ज्ञान प्राप्त करने के आधुनिक साधनों को विस्तार से समझाइये ।
ज्ञान प्राप्त करने के आधुनिक साधनों को विस्तार से समझाइये ।
उत्तर— ज्ञान प्राप्त करने के आधुनिक साधन–वर्तमान में ज्ञान का क्षेत्र बहुत अधिक विस्तृत हो गया है। शिक्षक एकांगी दृष्टिकोण रखकर अपना कार्य नहीं कर सकता है। साथ ही आधुनिक युग में मनोविज्ञान ज्ञान प्राप्ति के साधनों पर आधुनिक वैज्ञानिक ढंग से प्रकाश डालता जा रहा है। इन सब आधारों पर ज्ञान प्राप्त करने के आधुनिक साधन निम्नलिखित हैं—
(1) ज्ञानेन्द्रिय जन्य अनुभव–ज्ञान प्राप्त करने में ज्ञानेन्द्रियों को साधन मानने का सिद्धान्त लॉक ने प्रस्तुत किया था। लेकिन भारतीय दार्शनिक चार्वाक ने बहुत पहले ही स्पष्ट कर दिया था कि जिस यथार्थ को मनुष्य स्वयं अपनी ज्ञानेन्द्रियों से अनुभव करता है, वही सत्य है, तर्क और अनुमान पर निर्भर नहीं रहा जा सकता क्योंकि वे स्वयंसिद्ध अथवा दूसरों के बताए अनुभवों पर आधारित है। दूसरों द्वारा प्राप्त अनुभव पूर्ववत् हो यह सम्भव नहीं। दूसरा विचार जो ज्ञानेन्द्रिय जन्यज्ञान से सम्बन्ध रखता है, वह यह है कि मानव जन्म लेते समय अज्ञानी होता है, उसका मन कोरे कागज के समान है जिस पर कुछ भी नहीं लिखा होता । लेकिन बालक ज्यों ही जन्म लेता है, बाह्य संसार ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से जुड़ जाता है। माँ के दूध का स्वाद जीभ से, प्रकाश का आँखों से, तापशीत का स्पर्श से और गंध का नाक से अनुभव करने लगता है। इन प्रभावों को ज्ञानेन्द्रियों की सहायता से मानव मस्तिष्क तक पहुँचने में सहायता मिलती है और कोरे मन पर प्रभाव अंकित होते हैं। यही ‘ज्ञान’ का आरम्भ है। शरीर मनोविज्ञान द्वारा भी यह स्पष्ट हो चुका है कि ज्ञानेन्द्रियाँ बाह्य प्रभावों को ग्रहण करती हैं, ये प्रभाव स्नायु तंत्र में विद्युत प्रवाह के रूप में बदल जाते हैं और मस्तिष्क के विभिन्न भागों में पहुँचकर ‘अनुभव’ के रूप में मनुष्य जानने लगता है।
ज्ञानेन्द्रिय जन्य अनुभव का शिक्षा पर प्रभाव—
(i) शिक्षा में स्वानुभव—एन. सी. एफ 2005 व पूर्व के आयोगों के द्वारा आधुनिकता के कारण की गई अनुशंसा के कारण आज विद्यालयों में इस बात पर विशेष बल दिया जा रहा है कि बालक स्वयं अपने अनुभव द्वारा सीखे। विज्ञान संकाय के रसायन विज्ञान व भौतिक विज्ञान के विद्यार्थी पूर्व ज्ञान तथ्यों को (कक्षा-कक्ष शिक्षण से प्राप्त ज्ञान) प्रयोगशालाओं में स्वयं प्रयोग करके उसकी सत्यता की जाँच प्रत्यक्ष अनुभवों द्वारा करते हैं। छोटे बालकों को प्रकृति, कारखानों, भौतिक व सामाजिक प्रक्रियाओं, भूगोल के विषय, राजनीति विज्ञान व प्रजातांत्रिक पद्धतियों का अनुभव विद्यालय के भीतर के साथ-साथ भ्रमण, अवलोकन के माध्यम से प्रत्यक्ष कार्य प्रणाली का दिग्दर्शन की सहायता से स्वानुभव कराया जाता है। अनुभवों में जितनी अधिक ताजगी होगी उतना ही शिक्षा को मजबूती प्राप्त होगी।
