“प्रभावी शिक्षण” की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए। आप अपने शिक्षण को प्रभावी बनाने हेतु क्या उपाय करेंगे?
“प्रभावी शिक्षण” की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए। आप अपने शिक्षण को प्रभावी बनाने हेतु क्या उपाय करेंगे?
अथवा
प्रभावकारी शिक्षण का सम्प्रत्यय बताइये ।
अथवा
प्रभावकारी शिक्षण सम्प्रत्यय क्या है ? शिक्षण को प्रभावकारी बनाने के लिये प्रभावकारी शिक्षण घटकों एवं विधियों की व्याख्या कीजिये ।
उत्तर— प्रभावकारी शिक्षण– शिक्षक जिस सीमा तक शिक्षार्थी पर प्रभाव डालने में सफल होता है, वह उसी सीमा तक प्रभावी शिक्षक कहलाता है और शिक्षण उद्देश्य भी उसी सीमा तक पूरा हो जाता है। प्रभावकारी शिक्षण का अर्थ शिक्षक की कार्यक्षमता से है जिस सीमा तक वह अपने कार्य में कुशल हो पाता है उस हद तक उसे प्रभावी माना जाता है। दाश के अनुसार “ प्रभावकारी शिक्षण का अर्थ है शिक्षण की पूर्णता अर्थात् कार्य-कुशलता तथा उत्पादकता का अनुकूलतम स्तर । “
शिक्षार्थी सरलता से अधिगम कर सकें, पाठ्य-वस्तु को सरलता से ग्रहण कर सकें तथा शिक्षण समय का शिक्षक अधिकाधिक समुचित प्रयोग कर सके, इसके लिए पाठ योजना का संगठन तथा विषय-वस्तु पर प्रभुत्व के साथ-साथ शिक्षक को रोचक विधियों का भी अपने शिक्षण में प्रयोग करना चाहिए तभी शिक्षण प्रभावी होगा।
शिक्षण को प्रभावी बनाने के लिए शिक्षक को पाठ योजना में निर्धारित क्रियाकलापों के अलावा तुरन्त परिवर्तन हेतु निर्णय लेने पड़ते हैं।
प्रभावकारी शिक्षण हेतु घटक- प्रभावी शिक्षण के लिए उसके निम्नलिखित घटकों पर ध्यान केन्द्रित किया जाता हैं–
(i) प्रभावी पाठ्यक्रम, (ii) उपयुक्त एवं आकर्षक पाठ्य पुस्तकें, (iii) अध्यापक प्रशिक्षण में सुधार, (iv) सन्तुष्ट एवं उत्साही शिक्षक वर्ग, (v) विद्यालय में पर्याप्त भौतिक सुविधाएँ, (vi) लचीली एवं वस्तुनिष्ठ परीक्षा पद्धति, (vii) गतिशील शिक्षण विधियाँ ।
प्रभावकारी शिक्षण हेतु विधियाँ निम्न हैं—
(i) व्याख्यान विधि
(ii) प्रदर्शन विधि
(iii) अन्वेषण विधि
(iv) प्रायोजना विधि
(v) ऐतिहासिक खोज विधि
(vi) ट्यूटोरियल विधि
(vii) वार्तालाप विधि |
(i) व्याख्यान नीति– व्याख्यान का तात्पर्य किसी भी पाठ को भाषण के रूप में पढ़ाने से है। शिक्षक किसी विषय विशेष पर कक्षा में व्याख्यान देते हैं तथा छात्र निष्क्रिय होकर सुनते रहते हैं। यह विधि उच्च स्तर की कक्षाओं के लिए उपयोगी मानी जाती है। व्याख्यान विधि में विषय की सूचना दी जा सकती है। किन्तु छात्रों को स्वयं ज्ञान प्राप्त करने की प्रेरणा तथा प्राप्त ज्ञान के व्यावहारिक प्रयोग की क्षमता नहीं दी जा सकती। व्याख्यान विधि में यह जानना कठिन होता है कि छात्र किस सीमा तक शिक्षक द्वारा प्रदत्त ज्ञान को सीख सके हैं।
व्याख्यान विधि की विशेषताएँ—
(1) उच्च कक्षाओं के लिए उपयोगी है।
(2) यह शिक्षक के लिए सरल, संक्षिप्त तथा आकर्षक है।
(3) शिक्षक सदैव सक्रिय रहता है ।
(4) यदि शिक्षक इस विधि का प्रयोग कुशलता से करे तो छात्रों को आकर्षित किया जा सकता है, साथ ही उनके पाठ के लिए रुचि उत्पन्न की जा सकती है ।
