कृषि विज्ञान (Agriculture Science)

कृषि विज्ञान (Agriculture Science)

कृषि विज्ञान (Agriculture Science)

कृषि विज्ञान, विज्ञान की वह शाखा है, जिसमें उचित तकनीकों व शोध जैसे सिंचाई (irrigation), नाइट्रोजन प्राप्ति व बीज की गुणवत्ता में वृद्धि द्वारा फसल की गुणवत्ता एवं फसल उत्पादन में वृद्धि की जाती है (जैसे अजैविक कारकों की प्रतिरोधी फसल, पीड़कनाशों का अविष्कार, उत्पादन में वृद्धि की तकनीकों का विकास, पीड़क जैसे खरपतवार, कीट, रोगाणु, निमेटोड, आदि से बचाव ) कृषि विज्ञान में सिंचाई द्वारा, उवर्रकों के द्वारा तथा विभिन्न रोगाणुरोधी फसलों द्वारा फसल के उत्पादन को सुधारा जाता है। सन् 1968 को हरित क्रान्ति (Green Revolution) वर्ष माना जाता है क्योंकि उस समय में अन्न की पैदावार में अत्यधिक वृद्धि हुई थी। हरित क्रान्ति के लिए विभिन्न कारक जिम्मेदार थे जैसे उच्च गुणवत्ता वाले बीज, अच्छी सिंचाई, उर्वरकों का प्रयोग, कीटनाशक व पीड़कनाशक का प्रयोग तथा अच्छी कृषि तकनीकों का प्रयोग जैसे मिश्रित कृषि व अन्तर कृषि द्वारा ।
फसल (Crop)
फसल कृषि विज्ञान से जुड़ा सबसे अहम शब्द है। फसल, औद्योगिक स्तर पर खाद्य पदार्थों के रूप में काम आने वाले पादपों को कहा जाता है, जो भोजन हेतु व्यवसायिक स्तर पर उगाए जाते हैं जैसे गेहूँ, चावल, मक्का, बाजरा, आदि।
फसलों का वर्गीकरण (Classification of Crops)
फसल के उगने के समय के आधार पर फसलों को निम्न प्रकार में वर्गीकृत किया गया है
1. खरीफ फसल (Kharif Crop)
ये फसलें वर्षा ऋतु में उगाई जाती हैं। इन फसलों को जून में उगाकर अक्टूबर तक काटा जाता है। इन फसलों को उत्पादन के लिए अधिक नमी की आवश्यकता होती है। उदाहरण धान, सोयाबीन, अरहर, मक्का, मूँग, उड़द, बाजरा, लाल मूँग, मूँगफली, कपास, बाजरा, गन्ना, चाय, आदि। इन्हें भारत व पाकिस्तान में ग्रीष्म या मानसून फसल (summer or monsoon crops) भी कहा जाता है। ये पूर्णतया वर्षा के जल पर निर्भर होती हैं।
2. रबी फसल (Rabi Crop)
ये फसलें शीत ऋतु में उगाई जाती हैं। इनकी बुवाई नवम्बर में होती है तथा कटाई अप्रैल में होती है। इन्हें उत्पादन के लिए कम तापमान की आवश्यकता होती है। सिंचाई का मुख्य स्रोत धरातलीय जल है, जो वर्षा के समय एकत्रित होता है। उदाहरण गेहूँ, चना, मटर, सरसों, तिल, अलसी, आदि ।
3. जायद फसल (Zaid Crop )
ये फसलें ग्रीष्म काल में उगाई जाती हैं। इनकी बुवाई मार्च में तथा कटाई जून में होती है। ये अधिक सूर्यताप को सहन कर सकती हैं। उदाहरण खरबूजा, तरबूज, खीरा, आदि ।
फसल उत्पादन में उन्नति (Improvement in Crop Yields) 
फसलों की समुचित वृद्धि के लिए उन्हें उचित जलवायु, तापमान व दीप्तिकाल की आवश्यकता होती है। कृषि में फसल उत्पादन में उन्नति के लिए तीन मुख्य वर्ग बनाए गए हैं
◆ फसल की किस्मों में सुधार
◆ फसल उत्पादन प्रबन्धन
◆ फसल सुरक्षा प्रबन्धन
1. फसल की किस्मों में सुधार (Crop Varieties Improvement)
फसल की किस्मों में सुधार के लिए कुछ कारक हैं, जो निम्नलिखित हैं
