सुरक्षा चुनौतियां और सीमावर्ती क्षेत्रों में उनका प्रबंधन

सुरक्षा चुनौतियां और सीमावर्ती क्षेत्रों में उनका प्रबंधन

सीमा सुरक्षा की चुनौतियां

सीमाएं, राष्ट्र की सप्रभुता, एकता और अखंडता के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होती हैं। सीमाओं को राष्ट्र के गौरव के प्रतीक के तौर पर भी देखा जाता है। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सीमाओं के तीन प्रकार हैं:
♦
 
 थल सीमा
♦ समुद्री सीमा
♦  वायु सीमा
वर्तमान विश्व व्यवस्था में सीमा प्रबंधन एक जटिल समस्या है। अपराधी हमेशा थल, जल और आवश्यकता पड़ने पर वायु मार्ग से घुसपैठ की तलाश में रहते हैं। सन् 1995 में पुरुलिया में हुई घटना ने पहले ही हमारी वायु मार्ग की सुरक्षा व्यवस्था की पोल खोल के रख दी थी। इसलिए सीमा प्रबंधन के लिए एक समग्र दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है। सीमाओं का प्रबंधन कई कारणों से जटिल है। हमारी समुद्री सीमाओं में से कुछ अभी भी अस्थिर हैं। थल सीमाएं भी पूरी तरह से सीमांकित नहीं हैं। हमारी सीमाओं का बंटवारा अधिकांशतः कृत्रिम सीमाओं पर आधारित हैं न कि प्राकृतिक ।
भारतीय सीमाएं अपने पड़ोसी देशों के साथ
भारत की अनुमानतः 15000 किलोमीटर लंबी थल सीमाएं अपने पड़ोसी देशों के साथ लगती हैं, जिनमें से पाकिस्तान के साथ (3323 कि.मी.), चीन के साथ (3488 कि.मी.), नेपाल के साथ (1751 कि.मी.), भूटान के साथ (699 कि.मी.), म्यांमार के साथ (1643 कि.मी.) और बांग्लादेश के साथ (4096 कि.मी.) लम्बी सीमाएं हैं। भारत की अपने पड़ोसी देशों के साथ सीमाएं, प्रत्येक के पृथक भौगोलिक परिवेश, अपने अनूठे विन्यास तथा समस्याओं वाली हैं। उदाहरणस्वरूप, भारत और पाकिस्तान के सीमावर्ती इलाके चरम जलवायु परिस्थितियों में फैलेफैले हुए हैं जिनमें इसकी सीमाएं गर्म रन ऑफ कच्छ से लेकर राजस्थान के थार मरूस्थल से होती हुई जम्मू व कश्मीर में हिमालय की ठंडी वादियों से होकर गुजरती है। इसी तरह भारत के उत्तर में भारत-चीन सीमा, वर्ष भर बर्फ से ढ़की ऊंची पर्वत श्रृंखलाओं के बीच से होकर गुजरती है। भारत और म्यांमार सीमा अपने असंख्य झाड़-झंखाड़ों सहित हरे-भरे उष्णकटिबंधीय जंगलों से आच्छादित है। भारत-बांग्लादेश सीमा पर नदियाँ निरंतर अपने तल बदलती रहती हैं। विविध भौगोलिक और जलवायु परिस्थितियाँ इन सीमावर्ती क्षेत्रों में सुरक्षा एवं प्रशासनिक सेवाओं को पहुंचाने में बहुत बड़ी बाधा उत्पन्न करती हैं। साथ ही इन सीमाओं की मानव निर्मित प्रकृति कुछ गंभीर मुद्दे भी पैदा करते हैं, जैसे- सीमा विवाद, खुली सीमाएं, सीमा पार जातीय और सामाजिक संबंध बनाए रखना इत्यादि भी पैदा करते हैं। कुल मिलाकर ये स्थितियाँ, सीमाओं के प्रभावी प्रबंधन के लिए एक गंभीर चुनौती हैं।
भारत-पाक सीमा
>  भारत-पाक सीमा तीन विभिन्न भागों में विभक्त हैं:
♦  रेडक्लिफ लाइन: 2308 कि.मी. लंबी, गुजरात से लेकर जम्मू व कश्मीर में जम्मू जिले के कुछ हिस्सों तक फैली है।
♦ नियंत्रण रेखा (एल.ओ.सी.): 776 कि.मी. लंबी, जम्मू संभाग के कुछ हिस्सों, राजौरी, पुंछ, बारामूला, कुपवाड़ा, करगिल और लेह के कुछ भागों तक फैली है।
♦  वास्तविक भूमि स्थिति रेखा (ए.जी.पी.एल. ): 110 कि.मी. लंबी, एन.जे. 9842 से उत्तर में इंदिरा कनॉल तक फैली है।
नियंत्रण रेखा और ए.जी. पी. एल., दोनों देशों की सेनाओं तथा सीमा सुरक्षा बलों के बीच सीमा झड़पों एवं फायरिंग के साथ लगातार तनाव का प्रतिबिंब पेश करती हैं। एल.ओ.सी. पर हमेशा विदेशी आतंकवादियों व कश्मीरी अलगाववादियों की घुसपैठ का खतरा तथा पाकिस्तानी सैनिकों का जमावड़ा लगा रहता है।
बांग्लादेश सीमा की तरह ही भारत-पाक सीमा पर भी कोई भौगोलिक रुकावट नहीं है। यह विविधतापूर्ण भू-भाग, जैसे- रेगिस्तान, दलदल, मैदानी इलाके, बर्फ से ढकी पहाड़ियों से होकर गुजरती है तथा गांवों, घरों और कृषि भूमि के माध्यम से अपना रास्ता बनाती है जो इसे अत्यंत झिरझिरा बनाते हैं। सीमा का झिरझिरापन, तस्करी, ड्रग्स व हथियारों की तस्करी एवं घुसपैठ को बढ़ाता है। हेरोइन और नकली भारतीय मुद्रा सीमा से तस्कर होने वाली दो प्रमुख वस्तुएं हैं। वहीं दूसरी ओर केसर, कपड़ा और पारा इत्यादि पाकिस्तान से अवैध तरीके से लाई जाने वाली कुछ अन्य वस्तुएं हैं। सीमा से सटे क्षेत्रों के ग्रामीण भी कथित तौर पर बड़े पैमाने पर तस्करी में संलिप्त होते हैं। इस सीमा पर बड़े पैमाने पर काले धन का वैधिकरण भी होता है। पंजाब में खासकर लुधियाना में एक बड़े पैमाने का हवाला नेटवर्क प्रकाश में आया है। इसके अलावा ये सीमाएं, सीमावर्ती लोगों को गुमराह करने तथा उनकी वफादारी को डगमगाने के लिए पाकिस्तान द्वारा किए जाने वाले दुष्प्रचार का भी केन्द्र बिन्दु होती हैं। सर क्रीक का क्षेत्र, अपनी अजीब बनावट से, सीमा रक्षक बलों को उनकी गतिविधियों से अत्यंत परेशानी पैदा करने के साथ-साथ खाड़ियों में अवैध मछली पकड़ने की गुंजाइश को भी बढ़ाता है।
प्रतिकूल राजनीतिक संबंध, साढ़े तीन युद्ध और पंजाब एवं जम्मू-कश्मीर की सीमावर्ती राज्यों में पृथकतावादी आतंकियों हेतु पाकिस्तान की सामग्री सहायता ने भारत को पाकिस्तान के साथ अपनी अंतर्राष्ट्रीय सीमा मजबूत करने के लिए बाध्य किया। अंदरुनी अर्थव्यवस्था की ओर केन्द्रित  और क्षेत्रीय आर्थिक एकता हेतु अनिवार्यता की अनुपस्थिति के परिणामस्वरूप सीमा पर लोगों और सामान की प्रतिबंधित आवाजाही है। यद्यपि, विगत दशक में दोनों देशों के साथ मिलकर उभरती भारतीय अर्थव्यवस्था चाहती है कि स्वयं को रचनात्मक कार्यों में लगाया जाए, इसने सीमा को हल्का किया है और भारत-पाकिस्तान ने क्रमिक रूप में अपने द्वार अधिक व्यापार और यात्रा के लिए खोल दिए तथापि, अपर्याप्त जनशक्ति संसाधनों की कमी और पाकिस्तान के अपर्याप्त सहयोग ने सीमा का प्रबंधन कठिन बना दिया। इसके परिणामस्वरूप भारत को निरंतर सीमा पर शांति बनाए रखने की अनिवार्यता हेतु सीमापार आतंकवाद के विरुद्ध अवरोधक के रूप में कार्य करना पड़ता है। ताकि इसे नरम कर व्यापार और यात्रा का बहाव विनियमित किया जा सके।
 भारत-चीन सीमा
सम्पूर्ण भारत-चीन सीमा (पश्चिमी एलएसी सहित, मध्य में छोटा विवाद रहित क्षेत्र, और पूर्व में मैकमोहन रेखा) 4,056 कि.मी. लम्बी है और पांच भारतीय राज्यों जम्मू और कश्मीर, उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश से गुजरती है। चीन की ओर यह रेखा तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र से गुजरती है, यह सीमांकन 1962 के युद्ध के बाद भारत और चीन के मध्य अनौपचारिक युद्ध विराम के रूप में 1993 तक विद्यमान रहा, जब द्विपक्षीय समझौते के उपरांत इसे (वास्तविक नियंत्रण रेखा) के रूप में स्वीकार किया गया।
चीन के पास जम्मू और कश्मीर में भारतीय क्षेत्र का लगभग 38,000 वर्ग कि.मी. क्षेत्र है। इसके अतिरिक्त तथाकथित चीन-पाकिस्तान समझौता, 1963 के अंतर्गत पाकिस्तान ने पाकिस्तानी अधिग्रहित जम्मू कश्मीर में 5,180 वर्ग कि.मी. क्षेत्र चीन को सौंप दिया। चीन, अरुणाचल प्रदेश में भारतीय क्षेत्र के 90,000 वर्ग कि.मी. और भारत-चीन सीमा के मध्य क्षेत्र के लगभग 2,000 वर्ग किमी. पर अपना दावा करता है। बीजिंग ने कहा है कि वह अरुणाचल प्रदेश को मान्यता नहीं देता है।
चीन और भारत के मध्य सीमा को कभी अधिकारिक रूप में सीमांकित नहीं किया गया है। दोनों देशों के मध्य सीमा के पूर्वी भाग पर चीन की स्थिति संगत है। किसी भी चीनी सरकार ने मैकमोहन रेखा को मान्यता प्रदान नहीं की है। चीन हेतु मैकमोहन रेखा देश पर साम्राज्यवादी आक्रमण का चिन्ह है। तथाकथित ‘अरुणाचल प्रदेश’ विवाद चीन का सबसे अड़ियल सीमा मुद्दा है। चूंकि भारत और चीन की स्थितियों का अंतर काफी व्यापक है, इसलिए दोनों देशों के लिए सहमति पर पहुंचना काफी कठिन है। इस विवादित क्षेत्र का क्षेत्रफल ताइवान से तीन गुना, बीजिंग से छह गुना और मालवेनास द्वीप समूह से दस गुना है। यह सपाट और जल एवं वन संसाधनों में समृद्ध है।
अरुणाचल प्रदेश एकमात्र मुद्दा है, जिसमें भारत और चीन के मध्य युद्ध की संभावना है। यदि कभी भी भारत और चीन के बीच इस मुद्दे पर युद्ध होता है, भारत मानता है कि भारत-चीन सीमा पर होने वाली झड़पें इसका कारण होंगी। युद्ध के बाद से प्रत्येक ओर ने अपनी सैन्य और संभार तंत्र क्षमताओं को इस विवादित क्षेत्र में बढ़ाया है। चीन ने अक्साइचिन क्षेत्र का नियंत्रण अपने पास रखा है, जहां उसने जियांग और जिंगयांग स्वायत्त क्षेत्रों को जोड़ने के लिए सामरिक राजमार्ग बनाया है। चीन का इस क्षेत्र पर नियंत्रण बनाए रखने में अहम सैन्य हित है, जबकि भारत का प्राथमिक हित अरुणाचल प्रदेश में है, जियांग स्वायत्त क्षेत्र सीमा से उत्तर पूर्व में सटा इसका राज्य |
 भारत-बांग्लादेश सीमा
भारत, बांग्लादेश के साथ सीमा का सबसे लंबा भाग (4096 किलोमीटर) सांझा करता है। बांग्लादेश की सीमा भारतीय राज्यों, पश्चिम व उत्तर में पश्चिम बंगाल, पूर्वोत्तर में असम व  मेघालय तथा पूर्व में त्रिपुरा व मिजोरम के साथ लगती है। इस सीमा को बंगाल सीमा आयोग द्वारा प्राकृतिक बाधाओं के अनुसरण के बदले तैयार किया गया था, जो गांवों, कृषि भूमि और नदियों से होकर गुजरती हुई कई विवादित खंडों के साथ इसे अत्यंत झिरझिरा बनाती है। असीमांकित भू-भाग, परिक्षेत्र (Enclaves) और प्रतिकूल अधिकृत क्षेत्र, भारत और बांग्लादेश के सीमा रक्षक बलों के बीच परस्पर वैमनस्य का कारण हैं।
