पशुपालन (Animal Husbandry)

पशुपालन (Animal Husbandry)

पशुपालन (Animal Husbandry)

मनुष्य के विकास, वृद्धि एवं स्वास्थ्य के लिए आवश्यक, विभिन्न पोषक पदार्थ भोजन के रूप में कृषि एवं पशुओं से प्राप्त होते हैं। पशुधन के उचित एवं उपयोगी प्रबन्धन को पशुपालन कहते हैं।
पशुपालन के अन्तर्गत पशुओं को वृद्धि के लिए उचित भोजन देना, साफ-सफाई रखना, प्रजनन व रोगों से नियन्त्रण, आदि कार्य किए जाते हैं।
संकरण (Breeding)
संकरण दो प्रजाति के क्रॉस को कहते हैं (अर्थात् समान लक्षण वाले पशुओं के वर्गों में)। पशुपालन हजारों सालों से किया जा रहा है। रॉर्बट बेकवैल ने सर्वप्रथम वांछित लक्षणों वाले पशु का संकरण किया।
संकरण तकनीकी (Breeding Techniques)
संकरण के लिए मुख्यतया दो तकनीक उपयोग की जाती हैं
(i) कृत्रिम वीर्यकरण ( Artificial insemination)
(ii) भ्रूण स्थानान्तरण (Embryo transfer)
ये दोनों तकनीक आजकल अधिक प्रयोग की जाती हैं क्योंकि ये तकनीक वंशानुगति व मादा प्रजाति की उत्तरजीविता को नियन्त्रित करती हैं।
कृत्रिम वीर्यकरण (Artificial Insemination)
यह संकरण की सामान्य विधि है। इस तकनीक में नर जीव से वीर्य (semen) लेकर उसको मादा में कृत्रिम रूप से निवेशित कर अण्डाणु का निषेचन कराया जाता है।
यह तकनीक मुख्यतया डेयरी गाय, भैंस व सुअर के संकरण के लिए उपयोग की जाती है। इस तकनीक द्वारा हम अपनी इच्छानुसार वांछित लक्षणों वाले दो जीवों को संकरण कर उत्तम नस्ल वाले जीव की उत्पत्ति कर सकते हैं। यह विधि भेड़, घोड़ा, कुत्ता, मधुमक्खी, आदि जीवों के लिए भी कारगर (अच्छी) है।
उत्तम किस्म के वीर्य को भविष्य में अप्राकृतिक वीर्यकरण तकनीक के उपयोग के लिए संचित कर लिया जाता है। इसके लिए वीर्य को ठण्डे वातावरण में संचित किया जाता है।
भ्रूण स्थानान्तरण (Embryo Transfer)
जीवों के संकरण की यह दूसरी तकनीक है। इस तकनीक में वांछित लक्षणों वाले जीवों से अण्डाणु व शुक्राणु लेकर उसका संकरण प्रयोगशाला में कराया जाता है। भ्रूण बनने के पश्चात् उसे वाहक माता (surrogate mother) के अन्दर निवेशित (inseminate) कर दिया जाता है। इसके लिए भ्रूण का वाहक माता के गर्भाशय से जुड़ना अनिवार्य है। इस तकनीक द्वारा उच्च मीट, दूध व रेशा देने वाली प्रजातियों को बनाया जाता है परन्तु इसके द्वारा जीवीय जैव-विविधता में कमी तथा रोगों की गम्भीरता में वृद्धि होती है।
जानवरों का पालन (Rearing Animals) 
पशुपालन या जानवरों का पालन आधुनिक कृषि का एक अंग है।
विभिन्न उद्देश्यों के लिए पाले जाने वाले विभिन्न जानवर निम्नलिखित हैं
मवेशी पालन (Cattle Farming)
मवेशी पालन में मवेशियों को दूध उत्पादन, कृषि कार्य जैसे हल चलाना, सिंचाई करना तथा बोझा ढोने का कार्य करने के लिए पाला जाता है।
मवेशी पालन के मुख्य मानक (Criteria for Good Cattle Farming)
मवेशी पालन के कुछ मुख्य मानक निम्नलिखित हैं
(i) स्वास्थकर परिस्थितियाँ (Hygienic Conditions) मवेशी के शरीर की उचित सफाई, शरीर पर झड़े हुए बालों को हटाना, धूल को हटाना तथा नियमित रूप से मवेशियों की सफाई होनी चाहिए।
(ii) प्रबन्धन तथा आवास सुविधा (Management and Shelter Facility) मवेशियों का आवास छतदार तथा रोशनदान युक्त होना चाहिए, जिससे वे वर्षा, गर्मी तथा सर्दी से बच सके। आवास का फर्श सूखा व साफ होना चाहिए।
