बिहार की कला एवं चित्रकला पर एक निबंध लिखिए ?
बिहार की कला एवं चित्रकला पर एक निबंध लिखिए ?
( 39वीं BPSC/1993 )
अथवा
बिहार की कला एवं चित्रकला के विभिन्न पहलुओं की चर्चा करें।
उत्तर– कला एवं चित्रकला किसी भी क्षेत्र के सांस्कृतिक जीवन की पहचान होती है। बिहार की कलात्मक सम्पदा प्राचीन, बहुआयामी एवं समृद्ध है। आदि मानव की कला के साक्ष्य बिहार में पूर्व ऐतिहासिक काल से ही देखे जा सकते हैं। मौर्यकाल में बिहार ने कला के क्षेत्र में समस्त उत्तर भारत का मार्गदर्शन किया। पाल शासकों के अधीन चित्रकला के क्षेत्र में समस्त पूर्वी भारत में एक नयी शैली प्रस्तुत हुई। आधुनिक काल में ‘पटना कलम’ और ‘मधुबनी चित्रकला’ ने बिहार को राष्ट्रीय ख्याति उपलब्ध करायी है। बिहार की कला पर निम्नवत बिन्दुओं के माध्यम से प्रकाश डाला जा सकता है –
बिहार में कला
मौर्य-कला : भारतीय कला के इतिहास का प्रारंभ मौर्यकाल से माना जा सकता है। इस काल में राजकीय कला एवं लोककला के दो रूप प्रचलित थे।
चन्द्रगुप्त मौर्य का राजप्रासाद ‘राजकीय कला’ का पहला उत्कृष्ट उदाहरण है जिसके अवशेष पटना के कुम्हरार गांव में खुदाई से मिले हैं। इसके फर्श एवं छत लकड़ी के थे एवं इसमें बलुआ पत्थर के 40 पॉलिशदार चमकदार पाषाण स्तंभों का प्रयोग हुआ था। फाह्यान ने इसे ‘देवों द्वारा निर्मित’ कहा है। बलुआ पत्थर से बने अशोक स्तंभ भी मौर्यकालीन कला के उत्कृष्ट नमूने हैं जिन पर ‘ईरानी प्रभाव’ भी दिखता है।
अशोक ने स्तूप निर्माण को प्रोत्साहित किया। सांची एवं भरहुत के स्तूपों का निर्माण उसने ही करवाया था। गया के निकट बराबर की पहाड़ियों में अशोक ने कंदराओं का निर्माण करवाया था। उसके पुत्र दशरथ ने भी नागार्जुनी पहाड़ियों में ऐसे ही निर्माण करवाए।
पटना के दीदारगंज से प्राप्त यक्षी की मूर्ति मौर्यकालीन मूर्तिकला का अद्भुत उदाहरण है जो बालू के पत्थर से बनी है एवं इस पर मौर्यकालीन पॉलिश का भी उत्तम प्रयोग किया गया है। इस काल में मूर्तिकला का विकास एक लोककला के रूप में हुआ। में
मौर्येत्तर कला : शुंग एवं कुषाण काल में कला का विकास जारी रहा । गुप्तकाल में वास्तुकला का विकास बड़े पैमाने पर हुआ। गुप्तकालीन मूर्तिकला के अनेक अवशेष रोहतास, भोजपुर, नालंदा, राजगीर, गया, वैशाली, पटना आदि स्थानों से प्राप्त हुए हैं। इनमें बौद्ध धर्म की तुलना में हिंदू धर्म का प्रभाव अधिक है। इस काल में अनेक मंदिरों का भी निर्माण हुआ।
पाल कला : पाल कला के अवशेष बिहार में प्रचुरता से मिले हैं। इस काल में कांस्य एवं प्रस्तर मूर्तिकला की एक नई शैली का उदय हुआ। इसके मुख्य प्रवर्तक धीमन एवं बिथपाल थे। कांस्य मूर्तियां ढलवां किस्म की हैं जिसके सर्वोत्तम नमूने नालंदा तथा कुक्रीहार (गया के निकट) से प्राप्त हुए हैं। ये मूर्तियां मुख्य रूप से बुद्ध, बोधिसत्व, अवलोकितेश्वर, मुंजुश्री, मैत्रेय तथा तारा की हैं। इनमें कुछ हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियां हैं। पत्थर की मूतियां काले बैसाल्ट पत्थर (Black-Basalt Stone) की बनी हैं। सामान्यत: इन मूर्तियों में अलंकरण की प्रधानता है। कलात्मक सुन्दरता का एक अन्य उदाहरण एक तख्ती है जिस पर ‘शृंगार करती हुई एक स्त्री’ को दिखाया गया है।