(i) रोग प्रतिरोधकता ( Disease Resistance) फसलों को कीट, निमेटोड, आदि रोगाणु से प्रतिरोधक क्षमता प्रदान कर फसल के उत्पादन में वृद्धि करना तथा अजैविक कारकों से सुरक्षा प्रदान कर फसल उत्पादन में वृद्धि करना।
(ii) उन्नत किस्म ( Product Quality ) फसल की पोषक गुणवत्ता को बढाने हेतु जैसे गेहूँ की पकने की क्षमता, दाल में प्रोटीन की गुणवत्ता, तिलहन में तेल व फल तथा सब्जियों का संरक्षण महत्त्वपूर्ण है।
(iii) जैविक एवं अजैविक प्रतिरोधकता (Biotic and Abiotic Resistance) रोगों, कीटों, निमेटोड से प्रतिरोधकता बढ़ाने तथा सूखे, दलदल, जल, ताप, ठण्ड, वर्षा की अधिकता से फसलों की प्रतिरोधकता को बढ़ावा देना ।
(iv) परिपक्वन काल में परिवर्तन (Change in Maturity Duration) फसल को परिपक्व होने में लगा समय कम करकर फसल उत्पादन में वृद्धि की जाती है। कम समय होने के कारण फसल उत्पादन में धन भी कम खर्च होता है तथा इससे कटाई के दौरान फसल हानि में भी कमी आती है।
(v) व्यापक अनुकूलता (Wide Adaptability) विभिन्न पर्यावरणीय परिस्थितियों में फसल उत्पादन को स्थायी करके फसल उत्पादन को बढ़ावा देना।
(vi) ऐच्छिक शस्य विज्ञान गुण (Desirable Agronomic Characteristic) ऐच्छिक गुणों वाली फसलें; जैसे लम्बी व सघन शाखाएँ, अनाज के लिए बौने पौधें, आदि का उत्पादन बढ़ाना। इससे शस्य विज्ञान वाली किस्में अधिक उत्पादित की जा सकती हैं।
फसल की किस्मों में सुधार दो विधियों द्वारा किया जा सकता है
(i) संकरण (Hybridisation) विधि में विभिन्न आनुवंशिक गुणों वाले पौधों में संकरण कराते हैं। यह संकरण अन्तराकिस्मीय (intervarietal) अर्थात् विभिन्न किस्मों में अन्तरजातिय अर्थात् विभिन्न जातियों (interspecific) में तथा अन्तरावंशीय अर्थात् विभिन्न वशों (intergeneric) में हो सकता है।
(ii) आनुवंशिक अभियान्त्रिकी (Genetic Engineering) द्वारा ऐच्छिक गुणों वाले जीन का फसल में डालना, जिससे आनुवंशिकीय रूपान्तरित फसलें प्राप्त होती हैं।
विभिन्न प्रकार की फसलें, उनके वानस्पतिक नाम एवं उत्पत्ति स्थान (Different Types of Crops, their Botanical Name and Origin Place)
अनाज फसलें (Cereals Crops)
सामान्य नाम वानस्पतिक नाम उत्पत्ति स्थान
गेहूँ (Wheat) ट्रिटिकम एस्टिवम दक्षिण पश्चिम एशिया
चावल (Rice) ओराइजा सटाइवा इण्डो बर्मा
मक्का (Maize) जिया मेज मेक्सिको
ज्वार (Jawar ) सोरघम व्लगेयर सूडान व इथोपिया
बाजरा (Bajra) पेनिसेटम ग्लोकम अफ्रीका
जौं (Barley) होर्डियम व्लगेयर इथोपिया
मदुआ / रागी (Madua / Ragi) इलयूसीन कोराकना अफ्रिका व एशिया
चीना (Cheena) पेनिकम मिलिएसियम भारत
फॉक्सटेल मिलेट (Foxtail millet) सितारीया इटेलिका पूर्वी एशिया
दलहनी फसलें (Pulse Crops)
सामान्य नाम वानस्पतिक नाम उत्पत्ति स्थान
हरी मटर (Garden pea) पाइसम सटाइवम इथोपिया
चना (Gram) साइसर एरिटिनम दक्षिण पश्चिम एशिया
अरहर (Arhar) केजेनस केजान अफ्रीका
मूँग (Green gram) फेशियोलस ऑरियस भारत
उड़द (Black gram) फेशियोलस मूँगो भारत
सोयाबीन (Soyabean) ग्लाइसिन मेक्स चीन
मूँगफली (Groundnut) अरेकिस हाइपोजिया ब्राजील
लोबिया (Cow pea) विग्ना साइनेन्सिस केन्द्रीय अफ्रीका