(iii) पोषण (Nutrition) मवेशियों को उचित पोषण पदार्थ जैसे रेशे युक्त मोटा चारा तथा प्रोटीन युक्त सान्द्र देना चाहिए। साथ ही कुछ सूक्ष्म पोषक तत्व भी मिलाए जाते हैं, जो दुधारू पशुओं के दूध उत्पादन को बढ़ाते हैं।
(iv) रोग नियन्त्रण (Disease Control) पशुओं के बाह्य परजीवी तथा अन्तः परजीवी रोग जैसे कीड़े आमाशय तथा आँत को तथा फ्लूक यकृत को प्रभावित करते हैं। इनसे बचाव हेतु पशुओं को टीका लगाया जाता है।
गाय (Cow)
गाय (Bos indicus or Bos taurus) जन्तु जगत (संघ-कॉर्डेटा, वर्ग- मैमेलिया, कुल- बोविडी) का प्राणी है। भारत में लगभग गाय की 30 प्रजातियाँ हैं। भारत में लगभग दुनिया की 20% गाय व भैसें पाई जाती हैं। दुग्ध उत्पादन बढ़ाने हेतु उसका पशुपालन किया जाता है परन्तु कृषि कार्य जैसे सिंचाई, हल चलाना, बोझा ढोना, आदि के लिए इनकी देख-रेख की जाती है। गाय की तीन प्रजातियाँ (दुधारु, कृषि उपयोगी व मिश्रित) दूध उत्पादन व अन्य कार्यों हेतु प्रयोग की जाती हैं।
दूध देने वाली मादाओं को दुधारु पशु कहते हैं। दूध का उत्पादन बढ़ाने के लिए दूध ग्रावण काल (lactation period) को बढ़ाना पड़ता है। दूध स्रावण काल बढ़ने पर दूध उत्पादन भी बढ़ जाता है।
द्विउपयोगी प्रजातियाँ (Dual Purpose Breeds)
इसमें गाय दूध अधिक देती है तथा बैल कृषि कार्य के लिए उपयोगी होते हैं। इस वर्ग में
◆ छोटे सींग वाले ये सफेद या हल्के भूरे मवेशी हैं जिनका चेहरा उत्तल होता है। उदाहरण मैरीयाना, ओंगोल, राथ, डाँगी, कृष्णा घाटी, हिमगिरी, आदि।
◆ लायर सींग वाले ये भूरे, चौड़ा माथा, अल्प विकसित उपाँग, चपटे अंगों वाले, उच्च कृषि उपयोगी मवेशी हैं। उदाहरण थारपरकर एवं केकरेज।
विदेशी नस्ल (Exotic Breeds)
ये नस्लें किसी जगह पर बाहर से लायी जाती हैं। कुछ दूध उत्पादक मवेशी प्रजातियाँ निम्नलिखित हैं
(i) जर्सी (Jersey) की दूध उत्पादन क्षमता 4500 ली / वर्ष होती है, जिसमें 5% वसा पाई जाती है।
(ii) जर्नेसी (Gernasy) 45-50 ली दूध प्रति दिन देती है, जिसमें 4% वसा पाई जाती है।
(iii) ब्राउन स्विच (Brown Swiss) की दूध उत्पादन क्षमता 5200 ली/ वर्ष होती है, जिसमें 4% वसा पाई जाती है।
भैंस (Buffaloes)
भैंस का वैज्ञानिक नाम बुबेलस बुबेलिस (Bubalus bubalis) है। इसका उद्गम स्थान भारत माना जाता है। भैंस की दो प्रकार की प्रजातियाँ निम्नलिखित हैं
विदेशी या मार्शी नस्ल (Exotic or Marshy Breeds) 
यह सामान्यतया म्यामार, फिलीपीन्स, मलेशिया, थाइलैण्ड, सिंगापुर, इण्डोनेशिया तथा चीन में पाई जाती हैं।
ये मुख्यतया भैंस गाड़ी के लिए प्रयोग की जाती है। उदाहरण जारंगी, कुहजैसतापी, ओंगोल, सिनहाला, मनोतीसुइनुई, वालेद, आदि।
भारतीय या जलीय नस्ल (Indian or Aquatic Breeds) 
ये भारी व हल्के वजन वाली पानी में रहना पसन्द करती हैं। इनमें ताप सहने की क्षमता कम होती है। इन्हें पुनः दो वर्गों में विभाजित किया गया है
मुर्गीपालन (Poultry Farming)
अण्डे व कुक्कुट माँस के उत्पादन को बढ़ाने हेतु मुर्गियों के पालन को मुर्गी पालन (poultry farming) कहते हैं। पशुपालन के अन्तर्गत मुर्गी व चिकन जैसे पक्षी भी आते हैं, जिनका उपयोग अण्डे उत्पादन व माँस के लिए किया जाता है। अण्डे देने वाली मुर्गियों को लेयर तथा चिकन की प्रजाति, जो माँस देती हैं, उन्हे ब्रोलर कहते हैं।