(5) विषय का तार्किक क्रम सदैव बना रहता है ।
(6) यह शिक्षक तथा छात्र दोनों को विषय के अध्ययन की प्रगति के विषय में सन्तुष्टि प्रदान करती है ।
(7) कम समय में अधिक सूचनाएँ दी जा सकती हैं ।
(8) अधिक संख्या में छात्र सुनकर इसको नोट कर सकते हैं।
(9) शिक्षक विचारधारा के प्रवाह में बहुत सी नई बातें बता देते हैं ।
(10) इस विधि के प्रयोग से अध्यापक को शिक्षण कार्य में बहुत सुविधा है।
(11) एक ही समय में छात्रों के बड़े समूह का शिक्षण किया जाता है।
व्याख्यान विधि के दोष (Demerits)—
(1) कुछ बातों की सूचनाएँ प्राप्त कर लेना ही अध्ययन नहीं है।
(2) छात्र निष्क्रिय बैठे रहते हैं।
(3) ‘गुरु-शिष्य – शिक्षण’ सिद्धान्त की अवहेलना यह विधि करती है ।
(4) व्याख्यान विधि में श्रवणेन्द्रिय के अतिरिक्त अन्य ज्ञानेन्द्रियों का प्रयोग नहीं हो पाता ।
(5) विषय का प्रयोगात्मक पक्ष उपेक्षित रहता है।
(6) इस प्रकार से प्रदत्त ज्ञान अस्थाई होता है।
(7) व्याख्यान के बीच में यदि छात्र कोई बात न समझ पायें तो शेष व्याख्यान भी समझने में असमर्थ रहते हैं ।
(8) व्याख्यान की सभी बातों को शीघ्रतापूर्वक लिखना छात्रों के लिए कठिन होता है ।
(9) छोटी कक्षाओं में छात्रों के लिए यह विधि अनुचित व अमनोवैज्ञानिक है।
(10) छात्रों में ज्ञान प्राप्त करने की रुचि जाग्रत नहीं होती ।
(11) छात्रों की मानसिक शक्ति में किसी प्रकार का विकास नहीं होता है।
(12) इसमें शिक्षक ‘शिक्षक’ न रहकर केवल ‘वक्ता’ बन कर रह जाता है।
(13) यह मनोवैज्ञानिक विधि नहीं है ।
सुधार के लिए सुझाव—
(1) बालकों को कम बताकर उन्हें ऐसे अवसर प्रदान करने चाहिये जिससे वे अपने पूर्व ज्ञान के आधार पर अपने परिश्रम व अनुभव से अधिक ज्ञान प्राप्त कर सकें ।
(2) व्याख्यान में छात्रों को क्रियाशील रखने के लिए उनसे समय-समय पर प्रश्न पूछे जाने चाहिये ।
(3) आवश्यकतानुसार श्यामपट्ट का उपयोग करना चाहिये ।
(4) उचित सहायक सामग्री का प्रयोग किया जाये ।
(5) उसे सामान्यीकरण के सिद्धान्त पर जोर देना चाहिये ।
(ii) प्रदर्शन नीति– शिक्षण के क्षेत्र में प्रदर्शन विधि का काफी महत्त्व है। इस विधि में छात्र एवं शिक्षक दोनों ही सक्रिय रहते हैं । कक्षा में शिक्षक सैद्धान्तिक भाग का विवेचन करने के साथ इस विधि द्वारा उसका सत्यापन करता है। शिक्षक पढ़ाते समय प्रयोग करता जाता है और छात्र प्रयोग-प्रदर्शन का निरीक्षण करते हुए ज्ञान प्राप्त करते हैं। छात्र आवश्यकतानुसार अपनी शंकाएँ भी शिक्षक के सामने रखते हैं।
प्रदर्शन विधि की विशेषताएँ—
(1) यह विधि छोटी कक्षाओं के लिए अधिक उपयुक्त है।
(2) प्रयोग प्रदर्शन शिक्षक द्वारा किए जाने से उपकरणों की टूट-फूट कम होती है ।
(3) छात्रों की निरीक्षण, तर्क एवं विचार-शक्ति का विकास होता है।
(4) छात्र इस विधि से सिद्धान्त को स्पष्ट रूप से समझ सकते हैं, साथ ही प्राप्त ज्ञान अधिक स्थायी होता है।
(5) उपकरणों की संख्या में कमी होने पर भी शिक्षण प्रभावशाली होता है।
