दुख ही जीवन की कथा रही (जीवन वृत्त )

दुख ही जीवन की कथा रही (जीवन वृत्त )

दुख ही जीवन की कथा रही (जीवन वृत्त )
माघ शुक्ल ।।, संवत् 1955, तद्नुसार 29 फरवरी, 1899 को महिषादल बंगाल में एक ऐसे महाकवि का जन्म हुआ जिसने हिंदी कविता को एक नयी दिशा दी। भव्य. गौर और गठीले शरीर के धनी इस महाकवि का नाम था – सूर्यकांत त्रिपाठी निराला। जिस दिन निरालाजी का जन्म हुआ, उस दिन वसंत पंचमी था। निरालाजी अपना जन्म दिन वसंत पंचमी को ही मनाया करते थे। उत्तर प्रदेश, जिला – उन्नाव, ग्राम गढ़ाकोला के मूल निवासी पं0 रामसहाय त्रिपाठी के घर कवि का जन्म हुआ। इतने बड़े कवि की औपचारिक शिक्षा स्कूल तक ही हुई। निराला ने स्वाध्याय से विद्यार्जन ही नहीं किया, बल्कि अद्भुत काव्य-दृष्टि प्राप्त की। मात्र तीन वर्ष की अवस्था में माँ का साथ छूट गया।
मात्र 11 वर्ष की उम्र में निरालाजी का विवाह मनोहरा देवी से हुआ। ‘रामचरितमानस’ का नियमित पाठ करनेवाली पत्नी की प्रेरणा से निराला की तुलसीदास की कृनियों में गहरी रूचि उत्पन्न हुई और तुलसीदास के काव्यों द्वारा ही हिंदी भाषा साहित्य में अनुराग पैदा हुआ। निराला को वैवाहिक जीवन का सुख अधिक दिनों तक नसीब नहीं हो पाया। उन्होंने एक पुत्र और एक कन्या को जन्म देकर इस दुनिया को छोड़कर चली गई। निराला साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान डा0 रामविलास शर्मा लिखते हैं, “इस ब्रजपात से उसका बुरा हाल था। घंटों श्मशान में बैठा रहता। कहीं कोई चूड़ी का टुकड़ा, हड्डी या राख मिल जाती तो उसे हृदय से लगाए घूमा करता।” महामारी में कवि की पत्नी की ही मृत्यु नहीं हुई। पिता, चाचा आदि एक के बाद एक स्वर्ग सिधार गए। चार भतीजे और अपनी दो संतान का भार 21 साल के युवक के कंधों पर आ पड़ा। इन निरीह बच्चों के कारण उन्हें संभलना पड़ा। यहाँ से कवि का कठिन जीवन संघर्ष शुरू होता है।
संघर्ष के परिणामस्वरूप निराला ने नौकरी की खोज शुरू की। वे स्वभाव से घेर स्वाभिमानी व्यक्ति थे। महिषादल में नहीं पटी और वहाँ को नौकरी उन्होंने छोड़ दी। कलम की मजदूरी का अभ्यास शुरू हुआ। मौलिक रचना, अनुवाद जो भी काम मिलता उसे कर लेते। कुछ दिनों तक रामकृष्ण मिशन में किया और साल भर तक ‘समन्वय’ का संपादन किया। एक साल इन्होंने ‘मतवाला’ नामक पत्रिका में काम किया। इसी पत्रिका में उनकी प्रसिद्ध कविता ‘जूही की कली’ छपी। अत्यंत संघर्ष के बाद उन्हें साहित्यिक लेखन का अवसर प्राप्त हुआ।
शाम को भांग छानना, थियेटर देखना, साहित्यकारों से सरस वार्तालाप करना, मुक्त छंद में कविता लिखना, छद्म नामों से हिंदी के विद्वानों की भाषा में व्याकरण और मुहावरे की भूलें दिखाना, साथ ही समस्त हिंदी संसार को चुनौती देना- उनके जीवन का कार्यक्रम था।
अनेक राशियों और नीतियों को तोड़ते हुए उन्होंने अपनी बेटी सरोज का विवाह किया। अपने हाथों से सरोज का सुहाग-सेज सजाया। दुर्भाग्यवश वियाह के कुछ ही वर्ष बाद सरोज को मृत्यु हो गयी। पत्नी की मृत्यु के बाद सरोज की मृत्यु कवि के जीवन का सबसे बड़ा आघात था। परमानंद श्रीवास्तव के शब्दों में, “निराला भीतर से बहुत टूटे पर अपने मानसिक संघर्ष को अद्भुत संतुलन देते हुए इसी वर्ष कविता लिखी ‘सरोज स्मृति’। यह कविता निराला के जीवन संघर्ष को सबसे ज्यादा खोलती हैं।” उन्हें अपने निरर्थकता का बोध होता है। उनके संपूर्ण जीवन दुख की महागाधा है। उन्होंने सरोज स्मृति में लिखा है।
                                    धन्ये, मैं पिता निरर्थक था
                                  कुछ भी तेर हित न कर सका
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                                   दुख ही जीवन की कथा रही
                                  क्या कहूँ आज, जो नहीं कही।
निराला हमेशा अभाव में रहे किंतु दूसरे का अभाव उनसे देखा न जाता। वे दुख में रहे किंतु दूसरे का दुख उनसे न देखा जाता। बाद में वे काफी बीमार रहने लगे। मानसिक स्थिति भी थोड़ी बिगड़ गई। महादेवी वर्मा साहित्यकार संसद के माध्यम से सहायता और देखरेख करती। उन्हें जो कुछ मिलता उसका अधिकांश दान कर देते। कहीं कोई कवि सम्मेलन होता तो वे बड़े ही व्यावसायिक ढंग से बात करते, पैशंगों के रूपये से कपड़ा बनवाते, दरी, चादर, रजीई, तकिया, जूते सब लेते। दूसरे कवि सम्मेलन तक उनके पास जूता छोड़ कुछ नहीं बचता। जीवन से लड़ते-लड़ते अंतत: 15 अक्तूबर 1961 को महाप्राण निराला ने अपना शरीर त्याग दिया।

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