मुर्गीपालन के लिए मुख्य मानक (Criteria for Poultry Farming) 
अच्छे मुर्गीपालन हेतु कुछ मुख्य मानक निम्नलिखित हैं
(i) अच्छी वृद्धि दर (Good Growth Rate) ब्रोलर चूजों की उचित वृद्धिं हेतु उन्हें अधिक विटामिन वाला भोजन देते हैं।
(i) मृत्युदर (Mortility Rate) ब्रोलर चूजों की मृत्युदर कम करने के लिए उचित देखभाल करनी चाहिए।
(iii) प्रबन्धन (Management) अच्छी व उचित प्रबन्धन सुविधाएँ जैसे उचित ताप, साफ-सफाई, रोगाणुओं से सुरक्षा, उचित जल निकासी मुर्गी पालन घर में देनी चाहिए।
(iv) पोषण (Nutrition) ब्रोलर मुर्गियों का उचित उत्पादन हेतु दैनिक पोषण पदार्थों में प्रोटीन, विटामिन-A, K तथा वसा देनी चाहिए।
(v) प्रतिरक्षण (Immunisation) रोगों से रक्षा हेतु कुक्कुटों (poultry fowls) को टीकाकरण (vaccination) देना चाहिए।
पक्षी (Birds)
कुछ पक्षी पशुपालन में उपयोग किए जाते हैं जैसे मुर्गी तथा चूज़े |
मुर्गी (Fowls)
पक्षी पशुपालन में प्रयोग आने वाले पक्षी मुर्गी व चूजे हैं। मुर्गियों की कुछ देसी प्रजाति पाई जाती हैं तथा कुछ प्रजाति संकरण के द्वारा बनाई जाती हैं, जिनमें वांछित लक्षण पाए जाते हैं उदाहरण
◆ चूजों की संख्या तथा गुणवत्ता ।
◆ छोटे कद के ब्रोलर माता-पिता द्वारा चूजों के व्यावसायिक उत्पादन हेतु।
◆ गर्मी अनुकूलन क्षमता / उच्च तापमान को सहने की क्षमता।
◆ देखभाल में कम खर्च की आवश्यकता।
◆ अण्डे देने वाले तथा कृषि के उपोत्पाद (रशेदार आहार) का उपभोग कर सके।
चूजे (Chicken)
कुछ चूजों की नस्लें निम्नलिखित हैं
(i) बसरा (Basra) यह महाराष्ट्र तथा गुजरात में पाई जाती हैं। इसका मुख्य उपयोग माँस उत्पादन में किया जाता है।
(ii) एसिल (Asil) यह दक्षिणी पंजाब / सिन्ध में पैदा हुई नस्ल है।
(iii) घागस (Ghagas) यह प्रजाति आन्ध्र प्रदेश तथा मैसूर में पाई जाती है, जिसका मुख्य उपयोग माँस उत्पादन के लिए किया जाता है।
(iv) चटगाँव (Chittagong) यह बंगलादेश में पाई जाने वाली प्रजाति है, जो अण्डे तथा माँस के उत्पादन के लिए प्रयोग की जाती है।
(v) लैंगशाह या विदेशी नस्ल (Langshah or Exotic breeds) यह प्रजाति चीन में पाई जाती है, जो विलुप्तता (extinction) की कगार पर खड़ी है। इसका प्रयोग अण्डों के लिए किया जाता है।
भेड़ व बकरी (Sheep and Goats)
भेड़ों का पालन व संकरण विभिन्न उपयोगों के लिए किया जाता है जैसे ऊन, खाल, आदि तथा बकरी से दूध, माँस, खाल तथा बाल प्राप्त होते हैं।
कश्मीर तथा तिब्बत में पाई जाने वाली बकरी से उन्नत किस्म की मुलायम ऊन प्राप्त होती है, जिसे पश्मीना कहते हैं। भेड़ का जीवनकाल छोटा लगभग 13 वर्ष तक का होता है।
कुछ भारतीय भेड़ों की नस्लें (Some Breeds of Indian Sheep)
नस्ल स्थान उपयोग
लोही पंजाब एवं राजस्थान उन्नत किस्म की ऊन व दूध
रामपुर बुशीर उत्तर प्रदेश एवं हिमाचल प्रदेश भूरे रंग की भेड़ का रोवाँ (fleece)
नाली हरियाणा, पंजाब एवं राजस्थान उन्नत किस्म की दरी के लिए ऊन
भकरवाल जम्मू व कश्मीर शॉल बनाने हेतु ऊन
डिक्कैनी कर्नाटक ऊन प्राप्त नहीं होती है।
नीलौरी महाराष्ट्र ऊन प्राप्त नहीं होती है।
मारवाड़ी गुजरात मोटी ऊन