(ii) ज्ञानेन्द्रियों का प्रशिक्षण—ज्ञान का आरम्भ ज्ञानेन्द्रियों के अनुभव से होता है । इसलिए यह आवश्यक है कि “ज्ञानेन्द्रियों को प्रशिक्षण दिया जाए इसलिए शैशवावस्था व बाल्यावस्था में शिक्षा का आयोजन इस प्रकार किया जाना चाहिए कि बालकों को अपनी ज्ञानेन्द्रियों के समुचित प्रयोग के अवसर मिले। इस आधुनिक विचारधारा के कारण ही मांटेसरी और किंडरगार्टन शिक्षण पद्धति का विकास हुआ। इस पद्धति पर आधारित विद्यालयों में पाठ्यक्रम बौद्धिक न होकर आँख, कान और त्वचा जैसी ज्ञानेन्द्रियों से अधिकाधिक उपयोग को आधार बनाकर तैयार किया गया। यह सब इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है कि ज्ञानेन्द्रियों के सही उपयोग को जानने वाला बालक आगे चलकर सूक्ष्म पर्यवेक्षण (ऑब्जरवेशन) में कुशल बन सकेगा और वैज्ञानिक विषयों का अध्ययन करके अनुसंधान करेगा।
(iii) शिक्षा में क्रियाशीलता—शिक्षा में ज्ञानेन्द्रियाँ ही नहीं कर्मेन्द्रियाँ भी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं, हाथ और पैर भी ज्ञानार्जन में सहायक हैं। इसलिए ‘कर्म’ द्वारा ज्ञान प्राप्ति का मार्ग उत्तम बताया गया है। जो ‘काम’ करके सीखा जा सकता है वह व्याख्या, कथन या प्रवचन द्वारा नहीं। इसीलिए आज के आधुनिक युग में शिक्षा में ‘क्रियाशीलता’ अथवा ‘करो और सीखो’ का सिद्धान्त स्वीकृत हुआ है। किए बिना न तो अनुभव पक्का होता है और न काम में कुशलता आती है। गणित, विज्ञान तथा कला विषयों की शिक्षा में क्रियाशीलता का तत्त्व रहता है। इससे योजना विधि व बुनियादी शिक्षा विधाओं का जन्म हुआ है इससे शिक्षा प्रभावी होगी।
(iv) वर्तमान और शिक्षा—शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य बालकों को भविष्य के लिए तैयार करना माना गया है। इसे प्रत्यक्ष अनुभव की दृष्टि से युक्तियुक्त नहीं माना जा सकता क्योंकि भूतकाल में मानव जाति ने जो अनुभव प्राप्त किए हैं वो उसी प्रकार वर्तमान में अनुभव नहीं किए जा सकते ।
तथ्यों के ‘वर्तमान’ की उपेक्षा शिक्षा में कितनी अनुचित है इसे वर्तमान के समर्थकों ने सिद्ध किया है। आधुनिक विचारों के कारण बालकों विद्यालयी जीवन को सुखद और वर्तमान आवश्यकता के अनुरूप बनाने पर प्रतिवादी शिक्षक बल देते आ रहे हैं । इसलिए इंग्लैण्ड में कठोर और नियंत्रण प्रभाव ‘पब्लिक स्कूलों’ का जबरदस्त विरोध उठ खड़ा हुआ है। आधुनिक स्कूलों में नए विषयों का समावेश इसी विचार का प्रतिफल है। वर्तमान की महत्त्वता को स्पष्ट करते हुए लोंगफेलो कवि ने अपनी एक कविता में कहा है कि “भविष्य पर चाहे वह कितना ही सुखद हो विश्वास न करो, वह मुर्दों के साथ जमीन में दफन कर दो, साहस और भगवान पर विश्वास करते हुए वर्तमान में ही कार्य करो क्योंकि वर्तमान एक जीवित तत्त्व है । “
