‘दीन’ कविता का भव सौंदर्य एवं शिल्प सौंदर्य
‘दीन’ कविता का भव सौंदर्य एवं शिल्प सौंदर्य
‘दीन’ कविता का भव सौंदर्य एवं शिल्प सौंदर्य
परदुखकातरता निराला की कविता का मुख्य स्वर है। उनकी अनेक रचनाओं में संसार के दुखों को अपने भीतर समेट लेने की आतुरता दिखायी देती है। निराला की दृष्टि में कविता का महत्व सामाजिकता का निर्वाह करने में है। मानव कल्याण और मानवतावादी दृष्टि उनकी कविता ‘दीन’ में स्पष्ट रूप से दिखायी देता है।
निराला का सुप्रसिद्ध काव्य-संग्रह ‘परिमल’ सन् 1930 में प्रकाशित हुआ। ‘दीन’ शीर्षक कविता इसी संग्रह की उपज है। सामाजिक अधोगति के प्रति उत्पन्न निराला के कवि-मन का विद्रोह निराशा और अवसाद के स्वर में परिणत होता है और यही स्वर ‘परिमल’ की ‘दीन’ शीर्षक कविता में सुनायी देता है। कवि का यही निराश भाव विधवा, भिक्षुक आदि रचनाओं में भी अभिव्यक्त हुआ है।
दीन मानव-समाज का सर्वाधिक उत्पीड़ित और उपेक्षित प्राणी है जिसके साथ निर्दयता और निरंकुशता, उत्पीड़न का खेल सदा ही चलता रहता है जिसे सहते-सहते उसका हृदय टूटकर दुर्बल हो गया है। अपने हृदय में संजोयी उसकी अंतिम आशा कानों से सुने जाने पर हम सबके मन-प्राण को स्परित करती है। इस प्रकार अपने हृदय की तप्त व्यथाएं और कारूणिक कथाएं वह अपने क्षीण हो चुके कंठ से कह जाता है।
यह कविता जब लिखी जा रही थी तो हमारा देश परतंत्रता की बेड़ियों में जकड़ा था। उत्पीड़न का साम्राज्य चारों तरफ व्याप्त था। कवि कहता है कि उत्पीड़न के राज्य में हमेशा दुख ही देख उठाना पड़ता है। इस निर्दय राज्य में क्रूर शूर कहलाता है और हृदय का शूर कहलाने वाला सदा ही दुर्बल क्रूर होता है। ऐसे समाज में स्वार्थ हमेश परमार्थ से दूर होता है। ऐसे उत्पीड़न वाले समाज में परोपकारी वही कहलाता है जिसमें स्वार्थ कूट-कूट कर भरा होता है। आश्चर्य का विषय यह है कि ऐसे समाज में सोये रहना जागरण कहलाता है। ऐसे जागरण से समाज का उत्थान नहीं पतन ही हो सकता है। ऐसा जागरण मानव सभ्यता और संस्कृति को अंत की ओर ले जाता है।
कवि कहते हैं कि ऐसे समाज में उत्पात का उठना सहज है। लगातार घात-प्रतिघात, उठा-पटक लोगों को कमजोर बना देता है। इस तरह की घटना और प्रक्रिया अगर दिन-रात चलती रहे तो जीवन का सारा स्पंदन समाप्त हो जाता है। ऐसे माहौल में जनता के मुंह पर मुस्कान नहीं आ पाती। वह हँसने का प्रयास करता है तो, हँसते-हँसते रोने लगता है। यहाँ दिन के उजाले को उत्थान और रात्रि की निंद्रा को पतन कहा जाता है। जहाँ का दिन कुटिल कर्मों में व्यतीत होता है और अंधकार भ्रमित करनेवाला। रात्रि की मोहग्रस्तता में सपने भी जहाँ भ्रांति में रखते हों। वहाँ सदा अशांति ही तो होगी।
निराला को अपने जीवन में स्वयं कई तरह की कठिनाईयों का सामना करना पड़ा था। अपने इस कठिन जीवन में उन्हें दुख ही दुख झेलने पड़े थे। उन्होंने लिखा भी है, दुख ही जीवन की कथा रही, क्या कहूँ आज जो नहीं कही।
‘दीन’ उत्कृष्ट खड़ी बोली में रचित एक छोटी सी कविता है। मुक्तक की श्रेणी में आनेवाली इस कविता में कवि ने संस्कृतनिष्ठ तत्समबहुल शब्दों का प्रयोग किया है। यह शब्दावली कविता के भाव से मेल नहीं खा पाता है। ‘दीन’ विषयक कविता की भाषा सहज-सरल भाषा में लिखी जाती तो और अच्छा होता।
‘दिवस का किरणोज्जवल उत्था रात्रि की सुप्ति, पतन, दिवस की कर्म-कुटिल तम-भ्रांति’ इस तरह की शब्दावली किसी दीन की समझ से परे की बात है। इसलिए यहाँ विषयानुकूल भाषा का अभाव दिखता है।
प्रस्तुत कविता मुक्त छंद में लिखी गयी है। निराला कविता को छंद के अनावश्यक बंधन से मुक्त करना चाहते थे। ‘परिमल’ की भूमिका में उन्होंने स्पष्ट लिखा है, “मनुष्यों की मुक्ति की तरह कविता की मुक्ति होती है। मनुष्यों की मुक्ति कर्मों के बंधन से छुटकारा पाना है और कविता की मुक्ति छंदों के शास्त्र से अलग हो जाना।”