(6) समय कम लगता है।
(7) छात्र स्वयं देखकर सीखते हैं।
(8) बालकों की दृष्टि एवं श्रवण इन्द्रियाँ अधिक सक्रिय रहती हैं।
दोष—
(1) इस विधि में बालकों को स्वयं प्रयोग के अवसर नहीं मिलते।
(2) इस विधि द्वारा विषय-वस्तु के सामान्य ज्ञान का ही प्रदर्शन हो सकता है।
(3) कुछ छात्र ठीक प्रकार से प्रयोगों का निरीक्षण नहीं करते।
(4) कभी-कभी शिक्षक द्वारा प्रयोग सफल नहीं होता तो छात्रों के मन में विषय के प्रति अनेक भ्रान्तियाँ उत्पन्न हो जाती हैं।
सुधार के लिए सुझाव—
(1) छात्रों के समक्ष कोई भी प्रदर्शन करने से पूर्व उसका पूर्व अभ्यास शिक्षक को करना चाहिये ।
(2) प्रदर्शन के साथ श्यामपट्ट तथा अन्य शिक्षण सहायक सामग्रियों का आवश्यकतानुसार उपयोग शिक्षक को करना चाहिये।
(3) बालकों द्वारा प्रदर्शन के निरीक्षण के आलेख की सत्यता पर बल दिया जाना चाहिये ।
(4) प्रत्येक प्रयोग छात्रों के सामने किया जाये। प्रयोग का स्थान ऐसा हो जहाँ से प्रत्येक छात्र प्रयोग – क्रिया भली-भाँति देख सके।
(5) प्रयोग प्रदर्शन में छात्रों का सहयोग लेना चाहिये । उनकी शंकाओं का समाधान होता रहना चाहिये ।
(6) प्रदर्शन के लिए आवश्यक सभी सामग्री प्रदर्शन – मेज पर होनी चाहिये ।
(7) प्रदर्शन का उद्देश्य छात्रों के सामने एकदम स्पष्ट कर देना चाहिये ।
(8) प्रदर्शन से पूर्व छात्रों को प्रयोग का ज्ञान, सामग्री तथा उपकरणों का पूर्ण ज्ञान होना चाहिये ताकि प्रदर्शन के समय छात्रों को समझने में कठिनाई न हो।
(9) प्रयोग पूर्ण होने के बाद उपकरणों को सावधानी से साफ करके उचित स्थान पर रख देना चाहिये ।
(10) प्रदर्शन के पश्चात् शिक्षक को छात्रों के साथ-साथ निरीक्षण एवं परिणाम सम्बन्धी वार्तालाप करना चाहिये।
(iii) अन्वेषण नीति—इस नीति में छात्र स्वयं खोज करके सीखते हैं। शिक्षक का कार्य केवल पथ-प्रदर्शक का होता है जो उचित समय पर गलतियाँ सुधारने में सहायता देता है। छात्र जैसे-जैसे कार्य तथा प्रयोग करते जाते हैं वैसे-वैसे ही उन्हें नवीन ज्ञान की प्राप्ति होती जाती है। इस नीति के जन्मदाता प्रो. आर्मस्ट्राँग (Prof. Armstrong) थे । उनके मत के अनुसार, “किसी भी विषय को सीखने की प्रक्रिया ही अन्वेषण है और छात्रों को विषय सम्बन्धी तथ्यों एवं सिद्धान्तों की खोज स्वयं करनी चाहिये।” इस नीति में छात्र एक अन्वेषणकर्त्ता की भाँति कार्य करता है। छात्र के पास प्रारम्भ में प्रयोग सम्बन्धी जानकारी नहीं होती। उसे स्वयं वांछित सूचना तथा सिंद्धान्तों की खोज करने के लिए अनेक आवश्यक प्रयोग करने होते हैं, साथ ही प्राप्य साहित्य का अध्ययन करना होता है ।
विशेषताएँ—
(1) छात्रों में वैज्ञानिक विधि तथा भावना का विकास होता है।
(2) छात्रों में चिन्तन तथा अवबोधन बढ़ता है।
(3) सारा कार्य कक्षा में सम्पन्न हो जाता है अतः गृहकार्य की आवश्यकता नहीं रहती ।
(4) छात्रों को क्रियाशीलता, आत्मविश्वास तथा आत्मनिर्भरता बढ़ती है ।
(5) यह विधि छात्रों को जीवन के लिए तैयार करती है ।
(6) इससे प्राप्त ज्ञान अधिक स्थायी होता है ।