तेलीय बीज फसलें (Oil Seeds Crop)
सामान्य नाम वानस्पतिक नाम उत्पत्ति स्थान
मूँगफली (Groundnut) अरेकिस हाइपोजिया ब्राजील
रेप (Rape ) ब्रैंसिका नेपस भारत
लिनसिड / अलसी (Linsid/Alsi) लिनम असिटेटिसिमम मध्यवर्ती भाग
सरसों (Mustard) ब्रैसिका कम्पेस्ट्रीस भारत
तिल (Til) सिसेमम इन्डिकम दक्षिण पश्चिम अफ्रीका
नारियल (Coconut) कोकस न्यूसीफेरा अमेरिका
कुसुम (Safflower) कार्थेमस टिन्क्टोरिस अरेबिया
सूरजमुखी (Sunflower) हेल्यिन्थस एनस मेक्सिको एवं दक्षिणी USA
अरण्ड (Castor ) रिसिनस कोम्यूनिस इथोपिया
रेशीय फसलें (Fibre Crops)
सामान्य नाम वानस्पतिक नाम उत्पत्ति स्थान
रुई ( Cotton ) गॉसिपियम जाति भारत
जूट (Jute ) कोरकोरस केप्सूलेरिस अफ्रीका
सन (Sunnhemp) क्रोटोलेरिया जन्सिया भारत
मेस्टा (Mesta) हिबिस्कस जाति भारत
चारा फसलें (Forage Crops)
सामान्य नाम वानस्पतिक नाम उत्पत्ति स्थान
जई (Oat) एविना सटाइवा पूर्वी यूरोप
नेपियर घास / हाथी घास (Napier grass/elephant grass) पेनिसिटम परप्यूरियम अफ्रीकी घास के मैदान
बरसीम / इजिप्टियन लौंग (Barseem / egypian clover) ट्राइफोलियम एलेक्जेन्ड्रियम इजिप्ट
लुइसरना/एल्फा-एल्फा (Lucerna/alfa-alfa) मेडिकेगो सटाइवा उत्तरी अमेरिका एवं आस्ट्रेलिया
ग्वार (Guar) सायमेप्सिस टेट्रागोनोलोबा अफ्रीका
शक्कर फसलें (Sugar Crops)
सामान्य नाम वानस्पतिक नाम उत्पत्ति स्थान
गन्ना (Sugarcane) सेकेरम ऑफिसिनेरम दक्षिणी एशिया
चुकन्दर (Sugar beet) बीटा वुल्गेरिस पश्चिमी यूरोप
जड़ व कन्द फसलें (Root and Tuber Crops)
सामान्य नाम वानस्पतिक नाम उत्पत्ति स्थान
आलू (Potato) सोलेनम ट्यूबरोसम दक्षिणी पेरु
शकरगन्दी (Sweet potato) आइपोमिया बेटेटा केन्द्रीय अमेरिका
कसावा (Cassava/topioca) मेनिहोट यूटिलिसिया शीषोष्ण अमेरिका
मुख्य फसलों का उत्पादन एवं उनके स्थान (Production of Important Crops and their Area)
गेहूँ                  – उत्तर प्रदेश एवं पंजाब
चावल               – पश्चिम बंगाल
मक्का              – उत्तर प्रदेश
ज्वार               – महाराष्ट्र
दाल               – मध्य प्रदेश
तेलीय बीज      – मध्य प्रदेश
अरहर             – महाराष्ट्र
चना                – मध्य प्रदेश
सरसों, रेप        – राजस्थान
कपास            – महाराष्ट्र (कृषि में स्थान ) एवं पंजाब ( उत्पादन में )
तम्बाकू           – गुजरात
2. फसल उत्पादन प्रबन्धन (Crop Production Management )
फसल उत्पादन भूमि, धन व तकनीकों पर निर्भर करता है। धन व आर्थिक परिस्थितियाँ किसान को विभिन्न कृषि प्रणालियों तथा कृषि तकनीकों को अपनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इस प्रकार निवेश व फसल उत्पादन एक-दूसरे से सम्बन्धित हैं। इसलिए उत्पादन प्रणालियाँ भी बिना लागत अल्प लागत व अधिक लागत वाली होती हैं।
फसल उत्पादन प्रबन्धन में पोषक पदार्थों जैसे खाद, उर्वरकों तथा फसल प्रणाली प्रबन्धन आता है
पोषक प्रबन्धन (Nutrient Management)
