‘पाठ्यक्रम निर्माण के मनोवैज्ञानिक आधार’ पर टिप्पणी लिखिए।
‘पाठ्यक्रम निर्माण के मनोवैज्ञानिक आधार’ पर टिप्पणी लिखिए।
अथवा
शिक्षा के लिए पाठ्यक्रम निर्धारण में मनोवैज्ञानिक आधार की सार्थक भूमिका का उल्लेख कीजिए ।
उत्तर— मनोवैज्ञानिक आधार—मनुष्य एक बौद्धिक प्राणी (Rational Animal) है। इस बौद्धिक प्राणी के सर्वांगीण विकास के लिए सबसे आवश्यक बात यह होती है कि हमें उसके अनुभव एवं व्यवहार के सम्बन्ध में वास्तविक जानकारी हो। इस संदर्भ में मनोविज्ञान अत्यधिक सहायता प्रदान करता है, क्योंकि वह मनुष्य के अनुभव एवं व्यवहार का विज्ञान है।
साधारण शब्दों में कहा जा सकता है कि मनोविज्ञान वह सब कुछ है जो मनोवैज्ञानिक करते हैं, परन्तु शास्त्रीय दृष्टि से यह स्पष्टीकरण पर्याप्त नहीं है। वस्तुत: मनोविज्ञान एक विकासशील विज्ञान रहा है तथा विकास के विभिन्न स्तरों पर इसका अर्थ भी परिवर्तित होता रहा है। प्रारम्भ में मनोविज्ञान को क्रमशः आत्मा का ज्ञान, मन का ज्ञान तथा चेतना का ज्ञान माना जाता रहा, परन्तु वर्तमान में इसे ‘व्यवहार के विज्ञान’ के रूप में मान्यता प्राप्त हुई है। पिल्सबरी के अनुसार, “सर्वाधिक सन्तोषजनक रूप में मनोविज्ञान की परिभाषा मानव व्यवहार के विज्ञान के रूप में देखी जा सकती है।’
वर्तमान समय में शिक्षा के क्षेत्र में मनोविज्ञान का महत्त्व बढ़ता जा रहा है। अध्यापक को कदम-कदम पर मनोविज्ञान की सहायता लेनी पड़ती है तथा प्रत्येक समस्या के समाधान के लिए मनोविज्ञान की आवश्यकता अनुभव होती है। यही आवश्यकता पाठ्यक्रम को मनोवैज्ञानिक आधार प्रदान करती है। शिक्षा में मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण के कारण ही वर्तमान समय में वैयक्तिक भेद के अनुसार शिक्षण कार्य सम्भव हो सका है। पहले यह समझा जाता था कि प्रत्येक विद्यार्थी को प्रत्येक विषय पढ़ाया जा सकता है, परन्तु अब नवीन मनोवैज्ञानिक खोजों के अनुसार व्यक्तिगत भेदों को ध्यान में रखना आवश्यक है। पाठ्यक्रम का निर्धारण बालक की इन्हीं रुचियों, आवश्यकताओं, क्षमताओं एवं स्वाभाविक प्रवृत्तियों के अनुसार किया जाता है। यह देन मनोविज्ञान की ही है।
वर्तमान समय में बौद्धिक विकास के अनुसार बालकों को विभिन्न श्रेणियों में विभाजित किया जाता है जिनके अनुसार कुछ बालक मन्द बुद्धि होते हैं, कुछ पिछड़े, कुछ सामान्य तथा कुछ कुशाग्र बुद्धि के होते हैं। मनोविज्ञान बताता है कि भिन्न-भिन्न बौद्धिक विकास वाले बालकों का शिक्षण भिन्न-भिन्न प्रकार से होना चाहिए ।
आधुनिक मनोविज्ञान ही बताता है कि प्रत्येक बालक के विकास की विभिन्न अवस्थाएँ होती हैं, जैसे- बाल्यावस्था, किशोरावस्था, युवावस्था, प्रौढ़ावस्था, वृद्धावस्था आदि। इन्हीं अवस्थाओं को ध्यान में रखते हुए बालकों को शिक्षित किया जाना चाहिए। विकास की विभिन्न अवस्थाओं के ज्ञान के अभाव में बालक एक सी व नीरस शिक्षा प्राप्त करते रहते व अपना सर्वांगीण विकास करने में असमर्थ रहते ।
शिक्षा में मनोविज्ञान के समावेश के परिणामस्वरूप ही अब बाल केन्द्रित शिक्षा पर बल दिया जाने लगा है। पाठ्यक्रम का निर्धारण भी बालक को केन्द्र बनाकर किया जाता है। आधुनिक मनोवैज्ञानिक मान्यताओं के अनुसार सम्पूर्ण शिक्षा प्रणाली का केन्द्र बालक को होना चाहिए। प्राचीन दृष्टिकोण के अनुसार शिक्षा प्रक्रिया का सबसे महत्त्वपूर्ण बिन्दु शिक्षक को माना जाता था व छात्र को गौण स्थान प्राप्त था । शिक्षा की समस्त प्रक्रिया शिक्षक के चारों ओर घूमती रहती है, परन्तु वर्तमान शिक्षा प्रक्रिया छात्र के चारों ओर घूमती है व छात्र के अनुकूल कार्य करती है ।
वर्तमान समय में शिक्षा के क्षेत्र में बालक साध्य है और अध्यापक केवल एक साधन मात्र है। यही नहीं आज प्रत्येक कुशल एवं योग्य शिक्षक के लिए जहाँ अपने विषय का ज्ञान होना आवश्यक है वहीं साथ ही साथ मानव स्वभाव एवं व्यवहार की परख भी होनी चाहिए। इसके अतिरिक्त बालक की क्रियाशीलता को ध्यान में रखते हुए पाठ्यक्रम में सैद्धान्तिक विषयों के साथ-साथ क्रियात्मकता का भी समावेश किया गया है। मनोविज्ञान ने ही यह सुझाव प्रस्तुत किया है कि पाठ्यक्रम में औपचारिक विषयों का अध्ययन मात्र न होकर खेलों और क्रियाओं का आयोजन होना चाहिए।
उपर्युक्त विवरण द्वारा स्पष्ट है कि शिक्षा के क्षेत्र में और विशेषकर पाठ्यक्रम पर, मनोविज्ञान का विशेष महत्त्व एवं प्रभाव है। शिक्षा में मनोविज्ञान के समावेश के परिणामस्वरूप शिक्षा का सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक स्वरूप ही बदल गया है। शिक्षा के क्षेत्र में होने वाली इस का श्रेय मनोविज्ञान को ही दिया जा सकता है।
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