(v) समस्या समाधान—प्रत्येक व्यक्ति का जीवन संघर्षों से भरा हुआ है । संघर्ष समस्याओं के कारण करना पड़ता है। संघर्ष के दौरान हम यथार्थ ज्ञान प्राप्त करते हैं क्योंकि उन स्थितियों को देखने, सुनने का अवसर मिलता है। इसके विपरीत वर्तमान में विद्यालयों में कागजी कार्यवाही प्रधान है, पुस्तकें प्रधान हैं और बौद्धिक खिलवाड़ प्रधान है। इसीलिए वर्तमान शिक्षा व्यवस्था बालकों को जीवन में सफलता प्राप्त करने की तैयारी के स्थान पर विफलता की ओर ले जाने वाली हो गई है। भारतीय शिक्षा व्यवस्था छात्रों को जीवन की समस्याओं का सामना करने में समर्थ बनाने की अपेक्षा छात्रों के समक्ष अनेक समस्याएँ खड़ी कर देती हैं। समस्या समाधान द्वारा ठोस प्रभाव प्रत्यक्ष अनुभवों पर दिया जाता है। इसलिए विद्यालायें में आधुनिकता के उपर्युक्त विचारों के कारण इस पक्ष को अधिक महत्त्व दिया जा रहा है।
(2) ज्ञान प्राप्ति के आधुनिक साधन तर्क और चिन्तन—दार्शनिकों और शिक्षा शास्त्रियों ने पश्चिम तथा भारत में चिन्तन और तर्क के सम्बन्ध में जो भी सोचा वह बहुत समय तक स्वीकार किया गया। इसी संदर्भ में अरस्तू ने जो कुछ कहा वह ‘फेकल्टी मनोविज्ञान’ के नाम से जाना जाता है। उनका मानना था कि मन के बहुत से विभाग हैं जिनमें चिन्तन और तर्क शामिल है। यदि इनके विकास के लिए गणित पढ़ाया जाए तो यह शक्तियाँ मजबूत होंगी। बेकन का भी यह मत था लेकिन बाद में तर्क के दो प्रकार निश्चित किए गए जो इस प्रकार हैं – एक आगमन व दूसरा निगमन । आधुनिक विद्यालयों में इनका महत्त्व दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है।
आगमन—आगमन में कई उदाहरणों से एक सामान्य नियम निकलता है जैसे बार-बार जाँचने पर यह अनुभव हो कि कच्चा आम खट्टा है। शिक्षा में आगमन तर्क का महत्त्व इतना बढ़ा है कि समस्त विज्ञानों को पढ़ाने में इसका उपयोग किया जाता है।
निगमन—इसमें नियम या सिद्धान्त पहले लगाया जाता है और इस नियम के प्रयोग या विभिन्न स्थितियों में अनुभव कराए जाते हैं। दर्शन, साहित्य, व्याकरण और इतिहास जैसे विषयों को शिक्षा में यह सिद्धान्त प्रयोग में लाया जाता है। कभी-कभी दोनों का संयुक्त रूप से प्रयोग किया जाता है, जैसे ड्यूवी ने समस्या समाधान विधि में किया है।
भारतीय दर्शन जिनमें षड् दर्शन तथा जैन व बौद्ध दर्शन का माध्यम चिन्तन और तर्क को ही माना गया है। बुद्धि, चिन्तन और तर्क का महत्त्व भारत में इतना अधिक था कि गुरुकुल शिक्षा प्रणाली में तप और साधना के द्वारा इनके विकास के लिए छात्रों को विशेष रूप से तैयार किया जाता था । इन्हें जिनका ज्ञान कराया जाता था उनका शास्त्रार्थ कराया जाता, तर्कों और उदाहरणों की सहायता से सिद्धान्तों का खण्डन और मण्डन होता था ।
आधुनिक युग में मनोविज्ञान, शोध व प्रयोग के द्वारा चिन्तन और तर्क का ज्ञान प्रक्रिया पर नवीन व महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। मनोविज्ञान ‘अनुभव’ को नहीं नकारता । ज्ञानेन्द्रियों से प्राप्त अनुभव द्वारा संवेदना, प्रत्यक्षीकरण, प्रत्यय, विचारों की उत्पत्ति होती है। विचारों से चिन्तन और चिन्तन से तर्क और तर्क से ज्ञान प्राप्त करता है। ज्ञान प्राप्ति के लिए एकाग्रता और दृढ़ संकल्पना का होना आवश्यक है।