पादपों को अपनी वृद्धि व विकास के लिए पोषक पदार्थों की आवश्यकता होती है। पादप अपने पोषक पदार्थ हवा, मिट्टी व पानी से प्राप्त करते हैं। मुख्यतया 16 पोषक पदार्थ आवश्यक होते हैं। इन पोषक पदार्थों की कमी के कारण पादपों में विभिन्न प्रक्रियाएँ प्रभावित होती है जैसे जनन, वृद्धि तथा रोग प्रतिरोधकता । उत्पादन में वृद्धि करने हेतु मिट्टी में खाद (manure) तथा उर्वरक (fertilisers) के रूप में पोषक पदार्थ मिलाए जाते हैं।
खाद (Manure)
खाद मुख्यतया कार्बनिक पदार्थ के बने होते हैं, जो मिट्टी की पोषण क्षमता बढाने हेतु मिलाए जाते हैं। ये मिट्टी की संरचना में सुधार करती हैं। खाद, जन्तुओं तथा पादपों के अपशिष्ट पदार्थों के अपघटन से भी तैयार होती है। ये मिट्टी में पानी की उचित मात्रा बनाए रखते हैं। खाद जैविक कचरे का उपयोग करके भी बनाई जाती है। खाद मुख्यतया दो प्रकार की होती है
(i) कम्पोस्ट तथा वर्मी कम्पोस्ट (Compost and Vermi-Compost) में कार्बनिक पदार्थ तथा पोषक पदार्थ बहुत अधिक मात्रा में पाए जाते हैं। कम्पोस्ट केंचुओं द्वारा पादप तथा जन्तुओं के अपशिष्ट पदार्थों के निरस्तीकरण द्वारा बनाई जाती है। इस प्रकार की कम्पोस्ट को वर्मी कम्पोस्ट कहते हैं। कम्पोस्ट बनाने के लिए कृषि अपशिष्ट पदार्थ जैसे पशुधन का गोबर, सब्जी के छिलके, जानवरों का चारा, घरेलू कचरा, आदि गढ्ढों में विगलित किया जाता है।
(ii) हरी खाद (Green Manure) यह कुछ पादपों की बनी होती है, जो मिट्टी में नाइट्रोजन व फॉस्फोरस की पूर्ति करते हैं तथा मिट्टी की उर्वरकता बढाते हैं। ये मिट्टी में फसल से पहले उगाई जाती हैं तथा मिट्टी में खाद का कार्य करते हैं।
हरी खाद मुख्यतया कुछ पादप होते हैं जैसे पटसन, मूँग तथा ग्वार इन्हें फसल उगने से पहले खेत में उगाया जाता है। तत्पश्चात् उन्हें जुताई करके खेत की मिट्टी में मिला दिया जाता है, जो हरी खाद का कार्य करते हैं। ये मिट्टी में एक विशिष्ट समय के लिए उगाए जाते हैं। इसमें दलहनी फसलें जैसे सोयाबीन, मटर, अलसी, आदि तथा कुछ गैर दलहनी फसलें जैसे ज्वार, सोरगम, बाजरा, आदि प्रयोग किए जाते हैं। दलहनी फसलें मिट्टी में नाइट्रोजन-स्थिरीकरण करती हैं, जबकि गैर दलहनी फसलें मिट्टी में पीड़क को ख़त्म करते हैं तथा मिट्टी में जैव भार बढ़ाते हैं। हरी खाद बहुत से कार्य करती है जैसे मिट्टी की गुणवत्ता में वृद्धि एवं सुरक्षा ।
खाद के उपयोग (Uses of Manure)
(a) यह मिट्टी की संरचना को उचित बनाकर उसमें पोषक व पानी की मात्रा को संतुलित रखते हैं।
(b) ये रेतीय मृदा की जल शोधन क्षमता बढ़ाते हैं तथा गीली मृदा में पानी के जमाव को खत्म करते हैं।
(c) ये भूमि में सूक्ष्मजीवों को सक्रिय बनाये रखते हैं, जिससे मृदा में खनिज की मात्रा बनी रहती है।
उर्वरक (Fertilisers)
उर्वरक व्यवसायिक रूप से तैयार किए जाते हैं, जो कार्बनिक व अकार्बनिक पदार्थों के बने होते हैं। उर्वरक मुख्य रूप से नाइट्रोजन, फॉस्फोरस तथा पोटैशियम प्रदान करते हैं। इनके अतिरिक्त कुछ अन्य तत्व भी उर्वरक का कार्य करते हैं। उदाहरण छः तत्व अधिक मात्रा में प्रयोग किए जाते हैं जैसे नाइट्रोजन (N2), फॉस्फोरस (P), पोटैशियम (K), कैल्शियम (Ca), मैग्नीशियम (Mg) एवं सल्फर (S) तथा आठ सूक्ष्म तत्व होते हैं जैसे बोरॉन (B), क्लोरीन (Cl), कॉपर (Cu), लोहा (Fe), मैगनीज (Mn), मॉलीब्डेनम (Mo), जिंक (Zn) एवं निकिल (Ni)।