बांग्लादेश की मुक्ति के तीन वर्षों बाद सन् 1974 में, भारत एवं बांग्लादेश के तत्कालीन प्रधानमंत्रियों इंदिरा गांधी एवं शेख मुजीब-उर-रहमान ने थल सीमा मामलों को सुलझाने के लिए एक समझौते पर हस्ताक्षर किए थे। इंदिरा – मुजीब समझौते में भारत-बांग्लादेश सीमा के विभिन्न विवादित हिस्सों को रेखाकिंत किया गया। समझौते के अनुसार, भारत के पास दक्षिणी परिक्षेत्रों का आधा हिस्सा है और बांग्लादेश के पास इन परिक्षेत्रों का दूसरा आधा हिस्सा है।
संसद में लंबित परिक्षेत्र बिल पर विस्तार से चर्चा करने की आवश्यकता – वर्तमान में बांग्लादेश में 111 भारतीय परिक्षेत्र तथा भारत में बांग्लादेश के 51 परिक्षेत्र हैं। बांग्लादेश के कब्जे वाले इन परिक्षेत्रों तक भारत की कोई पहुंच नही है और इसिलिए वहां के निवासियों के लिए प्रशासनिक सुविधाएं, जैसे- पुलिस स्टेशन, कोर्ट, स्कूल, सड़कें, अस्पताल, बैंक, बाजार इत्यादि मुहैया नहीं कराई जा सकी हैं।
खुली सीमाओं के परिणामस्वरूप अवैध आवाजाही आसानी से संभव है। भारत में बांग्लादेशियों के अवैध प्रवास की प्रवृत्ति आजादी के बाद से निरंतर जारी है। भारत में बड़े पैमाने पर बांग्लादेशियों के प्रवेश के लिए विभिन्न कारकों, जैसे- गरीबी, राजनीतिक हलचल, धार्मिक उत्पीड़न, जनसांख्यिकीय दबाव, पर्यावरण संकट आदि के बजाय भारत भूमि की उपलब्धता, रोजगार के अवसर, चिकित्सा देखभाल और शिक्षा इत्यादि को उत्तरदायी मानता हैं। सीमा की संरंध्रता भी भारतीय विद्रोहियों को बांग्लादेश और अन्य पड़ोसी देशों में शरण के लिए घुसपैठ करने की इजाजत देती है।
खुली सीमा, आर्थिक अवसरों की कमी, गरीबी और अल्प विकास, छोटे अपराधों के प्रति लोगों का रवैया, सतर्कता में ढील, अपराधियों और पुलिस एवं अपराधियों और सीमा रक्षक बलों के बीच कथित आपसी गठजोड़, ये सभी सीमा पार के अपराधों को बढ़ाने में योगदान देते हैं।
मवेशियों की तस्करी अत्यंत चिंता का विषय है। प्रतिदिन हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश से मवेशियों से भरे ट्रक भारत-बांग्लादेश सीमा पर जाहिर तौर से चरने के लिए भेजे जाते हैं और यहां से, इन मवेशियों को बांग्लादेश में तस्कर कर दिया जाता है। सीमा सुरक्षा बल (बी.एस.एफ.) नियमित तौर पर इन मवेशियों को जब्त करता है। भारत-बांग्लादेश सीमा पर मवेशियों के साथ-साथ, हथियारों और अन्य आवश्यक सामान, जैसे- चीनी, नमक और डीजल, मानव और नशीले पदार्थों की तस्करी, जाली भारतीय मुद्रा, अपहरण और चोरी इत्यादि काफी बड़े पैमाने पर होते हैं ।
♦  परिक्षेत्र मुद्दा
वर्तमान में बांग्लादेश में 111 भारतीय परिक्षेत्र और भारत में 51 बांग्लादेशी परिक्षेत्र हैं। चूंकि भारत की इन परिक्षेत्रों तक पहुंच नहीं है, इसलिए निवासियों हेतु पुलिस स्टेशन, न्यायालय, विद्यालय, सड़कें, अस्पताल, बैंक, बाजार, इत्यादि जैसी सुविधाएं प्रदान करने के लिए प्रशासनिक ढांचा स्थापित करना संभव नहीं है।
भारत और बांग्लादेश के प्रधानमंत्रियों ने 1974 में भूमि सीमा समझौता हस्तांतरित कर सभी परिक्षेत्रों को बदलने और अंतर्राष्ट्रीय सीमा को सरलीकृत करने का प्रयास किया था। 1974 में  बांग्लादेश ने प्रस्तावित भूमि सीमा समझौते को स्वीकृत किया, परंतु भारत ने इसकी अभिपुष्टि नहीं की। दोनों देशों द्वारा समझौते के संशोधित रूप को अंततः तब स्वीकृत किया गया जब भारत की संसद ने 7 मई 2015 को भारतीय संविधान के 119वें संशोधन को पारित किया। बांग्लादेश के मुख्य भाग के अंदर 111 भारतीय परिक्षेत्र ( 17, 160.63 एकड़) हैं, जबकि भारत के मुख्य भाग के अंदर 51 बांग्लादेश परिक्षेत्र ( 7, 110.02 एकड़) हैं। प्रतिकूल अधिग्रहण के संबंध में भारत को 2,777.038 एकड़ भूमि प्राप्त हुई और 2,267.682 एकड़ बांग्लादेश को अंतरित किया गया। समझौते के अंतर्गत परिक्षेत्र निवासी अपने वर्तमान स्थान में रह सकते हैं या अपनी पसंद के देश में जा सकते हैं।
 भारत-नेपाल सीमा
निकट पड़ोसियों के रूप में भारत और नेपाल मित्रता और सहयोग के विशिष्ट सम्बंध को खुली सीमाओं और लोगों के मध्य आपसी संपर्क और संस्कृति के द्वारा लक्षित किया जाता है। सीमाओं के आर-पार मुक्त आवाजाही का लम्बा इतिहास है। नेपाल का क्षेत्रफल 147,181 वर्ग कि.मी. और जनसंख्या 29 मिलियन है। पूर्व, दक्षिण और पश्चिम में पांच भारतीय राज्यों- सिक्किम, पश्चिम बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश और उत्तराखण्ड में इसके साथ लगी सीमा 1850 किमी है और उत्तर में चीन गणराज्य के तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र हैं।
भारत-नेपाल शांति और मैत्री संधि – 1950, भारत और नेपाल के मध्य विशेष सम्बंधों का आधार है। इस संधि के उपबंधों के अंतर्गत नेपाली नागरिकों को भारत में अतुल्य लाभ मिले हैं, भारतीय नागरिकों के समान सुविधाएं और संभावनाएं। लगभग 6 मिलियन नेपाली नागरिक भारत में रहते और काम करते हैं। भारत-नेपाल सीमा चौकसी सशस्त्र सीमा बल (एसएससी) करता है।
विवाद के अनेक मुद्दे हैं, अधिकतर अशांत हिमालयी नदियों (विशेषकर कालानदी और सीस्ता) द्वारा निरंतर मार्ग बदलने का परिणाम है। क्षेत्रों के पानी में डूबने, नाश, और सीमा स्तभों को हटाना और दोनों ओर के लोगों द्वारा अतिक्रमण को और अधिक समस्या को बढ़ाते हैं। कई बार अतिरेक सापेक्ष, जैसे विवादित सीमा पर दोनों ओर डराकर और जबरदस्ती भूमि अतिक्रमण जैसी समस्याएं भी सामने आती हैं। विवादित सीमा ने न केवल दो देशों के मध्य असहजता निर्मित की है, बल्कि इनकी स्थानीय जनसंख्या के मध्य भी असहजता उत्पन्न की है। इन वर्षों में अप्रतिबंधित प्रवास ने अन्य देश के लोग द्वारा बहुल प्रादेशिक पॉकेटों को निर्मित किया है।
खुली सीमा आतंकियों और विद्रोहियों को आसान अधिगम प्रदान करती है। 1980 के दशक के अंत में सिक्ख और कश्मीरी उग्रवादियों ने नेपाल से भारत में प्रवेश किया था। विगत में उल्फा, एनडीबीएफ, और केएलओ ने खुली सीमा का दुरूपयोग किया है। इससे पूर्व नेपाली सुरक्षा एजेंसियों द्वारा माओवादियों की तलाश के दौरान वे प्रायः भारतीय सीमा में घुस जाते थे। विद्रोहियों और आतंकियों के अलावा अनेक खूंखार अपराधी खुली सीमा के कारण भाग जाते हैं। आईएसआई, एनईटी और अन्य आतंकी संगठन प्रायः नेपाल को ट्रांजिट मार्ग के रूप में प्रयोग करते हैं और नेपाल से ही कार्य करते हैं। वे खुली झीरझीरी सीमा का लाभ उठा रहे हैं।
♦  मधेसी का नया मुद्दा
20 सितम्बर, 2015 को नेपाल में नया संविधान लागू किया गया। यह तराई जनसंख्या के 70 प्रतिशत मधेसियों और थारुओं को संतुष्ट करने में असफल रहा। इससे नेपाल में उग्र मधेसी आंदोलन हुआ और विशेषकर तराई क्षेत्र में, जीवन बाधित हुआ। इनकी मुख्य मांग-काठमाण्डू में   मधेसियों की उच्च जनसंख्या के अनुसार अनुपातिक राजनीतिक प्रतिनिधित्व दिया जाता है। विग में हुई बातचीत दर्शाती है कि मधेसी मोर्चा समिति के गठन और सीमांकन मुद्दों पर इसकी सिफारिशें प्रस्तुत करने के प्रस्ताव से सहमत हो सकता है।
 भारत-म्यांमार सीमा
दोनों देशों द्वारा हस्ताक्षर किए गए एक समझौते के तहत सन् 1967 में अपनी सीमाओं का सीमांकन किया गया था। हालांकि पहले हुई कई संधियों एवं कानूनों से सीमा के कुछ भागों का सीमांकन प्रभावित था किंतु नए समझौते के आधार पर ये स्पष्ट हुआ है।
सीमा के प्रभावी प्रबंधन के लिए भारत-म्यांमार सीमा पर ढेरों चुनौतियां हैं। हालांकि सीमा का सीमांकन ठीक से किया गया है फिर भी वहां का कुछ क्षेत्र विवादित है। बीहड़ इलाके, आवाजाही और क्षेत्र के समग्र विकास में मुश्किलें पैदा करते हैं। क्षेत्र की भीतरी सरंचना, जनजातीय लोगों के आपसी और अंतर – आदिवासी संघर्ष, उग्रवाद और सीमा पार जातीय संबंधों की कबीलियाई वफादारी सीमावर्ती इलाकों की सुरक्षा को प्रभावित करती है। सख्त निगरानी सुनिश्चित करने के लिए सीमा पर बाड़ अथवा सीमा चौकियाँ एवं सड़कों के रूप में व्यावहारिक तौर पर कोई बाधा नहीं है। घनिष्ठ जातीय संबंधों वाली जनजातियाँ, जैसे- नागा, कूकी, चिन इत्यादि जो सीमा के दोनों ओर रहती हैं, म्यांमार में सुरक्षित ठिकाना खोजने में विद्रोहियों की मदद करती हैं।
‘स्वर्ण त्रिभुज’ की सुविधा वाली सीमा, भारतीय क्षेत्र में नशीली दवाओं के अवैध प्रवाह को बढ़ावा देती है। हथियार व गोला बारूद, कीमती पत्थर और चीन में बनी उपभोक्ता वस्तुओं की तस्करी ने भारत में अवैध रूप से प्रवेश के लिए अपनी जगह बना ली है। लाल सैंडर्स, ए.टी. एस. (Amphetamine type stimulant), किराने का सामान, साइकिल के पुर्जे इत्यादि भारत से तस्करी किए जाते हैं। सीमा पर मानव तस्करी भी बड़े पैमाने पर होती है। दोनों देशों के जनजातीय समुदायों को बिना किसी पासपोर्ट या वीजा के सीमापार 40 किलोमीटर तक की यात्रा की अनुमति के प्रावधान से भी इस क्षेत्र में तस्करी के मामलों में वृद्धि हुई है।