(7) छात्रों को यह विधि यथातथ्य (Exact) बनाती है और सत्य के निकट पहुँचाती है ।
(8) इसमें छात्र की निरीक्षण शक्ति तीव्र होती है तथा विचार प्रक्रिया सक्रिय हो जाती है ।
(9) परिश्रम करने की क्षमता एवं रुचि का विकास होता है ।
दोष—
(1) शिक्षण गति धीमी रहने से पूरा पाठ्यक्रम निर्धारित समय में नहीं पढ़ाया जा सकता।
(2) छात्र निष्कर्षों तक पहुँचने में कठिनाई का अनुभव करता है।
(3) अधिक धन खर्च होता है ।
(4) बड़े समूहों में इस विधि से शिक्षा देना कठिन है।
(5) कमजोर छात्रों के लिए उपयोगी नहीं है ।
(6) शिक्षक को इस विधि का प्रयोग करने पर विशेष तैयारी करनी पड़ती है।
(7) छोटी कक्षाओं में यह विधि उपयुक्त नहीं है।
(8) इस विधि में अच्छी प्रयोगशाला तथा अच्छा पुस्तकालय आवश्यक है।
सुझाव—
(1) अन्वेषण विधि का रूप वास्तविक होना चाहिये ।
(2) पूरे पाठ्यक्रम की अपेक्षा केवल कुछ चुने गये पाठ ही इस विधि से पढ़ाये जायें।
(3) शिक्षक अपने दायित्व के प्रति पूर्ण रूप से सजग एवं सतर्क रहें।
(iv) प्रायोजना नीति– जॉन डीवी (John Dewey) के शिष्य किलपैट्रिक (W.H. Kilpatric) ने इस विधि को जन्म दिया। उनके अनुसार ” प्रायोजना वह क्रिया है जिसमें पूर्ण संलग्नता के साथ सामाजिक वातावरण में लक्ष्य प्राप्त किया जाता है।” स्टीवेंसन (Prof. Stevenson) ने प्रायोजना को एक समस्यामूलक कार्य बताया, जो अपनी स्वाभाविक परिस्थितियों के अन्तर्गत पूर्णता प्राप्त करता है।
इस विधि में छात्रों के समक्ष एक समस्या प्रस्तुत की जाती है और छात्र उसका हल निकालने में लगे रहते हैं। इसमें छात्र अपनी रुचि व इच्छा के अनुसार कार्य करता है ।
प्रायोजना के सिद्धान्त—
(1) सोद्देश्यता का सिद्धान्त
(2) क्रियाशीलता का सिद्धान्त
(3) वास्तविकता का सिद्धान्त
(4) उपयोगिता का सिद्धान्त
(5) स्वतन्त्रता का सिद्धान्त
(6) सामाजिक विकास का सिद्धान्त ।
प्रत्येक प्रायोजना के नियोजन एवं नियमन करने के लिए इन सिद्धान्तों पर विशेष रूप से बल दिया जाता है ।
प्रायोजना के पद– प्रत्येक प्रायोजना को निम्नांकित भागों में बाँटा जाता है—
(1) प्रायोजना का चयन– शिक्षक को ऐसी परिस्थिति का निर्माण करना चाहिये जिसमें छात्र स्वयं योजनाएँ बनाने लगें। इस प्रकार से छात्रों द्वारा प्राप्त विभिन्न प्रायोजनाओं पर स्वतन्त्रतापूर्वक छात्र एवं शिक्षक मिलकर विचार-विमर्श करें। जहाँ तक हो सके छात्रों को स्वयं ही प्रायोजना के चयन का अवसर मिलना चाहिये। शिक्षक को आवश्यकतानुसार चयन की प्रक्रिया में परामर्श देना चाहिये ।
(2) रूपरेखा तैयार करना– प्रायोजना के चयन के पश्चात् उसे पूर्ण करने के लिए कार्यक्रम बनाना चाहिये । कार्यक्रम के निर्धारण में छात्रों को विचार-विमर्श के लिए पूर्ण छूट होनी चाहिये । निश्चित रूपरेखा तैयार होने पर विभिन्न उत्तरदायित्व सभी छात्रों में उनकी योग्यतानुसार बाँट देने चाहिये और इस सबका आलेख करना चाहिये ।
