प्रबल तर्क यही है कि संपूर्ण काव्य में ऐसे अनेक स्पष्ट संकेत हैं जिनसे लौकिक प्रियतम की निष्ठुरता के प्रति बहाये गये कवि के आँसुओं की सार्थकता प्रमाणित होती है। अपने प्रियतम का रूप चित्रण, अपने और प्रियतम के मिलन का वर्णन, पारस्परिक हर्षोन्माद आदि का वर्णन जो कवि ने किया है, उन सबसे यही ध्वनित होता है कि कवि के विरह अश्रु का कारण कोई लौकिक प्रेमी ही है, जिसकी निष्ठुरता ने कवि के हृदय को विद्ध कर दिया, उसे आत्मा का परमात्मा के प्रति रोना-कलपना मानना असंगत है। यह दूसरी बात है कि कहीं-कहीं अलौकिक प्रेम के भी दर्शन हो जाते हैं। ऐसा कवि जान-बूझकर भी करता है।
ये सब स्फुलिंग है मेरी
इस ज्वालामयी जलन के
कुछ शेष चिह्न हैं केवल
मेरे उस महा मिलन के।
इस संदर्भ में हम कह सकते हैं कि ‘आंसू’ आध्यात्मिक संकेतों के साथ लौकिक प्रेम की बात करता है। वेदना का मूर्तिमान रूप प्रस्तुत करते हुए प्रसाद लौकिक प्रेम को भी अलौकिक रंग में डूबो देते हैं। श्री इलाचन्द्र जोशी के शब्दों में, “प्रसाद जी के आंसुओं की पंक्तियों ने हिंदी जगत को प्रथम बार उस वेदनावाद की मादकता से विभोर किया जिससे बाद में सारा छायावादी युग मतवाला हो उठा था। वंदना की भयंकर बाद में सारे युग को परिप्लावित कर देने जैसी क्षमता प्रसादजी के इन आंसुओं में रही है, वह हमारे साहित्य के इतिहास में वास्तव में अतुलनीय है।”
यद्यपि ‘आंसू’ विरह शृंगार का कलात्मक विस्फोट है तथापि काव्य में संयोग श्रृंगार के क्षण यत्र-तत्र मिल जाते हैं। संयोग -शृंगार
में नायिका के सौंदर्य का वर्णन अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है। प्रसाद ने ‘आंसू’ में नायिका के विलक्षण सौंदर्य को चित्रित किया है। इस सौंदर्य की विशेषता यह है कि इसमें स्थूलता के दर्शन नहीं होते –
घन में सुंदर बिजली-सी
बिजली में चपल चमक-सी
आंखों में काली पुतली
पुतली में श्याम झलक-सी
मुख-कमल समीप सजे थे
दो किसलय से पुरइन के
चंचल स्थान कर आवे
चंद्रिका पर्व में जैसी
उस पावन तन की शोभा
आलोक मधुर थी ऐसी।
जैसा नाम से ही स्पष्ट है ‘आंसू’ विरह प्रेम में जलता हुआ काव्य है। कवि ने प्रेम में विरह के महत्व को स्थापित किया है। मैथिली
शरण गुप्त ने लिखा है –
मिलन अंत है मधुर प्रेम का और विरह जीवन है
विरह प्रेम की जाग्रत गति है और सुसुप्त मिलन है।
प्रसाद के इस विरह प्रेम की अन्यतम् विशेषता है कि इस प्रेम में विरही केवल रोता-धोता ही नहीं है बल्कि प्रेम से वह शक्ति अर्जित
करना चाहता है, अपने व्यक्तित्व का विस्तार करना चाहता है। तभी तो वह कहता है –
चमकूँगा धूप कणों में
सौरभ हो उड़ जाउँगा
पाउँगा कहीं तुम्हें तो
ग्रह पथ में टकराउँगा।
इस विरह प्रेम में विश्व बंधुत्व की भावना भी कहीं न कहीं दिखाई देती है,
सबका निचोड़ लेकर तुम
सुख से सूखे जीवन में
बरसो प्रभात हिमकण-सा
आंसू इस विश्व सदन में।