भारत बर्मा के साथ 1624 कि.मी. (1,009 मील) लंबी सीमा को सील कर रहा है। भारत सीमा पर अपराध, माल, हथियारों सहित और जाली भारतीय मुद्रा तस्करी, इग तस्करी और राजद्रोह को रोकना चाहता है। सीमा चौकसी के लिए असम राईफल को यहां तैनात किया गया है । 9 जून, 2015 को भारतीय सेना ने भारत-म्यांमार सीमा के दो ठिकानों पर सर्जिकल स्ट्राइक कर आतंकियों पर पूर्व हमला किया और उन्हें भारी क्षति पहुंचाई।
यह भारतीय सेना द्वारा अपने सैनिकों पर मणिपुर के चंदेल जिले में हुए आतंकी हमले के 18 दिन बाद की गई जवाबी कार्यवाही थी, आतंकियों में एनएससीएन- खपलंग और कंगलई यावोल काना लूप (केयूकेएल) सहित विभिन्न समूह सम्मिलित थे।
 भारत-भूटान सीमा
भारत-भूटान सीमा भूटान राज्य और भारत गणराज्य के मध्य अंतर्राष्ट्रीय सीमा है। यह 695 कि.मी. लम्बी है और भारत के असम (267 कि.मी.), अरुणाचल प्रदेश (217 कि.मी.), पश्चिम बंगाल (183 कि.मी.) और सिक्किम ( 32 कि.मी.) राज्यों से जुड़ी है। भूटान युद्ध के बाद ब्रिटेन और भूटान के मध्य हुई शांति संधि ने 1865 में भूटान की सीमा को सीमांकित किया था। भूटान और भारत के मध्य हुई बातचीत ने 1973-1984 की अवधि में इसे और विस्तृत रूप में वर्णित किया। शेष विवाद छोटे हैं और अरुणाचल प्रदेश के साथ सीमा का सम्बंधित भाग, और सरभंग और गेरलेगफुम क्षेत्र ।
भारत और भूटान सीमा पर भूमि अधिगम द्वारा ही भूटान में प्रवेश किया जा सकता है, चूंकि चीन के साथ सीमा पूर्णतः बंद है। विदेशियों हेतु एकमात्र प्रवेश द्वार पश्चिम बंगाल के जैगांव और दक्षिण पश्चिम भूटान में फुंटशोलिंग नगरों के मध्य है।
भारत सरकार ने भूटान सीमा पर चौकसी हेतु 132 सीमा चौकियों में सशस्त्र सीमा बल (एसएसनी) की 12 बटालियनें तैनात की हैं। दोनों देशों के मध्य संयुक्त अधिगम और सीमा सुरक्षा स्थापित करने के लिए द्विपक्षीय भारत – भूटान समूह सीमा प्रबंधन और सुरक्षा की स्थापना की गई है। चीन के साथ त्रिकोणीय संगम को छोड़कर सीमा को सीमांकित किया जाता है, जहां सीमा खुली है। हाल ही में, भारत ने भूटान की क्षेत्रीय अखंडता को बनाए रखने में मदद की, ताकि डोकलाम स्टेंडॉफ के दौरान चीनी सैनिकों को आगे बढ़ाया जा सके। यह सीमा शांतिपूर्ण रही जब तक भारतीय राजद्रोह समूहों जैसे- केएलओ, उल्फा और एनडीबीएफ ने भूटान के दक्षिणी जिलों में अपने कैंप स्थापित नहीं किए थे, यद्यपि बाद में इन्हें उखाड़ फेंक दिया गया। खुली सीमा का लाभ उठाकर यह उग्रवादी फिरौती, हत्या, और बम धमाकों के बाद भूटान में घुस जाते थे। सीमा पर अवैध व्यापार और तस्करी भी बड़े पैमाने पर होती है। चीनी सामान, भूटानी कैनाबिस, शराब और वन उत्पादों को बड़ी मात्रा में तस्करी द्वारा भारत भेजा जाता है। भूटान के लिए पशुधन, ग्रोसरी मदों और फलों की तस्करी की जाती है।
तटीय सुरक्षा और द्वीप प्रदेश
पानी के नाले/नहरें, जिनमें से अधिकतर आपस में जुड़े हैं और जमीनी क्षेत्रों से काफी अंदर तक जाते हैं, तटरेखा को छिद्रपूर्ण (Porous) बनाते हैं तथा इसीलिए सीमा पार से घुसपैठ तस्करी तथा हथियारों एवं नशीली दवाओं के व्यापार की संभावनाओं में वृद्धि करते हैं। सदाबहार वन, बालू पट्टी, तट के साथ निर्जन द्वीपों की मौजूदगी, घुसपैठियों, अपराधियों और तस्करों को सुरक्षित गुप्त स्थान प्रदान करते हैं। हाल ही के वर्षों में आतंकवादियों द्वारा हमले के लिए किए गए समुद्र के इस्तेमाल, जैसा कि 1993 में मुंबई सीरियल बम विस्फोटों तथा नवंबर 2008 में मुंबई पर हुए हमले के दौरान देखा गया है, ने भी समुद्र तट के जोखिम में एक नया आयाम जोड़ दिया है।
कई महत्त्वपूर्ण संस्थानों, जैसे- तेल रिफाइनरियों, परमाणु ऊर्जा संयंत्रों, अंतरिक्ष स्टेशन, बंदरगाह ” और समुद्र तट के साथ नौसैनिक अड्डों के अस्तित्व ने इस मामले को और अधिक बदतर बना दिया है। यहां गैर-पारंपरिक खतरों के साथ-साथ आतंकवादी हमलों, तोड़-फोड़ आदि की बढ़ती चिंता के कारण भारी नुकसान की संभावना बनी रहती है ।
भारतीय और पाकिस्तानी मछुआरों द्वारा एक-दूसरे के जल क्षेत्र में भटकने तथा उसके बाद उनकी गिरफ्तारियाँ, हर समय ही चिंता का विषय बनी रहती हैं। यह भी आशंका जताई जाती है कि गिरफ्तार किए गए मछुआरों में से कुछ को पाकिस्तान की इंटर सर्विस इंटेलिजेंस (आई. एस.आई.) द्वारा भर्ती किया जा सकता है तथा उन्हें भारत के खिलाफ एजेंट के रूप में इस्तेमाल करते हुए उनकी नौकाओं के माध्यम से हथियार, विस्फोटक सामग्री इत्यादि को भारत में भेजते हुए उन्हें यहां सक्रिय किया जा सकता है। चूंकि ये नौकाएं भारत में बनी होती हैं तथा इनका पंजीकरण भी यहीं का होता है, अतः इन्हें भारतीय सुरक्षा एजेंसियों की नजरों से बचाव के लिए इस्तेमाल किया जाता है। नवम्बर, 2008 में तटरक्षक बलों द्वारा नौका कुबेर, जिसमें आतंकवादी थे, को बिना जांच किए ही जाने दिया गया और आतंकवादियों द्वारा घटना को अंजाम दिया गया।
द्वीप प्रदेशों की आवश्यक समुद्री लेनों (Sea Lanes of Communication) और दक्षिण-पूर्व एशियाई एवं अफ्रीकी देशों से निकटता तथा मुख्य भूमि से अधिक दूरी, एक साथ मिलकर द्वीप प्रदेशों को खतरनाक रूप से महत्त्वपूर्ण बनाते हैं। हालिया वर्षों में मिली खुफिया रिपोर्टों के अनुसार कई निर्जन द्वीपों को विभिन्न आतंकवादी समूहों और अपराधिक गिरोहों द्वारा हथियार एवं नशीले पदार्थों की तस्करी के लिए पारगमन बिंदु के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है। भारत के पड़ोसी तटीय देशों में आंतरिक गड़बड़ी भी द्वीपीय प्रदेशों के सुरक्षा परिदृश्य को अत्यंत गंभीर बनाती है। अंडमान और निकोबार द्वीप समूह में बड़े पैमाने पर अंत: प्रवाह देखा गया है। बांग्लादेश, श्रीलंका (तमिल), म्यांमार, थाईलैंड और इंडोनेशिया से अवैध घुसपैठ होती है। इसके अतिरिक्त, हिंद महासागर महा शक्तियों, मुख्यतः विशिष्ट प्रादेशिक शक्तियों के बीच तीव्र प्रतिद्वंद्विता का थिएटर बन गया है।
सीमा प्रबंधन की चुनौतियां
♦  प्रमुख भारत की एकता एवं अखंडता के लिए चुनौतियों का सामना,
♦  अपनी संप्रभुता को कायम रखना,
♦  अपने भू-भाग की रक्षा करना,
♦  सीमापार से अवैध घुसपैठ और आवाजाही पर रोक लगाना,
♦  सीमा क्षेत्रों में रहने वाले लोगों में सुरक्षा की भावना पैदा करना,
♦  सभी प्रकार की अवैध तस्करी पर रोक लगाना ( मानव तस्करी एवं शस्त्र/ड्रग्स तस्करी )
♦  भारतीय जाली मुद्रा की तस्करी पर नियंत्रण,
♦  सामान की तस्करी पर रोक, जैसे- पशु, सोना आदि।
प्रभावी सीमा प्रबंधन की तकनीकें
> सीमा के प्रबंधन में सहायक तकनीकें निम्नलिखित हैं: 
♦  तारबंदी तथा फ्लड लाइट,
♦  बॉर्डर आउट पोस्ट (बी.ओ.पी.),
♦  सड़क जैसी बुनियादी सुविधाओं का विकास,
♦   गश्त एवं निगरानी के लिए टावर,
♦  नाका/मचान,
♦  रात्रि देखरेख प्रौद्योगिकी ( Night Vision Technology),
♦  सी.सी.टी.वी. एवं थर्मल छवि वाले उपकरण।
कारगिल समीक्षा समिति की रिपोर्ट और सीमा प्रबन्धन पर इसकी टिप्पणियाँ
1999 में कारगिल लड़ाई एवं इसके बाद कारगिल समीक्षा समिति द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट के मद्देनजर, सीमा प्रबंधन की अवधारणा को सरकार द्वारा अति महत्त्वपूर्ण माना गया है। समीक्षा समिति की सिफारिशों के आधार पर अप्रैल 2001 में, भारत सरकार ने माधव गोडबोले की अध्यक्षता में सीमा प्रबंधन पर एक टास्क फोर्स का गठन किया। इस टास्क फोर्स को जिसमें मंत्रियों का एक समूह (जी.ओ.एम.) था, सामान्य तौर पर पूरी राष्ट्रीय सुरक्षा प्रणाली और विशेष रूप से कारगिल समीक्षा समिति की सिफारिशों की समीक्षा करने के लिए गठित किया गया था। टास्क फोर्स का उद्देश्य, सीमा प्रबंधन के लिए उपायों पर विचार करना और विशेष रूप से कारगिल समीक्षा समिति की सिफारिशों पर विचार करना और मंत्रिसमूह के विचारार्थ विशेष प्रस्ताव तैयार करना था।
 रिपोर्ट के मुताबिक कुछ निहित समस्याएं, जैसे- सीमा की विवादित प्रकृति, कृत्रिमता और खुलापन, अवैध प्रवास, तस्करी, नशीली दवाओं का अवैध व्यापार और विद्रोहियों के सीमा पार के आंदोलन जैसी कई समस्याओं को जन्म देती हैं, जिस कारण देश की सीमाओं का प्रभावी ढंग से प्रबंधन नहीं किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त, एक ही सीमा की रखवाली के लिए नियुक्त किए गए बलों की बहुलता, अन्य कार्यों के लिए सीमाओं से उनको समय-समय पर हटाना, सीमा पर अपर्याप्त बुनियादी ढांचा इत्यादि बातें उन्हें कुशलता से सीमा की रखवाली करने से रोकते हैं। इन सभी बातों के उपाय स्वरूप, मंत्री समूह ने निम्न सिफारिशें की हैं:
♦  सीमा विवादों के निपटारे तथा सीमाओं के त्वरित सीमांकन हेतु ठोस प्रयास ।
♦  ‘सीमा प्रबंधन विभाग’ का गठन।
♦  सीमा के प्रत्येक खंड पर केवल एक ही बल को तैनात किया जाए तथा इसे उसके मूल कार्य से हटकर अन्य आंतरिक सुरक्षा कार्यों हेतु तैनात न किया जाए।
♦  एक समुद्री तट पुलिस बल की स्थापना, तटरक्षक बल को मजबूत बनाने और विभिन्न समुद्री मुद्दों के समन्वय के लिए एक शीर्ष संस्था की स्थापना।
♦  सीमा पर बुनियादी ढांचे का त्वरित विकास, जिससे सीमावर्ती लोगों की अवैध गतिविधियों में संलिप्तता पर रोक लगाई जा सके।