(3) कार्यक्रम का क्रियान्वयन– कार्यक्रम की रूपरेखा बनाने के बाद प्रायोजना के अन्तर्गत कार्य प्रारम्भ हो जाता है। जिन छात्रों को जो उत्तरदायित्व सौंपे गये हैं, वे पूरे करना शुरू कर देते हैं। छात्रों को अपने उत्तरदायित्व पूरे करने के लिए विभिन्न प्रकार का ज्ञान प्राप्त करना पड़ता है। इस प्रकार से प्राप्त ज्ञान अधिक स्थायी होता है। शिक्षक छात्रों को प्रोत्साहन देता है, उनके कार्यों का निरीक्षण करता है और योजना में आवश्यकतानुसार संशोधन भी कर सकता है।
(4) मूल्यांकन – योजना पूर्ण होने के बाद शिक्षक एवं छात्र मिलकर मूल्यांकन करते हैं। प्रायोजना के उद्देश्य के आधार पर प्रायोजना की सफलता तथा असफलता पर विचार किया जाता है। समय-समय पर छात्र अपने-अपने कार्य पर विचार करते हैं, की गयी गलतियों को ठीक करते हैं और उपयोगी ज्ञान की पुनरावृत्ति करते हैं।
प्रायोजना के प्रकार – शिक्षण के क्षेत्र में विभिन्न प्रकार की प्रायोजनाएँ बनाकर छात्रों को सक्रिय ज्ञान प्रदान किया जा सकता है। ये प्रायोजनाएँ निम्न प्रकार की हो सकती हैं—
(1) पहचान सम्बन्धी प्रायोजना — जैसे— फल, फूल, बीज, जड़, जीव-जन्तु के वर्ग एवं श्रेणी सम्बन्धी प्रायोजनाएँ ।
(2) शल्यकार्य सम्बन्धी प्रायोजना- जैसे— जीव-जन्तु, जड़तना, फूल, फल आदि को काटकर उनके आन्तरिक अंगों के अध्ययन सम्बन्धी प्रायोजनाएँ ।
(3) उपभोक्ता प्रायोजना — जैसे— कृषि, बागवानी आदि ।
(4) संग्रह सम्बन्धी प्रायोजना — जैसे— विभिन्न स्थानों से विभिन्न प्रकार के जीव-जन्तु, पक्षी, पौधे, चित्र, मॉडल आदि के संग्रह सम्बन्धी प्रायोजनाएँ ।
(5) निर्माण सम्बन्धी प्रायोजना— जैसे— विद्यालय में वाटिका, संग्रहालय, एक्वेरियम, टेरेरियम, वाइवेरियम, यन्त्रों आदि के निर्माण सम्बन्धी प्रायोजनाएँ ।
(6) निरीक्षण सम्बन्धी प्रायोजना– इसमें पर्यटन आदि के माध्यम से विभिन्न स्थानों पर विभिन्न प्रकार के जीवजन्तु, कीट, पतंगे, जलवायु, वनस्पति, पुष्पों आदि की विशिष्ट विशेषताओं के निरीक्षण के लिए प्रायोजनाएँ बनाई जा सकती हैं।
(7) समस्यात्मक प्रायोजना— जैसे—आहार में सुधार, स्वास्थ्य में सुधार आदि ।
प्रायोजना नीति की विशेषताएँ—
(1) छात्र स्वयं चिन्तन करके, पढ़ते हैं और कार्य करते हैं।
(2) छात्रों में धैर्य, सन्तोष तथा आत्म-सन्तुष्टि के भाव जाग्रत होते हैं।
(3) यह मनोवैज्ञानिक विधि है।
(4) यह ‘स्वयं करके सीखने’ पर आधारित है।
(5) विभिन्न विषयों में सहयोग स्थापित होता है।
(6) छात्र पूरी योजना में सक्रिय रहता है।
(7) इसमें शारीरिक एवं मानसिक, दोनों प्रकार के ही कार्य छात्रों को करने पड़ते हैं, फलस्वरूप श्रम के प्रति निष्ठा उनमें जाग्रत होती है।
(8) छात्र अपने उत्तरदायित्वों को समझता है एवं पूरा करता है।
(9) प्राप्त ज्ञान स्थायी होता है।
दोष—
(1) यह कक्षा शिक्षण में अधिक समय लेती है।
(2) अधिक व्ययसाध्य है।
(3) अनुभवहीन शिक्षकों के लिए कठिनाइयाँ पैदा करने वाली है।
(4) वास्तविक सिद्धान्तों का सही ज्ञान नहीं होता।
(5) ज्ञान क्रमबद्ध तरीके से प्राप्त नहीं होता।
(6) निश्चित पाठ्यक्रम इस नीति से पूरा करना कठिन है।
(7) शिक्षक को अधिक परिश्रम करना पड़ता है।
सुझाव–
(1) प्रायोजना का निश्चित उद्देश्य होना चाहिये ।