(i) शिक्षण विधियाँ—आधुनिकीकरण के कारण वर्तमान विद्यालयों में शिक्षण के लिए विभिन्न वैज्ञानिक, यथा— अवलोकन, परीक्षण, प्रयोग, समस्या समाधान, कथन, व्याख्या, भाषण, अनुकरण आदि विधियों के साथ-साथ मनोविज्ञान द्वारा प्रदत्त भूल और प्रयत्न अनुबंध, अंतर्दृष्टि आदि ज्ञान प्राप्ति के साधन हेतु प्रयुक्त किए जा रहे हैं।
(ii) अध्यापक—शैशवावस्था में बालक को ज्ञान प्रदान करने का कार्य माँ के द्वारा किया जाता है। इसलिए माँ को प्रथम अध्यापिका कहा गया है। दूसरा स्थान शिक्षक का है। पूर्व काल में गुरुकुलों और मठों में शिक्षक मौखिक रूप से ज्ञान छात्रों को प्रदान करते थे । शास्त्रार्थ द्वारा ज्ञान देने की प्रथा थी। बालक स्वाध्याय द्वारा भी ज्ञान प्राप्त करता था लेकिन शिक्षक के निर्देशन से ज्ञान अधिक प्रभावी व स्थायी होता था। वर्तमान में भी शिक्षक ज्ञान प्रदान करने का एक प्रमुख माध्यम है यद्यपि वर्तमान में दूरस्थ शिक्षा व पत्राचार शिक्षा द्वारा भी ज्ञान दिया जा रहा है लेकिन इसमें भी सम्पर्क शिविरों के माध्यम से शिक्षक द्वारा ज्ञान प्रदान कराया जाता है। इसके अतिरिक्त विभिन्न आधुनिक यंत्रों इंटरनेट, मोबाइल आदि का प्रचलन भी विद्यालयों में काफी बढ़ता जा रहा है जिससे शिक्षक की भूमिका में परिवर्तन होता जा रहा है।
(iii) समालोचना—जर्मन दार्शनिक कांट के मतानुसार न तो ज्ञानेन्द्रियाँ और न बुद्धि ही शुद्ध रूप से ज्ञान प्रदान करने के साधन हैं अपितु ज्ञान समीक्षा या समालोचना द्वारा प्राप्त होता है जैसे नाव को नदी में चलते देख व उसके विभिन्न उपयोगों का प्रत्यय पुनर्गठित होगा । समालोचना में शिक्षक प्रत्येक शिक्षण विधि का मूल्यांकन करके समयानुकूल अथवा स्थिति के आधार पर कोई भी विधि अपनाकर अपने शिक्षण को प्रभावशाली बना सकता है। धर्म, इतिहास और साहित्य का ज्ञान बिना समालोचना का सहारा लिए छात्रों के लिए लाभदायक नहीं हो सकता।
उपर्युक्त साधनों के अतिरिक्त वर्तमान समय में यांत्रिक साधन भी ज्ञान प्रदान करने के प्रमुख साधन बनते जा रहे हैं। वर्तमान में चित्रपट और दूरदर्शन ने ज्ञान प्राप्त करने की प्रक्रिया को सुगम व सरल बना दिया है। भौतिक जगत की सम्पूर्ण जानकारी इनके माध्यम से दी जा सकती है। इनकी सहायता से स्थिर और गतिमान वस्तुओं को दिखाया जा सकता है। विभिन्न प्रकार की प्रक्रियाओं को अच्छी तरह से समझाया जा सकता है। इनके द्वारा प्राप्त जानकारी पर विद्यालयों में गोष्ठियाँ, व्याख्यान, वादविवाद आयोजित करके चिन्तन और तर्कशक्तियों का निरन्तर विकास किया जा सकता है।
वर्तमान में ज्ञान प्राप्ति के साधनों में बदलाव आया है जिनमें पाठ्यपुस्तकों के साथ-साथ शैक्षिक तकनीकी जिसके अन्तर्गत वीडियो फिल्म, प्रोजेक्टर, इन्टरनेट, वेबसाइट, कम्प्यूटर, शैक्षिक, सी.डी., ईक्लॉसरूम, ई-लाइब्रेरी, ई – लेब, ई-लर्निंग, दूरदर्शन, चलचित्र, धारावाहिक कार्टून आदि विद्यालयों में ज्ञान प्राप्ति के साधन हैं।
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