♦  भारत के पड़ोस में अशांति है। भारत के कई पड़ोसी, कई राजनीतिक एवं आर्थिक अस्थिरता के दौर से गुजर रहे हैं। भारत का कई पड़ोसियों के साथ सीमा विवाद जारी है। असीमांकित सीमाएं न केवल द्विपक्षीय तनाव बढ़ाती हैं अपितु ये सीमा पार से होने वाली घुसपैठ, अवैध प्रवास, तस्करी में भी सहायक होती हैं। आपराधिक तौर पर किया गया अवैध प्रवास प्रमुख राष्ट्रीय सुरक्षा चुनौती के तौर पर उभर कर सामने आया है।
♦  सन् 2001 में, मंत्रिमंडलीय समूह ने सीमा प्रबंधन के मुद्दों की गहन समीक्षा शुरू की थी तथा कई सिफारिशें भी की थी। इन सिफारिशों में से कई कार्यान्वित की जा रही हैं। इसकी प्रमुख सिफारिशों में से एक गृह मंत्रालय के अंतर्गत सीमा प्रबंधन के लिए अलग से विभाग की स्थापना करना था। जिसे कर दिया गया है । तथापि हमारी समुद्री सीमाओं के शीघ्र निपटान एवं भूमि सीमाओं के सीमांकन संबंधी एक अन्य प्रमुख सिफारिश को अभी तक पूरी तरह से लागू नहीं किया गया है। मंत्रिसमूह ने बेहतर जवाबदेही के लिए ‘एक सीमा पर एक बल’ के सिद्धांत का दृढ़ता से पालन करने की सिफारिश की थी। इसमें सीमा रक्षी बलों को कानून और व्यवस्था तथा उग्रवाद रोधी ड्यूटियों में तैनात न करने की अनिवार्यता पर बल दिया गया है। इनमें से कुछ सिफारिशें विशेष तौर पर भारत-पाक, भारत-नेपाल एवं अन्य सीमाओं के बेहतर प्रबंधन के लिए की गई हैं। इनमें समुद्री सीमाओं तथा द्वीप प्रदेशों की उपेक्षा का भी जिक्र किया गया है तथा इनकी सुरक्षा के लिए तटरक्षक बल और पुलिस को मजबूत करने के लिए सिफारिशें की गई हैं। हालांकि इन सिफारिशों के परिणामस्वरूप सीमा प्रबंधन पर काफी ध्यान दिया जा रहा है, किंतु मुंबई में हुए आतंकवादी हमलों ने एक बार फिर से इस क्षेत्र को और अधिक महत्त्व दिए जाने की आवश्यकता पर बल दिया है।
♦  भारत ने विगत वर्षों में भारत-पाक तथा भारत-बांग्लादेश सीमा पर कई हजार किलोमीटर क्षेत्र में तारबंदी की है। सीमा रक्षक बलों को संवर्धित किया गया है। इनके आधुनिकीकरण एवं विस्तार पर कई हजार करोड़ रुपए खर्च किए गए हैं। सरकार ने सीमा प्रबंधन को बेहतर बनाने के लिए 13 आधुनिक एकीकृत जांच चौकियों ( ICPIntegrated Check Post) की स्थापना संबंधी नीति की घोषणा की है। सीमा प्रबंधन में सुधार लाने के लिए प्रौद्योगिकी को अहम भूमिका निभानी होगी। हमें यह जानना होगा कि अन्य बड़े देश कैसे अपनी सीमाओं का प्रबंधन करते हैं।
♦  सीमा प्रबंधन के उपाय
सरकार द्वारा सीमा प्रबन्धन उपायों के लिए चार महत्त्वपूर्ण चरण सुझाए गए हैं, जैसे- (1) चौकसी (2) विनियमन (3) सीमा क्षेत्रों का विकास (4) आपसी मुद्दों को सुलझाने के लिए द्विपक्षीय ढांचागत व्यवस्था । हम चारों चरणों पर विचार करेंगे।
● चौकसी
बी.एस.एफ. को भारत-पाक तथा भारत-बांग्लादेश सीमाओं, भारत-म्यांमार सीमा के लिए असम राईफल्स (ए.आर.), भारत-चीन सीमा के लिए भारत-तिब्बत सीमा पुलिस (आई.टी.बी.पी.) तथा भारत-नेपाल एवं भारत भूटान सीमा के लिए सशस्त्र सीमा बल (एस. एस. बी) को सीमाओं की रक्षा की जिम्मेवारी सौंपी गई है।
सीमाओं के बेहतर प्रबंधन के लिए बेहतर निगरानी आवश्यक है। सीमा की रक्षा करने वाले कर्मियों द्वारा सीमा की निगरानी, नियमित गश्त द्वारा की जाती है। सीमा की रखवाली करने वाले इन कर्मियों के आश्रय के तौर पर उन्हें नियमित गश्त पर भेजने के लिए और आस-पास के गांवों के लोगों के साथ बेहतर तालमेल हेतु सीमाओं पर सीमा चौकियाँ (बी. ओ. पी.) स्थापित की जाती हैं। विभिन्न सीमाओं पर दो बी. ओ. पी. के बीच की वास्तविक दूरी, निर्धारित दूरी 2.5 कि.मी. से कहीं ज्यादा होती है।
भारत-बांग्लादेश और भारत-पाक सीमा पर नदी और क्रीक क्षेत्रों की सुरक्षा के लिए बी.एस.एफ. का ‘वॉटर विंग’ तैनात है।
इसके अलावा, कई इलेक्ट्रॉनिक निगरानी उपकरण, जैसे- नाइट विजन डिवाइस, हैंड हेल्ड थर्मल इमेजर्स, युद्ध क्षेत्र निगरानी राडार, दिशा ढूंढ़ने वाले यंत्र, नायाब ग्राउंड सेंसर, उच्च दक्षता वाले टेलीस्कोप इत्यादि सीमा रक्षी बलों द्वारा बेहतर निगरानी के लिए बल के सहायक के तौर पर प्रयोग किए जाते हैं।
● विनियमन (Regulation)
लोगों और माल की आवाजाही पर प्रभावी नियंत्रण, प्रभावी सीमा प्रबंधन का प्रतीक है। इसके लिए सरकार को अवैध प्रवास, उग्रवादियों और आतंकवादियों की घुसपैठ तथा तस्करी जैसी गतिविधियों पर अंकुश लगाते हुए वैध व्यापार और यात्रा को सुगम बनाना चाहिए। इन सबके लिए रुकावटें खड़ी करना एक बेहतर उपाय है जिसके लिए तारबंदी लगाई जानी चाहिए जोकि एक आसान कार्य नहीं है। तस्करी में आने वाली कुछ समस्याएं निम्न हैं:
♦  भूमि अधिग्रहण,
♦  स्थानीय निकायों द्वारा असहयोग करने के कारण असामान्य देरी,
♦  कई मामलों में निहित स्वार्थ और राज्य सरकार प्रक्रिया को रोकने की कोशिश करते हैं उदाहणस्वरूप अवैध प्रवासियों के मद्देनजर वोट बैंक की राजनीति । विनियमन की अन्य विधि, बहु-उद्देश्यीय राष्ट्रीय पहचान पत्र जारी करने की है। कानूनी व्यापार और आवाजाही की सुविधा के लिए इंटीग्रेटेड चेक पोस्टों (आई.सी.पी.) का निर्माण किया जा रहा है।
● सीमावर्ती इलाकों का विकास
दुर्गम क्षेत्रों और सुविधाओं, जैसे- सड़कें, शिक्षण संस्थान एवं अस्पताल की कमी के कारण सीमावर्ती क्षेत्र, अगम्य एवं अविकसित हैं। आर्थिक अवसरों की कमी, सीमावर्ती लोगों को तस्करी एवं अवैध व्यापार शुरू करने के लिए और अधिक प्रोत्साहित करती है। इन समस्याओं को ध्यान में रखते हुए केंद्र सरकार ने पर्याप्त सामाजिक और आर्थिक बुनियादी ढांचे, विकास में भागीदारी को बढ़ावा देने, अलगाव की भावना को समाप्त करने और सीमा वासियों के बीच सुरक्षा की भावना पैदा करने के उद्देश्य से सन् 1987 में सीमा क्षेत्र विकास कार्यक्रम ( बी. ए. डी. पी.) की शुरुआत की। बी.ए.डी.पी. योजना में समुदाय आधारित बुनियादी ढांचे का विकास, जैसे- वानिकी, चारागाह भूमि, मत्स्य तालाब, फूलों की खेती के सामुदायिक केंद्र, मोबाइल औषधालय, छोटे विपणन केंद्र आदि शामिल हैं। इन वर्षों में कार्यक्रम की प्रकृति, राज्य स्तरीय कार्यक्रमों में शिक्षा पर जोर देने के साथ-साथ सीमावर्ती क्षेत्रों के संतुलित विकास पर भी जोर देने के लिए एक योजनाबद्ध तरीके में बदल गई है। अपने क्षेत्रों के लिए प्राथमिक योजनाओं को तय करने के लिए जमीनी स्तर की संस्थाओं, जैसे- पंचायती राज संस्थाएं, जिला परिषद / पारंपरिक परिषदें इत्यादि को प्रोत्साहित किया गया है।
पूर्वोत्तर भारत, जो भूटान, चीन, म्यांमार और बांग्लादेश के साथ अपनी सीमाओं का 98 प्रतिशत सांझा करता है, उग्रवाद और अल्पविकास से ग्रसित है। दक्षिण-पूर्व एशिया के प्रवेश द्वार के रूप में इसके रणनीतिक महत्त्व के कारण हाल ही के वर्षों में सरकार को विभिन्न विकास कार्यक्रमों को शुरू करने के लिए प्रेरित किया है। पूर्वोत्तर क्षेत्र की स्थिति का अध्ययन करने और उसके विकास के लिए उपयुक्त परियोजनाओं के लिए सुझाव देने हेतु सरकार ने सन् 1990 में एल. सी. जैन समिति तथा एस. पी. शुक्ला की अध्यक्षता में उच्च स्तरीय आयोग गठित किया। उच्च स्तरीय आयोग ने पूर्वोत्तर रूपांतरण शीर्षक वाली अपनी रिपोर्ट में क्षेत्र में अपर्याप्त बुनियादी ढांचे विशेष तौर पर सड़क नेटवर्क का उल्लेख किया और दृढ़ता से उसे विकसित करने की वकालत की। नतीजतन, क्षेत्र में रोड नेटवर्क को विकसित करने के लिए योजनाओं की एक श्रृंखला की शुरुआत की गईं, इनमें से तीन सबसे महत्त्वपूर्ण योजनाएं राष्ट्रीय राजमार्ग विकास कार्यक्रम-द्वितीय चरण, राष्ट्रीय राजमार्ग विकास कार्यक्रम – तृतीय चरण बी एवं पूर्वोत्तर क्षेत्र के लिए विशेष त्वरित सड़क विकास कार्यक्रम (एस. ए. आर. डी. पी. एन.ई.) 2007-08 आरंभ की हैं।
द्विपक्षीय संस्थागत तंत्र
सीमा प्रबंधन के बारे में आपसी हित के मामलों पर द्विपक्षीय वार्ता को सहज बनाने के लिए भारत सरकार ने सीमा प्रबंधन पर गृह सचिव, सीमा रक्षी बलों के एरिया कमांडरों और संयुक्त कार्य समूह की बैठकों के माध्यम से संस्थागत बातचीत की एक प्रणाली का विकास किया है। उदाहरणस्वरूप- भारत-म्यांमार सीमा पर उग्रवाद और तस्करी के मुद्दों पर चर्चा करने के लिए भारत की ओर से विदेश सचिव के स्तर पर फॉरेन ऑफिस कंस्लटेशन्स (एफ.ओ.सी.) और म्यांमार की ओर से उप – विदेश मंत्री नियमित रूप से बैठकें करते हैं।
राष्ट्रीय स्तर की बैठकें (एन.एल.एम.) तथा क्षेत्रीय स्तर की बैठकें (एस.एल.एम.) क्रमश: गृह मंत्रालय के गृह सचिव एवं संयुक्त सचिव की अध्यक्षता में भी आयोजित की जाती हैं। इन बैठकों के आयोजन का मूल उद्देश्य सीमा पर शांति और सौहार्द बनाए रखना है, और इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए दोनों पक्ष ‘उनके सुरक्षा बलों द्वारा एक-दूसरे के प्रदेशों के अनजाने में उल्लंघन को रोकने’ के लिए सहमत होते हैं, और साथ ही वे सभी अवैध एवं नकारात्मक गतिविधियों, जैसेउग्रवादियों की सीमा पार आवाजाही, नशीली दवाओं के तस्करों तथा नापाक गतिविधियों में शामिल अन्य व्यक्तियों पर नजर रखने के लिए और उन पर अंकुश लगाने के लिए भी एकजुट होकर कार्य करते हैं। प्रत्येक 6 माह में निर्दिष्ट स्थानों पर सेना के स्थानीय एरिया सेना कमांडरों के बीच ‘बॉर्डर संपर्क बैठक’ (Border Liaison Meetings) आयोजित की जाती हैं।
