पारिभाषिक शब्दावली :
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1. पूँजीवाद
उत्पादन के साधनों पर वैयक्तिक अधिक के सिद्धांत पर आधारित एवं सामन्तशाही के ध्वंस पर प्रतिष्ठित अर्थ-व्यवस्था पूँजीवाद के नाम से प्रसिद्ध है। पूँजीवाद शब्द की उद्भावना 19वीं सदी के पूर्वाद्ध में इस अर्थव्यवस्था के समाजवादी आलोचकों ने की थी। यूरोप में प्रायः औद्योगिक क्रांति (18वीं-19वीं सदी) के समय इस व्यवस्थाका श्री गणेश माना गया है। तत्कालीन समाज में पंजी की सत्ता और महत्ता बढ़ जाने के कारण हो समाजवादियों ने नयी अर्थव्यवस्था को पूँजीवाद की संज्ञा दी थी। पूँजीवाद वैयक्तिक संपत्ति और पूंजी का हिमायती है। वह मशीनों, कारखानों, वाणिज्यों, व्यवसायाँ, sammercisea सदस्यों के निजी हितों के लिए संयोजित संस्थाओं अथवा कंपनियों के सर्वाधिकार तथा राज्य के हस्तक्षेप से पूर्ण स्वतंत्र नीति का प्रतिपादन करता आया है।
2. व्यक्तिवाद
यह शब्द अंग्रेजी के ‘इण्डिविजुअलिन्म’ का पर्याय है। इसका सर्वप्रथम प्रयोग ऑक्सफोर्ड शब्दकोष के अनुसार हेनरी रीव्स द्वारा अंग्रेजी में अनुदित डीटाक्वलीको नामक पुस्तक में मिलता है। व्यक्तिवाद उस मानसिक अवस्था या दृष्टिकोण का सूचक है, जिसके अनुसार व्यक्ति समष्टि से पार्थक्य तो कर लेता है, किंतु वह घोर स्वार्थवादी मनोवृत्तियों के आवेश में अपने अहम के प्रति संपूर्ण स्नेह और लगाव नहीं रखता। कुछ अंशों में व्यक्तिवाद का भावनात्मक आधार जनतांत्रिक सिद्धांत है।
3. मध्यवर्गीय चेतना
मध्यवर्गीय चेतना को समझने के लिए सर्वप्रथम मध्यवर्ग को समझना होगा। पूँजीवादी व्यवस्था ने समूचे समाज को तीन भागों में विभाजित किया है 1. बूर्जुआ 2. मध्यवर्ग 3. निम्नवर्गः मध्यवर्ग सामंतवादी व्यवस्था में नहीं पाया जाता क्योंकि उस समय जमींदार और किसान का संबंध सीधा था, किंतु पूँजीवादी आर्थिक व्यवस्था ने समाज को इतना जटिल कर दिया है कि एक मध्यवर्ग की भी आवश्यकता हुई, जो इस जटिल व्यवस्था के संघटन सूत्र को संभाल सके। इस वर्ग में नौकरी पेशा शिक्षक, क्लर्क और अन्य साधारण लोग आते हैं। मध्यवर्ग विशेषत: बुद्धिप्रधान वर्ग माना गयाहै और सामाजिक क्रांति के प्राय: समस्त विचारों का सर्जन मध्यवर्ग में ही होता है। ऐसे वर्गों की जो चेतना होती है, वही मध्यवर्गीय चेतना कहलाती है।
4. यथार्थवाद
साहित्य और कला की एक विशिष्ट चिंतन-पद्धति, जिसके अनुसार कलाकार को अपनी कृति में जीवन के यथार्थ रूप का अंकन करना चाहिए। यह दृष्टिकोण वस्तुत: आदर्शवाद का विरोधी माना जाता है। ऐसा होना चाहिए जहाँ आदर्श है वहीं ऐसा हो रहा है यथार्थ है। आधुनिक अर्थ में यथार्थवाद का हिंदी साहित्य में प्रथम विकास प्रगतिवाद के माध्यम से हुआ। यथार्थवाद में जीवन की विद्रुपताओं, करूपताओं को उतना ही महत्व दिया जाता है जितना उसके सौंदर्य को।
5. स्वच्छंदतावाद
स्वच्छंदतावद अंग्रेजी के रोमांटिसिज्म शब्द का निकटतम हिंदी प्रतिरूप है। सामान्यत: स्वच्छंदतावाद से पूर्व छायावादी हिंदी कविता का बोध होता है, जिसके प्रवर्तक श्रीधर पाठक, मकुटधर पाण्डेय एवं रामनरेश त्रिपाठी आदि माने जाते हैं। प्रकृति, देशभक्ति, वन-वैभव और एकांत प्रणय-स्वच्छंदतावाद के मूल तत्व कहे जा सकते हैं और इन सबके ऊपर हैं व्यक्तिक स्तर पर विद्रोह का भाव।
6. लाक्षणिकता
लक्षणा शक्ति का जब भाषा में सार्थक प्रयोग होता है तो भाषा में लाक्षणिकता आती है। काव्यशास्त्र में तीन तरह की शब्द- शक्तियों का वर्णन मिलता है। इसमें दूसरी शक्ति का नाम है – लक्षणा। लक्षणा वहाँ होती है, जहाँ लक्षक अथवा लाक्षणिक शब्द का प्रयोग हो। मुख्य अर्थ के बाधित होने पर रूढ़ि अथवा प्रयोजन के कारण जिस क्रिया द्वारा मुख्य अर्थ से संबंध रखनेवाला अन्य अर्थ लक्षित हो, उसे लक्षणा शक्ति कहते हैं।
7. वक्रता/व्यंजकता
व्यंजना तीसरी शब्द-शक्ति है। भाषा में व्यंजना शब्द शक्ति के प्रयोग से ही वक्रता या व्यंजकता उत्पन्न होती है। व्यंजना शक्ति शब् के मुख्यार्थ तथा लक्ष्यार्थ को पीछे छोड़ती हुई उसके मूल में छिपे हुए अकथित अर्थ को द्योतित करती है। व्यंग्य-लेखन में इस शक्ति के जरूरत सर्वाधिक होती है। साहित्य का आधार हो वक्रता है।
8. इतिवृत्तात्मकता
विस्तृत वर्णन ही इतिवृत्तात्मक है। किसी वस्तु या घटना को अत्यंत विस्तार प्रदान करा इतिवृत्तात्मकता कहलाती है। सूक्ष्म और संक्षेपर के विपरीत पल्लवन प्रक्रिया को, व्याख्या की प्रक्रिया को इतिवृत्तात्मक कहते हैं। सामान्यतया इतिवृत्तात्मक साहित्य रचना के प्रतिकूल मान जाता है। इसमें नीरसता आने की संभावना बनी रहती है।
9. पुनरुत्थानवाद
मध्ययुगीन पौराणिकता से बाहर निकलकर देश के प्राचीन गौरव गान के साथ भविष्य के प्रति आशावादिता पुनरुत्थान कहलाता और यह सिद्धांत पुनरुत्थानवाद। इस नवचेतना के फलस्वरूप गद्य और काव्य साहित्य में नवीन भावों एवं विचारों का आविर्भाव और सामाजिर धार्मिक, राजनीतिक और आर्थिक क्षेत्रों में गतिशीलता का जन्म हुआ।