उर्वरकों के उपयोग (Uses of Fertiliser)
(a) उर्वरकों के उपयोग से अच्छी कायिक वृद्धि (पत्तियाँ, शाखाएँ तथा फूल) तथा स्वस्थ पादप वृद्धि होती हैं।
(b) ये फसल की उत्पादकता को बढ़ाते हैं।
(c) उर्वरक मृदा द्वारा खोए गए पोषक तत्वों को वापस प्रदान करती है।
जैविक उर्वरक (Biofertilisers)
कार्बनिक खेती में उर्वरकों तथा रसायनों का उपयोग कम किया जाता है। इसमें जैविक उर्वरकों का उपयोग करके उत्पादकता बढ़ाई जाती है। जैविक उर्वरकों के रूप में सूक्ष्मजीवों तथा उनके द्वारा बनाए गए पदार्थों का उपयोग किया जाता है। जैविक उर्वरकों में वे सूक्ष्मजीवी आते हैं, जो वातावरणीय नाइट्रोजन को स्थिर करके अकार्बनिक पदार्थों में बदलकर पादपों को प्रदान करते हैं। इन्हें नाइट्रोजन – स्थिरीकरण जीवाणु (nitrogen-fixing bacteria) कहते हैं। – जैविक उर्वरक दो प्रकार के होते हैं
(i) स्वतन्त्र जीवी या असहजीवी जीवाणु (Free Living or Non-symbiotic Bacteria) नीले-हरे शैवाल (blue-green algae/cyanobacteria), एनाबीना, नॉस्टॉक, एजोटोबैक्टर, क्लॉस्ट्रीडियम, आदि जीवाणु मुक्त रूप से रहकर नाइट्रोजन का स्थिरीकरण करते हैं।
(ii) सहजीवी जीवाणु (Mutualistic Symbiotic Bacteria) सहजीवी जीवाणु जैसे राइजोबियम, फली वाले पादपों की जड़ों में रहते हैं तथा स्पाइरिलमव लिपोफेरम अनाज फसलों के साथ जुड़े रहते हैं। ये इन पादपों की जड़ों में गाँठ (nodule) बनाकर नाइट्रोजन को नाइट्रेट्स में परिवर्तित कर देते हैं। आजकल व्यवसायिक रूप से भी राइजोबियम को उपयोग करके मिट्टी में डालकर पादपों में नाइट्रोजन का स्थिरीकरण करते हैं। जड़ों में उपस्थित गाँठों में जीवाणु नाइट्रोजन को नाइट्रेट्स में परिवर्तित करता है, जिसे पोषक पादप उपयोग करता है। उचित गाँठ के निर्माण हेतु तथा दलहनी फसलों ( उदाहरण अल्फा-अल्फा, बीन्स, मटर, सोयाबीन) की उचित वृद्धि हेतु राइजोबियम जीवाणु की व्यवसायिक संबंधित प्रजाति को प्रयोग किया है, मुख्यतया जिस मिट्टी में पोषकों की अधिक कमी है।
सिंचाई (Irrigation)
भारत में खेती मुख्यतया वर्षा पर निर्भर करती है परन्तु यह अनिश्चित होती है। अतः फसल उत्पादन में वृद्धि हेतु सिंचाई के अन्य स्रोत प्रयोग किए जाते हैं जैसे कुएँ, नलकूप, नहरें, नदी, तालाब, आदि। सिंचाई के लिए पानी की मात्रा को वर्षा के जल द्वारा भी एकत्रित किया जाता है। वर्षा के जल को एकत्रित करने के लिए छोटे-छोटे बाँध बनाए जाते हैं, जो वर्षा के पानी को बहने से रोकते हैं तथा मृदा के अपरदन (soil erosion) को भी कम करते हैं।
फसल पैटर्न (Cropping Patterns)
फसल की उत्पादन क्षमता बढ़ाने हेतु कृषि की एग्रोनॉमी (agronomy) नामक शाखा मिट्टी उत्पादकता को उच्च बनाती है, जिसमें विभिन्न विधियाँ उपयोग की जा सकती हैं जैसे फसल चक्रण, आदि। इसमें एक साल में एक भूमि पर विभिन्न फसलों के विभिन्न विधियों को प्रयोग किया जाता है, जिससे विभिन्न फसलों के आपसी सम्बन्धों से मृदा की उर्वरकता बढ़ाई जाती है।