भारत और म्यांमार के सर्वेयर जनरल भी सीमा पर सीमा स्तंभों के रखरखाव, उनके संयुक्त निरीक्षण, मरम्मत इत्यादि कार्य योजना पर चर्चा करने के लिए एक-दूसरे से मिलते हैं। भारत ने बांग्लादेश, पाकिस्तान, नेपाल और भूटान के साथ भी इसी तरह के संस्थागत तंत्र का गठन किया है। भारत-बांग्लादेश सीमा पर बी. जी. बी. (Border Guard of Bangladesh) के साथ कई द्विपक्षीय तंत्र, जैसे- कंपनी कमांडर स्तर की बैठक, कमांडेंट स्तर की बैठक, सेक्टर कमांडर स्तर की बैठक, महानिरीक्षक बी. एस. एफ. उप महानिदेशक बी. जी. बी. स्तरीय बैठक, नोडल अधिकारी स्तर की बैठकें तथा महानिदेशक बी. एस. एफ. – महानिदेशक बी. जी. बी. स्तर के सीमा समन्वय सम्मेलन मौजूद हैं। पाकिस्तान रेंजर्स के साथ भी बी. एस. एफ. का इसी प्रकार का द्विपक्षीय तंत्र मौजूद है। सुरक्षा संबंधी चिंताओं के बारे में एक-दूसरे को संवेदनशील बनाने और सीमा के बेहतर प्रबंधन के लिए रणनीति तैयार करने में ये द्विपक्षीय तंत्र काफी मददगार हैं।
● संक्षिप्त में समुद्रीय सुरक्षा
तटों की सुरक्षा के लिए भारत सरकार द्वारा एक तीन स्तरीय तंत्र लागू किया गया है। सबसे बाहरी घेरे के तौर पर, भारतीय नौसेना के गश्ती दल, समुद्री जहाजों और उन पर स्थित विमानों की सहायता से हवाई सर्वेक्षण करते हैं। मध्यवर्ती घेरा ( 12 से 200 समुद्री मील की दूरी के बीच) जिसमें विशेष आर्थिक क्षेत्र भी शामिल है, की तटरक्षक बलों द्वारा गश्त की जाती है। टास्क फोर्स की सिफारिश पर भारत सरकार ने वर्ष 2005-06 में तटीय सुरक्षा योजना का शुभारंभ किया। इस योजना की परिकल्पना के तहत पांच साल की अवधि में, तट पर और तट के करीब जल में गतिशीलता के लिए 204 नौकाओं, 153 जीपों और 312 मोटर साइकिलों से सुसज्जित 73 तटीय पुलिस स्टेशनों की स्थापना की गई है।
तटीय पुलिस थानों में पर्याप्त रूप से प्रशिक्षित जनशक्ति, अत्याधुनिक हथियार अथवा गश्ती नौकाएं उपलब्ध नहीं हैं। इन थानों में तैनात कर्मी, समुद्र में गश्त करने के लिए अनिच्छुक होते हैं। वे हमेशा समुद्री बीमारी, हाई स्पीड गश्ती नौकाओं की कमी और उचित प्रशिक्षण के अभाव की शिकायत करते हैं।
मुंबई आतंकी हमलों के बाद सरकार ने देश की तटीय सुरक्षा को मजबूत बनाने के लिए विभिन्न उपायों की घोषणा की। जिसमें शामिल हैं:
♦  तटीय सुरक्षात योजना के कार्यान्वयन में तेजी लाना।
♦  204 अवरोधक नौकाओं का शीघ्र वितरण |
♦  तटीय पुलिस स्टेशनों की स्थापना हेतु पर्यावरणीय मानदंडों में सहजता
♦  सभी मछुआरों, मल्लाह कर्मियों एवं तटीय गांवों के व्यक्तियों को बहु-उद्देश्यीय के पहचान-पत्र जारी करना
♦  देश भर में मछली पकड़ने की नावों को जारी किए जाने वाले लाइसेंसों की एकरूपता का कार्यान्वयन ।
♦  पहचान और खोज के लिए पंजीकृत नौकाओं पर विशेष ट्रांसपोंडर और ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टम की स्थापना ।
♦  सभी बंदरगाहों पर केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल की कमांडों इकाइयों की तैनाती।
♦  समुद्री मार्ग से आतंकी खतरों का मुकाबला करने हेतु तटीय जिलों के लिए एकीकृत कमान का गठन।
द्वीप प्रदेशों की सुरक्षा के लिए भारत सरकार ने अंडमान एवं निकोबार कमांड ( ए. एन.सी.) के नाम से अंडमान एवं निकोबार में एक संयुक्त कमान की स्थापना की है जिसमें सेना, नौसेना, वायुसेना और तटरक्षक बलों के कार्मिक शामिल होते हैं। अन्य जिम्मेदारियों के अलावा, ए. एन.सी. अंडमान और निकोबार द्वीप समूह की सुरक्षा का कार्य भी देखती है।
 भारत की समुद्री सुरक्षाः चुनौतियां और प्रबन्धन
भारत की तटरेखा 7500 कि.मी. से अधिक है और लगभग 1,200 द्वीप समूह हैं और बड़े ईजैड (विशिष्ट आर्थिक क्षेत्र) लगभग 2 मिलियन वर्ग किमी. में फैले हैं, मग्नद्वीप तट का लगभग 1.2 मिलियन वर्ग क्षेत्र जोड़े जाने के बाद भारत का कुल समुद्र तल क्षेत्र, इसके भूभाग का आधा हो जाएगा।
हिन्द महासागर, जिसकी पहचान तीन ओर से भूभाग हैं, से विश्व के अधिकतर पोत नौवहन करते हैं। इस क्षेत्र के लिए समुद्रीय अधिगम केवल कुछ अवरोध स्थलों के माध्यम से संभव हैं, जिससे अरब सागर और बंगाल की खाड़ी तथा दक्षिणी हिन्द महासागर में आवाजाही होती है। भारत पहले दो क्षेत्रों से सटा हुआ है और तीसरे क्षेत्र के सम्बंध में केन्द्रीय स्थिति है। इसकी प्रायद्वीपीय विशेषता सभी दिशाओं में इसे व्यापक समुद्र तल अधिगम के लिए प्राकृतिक पहुंच प्रदान करता है, जो अण्डमान एवं निकोबार तथा लक्षद्वीप द्वीपसमूह तक विस्तारित है।
हिन्द महासागर क्षेत्र (आईओआर) में भारत की केन्द्रीय स्थिति है, जो मुख्य परिवहन लेन (आईएसएल) का प्रभुत्व करता है, इसे एक विशिष्ट लाभ प्रदान करता है। यह आईओआर के बाह्य भागों और सभी ‘अवरोध स्थलों’ को भारत से लगभग समान दूरी पर रखकर, क्षेत्र में अधिगम सुगमता, अपने समुद्री बलों की आवाजाही हेतु सुगमता प्रदान करता है, समुद्री क्षेत्र में अपने राष्ट्रीय हितों का प्रसार और सुरक्षोपाय प्रदान करता है। समुद्री क्षेत्र की व्यापकता इसकी सुरक्षा सुनिश्चित करने हेतु पर्याप्त संसाधनों और निवेश की मांग करती है, ताकि पारंपरिक और गैर-पारंपरिक खतरों से उत्पन्न चुनौतियों से निपटा जा सके।
♦  चुनौतियां : भारत के समुद्री क्षेत्र की विशालता ने इसके विशिष्ट भूगोल के साथ और अटलांटिक-प्रशांत से वैश्विक समुद्रीय फोकस का भारत – प्रशांत अविच्छिन्न की ओर फोकस इसकी सुरक्षा के लिए अनेक चुनौतियां उत्पन्न करता है। इन चुनौतियों में पारंपरिक और गैर- पारंपरिक संसाधनों से उत्पन्न होने वाले अनेक खतरे सम्मिलित हैं।
♦  पारंपरिक खतरे: पारंपरिक खतरे राष्ट्रों से उत्पन्न होते हैं, इनमें समुद्री सीमा विवाद, समुद्री संसाधनों के दावे, सामरिक हित इत्यादि शामिल हो सकते हैं। वर्तमान में हम पाकिस्तान, चीन अंतर्राष्ट्रीय पोत और श्रीलंका से खतरों को सामना कर रहे हैं।
♦  गैर- पारंपरिक खतरे : ये खतरे गैर- राष्ट्र कारकों से उत्पन्न होते हैं, जो अर्थव्यवस्था, समाज और संबंधित राज्यों की राजनीति को प्रभावित करते हैं, इसमें समुद्री डकैती, आतंकवाद, तस्करी, पर्यावरणीय मुद्दे, प्राकृतिक आपदाएं इत्यादि सम्मिलित हैं।
♦   पारंपरिक खतरे
♦  भारत-पाकिस्तान: भारत और पाकिस्तान के मध्य मुख्य चिन्ता सर क्रीक है। यह अरब सागर में खुलने वाली कच्छ की खाड़ी के दलदल में 96 कि.मी. का मुहाना है, जो भारत के गुजरात और पाकिस्तान के सिंध को अलग करता है।
लम्बे समय से चल रहा यह मुद्दा वास्तविक सीमांकन का है: 
1.सर क्रीक के मुहाने से सर क्रीक के शीर्ष तक,
2. सर क्रीक के शीर्ष से पश्चिमी टर्मिनल पर निर्दिष्ट रेखा पर बिन्दु के पूर्व में,
3. अरब सागर में भारत और पाकिस्तान के मध्य समुद्रीय सीमा का सीमांकन।
सर क्रीक के विवादित क्षेत्र की काफी कम सामरिक या सैन्य महत्ता है परन्तु यह क्षेत्र मत्स्यन संसाधनों की दृष्टि से समृद्ध है, इसको एशिया के सबसे बड़े मत्स्यन क्षेत्रों में से एक माना जाता है। यह क्षेत्र हाइड्रोजन और शैल गैस में भी समृद्ध हो सकता है और इसकी आर्थिक क्षमता अपार है। यदि सीमा निर्धारित हो जाए तो इससे समुद्री सीमाओं के निर्धारण में मदद मिलेगी। जो ईईजेड और मग्न तटीय द्वीप सीमा निर्धारण में मदद करेगा।
1965 में इस क्षेत्र में उत्पन्न विवाद ने भारत और पाकिस्तान के मध्य पूर्ण युद्ध का रूप धारण कर लिया था। बाद में भारत-पाक पश्चिमी सीमा मामला अधिकरण की स्थापना, विवाद समाधान हेतु की गई थी। अधिकरण ने कच्छ का लगभग 90% क्षेत्र भारत के दावे में माना और कच्छ के दक्षिण में शेष क्षेत्र को बिना समाधान के छोड़ दिया। 1969 से सामूहिक वार्ता समूह द्वारा आठ दौरों की बातचीत निष्फल रही है। चूंकि कोई भी पक्ष किसी भी बात पर सहमत नहीं है, भारत ने सर्वप्रथम, समुद्री कानूनों पर समुद्रीय सीमा का सीमांकन प्रस्तावित किया था। तथापि, पाकिस्तान पहले विवाद निपटान अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थ द्वारा करना चाहता है, जिसका भारत द्विपक्षीय मुद्दा होने के कारण स्पष्ट विरोध करता है।
दोनों देशों द्वारा सही सीमा निर्धारण न कर पाने के कारण अंतर अरब सागर में बह जा रहे हैं और एक बड़ा क्षेत्र विवादित जल क्षेत्र बना हुआ है, जहां मछुआरों का दुर्भाग्य, आतंकी डिजाइन और वैश्विक ड्रग गिरोहों के हित सब मिल रहे हैं। ऐसे संकेत हैं कि यह क्षेत्र विश्व ड्रग बाजार का सबसे बड़ा गढ़ बन सकता है।
भारत – श्रीलंकाः भारत और श्रीलंका ने समुद्रीय सीमा सीमांकन का समाधान कर लिया है। तथापि, कुछ मुद्दे वहां रहने वाले लोगों की जीविका पर सीधा प्रभाव डालते हैं । भौगोलिक दृष्टि से भारत और श्रीलंका आईएमबी के काफी निकट हैं अर्थात भारतीय तट को श्रीलंकाई तट से अलग करने वाला ‘पाल्क स्ट्रेट’ केवल 22 नौटिकल मील दूर है। यह निकटता मछुआरों द्वारा अनभिज्ञता से दूसरे क्षेत्र में प्रवेश का कारण बनती है और परिणामतः मछुआरों की पकड़ / निरुद्ध और उन पर हमले इत्यादि होते हैं ।