मध्यकालीन स्थापत्य कला : तुर्क, अफगान और मुगल शासकों का स्थापत्य कला के क्षेत्र में विशिष्ट योगदान रहा। तुर्क काल की सबसे महत्वपूर्ण इमारत बिहारशरीफ स्थित मलिक इब्राहिम या मलिक बयां का मकबरा है। इस पर तुगलक शैली का प्रभाव है। सासाराम स्थित शेरशाह का मकबरा अफगान शैली का प्रतिनिधित्व करती है। यह झील के मध्य स्थित है एवं अष्टकोणी आकार का चौकोर चबूतरे पर निर्मित है जिसके चारों ओर सीढ़ियां हैं। अष्टकोणी मकबरों की श्रृंखला का यह आखिरी और सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। बिहार में जहांगीर के शासनकाल में निर्मित शाह दौलत का मकबरा मुगल शैली का उदाहरण है।
यूरोपीय स्थापत्य का भी प्रभाव बिहार में देखने को मिलता है। पटना कलेक्टरी एवं पटना कॉलेज के भवनों पर जहां हॉलैण्ड की शैली का प्रभाव दिखता है, वहीं पटना सिटी स्थित पादरी की हवेली और बांकीपुर चर्च की इमारतों में गोथिक शैली का प्रभाव है। मुख्य सचिवालय, उच्च न्यायालय एवं राजभवन की इमारतों पर यूरोपीय पुर्नजागरण काल की शैली का प्रभाव है।
बिहार में चित्रकला
पटना कलम : ‘पटना कलम’ या ‘पटना शैली’ का उद्भव मुगलों के अवसान के समय हुआ। इस शैली के प्रमुख क्षेत्र पटना का लोदीकट्टा, मुगलपुरा, दीवान मोहल्ला, मच्छरहट्टा तथा आरा एवं दानापुर रहे हैं। यह शैली अधिकतर कागज एवं हाथी दांत पर बनाए जाने वाले लघुचित्रों की श्रेणी में आते हैं। विषयों का चुनाव सामान्य दैनिक जीवन से संबद्ध होता था जिसके कारण यह ‘दरबारी शैली’ से भिन्न था। इस शैली के चित्रों में लकड़ी काटता बढ़ई, मछली बेचती औरत, कहार, लोहार, सुनार, खेत जोतता किसान, साधु-संन्यासी आदि हैं। इस शैली के प्रमुख चित्रकारों में सेवक राम एवं हुलास लाल हैं। अनेक विशिष्टताओं एवं मौलिकताओं के बावजूद यह शैली प्रायः मृतप्राय हो चुकी है।
मधुबनी चित्रकला : मधुबनी या मिथिला चित्रकला महिलाओं की पूर्ण भूमिका वाली एक लोककला है जिसके प्रमुख केन्द्र मधुबनी, सिमरी, लहेरियासराय आदि हैं। चित्रों में दुर्गा, राधा-कृष्ण, सीता-राम, शिव-पार्वती, विष्णु – लक्ष्मी आदि का चित्रण अधिक होता है। साथ ही कामदेव, रति और यक्षणियों के अतिरिक्त पुरुष एवं नारी की जनेन्द्रियां बनाई जाती हैं। पृष्ठभूमि के लिए पशु-पक्षियों और वनस्पतियों के भी प्रतीकात्मक चित्र बनाए जाते हैं।
चित्रों में मुख्यत: प्राकृतिक रंगों का प्रयोग किया जाता है एवं चित्रों को उंगलियों या बांस की कूची से बनाया जाता है। विगत वर्षों में इसकी लोकप्रियता देश-विदेश में बढ़ी है। इस शैली की प्रमुख कलाकार पद्मश्री सिया देवी, कौशल्या देवी आदि हैं। शशिकला देवी के चित्रों की प्रदर्शनी जापान में हो चुकी है। जापान के तोकामाची सिटी में मिथिला पेंटिंग का संग्रहालय बनाया गया है।
इस शैली की विशेषता है कि इन चित्रों में चित्रित वस्तुओं का मात्र सांकेतिक स्वरूप का प्रयोग किया जाता है – जैसे किसी आदमी के चित्र के लिए उसके गुणों को संकेतों में अंकित कर देना। रंगों की विशिष्टता इस शैली की एक अन्य विशेषता है जिसमें अधिकतर प्राकृतिक रंगों का ही प्रयोग किया जाता है।
बिहार में पटना कलम एवं मधुबनी शैली के अलावा भागलपुर क्षेत्र में प्रचलित मंजूषा शैली, उत्तर प्रदेश से आई सांझी कला शैली आदि भी प्रमुख चित्रकला शैली है जो बिहार के चित्रकला शैली की समृद्धि को दर्शाती है।
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