(2) प्रायोजना में सभी छात्रों को यथायोग्य उत्तरदायित्व देने चाहिये।
(3) प्रत्येक आँकड़े का लिखित आलेख अवश्यहोना चाहिये।
(4) छात्रों को विचार-विमर्श की खुली छूट अवश्य होनी चाहिये ।
(v) ऐतिहासिक खोज नीति— ऐतिहासिक खोज में छात्रों को किसी भी घटना के अनुसंधान को लेकर उसके प्रारम्भिक विकास के स्तर से गुजारा जाता है । इस नीति में छात्रों को प्रथम खोजकर्त्ता से अन्तिम खोजकर्त्ता या वैज्ञानिक तक के सम्बन्ध में आविष्कारक की स्थिति में रखा जाता है। इसमें छात्रों को इस प्रकार से रखा जाता है, जिससे कि वे भली-भाँति देख सकें कि किस प्रकार से विभिन्न खोजकर्त्ताओं के विश्वास कैसे समय, खोजों तथा आविष्कारों के तथ्यों के साथ-साथ बदलते चले जाते हैं। किस प्रकार से एक सिद्धान्त के पश्चात् दूसरा सिद्धान्त निकलता है या परिवर्तित होता है। इस प्रणाली में छात्र विभिन्न तथ्यों और अनुमान के अन्तर का मूल्यांकन भी करते हैं । श्री गर्ग (1973) ने इस नीति को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि इसमें छात्र इस बात को स्वीकार करते हैं, “अनुमान तब तक सत्य है कि जब तक कि वह समस्त प्रेक्षित घटनाओं को समझा सके। ये वैज्ञानिक सिद्धान्तों तथा घटनाओं के विकास की प्रक्रिया देख सकते हैं अर्थात् अपरिपक्व अनुमान से लेकर परिपक्व अन्वेषण (खोज) तक । “
इस शिक्षण नीति के प्रवर्तक जे. एस. ब्रूनर हैं। उनके अनुसार “खोज-विधि में छात्रों को अपने मानसिक स्तर, आयु, कक्षा तथा अन्य सम्बन्धित तथ्यों के अनुरूप मौलिक रूप से नवीन ज्ञान की खोज करन पड़ती है। इसमें तथ्यों की व्याख्या इस प्रकार की जाती है जिससे नवीन तथ्यों का बोध होने लगता है।” यह विधि छात्रों को सक्रिय बनाती है और छात्रों के चिन्तन, सूझ-बूझ तथा निरीक्षण क्षमताओं का विकास करती है।
विशेषताएँ—
(1) यह छात्रों को खोजकर्त्ता बनाती है और छात्रों को खोज विधियों में पारंगत करने की ओर प्रयत्नशील रहती है।
(2) सृजनात्मक चिन्तन के विकास में सहायक है।
(3) ज्ञानात्मक तथा भावात्मक पक्षों के उच्च उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए उपयोगी है।
(4) इसके माध्यम से छात्रों को यह मालूम हो जाता है कि वैज्ञानिक खोजों के फलस्वरूप सामाजिक परिवर्तन कैसे लाया जाय।
(5) छात्रों को इस बात का ज्ञान हो जाता है कि कैसे एक सिद्धान्त के बाद दूसरा सिद्धान्त परिवर्तित होता है तथा कैसे नया सिद्धान्त निकलता है ।
(6) यह निरीक्षण, चिन्तन तथा सूझ-बूझ का उपयोग करती है तथा उनका विकास करती है ।
(7) सामाजिक या वैज्ञानिक तथ्यों को रटने की अपेक्षा उन्हें समझने का अवसर प्रदान करती है ।
(8) छात्र इसके माध्यम से नये ज्ञान की खोज करते हैं और उसे स्थायी रूप से याद रखने का प्रयत्न करते हैं ।
(9) छात्रों की विश्लेषण तथा संश्लेषण करने की क्षमताओं का विकास किया जाता है ।
(10) छात्रों के लिए यह विधि रोचकता उत्पन्न करती है ।
सीमाएँ—
(1) यह विधि सभी विषयों या प्रकरणों पर लागू नहीं हो सकती ।
(2) इस विधि में शिक्षण की गति काफी धीमी हो जाती है ।