1974 में भारत ने पाल्क खाड़ी में एक छोटे खाली द्वीप – कच्छाटीपू पर और भारतीय मछुआरों के लिए कुछ सुरक्षा उपाय के साथ श्रीलंका का अधिकार स्वीकृत किया तथापि श्रीलंका सरकार भारतीय मछुआरों के मत्स्ययन अधिकारों का विरोध करती है। जबकि भारतीय मछुआरे पारंपरिक रुप से यहां मछली पकड़ते रहे हैं। कच्छाटीपू श्रीलंका का प्रदान करने ने भारतीय मछुआरों को इस समृद्ध जल में मत्स्यन के अधिकार से वंचित कर दिया है। जब भी भारतीय मछुआरे द्वीप के आसपास श्रीलंकाई जल में प्रवेश करते हैं, इससे लड़ाई और घटनाएं होती रहती हैं।
एलटीटीई की हार के बाद की अवधि में भारतीय मछुआरों की श्रीलंकाई मछुआरों और श्रीलंकाई नौ सेना के साथ विवाद की घटनाएं बढ़ी हैं। अत्यधिक बल प्रयोग के आक्षेप लगे हैं और मछुआरों को अवैध शिकार से रोकने के लिए बन्दूकों का भी प्रयोग किया गया है।
भारत-चीनः चीन से भारत को सुरक्षा चुनौतियों के संदर्भ में समुद्री आयाम तुलनात्मक रूप से नया कारक है। दोनों अर्थव्यवस्थाओं के तीव्र विकास ने ऊर्जा और कच्चे माल की मांग बढ़ा दी है, जिनका परिवहन समुद्र द्वारा किया जाात है। दोनों अर्थव्यवस्थाएं अपने व्यापारों और ऊर्जा  आपूर्ति के अनाधिकृत परिवहन हेतु समुद्र मार्गों पर ध्यान केन्द्रित कर रही है। इसलिए, भारतीय नौ सेना ने दक्षिण चीन सागर में नई प्रतिबद्धताएं तय की हैं, जबकि पीएलए नौ सेना ने हिन्द महासागर में प्रवेश किया है।
यदि हम चीन के व्यापार मार्गों को देखते हैं, तो इसका 40 प्रतिशत तेल आयात हेरमुज खाड़ी से होता है जबकि 82% तेल आयात मलक्का खाड़ी से होकर गुजरता है। यह दोनों सामरिक पोत परिवहन मार्ग भारतीय और अमरीकी नौसेना की पहुंच के अंदर है। यह वास्तविकता चीन को हिन्द महासागर में अपनी उपस्थिति दर्ज करने के लिए बाधित कर रही है, चीन अपनी ‘स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स’ नीति के माध्यम से भारत को घेर रहा है और प्रतिबंधित कर रहा है।
♦   द स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स
यह हिन्द महासागर क्षेत्र में संभावी चीनी मंशाओं संबंधी भू-राजनीतिक सिद्धांत है, यह संचार की इसकी समुद्री रेखाओं पर चीनी सेना और वाणिज्यिक सुविधाओं और सम्बंधों के नेटवर्क को दर्शाता है, जो चीन की भूमि से लेकर पोर्ट सूडान तक फैला है। यह समुद्री रेखाएं अनेक मुख्य समुद्री चोक बिन्दुओं, जैसे- मंजेब की खाड़ी, मलक्का की खाड़ी, होरमुज की खाड़ी, और लॉमबोक खाड़ी सहित पाकिस्तान, श्रीलंका, बांग्लादेश, मालदीव, और सोमालिया से गुजरती है। भूराजनीतिक अवधारणा के रूप में इस शब्द का प्रयोग सबसे पहले आंतरिक अमरीकी रक्षा रिपोर्ट एशिया में ऊर्जा भविष्य में किया गया था। इस शब्द का प्रयोग चीन सरकार द्वारा अधिकारिक रूप मे कभी नहीं किया गया है, परन्तु भारतीय मीडिया में इसे प्रायः प्रयोग किया जाता है। स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स का प्रादुर्भाव पोतों, विमान-पत्तनों, सैन्य बलों का विस्तार और आधुनिकीकरण और व्यापार भागीदारी के लिए सशक्त राजनायिक सम्बंधों को बढ़ावा देने के माध्यम से चीन के बढ़ते भूराजनीतिक प्रभाव को दर्शाता है। चीन सरकार कहती है कि चीन की बढ़ती नौसेना रणनीति प्रकृति में पूर्णत: शांतिपूर्ण है और केवल क्षेत्रीय व्यापार हितों के संरक्षण हेतु है। इकोनॉमिस्ट द्वारा किए विश्लेषण में पाया गया कि चीन के कदम पूर्णतः वाणिज्यिक हैं। यद्यपि, यह दावा किया गया है कि चीन की कार्यवाही हिन्द महासागर में चीन और भारत के मध्य सुरक्षा संकट को निर्मित्त कर रही है, यह प्रश्न कुछ विश्लेषकों द्वारा उठाया गया है, जो चीन की मूल रणनीतिक भेद्याताओं की ओर इशारा करता है।
♦  गैर-पारंपरिक खतरे
♦  समुद्री आतंकवादः आतंकवाद ने सामान्य रूप में सुरक्षा परिदृश्य परिवर्तित कर दिया है और इससे कोई भी क्षेत्र अछूता नहीं रहा है, फिर भी चाहे यह भूमि, अंतरिक या समुद्र हो। भारतीय परिदृश्य में विशेषकर आतंकवाद का समुद्री सुरक्षा तैयारी पर काफी प्रभाव है। 1993 के सीरियल बम धमाके और मुम्बई पर 26/11 हमला इस बात के स्पष्ट उदाहरण हैं कि हमारे समुद्री मार्ग कितने भेद्य हैं और किसी देश में मानव और सामग्री घुसपैठ के लिए प्रयोग किए जाते हैं। इनका निशाना निर्दोष सिविलियन परिसंपत्तियाँ हो सकती हैं, जैसे- वाणिज्यिक केन्द्र, जनसंख्या केंद्र, पारेषण, औद्योगिक केंद्र, पोत, जहाजों सहित सामरिक महत्ता के पारंपरिक सैन्य लक्ष्य और अपतटीय तेल सुविधाएं या परमाणु ऊर्जा संयंत्र ।
♦  समुद्र से भूमि को खतरा
1993 में मुम्बई सीरियल विस्फोटों के लिए विस्फोट सामग्री समुद्री मार्गों से नावों के द्वारा भारत के पश्चिमी तट पर पहुंची थी। 26/11 हमला आतंकियों के एक समूह द्वारा किया गया था, जो छिद्रयुक्त समुद्री सीमा से भारत में घुसे थे।
♦  भूमि से समुद्र को खतरा
2000 दशक के प्रारंभ में ‘अल कायदा’ ने अमरीकी नौसेना के पोत यूएसएस कोल पर बमबारी कर 17 लोगों को मार गिराया था। 2003 में तीन ईराकी तेल टर्मिनलों पर विस्फोट से लदी स्पीड नावों द्वारा पर्शियन खाड़ी में हमला किया गया था। 2014 में अलकायदा आत यों ने उत्तर पश्चिमी हिन्द महासागर पर अमरीकी नौसेना के पोत को निशाना बनाने के लिए पाकिस्तानी नौसेना की नाव जब्त करने का प्रयास किया था।
♦  तस्करी
सुदूर समुद्र किसी एकल राष्ट्र या ऐजेंसी के क्षेत्राधिकार के बाहर है, इसलिए इन क्षेत्रों की निगरानी की संभावनाएं काफी कम होती हैं। इस अवसर का दोहन कर गैर-राज्य कारक तस्करी के अविनियमित कार्यकलापों में शामिल होते हैं। भारत की बाईं ओर स्वर्ण चापाकार और इसकी दाईं ओर स्वर्ण त्रिभुज मादक पदार्थों और हथियारों की तस्करी हेतु समुद्र पर अनियमित आवाजाही के सतत दबाव में रहता है। तस्कर गहरे समुद्र का प्रयोग सामान को स्थानीय नावों में रखने की कार्यविधि के लिए करते हैं, जो बाद में अपतटीय मत्स्ययन कार्यकलापों से मिलकर इस सामान को किसी भी स्थान पर पहुंचा सकती है। इस समस्या से जुड़ा एक आयाम हमारे पड़ोसी देशों से / में की जा रही परमाणु सामग्री की तस्करी भी है।
♦  समुद्री डकैती
समुद्री डकैती समुद्री सुरक्षा का सबसे पुराना पक्ष है। यह व्यापार को निशाना बनाती है और संबंधित राष्ट्र की अर्थव्यवस्था और यात्रियों की जान को जोखिम में डालती है, जिस कारण आर्थिक विकास हेतु समुद्री मार्गों का स्वतंत्रता से प्रयोग बाधित होता है।
ऐतिहासिक दृष्टि से जिब्राल्टर, मलक्का खाड़ी, एडेन खाड़ी, मेडागास्कर, और इंगलिश चैनल समुद्री डकैतों के सबसे अधिक भेद्य मार्ग हैं। संभावी मार्ग में कीप पोत परिवहन के साथ संकरे चैनल समुद्री डकैतों को संभावनाएं प्रदान करते हैं। विगत दो दशकों में हिन्द महासागर क्षेत्र में भारत और चीन की बढ़ती ऊर्जा मांग और इनके बढ़े हुए व्यापार के कारण आर्थिक कार्यकलापों में वृद्धि हुई है। इसने समुद्री डकैतों को इस क्षेत्र की ओर आकर्षित किया है।
हाल के वर्षों में एडेन खाड़ी और सोमाली स्थित समुद्री डकैत भारत के भू-क्षेत्र के 500 एनएम के भीतर अरब सागर में फैल गए हैं। 2008 से एडेन खाड़ी की भारतीय नौ-सेना द्वारा पेट्रोलिंग की जा रही है। इसने 3,000 से अधिक मर्चेन्ट शिप और लगभग 25,000 भारतीय और विदेशी समुद्री यात्रियों की मदद की है।
♦  अवैध असूचित और अविनियमित मत्स्ययन (आईयूयू)
आईयूयू मानव लालच का परिणाम है, जो मानता है कि समुद्री संसाधन प्रकृति के असीमित उपहार हैं। परन्तु यह महसूस किया गया है कि समुद्री जीव संसाधन, यद्यपि नवीनीकरण असीमित नहीं है और इनका संवहनीय आधार पर प्रबंधन करना आवश्यक है। आईयूयू में जीवित संसाधनों, समुद्री पर्यावरण, जैव-विविधता और तटीय जनता की भावी जीविका को खराब और यहां तक कि नष्ट करने का जोखिम है।
एफएओ (संयुक्त राष्ट्र का खाद्य एवं कृषि संगठन) की 2005 की रिपोर्ट के अनुसार दक्षिण-पश्चिमी हिन्द महासागर में मत्स्ययन संसाधनों का 75 प्रतिशत अपनी सीमा समाप्त हो चुका है और शेष 25 प्रतिशत को दोहन पारिस्थितिकीय संवहनीयता से अधिक किया गया है। यह भारत को प्रभावित कर रहा है। चूंकि यह भारतीय मछुआरा समुदाय की जीविका सहित खाद्य और आर्थिक सुरक्षा को प्रभावित कर रहा है। भारत और श्रीलंका के मध्य पाल्क खाड़ी में विद्यमान तनाव मत्स्ययन क्षेत्र सम्बंधी दावों और विभिन्न मत्स्ययन विधियों के प्रयोग को लेकर है। इसी प्रकार भारतीय और पाकिस्तानी मछुआरों को एक-दूसरे की समुद्री और विधि प्रवर्तन एजेंसियों द्वारा निरुद्ध किया जाता है, यदि वे अधिक लालच के कारण एक-दूसरे के क्षेत्र में घुसपैठ करते हैं।
♦   जलवायु परिवर्तन
जलवायु परिवर्तन (वैश्विक तापन) ने संपूर्ण विश्व में मौसमी तापमान और जलवायु पैटन को परिवर्तित किया है। इसने भविष्य में संभावी बड़े प्रभावों के साथ समुद्रीय सुरक्षा को भी प्रभावित किया है। इसका प्रभाव, जीवित संसाधनों, निचले तटीय क्षेत्रों और द्वीपों के जलमग्न होने की संभावना, राष्ट्रीय क्षेत्र इत्यादि की क्षति पर पड़ेगा।
प्राकृतिक आपदाओं जैसे ऊष्णकटिबंधीय चक्रवात, तूफान, तटीय और समुद्री जलमग्नता की वर्तमान प्रवृत्ति जलवायु परिवर्तन के साथ बढ़ सकती है। हमें प्रभावी ढंग में प्रतिक्रिया करने हेतु अपनी प्राथमिकताओं का निर्धारण करना होगा।
♦  भारत का समुद्री सुरक्षा प्रबंधन