इसके अन्तर्गत विभिन्न प्रकार की फसल प्रणाली तथा पैटर्न आते हैं, जो निम्न प्रकार के हैं
फसल चक्रण (Crop Rotation)
फसल चक्रण में मुख्यतया किसी खेत में क्रमवार पूर्ण नियोजित कार्यक्रम के अनुसार विभिन्न फसलों को उगाया जाता है। इसका मुख्य आधार विभिन्न फसलों के परिपक्वन काल व समय पर निर्भर होता है। एक फसल के पूर्ण होने के पश्चात् मिट्टी में उपस्थित नमी के आधार पर दूसरी फसल का निर्धारण किया जाता है। फसल चक्रण द्वारा मिट्टी की पोषक संरचना तथा उर्वरकता में वृद्धि की जाती है। फसल चक्रण द्वारा मुख्यतया हरी खाद का उपयोग किया जाता है।
मुख्य फसल चक्रण (Main Crop Rotation)
एक वर्षीय – पैडी एवं गेहूँ
दो वर्षीय – मक्का एवं कपास
तीन वर्षीय – टमाटर एवं भिंडी
चार वर्षीय  – कपास एवं गेहूँ
मिश्रित फसलीकरण ( Mixed Cropping)
दो या दो से अधिक फसलों को एक साथ, एक समय पर एक खेत में उगाने को मिश्रित फसल कहते हैं। इस विधि में विभिन्न प्रकार का मिश्रण किया जाता है
मिश्रित फसलीकरण के विभिन्न संयोजन (Different Combination of Mixed Cropping) 
(i) ज्यादा ऊँचाई वाली फसलें, छोटी फसलों के साथ मिश्रित करके उगाई जाती हैं। उदाहरण मक्का तथा उड़द ।
(ii) दलहनी फसलों के साथ अदलहनी फसल । उदाहरण अरहर तथा ज्वार ।
(iii) मूसला जड़ों वाली फसलों के साथ उथली (झकड़ा) जड़ों वाली फसलें ।
(iv) सीधी उगने वाली फसलों के साथ जंगली (bushy) फसलें ।
(v) कम अवधी वाली फसलों के साथ अधिक अवधि वाली फसलें ।
सघन फसलीकरण (Intensive Cropping)
इस प्रकार की फसलीकरण विधि में पूँजी, मजदूरी कीटनाशक एवं रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग अधिक किया जाता है। इस विधि में कृषि यान्त्रिकी को बढ़ावा दिया जाता है।
अन्तर फसलीकरण (Intercropping)
इस विधि में एक ही खेत में दो या अधिक फसलों को एक-दूसरे के समीप उगाया जाता है, जो फसलें सर्वाधिक सहयोग व कम से कम प्रतियोगिता करती हो। इसमें प्रतियोगी फसलों का उपयोग नहीं करते हैं। इस तरह से एक खेत में मौजूद सभी पोषक पदार्थों तथा लवणों का पूरी तरह से अवशोषण व उपयोग होता है, जो एक ही फसल द्वारा उपयोग नहीं किए जा सकते हैं।
3. फसल सुरक्षा प्रबन्धन (Crop Protection Management)
खेतों में कीट, पीड़क, खरपतवार तथा रोगों से फसल को बचाने हेतु फसलों का सुरक्षा प्रबन्धन किया जाता है। यदि इन सब रोग कारकों को समय पर नियन्त्रित न किया जाए, तो ये फसल को हानि पहुँचाती हैं। खरपतवार (weeds) कृषि भूमि में अनावश्यक पौधे होते हैं, जो फसल को नुकसान पहुँचाते हैं।
खरपतवार भोजन, स्थान व प्रकाश के लिए प्रतिस्पर्धा करते हैं, जिससे ये पौधों के पोषक तत्व भी ले लेते हैं।  उदाहरण गोखरु (Xanthium), गाजर घास (Parthenium) तथा मोथा (Cyperinus rotundus)। खरपतवार को खेतों से यान्त्रिक उपायों से निकाला जाता है तथा फसल चक्रण, अन्तराफसलीकरण द्वारा उगने से रोका जा सकता है।
कीट पीड़क (insect pests) प्राय: तीन प्रकार से पौधों पर आक्रमण करते हैं
(i) ये तने, जड़ तथा पत्तियों को काट देते हैं।