(3) इस विधि में छात्र सक्रिय तो रहते हैं लेकिन उन्हें स्वयं
करने के लिए अवसर नहीं मिलते।
(4) यह विधि प्रतिभाशाली छात्रों के लिए अधिक उपयोगी है ।
(vi) अनुवर्ग या ट्यूटोरियल नीति–ट्यूटोरियल या अनुवर्ग एक ऐसी शिक्षण नीति है जिसका प्रयोग व्यक्तिगत तथा सामूहिक दोनों ही प्रकार से ( आवश्यकतानुसार) किया जा सकता है ।
इस शिक्षण-नीति में कक्षा को छोटे-छोटे समूहों में बाँट लेते हैं और छोटे-छोटे समूहों में शिक्षक पहुँच कर, उस समूह की समस्याओं तथा मुश्किलों की खोज करता है और छात्रों को उनके सही हल तक पहुँचने में मदद करता है। ट्यूटोरियल में छात्रों की व्यक्तिगत समस्याओं के साथ-साथ पढ़ाई सम्बन्धी जटिलताओं पर भी आवश्यक ध्यान दिया जाता है। इसीलिए इसको ‘गहन शिक्षण का माध्यम’ भी कहा जाता है। ट्यूटोरियल के द्वारा ज्ञानात्मक तथा भावात्मक पक्षों से उच्च स्तरों के उद्देश्यों को प्राप्त किया जाता है। यह छोटे बच्चों तथा प्रौढ़ों की पढ़ाई के लिए अधिक उपयुक्त है। ट्यूटोरियल्स अधिकतर तीन प्रकार के होते हैं—
निरीक्षण युक्त ट्यूटोरियल में शिक्षक के साथ छात्र व्यक्तिगत रूप से विचार-विमर्श तथा वार्तालाप करता है। सामूहिक ट्यूटोरियल में साधारण स्तर के छात्रों को विशिष्ट शिक्षण दिया जाता है और प्रयोगात्मक ट्यूटोरियल में शारीरिक कौशल, प्रयोगशाला कार्य आदि मनोगत्यात्मक प्रक्रियाओं का अध्ययन तथा उनका समाधान किया जाता है । मूल्य विकसित करने के लिए यह शिक्षण-नीति पिछड़े तथा प्रतिभाशाली दोनों प्रकार के छात्रों के लिए उपयोगी है।
ट्यूटोरियल की विशेषताएँ—
(1) छात्रों की उपलब्धियाँ बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण योगदान देती हैं।
(2) यह वैयक्तिक तथा सामूहिक दोनों रूपों में आवश्यकतानुसार प्रयोग की जाती है ।
(3) यह शिक्षण के सुधारात्मक (Remedial) पक्ष पर ध्यान देती है ।
(4) छात्र के पूर्व – ज्ञान के आधार पर उनकी समस्याओं को सुलझाया जाता है ।
(5) ज्ञानात्मक तथा भावात्मक पक्षों के उच्च उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायक है।
इस प्रक्रिया में कार्य पूरा करने के लिए प्रारम्भ में छोटेछोटे संकेत (Hints or clues) छात्रों को दिये जाते हैं, जिन्हें बाद की समस्या सुलझाते समय धीरे-धीरे (Withdraw) करते जाना चाहिये ।
सीमाएँ—
(1) एक शिक्षक केवल अपने विषय से सम्बन्धित समस्याओं का समाधान भली-भाँति कर सकता है। दूसरे विषयों में वे ज्यादा रुचि नहीं लेते।
(2) छात्रों के विभिन्न वर्गों में स्पर्द्धा का विकास होता है।
(3) शिक्षक को छात्रों के मनोविज्ञान का ज्ञान होना चाहिये।
(4) शिक्षक कभी-कभी कुछ विशेष छात्रों पर ही अपना ध्यान केन्द्रित कर देते हैं जबकि ट्यूटोरियल उस समूह के प्रत्येक छात्र के लिए होता है ।
(5) कुछ छात्र, दूसरे छात्रों को बोलने के बहुत कम अवसर देते हैं।
सुझाव—
(1) शिक्षक को निष्पक्ष रहकर समूह के सभी छात्रों पर ध्यान देना चाहिये।
(2) शिक्षकों के अनुभवों, रुचियों तथा विशिष्टीकरण के आधार पर ही उन्हें छात्रों की ट्यूटोरियल कक्षाएँ देनी चाहिये।