ऐतिहासिक रूप में भारत की समुद्री यात्रा परंपराएं और समुद्री परंपराएं और समुद्री क्षमताएं; जो इसे पूर्व में दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों और पश्चिम में पर्शिया, मेसोपोटामिया और रोम के तटों तक ले  गई; प्रलेखित नहीं है। जब हम दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों, जैसे- मलेशिया, इण्डोनेशिया, थाइलैण्ड की ओर देखते हैं, तो हम पाते हैं कि ये भारतीय संस्कृति, भाषा एवं वास्तुकला से काफी प्रभावित हैं। (यहां तक कि इनके खान-पान पर भी भारत का विशिष्ट प्रभाव है)। यह इन क्षेत्रों में स्पष्ट दिखाई देता है और यह वहां केवल कई शताब्दिों के आपसी समुद्री संपर्क द्वारा ही पहुंच सकता है। यह 13वीं शताब्दी तक भारत के पूर्वी तट पर विकसित होने वाले राजवेशों के अनुक्रमण द्व द्वारा पल्लवित समुद्री यात्रा कार्यकलापों और समुद्री परंपराओं के प्रयोगसिद्धि प्रमाण है। इसी प्रकार पश्चिम तट से भारतीय नौसैनिक पार्शिया मेसोपोटामिया और रोम के साथ व्यापार कर रहे थे।
पिछली सहस्राब्दी में हमारे शासकों द्वारा समुद्र की अनदेखी और स्वतंत्रता उपरांत सामरिक दिशा की कमी ने वित्तीय कमी के चलते हमारी समुद्री सुरक्षा तैयारी को अत्यधिक निचले स्तर पर पहुंचा दिया। यह विगत दो दशकों में ही हुआ कि कुछ कारकों और घटनाओं ने भारत को अपनी समुद्री सुरक्षा प्रबंधन पर ध्यान केन्द्रित करने के लिए बाध्य किया। ये नीचे दिए गए हैं
1. 1990 में अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के बाद, भारत एवं अंतर्राष्ट्रीय व्यापार और ऊर्जा आवश्यकता में वृद्धि हुई। चूंकि अधिकतर अंतर्राष्ट्रीय व्यापार समुद्री मार्ग से किया जाता है, समुद्र में स्थिरता बनाए रखने के लिए और विभिन्न प्रकार के खतरों से समुद्र के पोत परिवहन मार्गों के सुरक्षित रखने सहित इसकी काफी महत्ता है।
2. अपने अक्खड़ व्यवहार के साथ सैन्य और आर्थिक शक्ति के रूप में चीन का विकास, किसी भी समय भारत के साथ लड़ाई का कारण बन सकता है। हिन्द महासागर क्षेत्र में भारत की भौगौलिक स्थिति इसे चीन की हवाई शक्ति और सेना की ताकत से तुलना करने का अवसर देती है। भारत को अपनी भोगौलिक स्थिति का लाभ प्राप्त करने के लिए समुद्र में तैयार रहना चाहिए ।
3. भारत ने समुद्री क्षेत्र में अपनी कमजोरी को मुम्बई सीरियल बम धमाकों और मुम्बई हमले की घटनाओं के बाद ही महसूस किया।
4. उदारीकरण के बाद सतत जीडीपी विकास भारतीय नौसेना की लंबित परियोजनाओं के कार्यान्वयन हेतु संसाधनों/निधियों को सृजित कर रही है।
♦  चुनौतियों का प्रबंधन
26/11 हमले ने भारत सरकार एवं भारतीय समुद्री सुरक्षा में लीन मूल कमियों को महसूस किया।
1.  इसकी तटरेखा में छिद्रता ।
2. अपने समुद्री क्षेत्र की निगरानी में अपर्याप्तता।
3. समुद्री सुरक्षा में भूमिका निभाने वाली विभिन्न एजेंसियों के मध्य समन्वय की कमी।
इन कमियों को दूर करने के लिए तटीय और अपतटीय सुरक्षा ढांचे को तदनुसार भारतीय नौसेना को केंद्रीय एजेंसी तथा तटरक्षक को सहायक सहित राज्य पुलिस और अन्य एजेंसियों की अधिक भूमिका के साथ तैयार किया गया। भारत सरकार द्वारा किए गए उपाय नीचे दिए गए हैं
♦  अनेक राज्यों/संघ राज्य क्षेत्रों सहित सभी समुद्री अंशधारकों और केंद्रीय एजेंसियों का नई तटरेखा सुरक्षा तंत्र में एकीकरण, मंत्रिमण्डल सचिव की अध्यक्षता में राष्ट्रीय समुद्री एवं तटीय सुरक्षा सुदृढीकरण समिति (एनसीएसएमसीएस)।
♦  नौ-सेना कमांडर-इन-चीफ को तटीय पुलिस के कमांडर-इन-चीफ के रूप में पदमानित किया गया।
♦  महानिदेशक, तटरक्षक को कमांडर तटीय कमांड का नया पदनाम दिया गया और तटीय सुरक्षा के मामलों में केंद्रीय और राज्य एजेंसियों के साथ तटीय सुरक्षा के मामलों में केंद्रीय और राज्य एजेंसियों के साथ संपूर्ण समन्वय का उत्तरदायित्व दिया गया।
♦  सागर प्रहरी बल/समुद्र हमला टुकड़ी का गठन भारतीय नौसेना द्वारा नौसेना बेसों और अन्य क्षेत्रों के संरक्षण के लिए किया गया।
♦  सागर सुरक्षा दल, मछुआरों और तटीय क्षेत्रों के प्रशिक्षित स्वयंसेवियों का समूह है, जिन्हें निगरानी और आसूचना इकट्ठा करने के लिए प्रयोग किया जाता है।
♦  सभी मछुआरों के लिए पहचान पत्र जारी करना और मछली पकड़ने वाली 2 लाख नावों की पहचान और ट्रेनिंग हेतु इनका पंजीकरण करना ।
♦  तटरेखा सुरक्षा हेतु सभी तटीय राज्यों/संघ राज्य क्षेत्रों की पुलिस, इनका प्रशासन, भारतीय नौसेना, गृह मंत्रालय और अन्य केंद्रीय मंत्रालय समन्वय में काम कर रहे हैं। तटीय राज्यों/संघ राज्य क्षेत्रों द्वारा तटरक्षक के साथ परामर्श में किए गए भेद्यता/अंतर विश्लेषण के आधार पर तटीय सुरक्षा स्कीम चरण-1 और चरण – 2 हेतु प्रस्ताव को स्वीकृत कर दिया गया है।
♦  तटीय सुरक्षा स्कीम चरण- 1 और 2
इस स्कीम को 1 वर्ष के विस्तार के साथ 5 वर्षों में कार्यान्वयन हेतु जनवरी 2005 में स्वीकृत किया गया था, यह स्कीम मार्च 2011 में पूरी हो गई, चरण 2 को 1 अप्रैल 2011 से अगले पांच वर्षों हेतु कार्यान्वयन के लिए 24 सितम्बर 2010 को स्वीकृत किया गया था। इन स्कीमों ने निम्नांकित अवसंरचनाओं को जोड़ने हेतु उपबंध किए ।
सीएमएस चरण-2 में वर्तमान नावों के उन्नयन के साथ 60 नावों का विशेष प्रावधान किया गया। डेढ़ वर्ष में सीएसएस चरण-2 की प्रारंभ की गई कुछ मुख्य परियोजनाएं है:
♦  तीव्र निगरानी नावें – 14
♦  इंटरसेप्टर नावें 20
♦  अपतटीय निगरानी नावें-7
♦  तीव्र इंटरसेपटर क्राफ्ट – 2 –
♦  तटरक्षक समुद्री निगरानी एयरक्राफ्ट-6
♦ तटीय निगरानी रडार – 120
♦  लाइट-हाऊस एंड लाइट डायरेक्ट्रेट हेतु सेन्सर
♦  निगरानी और टोह हेतु हल्के हेलीकॉप्टरों की खरीद – 6
 भारतीय नौसेना ने मुम्बई, कोच्ची, विशाखापट्टनम और पोर्ट ब्लेयर में चार जेओसी (संयुक्त प्रचालन केंद्र) स्थापित किए गए ताकि अंशधारकों के मध्य बेहतर समन्वय, तादत्मय और समझ विकसित किया जा सके।
भारतीय नौसेना ने राष्ट्रीय कमांड नियंत्रण संचार आसूचना (एनसी-31) की स्थापना की है, जो सूचना प्रबंधन और विश्लेषण केंद्र (आईएमएसी) को होस्ट करती है। यह अनेक संगठनात्मक, प्रचालनात्मक और प्रौद्योगिकीय परिवर्तनों के माध्यम से राष्ट्रीय समुद्री क्षेत्र जागरुकता (एनएमडीए) ग्रिड निर्मित करने पर केन्द्रित है। यह नेटवर्क तट और द्वीप क्षेत्रों पर स्थित 51 रडार स्टेशनों ( 20 नौ सेना और 31 तट रक्षक) को जोड़ता है। यह समुद्र में संदेहास्पद कार्यकलापों और आवाजाही सम्बंधी अहम आसूचना और सूचना को एकत्रित और उसका प्रसार करेगा।
भारत सरकार एनएमडीए को पुनर्बलित करने हेतु पोत परिवहन संबंधी सूचना को बांटने के लिए 24 देशों के साथ बातचीत कर रही है ।
द्वीप क्षेत्रों की सुरक्षा हेतु भारत सरकार ने अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह में संयुक्त प्रचालन केन्द्र की स्थापना की है, जिसमें नौसेना, थल सेना, वायु सेना और तटरक्षक के कार्मिक सम्मिलित
♦  एनसी-31 परियोजना
भारत मर्चेन्ट पोत परिवहन डाटा यहां तक कि इसके नौसेना नेटवर्क को भी 24 देशों के साथ बांटने पर विचार कर रहा है, जिसमें पोतों की स्थिति का आंकलन वास्तविक समय के आधार पर किया जा सकता है। यह 26/11 आतंकी हमले के छह वर्ष बाद संभव हुआ है।
राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार की अध्यक्षता में ये 24 देश अफ्रीका के पूर्वी तट से लेकर मलक्का खाड़ी तक फैले हैं। यद्यपि इसे पूर्ण होने में समय लगेगा। सरकार राष्ट्रीय समुद्री क्षेत्र जागरूकता (एनएमडीए) परियोजना को अंतिम स्वीकृति प्रदान करने वाली है ताकि बहु- एजेन्सी समन्वय को बढ़ावा दिया जा सके और समुद्री एवं तटीय सुरक्षा को सुदृढ़ करने के लिए किया जा रहे वर्तमान प्रयासों को बल प्रदान किया जा सके।
समग्र प्रयास देश के दोनों पारंपरिक और अपारंपरिक खतरों का पता लगाने में समर्थ होने पर केन्द्रित हैं, ताकि हिन्द महसागर क्षेत्र में भौगोलिक हित के इस प्राथमिक क्षेत्र में खतरों का पता लगाया जा सके और आवश्यकता पड़ने पर इन्हें ‘तटस्थ’ किया जा सके।
इस ओर मुख्य कदम राष्ट्रीय कमांड नियंत्रण संचार आसूचना (एनसी-31) नेटवर्क के केन्द्रीय केंद्र का शुभारंभ होगा, जो दैनिक आधार पर 30,000 – 40,000 पोतों को ट्रैक कर सकेगा।
तटीय रडारों से लेकर उपग्रहों, जैसे विभिन्न स्रोतों से इनपुट प्राप्त कर सूचना प्रबंधन और विश्लेषण केन्द्र (आईएमसी) गुड़गांव, इसका संबंध स्थापित कर समुद्री खतरों के आंकलन हेतु इसका प्रयोग करेगा। भू-सीमाओं को बाड़, इलैक्ट्रॉनिक युक्तियों और निगरानी द्वारा गार्ड किया जा सकता है। परंतु समुद्र में ऐसी कोई संभावना नहीं होती है। एनसी – 31 हमें समुद्र में होने वाली किसी असामान्य या संदेहास्पद आवाजाही से सचेत करेगा।
वृहद योजना- एनएमडीए परियोजना अपनाना है, जिसे सुरक्षा मामलों सम्बंधी मंत्रिमंडलीय समिति से अभी स्वीकृति प्राप्त होती है। एनसी – 31, एनएमडीए परियोजना का दिल या रीढ़ होगी। यद्यपि नौसेना और तट रक्षक एनसी – 31 नेटवर्क के लिए काम कर रहे हैं, एनएमडीए परियोजना सभी अंशधारकों- समुद्री मामलों से संबंधित अनेक केंद्रीय मंत्रालयों और तटीय राज्यों एवं संघ राज्य क्षेत्रों को समान ग्रिड पर लाएगी
