व्याल पर विजय : अर्थ एवं व्याख्या

व्याल पर विजय : अर्थ एवं व्याख्या

व्याल पर विजय : अर्थ एवं व्याख्या
‘व्याल पर विजय’ कविता दिनकर की इतिवृत्तात्मक कविता है। इसमें कवि ने बालक कृष्ण के जीवन से जुड़ी एक रोचक कथा का सहारा लिया है। कृष्ण द्वारा कालिया नाग वद्य की मिथकीय कथा को कवि ने काव्यात्मक अभिव्यक्ति प्रदान की है। पौराणिक-धार्मिक कथा के बहाने कवि ने आधुनिक समाज की समस्याओं पर भी विचार किया है। इस कविता में कृष्ण नागराज को नाथ उसके मस्तक पर चढ़कर उस जहरीली व्यवस्था को चुनौती देते प्रतीत होते हैं, जिससे सामान्य जन एवं सर्वहारा हमेशा पीड़ित और दमित होते हैं। कवि की दृष्टि में शेषनाग यहाँ विषाक्त युग का तथा कवि कृष्ण का प्रतीक है। कवि विषाक्त युग रूपी नाग पर नाचते हुए बाँसुरी बजाना चाहते हैं,
                            झूमें जहर चरण के नीचे मैं उमंग में गाऊँ।
                          तान, तान फण व्याल ! कि तुझ पर मैं बांसुरी बजाऊँ।
ऐसी मान्यता है कि बांसुरी सृजन और प्रलय दोनों ही कालों में बजती है यहाँ तक कि अपनी समाधिस्थ अवस्था में योगी को भी बांसुरी की वही ध्वनि सुनायी देती है। कवि कहता है कि शांत समुद्र को वह आंदोलित करेगा। कहा गया है कि अक्षयवट पर कृष्ण ने बांसुरी बजायी उसकी अद्भुत सुरीली ध्वनि से आसमान भी झूम उठा। बाँसुरी की उसी ध्वनि व राग ने ही धरती पर ब्रह्म को अवतरित होने तथा सृष्टि के लिए प्रेरित किया था और बांसुरी की उसी ध्वनि के प्रभाव से पृथ्वी-जल मुक्त हुई थी।
कृवि को संपूर्ण सृष्टि में बांसुरी का रागपूर्ण संगीत विकास पाता हुआ और संगीत के ही स्वर पर धरती टॅगी हुई दृष्टिगोचर होती है। धरती को पुनः बांसुरी की उसी तान पर कदि झुलाना चाहता है। कवि कहते हैं कि आकाश से ओस की बूंदें भी बांसुरी की ध्वनि के ताल पर ही गिरती हैं, यहाँ तक कि तारों का झिलमिलाना, आसमान में कजरी का सजना और इंद्रधनुषी वितान का दृश्यमान होना सब उस ध्वनि के ताल पर संभव होता है। बांसुरी के नाद के प्रभाववश ही आकाश में तारे उदित दिखायी देते हैं। फूल, आग, पावन गंगा भी उसी नाद के कण से निर्मित हैं, ऐसे में बांसुरो के नाद अमृत को पीकर विष को भला किसके लिए छोड़ा जा सकता है। बांसुरी की मनोहर पनि का ही प्रभाव है कि माया कमजोर हुई और सत्य का मर्म प्रकाशित हुआ, यहाँ तक कि प्रकृति की मादक भादनी को सरसराने तथा विराद प्रकृति को स्पदित करने का श्रेय भी बांसुरी की हम मनोहर पनि को ही है। उस प्यनि को कवि शेषनाग जो विषाक्त युग है, के फण पर अमृत रूप में बरसाना चाहता है। कवि कहता है कि इस बांसुरी के बजने से ही जंगल में अमृत रूप जल के झरने फूटे फिर वहाँ चतुर्दिक हरियाली हिरकी जिसकी ओर आसमान सके और उसके पक्षी उतरे। कवि उस बांसुरी की ध्वनि रूपी अमृत सागर में विष को धो बहाना चाहता है।
यमुना के तट पर रचाये गये राम और श्मशान में बिखेरी गयी भयंकरता के मूल में भी कारण उस बांसुरी की ध्वनि ही है जो घोर अंधेरी रात में और रक्त से दीप्त सूर्य के उदीप्त होने पर भी बजी। कवि यमुना में मिले हुए विष को अमृत बना देने के लिए कटिबद्ध है। विषाक्त युग जिसे कवि ने यहाँ शेषनाग के रूप में उपस्थित किया है वह चाहे विषपान जितना भी करे, बांसुरी की ध्वनि का मर्म यह विषाक्त युग मला क्या समझे जो अपने ही विष से पागल है पर कवि उसकी पीठ पर पुष्प वर्षा करने के लिए प्रस्तुत हुआ है। यदि विषमय सरिता से यह शेषनाग निकलकर बाहर आयेगा तब कवि उसे फूलों से सजायेगा।
कवि कहता है कि शंका से साँप अपनी आँखों से सुनने के कारण चक्षुश्रवा कहलाता है, उसकी बाँसुरी के स्वर-मर्म को समझे और यह भी समझे कि उसे जिसने विष दिया है, उसी ने उसे संगीत भी दिया है और परोपकार का वरदान भी जब कि उसे (सर्प) इर्ष्या मिली है। कवि स्वयं को मिले वरदान से प्रसन्न है। कविता के अंत में कवि विषधर को ललकारते हुए कहता है,
                            आया है बांसुरी-बीच उद्धार लिये जन-गण का,
                            फण पर तेरे खड़ा हुआ है, भार लिये त्रिभुवन का।

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