(ii) ये पौधे के विभिन्न भागों से कोशिकीय रस चूस लेते हैं।
(iii) ये तने तथा फलों में छिद्र कर देते हैं।
ये रोग कारक कीट खेतों में विभिन्न पीड़कनाशकों जैसे शाकनाशी, कीटनाशी एवं कवकनाशी के छिड़काव द्वारा रोके जाते हैं. परन्तु ये पीड़कनाशी मानव स्वास्थ व फसल पोषण पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं। इन पीड़कनाशकों के उपयोग से वातावरणीय प्रदूषण भी बढ़ता है।
अतः इन पीड़कनाशकों से सुरक्षित बचाव प्रतिरोध क्षमता वाली किस्मों का उपयोग तथा हल से जुताई करके भी किया जाता है।
इन परेशानियों से बचाव हेतु एकबद्ध खरपतवार प्रबन्धन (Integrated Pest Management or IPM) कार्यक्रमों का प्रयोग किया जाता है, जो खरपतवार के स्तर (action thresholds) को निर्धारित करती है, जिसके ऊपर जाने पर उस स्थिति को नियन्त्रित करती है।
एकबद्ध खरपतवार प्रबन्धन (Integrated Pest Management or IPM) 
यह कृषि खरपतवार नियन्त्रण हेतु एक पारिस्थितिक क्रिया है, जिसमें एक स्तर से ज्यादा पीड़क व कीट की वृद्धि को नियन्त्रित करने हेतु पीड़कनाशकों व कीटनाशकों का उपयोग किया जाता है।
IPM तन्त्र में छः आधारभूत तत्व होते हैं
(i) उचित खरपतवार स्तर
(ii) सामाजित क्रियाओं को रोकना
(iii) देखभाल
(iv) यान्त्रिक नियन्त्रण
(v) जैविक नियन्त्रण
(vi) पीड़कनाशकों का उचित उपयोग
अनाज का भण्डारण (Storage of Grains) 
फसल की सुरक्षा केवल खेतों तक ही सीमित नहीं है अपितु अनाज का उचित भण्डारण भी होता है, जिससे फसल की हानि कम हो। कृषि उत्पादों का यदि उचित भण्डारण न हो तो बहुत हानि हो सकती हैं। इस हानि के दो कारण हो सकते हैं जैसे जैविक (कीट, कृन्तक, कवक, चिचड़ी तथा जीवाणु ) एवं अजैविक (नमी व ताप)।
ये कारण बीज व अनाज की गुणवत्ता, वजन, अंकुरण, रंग, आदि पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं।
अतः इन कारकों पर नियन्त्रण हेतु विभिन्न उपाय किए जाते हैं जैसे बीजों को भण्डारण से पहले सुखाना (पहले सूर्य के प्रकाश में तथा फिर छाया में) धूमक के प्रयोग द्वारा (fumigation) तथा कीटनाशकों के उपयोग द्वारा।
कृषि में सुधार की कुछ अन्य शाखाएँ (Some Other Fields for Improvement in Agriculture)
1. बीज विज्ञान (Seed Science)
वीज विज्ञान, कृषि विज्ञान की वह शाखा है, जिसमें बीजों की गुणवत्ता परखी जाती है। उपयोग योग्य बीज किसी प्रकार के रोग एवं कीटों के द्वारा होने वाले रोगों से विमुक्त होने चाहिए।
विभिन्न प्रकार के बीजों का वर्णन निम्नलिखित हैं
(i) संश्लेषित बीज एवं संग्रथित बीज (Synthetic and Composite Seed Varieties) संश्लेषित बीज विभिन्न प्रकार के बीजों से बनाए जाते हैं, जिनमें अच्छे एकबद्ध समान लक्षण हो तथा संग्रथित बीज बहुत सारी उच्च लक्षणों वाली प्रजातियों के मिश्रण से बनाए जाते हैं। उदाहरण सोना, शक्ति, अफ्रीकन फाल, आदि।
(ii) संकरित बीज (Hybrid Seeds) ये बीज मुख्यतया पर-परागण विधि (cross-pollination) द्वारा बनाए जाते हैं। ये कृषि व ग्रह कृषि में अत्यधिक उपयोग की जाने वाली विधि है। कृषि उत्पादन वृद्धि में इसका अत्यधिक योगदान है।