फिर यह काफी आसान होगा कि कुबेर जैसी मत्स्ययन नाव का पता लगाया जा सके, जिसका प्रयोग अजमल कसाव और नौ अन्य आतंकियों द्वारा मुम्बई पहुंचने के लिए किया गया था और 26/11 हमलों में भारी तबाही मचाई गयी थी। इस हमले ने आसूचना एजेंसियों के मध्य ‘अहम संपर्कता’ की कमी को प्रकट किया था।
ब्लूप्रिंट के अनुसार ‘राज्य निगरानी केंद्र’ तटीय राज्यों/संघ राज्य क्षेत्रों में एनएमडीए परियोजना हेतु घटकों के रूप में कार्य करेंगे, इसके अतिरिक्त पोत परिवहन केंद्र और मत्स्ययन निगरानी केंद्र की भी स्थापना की जाएगी। 26/11 घटना के बाद स्थापित चार विद्यमान संयुक्त प्रचालन केंद्रों – मुम्बई, कोच्ची, विशाखापट्टनम और पोर्ट ब्लेयर को भी उन्नयित किया जाएगा।
♦  समुद्री सुरक्षा सम्बंधी कुछ परियोजनाएं
♦  आंतरिक जलः इस शब्द से आधार रेखा ( उदाहरण निम्न जल रेखा) के सभी जल भूभाग और तट संदर्भित हैं। देश का विद्यमान कानून सामान्य कानून सहित इसके आंतरिक जल और इसके ऊपर वायु क्षेत्र पर भी प्रयोज्य होगा। इस मार्ग में निर्दोषता से गुजरने का अधिकार नहीं है।
♦   प्रादेशिक जल: तट रेखा से 12 एनएम की दूरी के भीतर समुद्र पर देश का विद्यमान कानून, सामान्य कानून सहित इसके आंतरिक जल और इसके ऊपर वायुक्षेत्र पर भी प्रयोज्य होगा। इस मार्ग से निर्दोषता से गुजरने का अधिकार होगा। सतह पर नौ-वहन के लिए पनडुब्बियों और अन्य पानी के अंदर चलने वाले यानों को अपना झंडा दिखाना होगा।
♦  संस्पर्शी क्षेत्र: यह क्षेत्र समुद्र के प्रादेशिक जल के आगे परंतु आधार रेखा से 24 एनएम की दूरी को इंगित करता है। इस संस्पर्शी क्षेत्र और इसके ऊपर के वायु क्षेत्र पर देश के कानून के अनुसार किसी भी उल्लंघन हेतु राजकोषीय कानून या रिवाज, उत्प्रवास या स्वच्छता और ऐसे उल्लंघन के लिए दण्ड देने का अधिकार होगा।
♦  विशिष्ट आर्थिक क्षेत्र: यह प्रादेशिक जल से आगे समुद्र का क्षेत्र है परन्तु यह आधार रेखा से 200 एनएम की दूरी के भीतर का क्षेत्र है। इस क्षेत्र पर प्राकृतिक संसाधनों के सम्बंध में देश के अन्य सभी कानून प्रयुक्त होंगे। प्रादेशिक जल के समान ही समान अधिकार और शक्तियाँ हैं।
वायु क्षेत्र सुरक्षा चुनौतियां एवं प्रबंधन ,
सुरक्षा खतरों और चुनौतियों का बदलता परिदृश्य राष्ट्रों को अपनी सारी सीमाएं सुरक्षित करने के लिए बाध्य करता हैं। भूमि और समुद्र सहित रक्षा की एक परत सुरक्षित वायु क्षेत्र भी है, इसके लिए अंतरिक्ष या इस क्षेत्र को निशाना बनाने वाले खतरे को कुचलने के लिए सुरक्षा तैयारी की आवश्यकता होती है।
वायु क्षेत्र के सुरक्षा पहलुओं में प्रवेश करने से पहले हमें वायु क्षेत्र की स्पष्ट जानकारी होनी चाहिए। वस्तुतः यह राष्ट्र के ऊपर वायुमंडल का क्षेत्र है । बीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक में यात्रियों, कार्गो और सैन्य परिसंपत्तियों की आवाजाही हेतु विमानों के अंतर्राष्ट्रीय प्रयोग में वृद्धि हुई और इसने वायु संप्रभुता के प्रश्न को पैदा किया। वायु क्षेत्र और वायु क्षेत्र संप्रभुता की परिभाषा में कुछ स्पष्टता लाने का पहला प्रयास पेरिस संधि ( 1919 ) द्वारा किया गया था। इसके बाद 1944 में अंतर्राष्ट्रीय नागर विमानन संगठन (आईसीएओ) की वायु क्षेत्र के समन्वयन और विनियमन हेतु स्थापना की गई। वर्तमान में आईसीएओ के भारत सहित 191 सदस्य राष्ट्र हैं। इन दोनों संधियों को वायु क्षेत्र प्रबंधन में मील का पत्थर माना जाता है।
“प्रत्येक राष्ट्र का इसके प्रादेशिक जल सहित इसके सीधे ऊपर के वायु क्षेत्र पर विशिष्ट संप्रभुता अधिकार होता है। “
● वायु क्षेत्र में कुछ परिभाषाएं
♦  नियंत्रित वायु क्षेत्र: यह वायु क्षेत्र के भीतर मापित आयाम है, जिसमें एयर ट्रैफिक कंट्रोल उपाय प्रदान किए जाते हैं।
♦  अनियंत्रित वायु क्षेत्रः अनियंत्रित वायुक्षेत्र में हर प्रकार के विमानों को उड़ने की अनुमति है, जहां विमान यदि चाहें तो विमान सूचना सेवाएं प्राप्त कर सकते हैं।
♦  प्रतिबंधित क्षेत्र: वायु क्षेत्र में प्रतिबंधित क्षेत्र सामान्यतः राष्ट्रीय सुरक्षा और कई बार पर्यावरणीय चिन्ताओं को ध्यान में रखकर परिभाषित किया जाता है। इस क्षेत्र में विमानों को किसी भी समय या स्थिति में जाने की अनुमति नहीं है।
♦  निषिद्ध क्षेत्रः वायु क्षेत्र का निषिद्ध क्षेत्र किसी राष्ट्र के भू-भाग या प्रादेशिक जल के ऊपर का वह निर्धारित आयाम है, जिसने विशिष्ट स्थितियों के साथ वायुयानों की उड़ान निषिद्ध होती है।
♦  खतरा क्षेत्र: यह वायु क्षेत्र का काफी बड़ा भाग हो सकता है जिसमें सैन्य अभ्यास, मिसाइल, प्रक्षेपण और अन्य कार्यकलाप किए जाते हैं और इसलिए इस क्षेत्र में विमानों की उड़ानें निषिद्ध होती हैं।
हम देखते हैं कि ऐसे जोन वायु क्षेत्र को नागर विमानन ट्रैफिक हेतु काफी सीमित क्षेत्र में निषिद्ध करते हैं। चूंकि अधिसूचना के उपरांत निषिद्ध क्षेत्र और खतरा क्षेत्र काफी लंबे समय के लिए सक्रिय रखते हैं, वायु क्षेत्र के वाणिज्यिक प्रयोजन हेतु ईष्टतम प्रयोग के लिए वायु क्षेत्र का लचीला प्रयोग (एफयूए) की एक अवधारणा विकसित की गई है।
● भारतीय वायु क्षेत्र
भारतीय वायुक्षेत्र 40 मिलियन क्यूबिक किलोमीटर के साथ त्रिआयामीय क्षेत्र है – भारतीय भूभाग, द्वीप और इसका प्रादेशिक क्षेत्र, हमारे शत्रु पड़ोसी, आर्थिक उदारीकरण के परिणामस्वरूप बढ़ता हवाई ट्रैफिक और व्यापार मार्गों की निगरानी हमारे वायु क्षेत्र के प्रबंधन को महत्त्वपूर्ण ओर चुनौतीपूर्ण बनाते है। किसी अन्य वायु क्षेत्र की तरह भारतीय वायु क्षेत्र में भी नागरिक विमानन हेतु काफी कम जगह है, और अधिकतर वायु क्षेत्र प्रतिबंधित, निषिद्ध या खतरा जोन है। यद्यपि इन जोनों के सुरक्षा पहलू है, परंतु आर्थिक और वाणिज्यिक पहलुओं के प्रभावी प्रबंधन हेतु निगरानी में अधिक निवेश और अन्य सुरक्षा उपायों की आवश्यकता है। वाणिज्यिक प्रयोजनों हेतु प्रभावी प्रयोग के लिए हमारे वायु क्षेत्र में भी एफयूए की यूरोपीयन अवधारणा को शामिल किया जा रहा
● सुरक्षा चुनौतियां
भारतीय वायु क्षेत्र की सुरक्षा चुनौतियों को 1995 के पुरुलिया हथियार मामले द्वारा प्रकट किया गया। इसके बाद 1998 में पाकिस्तान की वायु सेना के निगरानी विमान में सवार 17 लोगों को मार गिराया गया। इसके अतिरिक्त समय-समय पर हमारे पड़ोसी राष्ट्रों द्वारा वायु क्षेत्र उल्लंघन की अनेक छोटी घटनाएं हुई हैं। अमरीका में डब्ल्यूटीसी पर 9/11 हमला, जहां असैन्य विमानों का प्रयोग कर तबाही मचाई गई। हाल ही में एयर मलेशिया विमान एमएच-370 का लापता
 होना और अन्य मलेशियाई विमान एमएच-17 का यूक्रेन के निकट डुबने को ध्यान में रखते हुए, भारतीय वायु क्षेत्र प्रबंधन हेतु योजना बनानी चाहिए।
♦ उपाय
हमारे इस बड़े वायु क्षेत्र को सुरक्षित रखने और इस क्षेत्र के भीतर एयर ट्रैफिक प्रबंधन हेतु भारत को विद्यमान अवसंरचनाओं और प्रक्रियाओं को अपग्रेड करने की आवश्यकता है। हमारे वायु क्षेत्र के सभी अंशधारकों को मिलकर अपनी रणनीतिक सुरक्षा चिंताओं के सुरक्षा उपायों सहित एयर ट्रैफिक प्रबंधन हेतु संस्थागत वायु क्षेत्र प्रबंधन स्थापित करना चाहिए। वायु क्षेत्र प्रबंधन में भारतीय वायु सेना द्वारा भारतीय सेना और कतिपय क्षेत्रों में भारतीय नौसेना के संयोजन में किए जाने वाले वायु रक्षा उपाय, भारतीय विमानपत्तन प्राधिकरण, भारतीय वायु सेना द्वारा प्रदान की जाने वाली एयर ट्रैफिक सेवाएं (एटीएस) और कुछ हद तक हिन्दुस्तान ऐयरोनॉटिकल लिमिटेड (एचएएल) और भारतीय सेना और नौसेना की सीमित वायु रक्षा भूमिकाएं सम्मिलित हैं।
>  वायु क्षेत्र प्रबंधन में निम्नांकित कार्यकलाप सम्मिलित हैं:
♦  विनियामक कार्य
♦  निगरानी
♦  नियंत्रण तंत्र
♦  हथियार प्रणाली और इंटरसेपटर
♦ एयर ट्रेफिक नियंत्रण
● वायु रक्षा पहचान जोन (एडीआईजेड )
भारत ने अपने वायु क्षेत्र के भीतर सभी विमानों की पहचान, अवस्थिति और नियंत्रण हेतु अपनी स्वयं की एडीआईजेड और प्रक्रियाओं की स्थापना की है। भारतीय क्षेत्र कवर करते हुए कुल 6 एडीआईजेड है- उत्तर, पश्चिम, मध्य, पूर्व, दक्षिण और दक्षिण-पूर्व । एडीआईजेड दक्षिण में लक्षद्वीप द्वीपसमूह के प्रादेशिक जल तक का क्षेत्र सम्मिलित है।
भारतीय भूभाग और इसके प्रादेशिक जल के ऊपर उड़ने वाले विमानों को स्थापित एटीएस द्वारा स्थापित मार्गों का पालन करना पड़ता है, जो नोटम या ऐयरोनॉटिकल सूचना प्रकाशन या किसी अन्य मार्ग द्वारा विशिष्ट उड़ानों हेतु प्रख्यापित किया गया है। विमान चालकों को भारतीय भू-भाग पर भारत की सीमा के 15 एनएम के भीतर उड़ान न करने की चेतावनी दी जाती है । जब वे एटीएस विशिष्ट अनुमति मार्ग पर चल रहे हों या जब भारत की सीमा के 15 एनएम के भीतर स्थिति किसी हवाई पट्टी को या से प्रचालन कर रहे हो । यदि कोई विमान वायु रक्षा स्वीकृति के बिना एडीआईजेड के भीतर आता है। प्रतिबंधित / निषिद्ध/खतरा क्षेत्र में प्रवेश करता है, या अपने मार्ग विचलन के बारे में एटीसी केन्द्र को सूचित नहीं करता है, तो इसे लड़ाकू विमान द्वारा इंटरसेप्ट किया जा सकता है।
Note: – यह नोट्स ऑनलाइन PDF फाइल से लिया गया हैं !!!!
Credit – Ashok Kumar,IPS
Credit – Vipul Anekant, DANIPS
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