पटनवाड़ी गुजरात आर्मी के घोड़ों के लिए ऊन
कुछ भारतीय बकरियों की नस्लें (Some Breeds of Indian Goats)
नाम स्थान
गद्दी एवं चम्बा हिमाचल प्रदेश, कश्मीर एवं तिब्बत
कश्मीरी एवं परमीना हिमाचल प्रदेश, कश्मीर एवं तिब्बत
जमुनापरी उत्तर प्रदेश एवं हिमाचल प्रदेश
बीटल पंजाब
मालाबारी केरल
काली बंगाल बिहार एवं ओडिशा
◆ ये मवेशी, भैंस, गाय व गधे से ज्यादा ताप सहन कर सकती हैं।
भेड़ व बकरी की विदेशी नस्लें (Exotic Breeds of Sheep and Goats)
भेड़ की कुछ विदेशी प्रजातियाँ निम्न प्रकार हैं जैसे मैरीनो, दक्षिणी ड्यून, लित्योलैन, कौरीडेल, रोमनीय, मार्शी, आदि।
बकरी की विदेशी प्रजातियाँ निम्न हैं जैसे सान्यू, अँगोरा, मटाऊ, कंबिंग कटजंग, खुरसानी, मारवाड़ी, मुबैन्दे, तोगनवर्दा, बालूची, नूफियन, बौदुर, सूदान, नूबियन, आदि। एक मुख्य प्रजाति स्विट्जरलैण्ड थानर है, जिसे ‘दूध की रानी’ कहा जाता है क्योंकि यह 250 दिनों में 800 ली दूध देती है।
सुअर (Pig or Hog or Swine)
सुअर सर्वाहारी तथा समूहचर जन्तु है, जो सुस (Sus) जाति का स्तनधारी है। यूरोपियन प्रजाति सुसस्कोफा (Sus scrofa) सुअर की सर्वाधिक पाई जाने वाली प्रजाति है। यूरोपियन सुस स्कोपा तथा एशियाटिक सुस इण्डिकस के संकरण से बनी प्रजातियाँ भी अत्यधिक पाई जाती हैं।
सुअरों की देखभाल व प्रबन्धन सुअरबाड़ा (piggery) में किया जाता है। सुअरों की देखभाल उनके माँस व खाल के लिए की जाती है। हमारे देश के उत्तरी पूर्वी भागों में सुअरबाड़े का विकास अत्यधिक हुआ है। सूअर को सबसे अधिक भोजन उपयोगी पशु माना जाता है तथा यह समाज के कमजोर वर्गों की सामाजिक आर्थिक स्तर को बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। कृषि विज्ञान केन्द्र तथा कृषि विश्वविद्यालयों के लगभग 200 केन्द्रों पर सुअर की कुछ विदेशी प्रजातियों की देख-भाल की जाती है जैसे र्योकशायर, हैम्पशायर, बर्कशायर, सैडल बैक, आदि । घरेलू सुअर की नस्ल घोरी तथा देशी है।
ऊँट ( Camels)
ऊँट को ‘रेगिस्तान का जहाज’ कहा जाता है। यह गर्म रेगिस्तान में बोझा ढोने का कार्य करता है तथा न्यूनतम पानी व भोजन मिलने पर भी जीवित रह सकता है तथा बोझा ढो सकता है।
ऊँट के प्रकार (Types of Camel)
(i) अरेबियन कैमिल (Camelus dromidarius)
(ii) तुर्की अथवा बैक्टीरियन ऊँट (Camelus bactrianus)
नस्ल सुधार के कुछ मुख्य कार्यक्रम (Some Major Programme Related with Breed Improvement) 
सघन मवेशी विकास कार्यक्रम (Intensive Cattle Development Programme) यह कार्यक्रम गुजरात सरकार द्वारा 1965-66 में चलाया गया था, जिसका मुख्य उद्देश्य आनुवंशिक लक्षणों का बचाव एवं सुधार है।
गौशाला विकास कार्यक्रम (Gaushala Development Programme) इस कार्यक्रम का मुख्य उद्देश्य भारतीय मवेशियों में प्राकृतिक उपायों से तथा कृत्रिम वीर्यकरण की विधि नस्लों में सुधार करना है।
केन्द्रीय ग्रामीण योजना (Central Rural Yojna) इस कार्यक्रम की शुरूआत 1952 में हुई थी, जिसका मुख्य उद्देश्य द्विउपयोगी मवेशियों का विकास करना है।
परीक्षण प्रजनन कार्यक्रम (Trail Reproduction Programme) इस कार्यक्रम का मुख्य उद्देश्य उन्नत किस्म के मवेशियों का विकास करना है।
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