(3) सुधारात्मक शिक्षण के साथ-साथ इसका उद्देश्य सामान्य समस्या समाधान कौशल (Routine Problem Solving Skills) विकसित करने का भी होना चाहिये ।
(4) विभिन्न समूहों में जाग्रत स्पर्द्धा तथा ईर्ष्या पर ध्यान दिया जाना चाहिये।
(5) छात्रों की समस्याओं का समाधान प्रमुख उद्देश्य होना चाहिये।
(6) सभी छात्रों को अपनी बातें तथा कठिनाइयाँ सामने रखने के समान अवसर दिये जाने चाहिये।
(7) जहाँ तक हो सके समूह निर्माण की प्रक्रिया का आधार मनोवैज्ञानिक होना चाहिये ।
(vii) वार्तालाप नीति– ली के अनुसार वार्तालाप “शैक्षिक समूह क्रिया है। इसमें छात्र सहयोगपूर्वक एक-दूसरे से किसी समस्या पर विचार करते हैं । ” इस नीति में कोई एक विषय ले लिया जाता है और शिक्षक उस विषय पर छात्रों को वार्तालाप या वाद-विवाद करने के लिए प्रेरित करता है । यह नीति शिक्षण एवं छात्र में अन्तः प्रक्रिया के अवसर बढ़ाती है। इस विधि की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि छात्रों को अपने विचार प्रकट करने की स्वतंत्रता होनी चाहिये । वार्तालाप नीति में सभी छात्रों को बोलने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिये किन्तु शिक्षक एक निरीक्षक तथा निर्देशक के रूप में काम करता रहता है ।
वार्तालाप विधि की विशेषताएँ—
(1) इसमें गलत उपागमों को अनुत्साहित किया जाता है।
(2) छात्रों में आत्मविश्वास जाग्रत होता है ।
(3) इसमें सामाजिक-अधिगम के अधिक अवसर प्राप्त होते हैं।
(4) इससे ज्ञानात्मक तथा भावात्मक पक्षों के उच्च उद्देश्यों को प्राप्त किया जा सकता है ।
(5) इससे तर्कशक्ति बढ़ती है, ज्ञान बढ़ता है तथा अपनी बात कहने का कौशल विकसित होता है ।
(6) ये छात्रों को सक्रिय बनाती है ।
(7) छात्रों की सृजनात्मक विशेषताओं को बढ़ाती है ।
(8) यह जनतान्त्रिक नीति है।
(9) छात्रों की अभिवृत्ति के विकास में सहायक है।
(10) छात्रों को ध्यानपूर्वक सुनने और उचित उत्तर देने के लिए प्रेरित करती है ।
(11) शिक्षक तथा छात्र परस्पर निकट आते हैं और एक-दूसरे को भली-भाँति समझते हैं।
वार्तालाप की सीमाएँ—
(1) सभी छात्र समान रूप से बोल नहीं पाते।
(2) अनावश्यक आलोचना या बाल की खाल निकालने वाले लोग इसके उद्देश्य को नष्ट कर सकते हैं।
(3) छात्रों में कभी-कभी ईर्ष्या तथा स्पर्द्धा जगा देती है।
(4) छात्र कभी-कभी विषय से काफी दूर चले जाते हैं।
वार्तालाप के लिए सुझाव—
(1) सभी छात्रों को बोलने के लिए समान अवसर प्रदान किये जायें ।
(2) शिक्षक को सक्रिय नियन्त्रक का कार्य करना चाहिये ।
(3) वार्तालाप सदैव सार्थक तथा उद्देश्ययुक्त होना चाहिये।
(4) वार्तालाप का प्रकरण पारस्परिक विचार विनिमय से तय करना चाहिये ।
(5) केवल रचनात्मक एवं सार्थक आलोचनाओं को बढ़ावा दिया जाना चाहिये ।
(6) जहाँ तक हो सके विवादास्पद विषयों की उपेक्षा करनी चाहिये ।
(7) न बोलने वाले छात्रों को आगे लाया जाये।
(8) छात्रों को विचारोत्तेजक प्रश्न पूछ- पूछ कर वार्तालाप के लिए तैयार करना चाहिये ।
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