पॉवलॉव के शास्त्रीय अनुबन्धन के सिद्धान्त की शिक्षा में उपादेयता को स्पष्ट कीजिए ।
पॉवलॉव के शास्त्रीय अनुबन्धन के सिद्धान्त की शिक्षा में उपादेयता को स्पष्ट कीजिए ।
उत्तर–शास्त्रीय अनुबन्धन के सिद्धान्त की शिक्षा में उपादेयता (Educational Implications of Classical Conditioning Theory)– शास्त्रीय अनुबन्धन या सम्बन्ध प्रतिक्रिया का सिद्धान्त बालकों की शिक्षा में बहुत उपयोगी है। क्रो एवं क्रो ने बताया कि सम्बन्ध प्रतिक्रिया सिद्धान्त की सहायता से बालकों में अच्छे आचरण एवं उचित अनुशासन की भावना का विकास किया जा सकता है। शिक्षण प्रक्रिया में इस सिद्धान्त के महत्त्व को निम्नलिखित बिन्दुओं के माध्यम से व्यक्त कर सकते हैं—
(1) आदत या स्वभाव का निर्माण (Development of Habit or Nature)– अनुकूलित अनुक्रिया धीरे-धीरे आदत के रूप में विकसित होकर व्यक्ति के स्वभाव का अंग बन जाती है। कार्य की अनुक्रियाओं को बार-बार दोहराने से वो आदत बन जाती है। इससे कार्य में स्पष्टता आती है और समय की भी बचत होती है। इस सिद्धान्त के सहयोग से अनुशासन की भावना का विकास किया जा सकता है ।
(2) भाषा का विकास(Development of Language )– पॉवलव का सम्बन्ध प्रतिक्रिया सिद्धान्त भाषा के विकास एवं अक्षर शब्द विन्यास में बहुत उपयोगी है । शैशवावस्था में बच्चों को विभिन्न वस्तुओं के साथ सम्बन्ध स्थापित करके ही भाषा का ज्ञान कराया जाता है। छोटी कक्षाओं में वस्तुओं के साथ ही शब्दों का ज्ञान दिया जाता है। इस सिद्धान्त में अभ्यास पर बल दिया जाता है जो सुलेख लेखन के लिए आवश्यक है। व्याकरण के सूत्र और पहाड़े सीखने के लिए इस सिद्धान्त का अत्यधिक उपयोग है।
(3) सीखने के लिए प्रोत्साहन (Encouragement for Learning)– प्रशंसा और प्रोत्साहन शिक्षण प्रक्रिया में बालकों के लिए प्रेरकों का काम करते हैं। छोटे बच्चों के लिए लाड व प्यार एवं बड़ों के लिए सम्बन्धों की स्थापना अच्छे अनुबन्धन है। अध्यापक को ऐसे उद्दीपनों के अत्यधिक प्रयोग से बचना चाहिए।
(4) सीखने की स्वाभाविक विधि (Natural Method of Learning)– यह सिद्धान्त बालकों को सीखने के लिए सरल, सहज एवं स्वाभाविक विधि है। यह बालकों को सीखने में सहायता प्रदान करता है। इस सिद्धान्त की मान्यता है कि बच्चा शैशवकाल में ही सीखना प्रारम्भ कर देता है। पॉवलव ने बताया कि अधिगम के लिए प्रशिक्षण अति आवश्यक है। इस सिद्धान्त के अनुसार बालक तभी सीख सकता है जब वह सतर्क एवं क्रियाशील रहता है। स्किनर के अनुसार, “सम्बन्ध सहज क्रिया एक आधारभूत सिद्धान्त है जिस पर सीखना निर्भर करता है। “
(5) गणित शिक्षण में सहायक (Helpful in Mathmetical Teaching)– यह सिद्धान्त अनुक्रियाओं को कई बार दोहराने पर बल देता हैं जो गणित जैसे विषय के लिए आवश्यक है। अभ्यास एवं अनुकूलन की सहायता से गणित की कठिन समस्याओं के हल तथा गुणा-भाग को सरलता से किया जा सकता है।
(6) समाजीकरण में सहायक (Helpful in Socialization)– यह सिद्धान्त प्राणियों के व्यवहार को सुधारने व परिमार्जन में बहुत उपयोगी है। इस सिद्धान्त से बालकों के समाजीकरण एवं वातावरण में उनका सामंजस्य स्थापित करने में मदद मिलती है। शास्त्रीय अनुबंधन सिद्धान्त छात्रों को अभिप्रेरित कर वांछित व्यवहार करना सिखाता है। इस सिद्धान्त का समूह निर्माण में बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। बुरी आदतों को छुड़ाने में भी इस सिद्धान्त की सहायता ली जाती है ।
(7) अभिवृत्ति का विकास (Development of Attitude)– इस सिद्धान्त की सहायता से बालकों के सामने उचित एवं आदर्श व्यवहार का प्रदर्शन करके उनमें अच्छी अभिवृत्तियों का विकास किया जा सकता है। अच्छी अभिवृत्तियाँ अनेक समस्याओं को हल करने में योगदान दे सकती हैं। यह सिद्धान्त अध्यापक को अधिक महत्त्व देता है क्योंकि अध्यापक बालकों के अधिगम के लिए अनुकूल वातावरण का निर्माण करता है।
(8) मानसिक एवं संवेगात्मक अस्थिरता का उपचार (Treatement of Mental and Emotional Instability )– यह सिद्धान्त निदानात्मक मनोविज्ञान में नवीन संभावनाएँ उपस्थित कराता है। इस सिद्धान्त की सहायता से बालकों के भय व चिंता सम्बन्धी रोगों का उपचार किया जाता है। शास्त्रीय अनुबन्धन सिद्धान्त कई प्रकार की क्रियाओं एवं असामान्य व्यवहार की व्याख्या करता है। मानसिक रोगियों व संवेगात्मक रूप से अस्थिर व्यवहार करने वाले बालकों के लिए यह सिद्धान्त बहुत ही उपयोगी है । बार-बार अभ्यास के द्वारा बालकों में संवेगात्मक रूप से स्थिरता विकसित की जा सकती है।
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