(iii) कृत्रिम बीज (Artificial Seeds) ये प्राय: कैप्सूल युक्त कायिक प्रवर्ध (कायिक भ्रूण एवं तने) होते हैं, जिन्हें विभिन्न वृद्धि कारकों, कीटनाशकों, पीड़कनाशकों, आदि के प्रयोग द्वारा एक सम्पूर्ण पादप में विकसित किया जाता है।
(iv) आनुवंशिकत: रूपान्तरित बीज (Genetically Modified-GM Seeds) इन बीजों को जीनी संरचना में परिवर्तन करके बनाया जाता है, जिससे इनमें दूसरी फसलों के उच्च गुण समाहित किए जाते हैं।
◆ तेलीय बीजों, दालों, पाम व मक्का (ISOPOM) की एकबद्ध स्कीम 2004 में प्रथम बार क्रियान्वित हुई, जिसमें इन्ही फसलों पर अत्यधिक ध्यान दिया गया।
2. कृषि वन विभाग (Agroforestry)
यह कृषि विज्ञान व वन विज्ञान की संयोजित शाखा है, जिसमें विभिन्न पेड़ व झाड़ों को फसल व भोजन के साथ संयोजित किया जाता है। यह कृषि व वन विज्ञान की संयुक्त शाखा है, जिसमें विभिन्न विधियों का प्रयोग अत्यधिक व्यापक, लाभदेय, स्वस्थ व अधिक समय तक कृषि भूमि का उपयोग करने के लिए किया जाता है। इसका मुख्य उद्देश्य कृषि स्रोतों का पूर्ण उपयोग करना, भोजन, चारा, ईंधन की प्रति यूनिट उत्पादकता को बढ़ाना तथा जैविक स्रोतों की सम्पूर्ण देख-रेख करना है।
भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद (Indian Council of Agriculture Research or ICAR)
यह 16 जुलाई सन् 1929 में स्थापित हुई थी। इसका नाम पहले इम्पिरियल कृषि अनुसन्धान परिषद था। यह कृषि, मत्स्य पालन व जन्तु विज्ञान में होने वाले विभिन्न अनुसन्धानों को नियन्त्रित व समन्वित करता है। भारत में ICAR के 97 के केन्द्र तथा 53 कृषि विश्वविद्यालय हैं।
सन् 1988 में इस अनुसन्धान परिषद को अन्तर्राष्ट्रीय किंग बाउडुइन विकास पुरस्कार दिया गया था। सन् 2004 में इसे यही पुरस्कार गेहूँ-चावल कॉन्सोट्रियम के लिए दिया गया।
भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद के अन्तर्गत संस्था (Institutes Under ICAR)
1. भारतीय कृषि अनुसन्धान संस्थान (IARI), नई दिल्ली
2. राष्ट्रीय दुग्ध विकास संस्थान (NDRI), करनाल (हरियाणा)
3. भारतीय मवेशी अनुसन्धान संस्थान (IVRI), बरेली (उत्तर प्रदेश)
4. केन्द्रीय मछली पालन संस्थान (CIF), मुम्बई (महाराष्ट्र)
संसार में भारत का स्थान (India’s Position in Worid) 
प्रथम – भैंस, चाय, जूट, आम, नारियल, गोभी, मसाले, केला, दूग्ध उत्पादन, सिंचाई, तेलीय वीज एवं संकरणित कपास
द्वितीय – मूँगफली, गेहूँ, सिंचाई युक्त भूमि, फल, प्याज, गाय, बकरी एवं सब्जी
तृतीय – कपास एवं पत्तागोभी
चतुर्थ – मोटा अनाज, ट्रेक्टर एवं खाद का प्रयोग
पंचम – अण्डा उत्पादन
अन्तर्राष्ट्रीय विधिपालन (International Observance) 
2004 अन्तर्राष्ट्रीय चावल वर्ष
2005 नीम एकस्व वर्ष
2006 पार्थीनियम नियन्त्रण एवं जागृति वर्ष
2007 अन्तर्राष्ट्रीय जल वर्ष
2008 अन्तर्राष्ट्रीय आलू वर्ष
2010 अन्तर्राष्ट्रीय जैव-विविधता वर्ष
2011 अन्तर्राष्ट्रीय वन वर्ष
2012 अन्तर्राष्ट्रीय सर्व उपयोगी ऊर्जा वर्ष
2013 अन्तर्राष्ट्रीय क्यूनाइक वर्ष
2014 अन्तर्राष्ट्रीय पारिवारिक कृषि वर्ष ।
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