भारतीय संघीय ढांचा संवैधानिक रूप से केन्द्र सरकार की ओर उन्मुख है। व्याख्या कीजिए।

भारतीय संघीय ढांचा संवैधानिक रूप से केन्द्र सरकार की ओर उन्मुख है। व्याख्या कीजिए।

अथवा

संघात्मक सरकार एवं एकात्मक सरकार के लक्षणों का तुलनात्मक अंतर बताएं।
अथवा
केन्द्र-राज्य की शक्तियों का संवैधानिक विभाजन (संघ, राज्य एवं समवर्ती सूची) की स्थिति का उल्लेख करें। 
अथवा
विवाद की स्थिति में केन्द्रीय शक्ति की संवैधानिक स्थिति का उल्लेख करें।
अथवा
केन्द्रीय एजेंसियों अथवा संस्थाओं की भूमिका का विन्दुवार उल्लेख करें।
अथवा
केन्द्र बनाम राज्य सरकारों के विवाद में सर्वोच्च न्यायालय के कुछ फैसलों का हवाला दें।
उत्तर- संविधान के प्रथम अनुच्छेद में कहा गया है कि “भारत, राज्यों का एक संघ होगा।” लेकिन संविधान शासन को अपनाते हुए भी भारतीय संघ व्यवस्था की भावी दुर्बलताओं को दूर रखने के लिए प्रयासरत निर्माता संघीय और इस कारण भारत के संघीय शासन में ही एकात्मक शासन के कुछ लक्षणों को अपना लिया गया है।
1. शक्तियों का विभाजनः अन्य संघों की तरह, भारतीय संघ में भी केन्द्र तथा राज्य सरकारों को सांविधानिक स्थिति प्राप्त है। उनके कार्य क्षेत्र को भी संविधान द्वारा निर्धारित किया गया है। संविधान द्वारा दोनों सरकारों के बीच शक्तियों का विभाजन किया गया है, इनमें से कोई भी दूसरे के कार्य क्षेत्रों का अतिक्रमण करता है तो विवाद की स्थिति पैदा हो जाती है। संविधान में तीन सूचियों द्वारा शक्तियों का विभाजन किया गया है -संघ सूची, राज्य सूची तथा समवर्ती सूची। संघ सूची में राष्ट्रीय महत्व के 97 विषय हैं, जैसे- रक्षा, रेलवे, डाक एवं तार आदि। राज्य सूची में स्थानीय महत्व के 66 विषय हैं, जैसे- लोक स्वास्थ्य, पुलिस, स्थानीय स्वशासन आदि। समवर्ती सूची में 47 विषय रखे गए हैं, जैसे- शिक्षा, बिजली, श्रम-संघ, आर्थिक एवं सामाजिक योजना आदि। इस सूची पर केन्द्र तथा राज्य सरकारों का समवर्ती अधिकार क्षेत्र है। हालांकि, संविधान में जो विषय संघ सूची, राज्य सूची तथा समवर्ती सूची में नहीं आते, वे केन्द्र सरकार के अधिकार क्षेत्र में रखे गए हैं। ऐसे अधिकारों को ‘अवशिष्ट अधिकार’ कहा जाता है। यदि शक्ति विभाजन के संबंध में कोई विवाद हो तो उसका निपटारा न्यायपालिका द्वारा सांविधानिक प्रावधानों के आधार पर किया जाता है। यहां शक्ति संतुलन केन्द्र के पक्ष में झुक गया है।
2. संघ व राज्यों के लिए एकही संविधान: अमेरिका व स्वीट्जरलैण्ड में संघीय व्यवस्था में केन्द्र व राज्यों के अलगअलग संविधान हैं, लेकिन भारत में केन्द्र व राज्यों के लिए एक ही संविधान है।
3. इकहरी नागरिकता: भारत में दोहरी शासन व्यवस्था होते हुए भी इकहरी नागरिकता है। इसमें संघ तथा राज्यों की कोई पृथक नागरिकता नहीं है। यह व्यवस्था राज्यों की तुलना में केंद्र को शक्तिशाली बनाती है।
4. एकीकृत न्याय व्यवस्था: अमेरिका तथा ऑस्ट्रेलिया में संघ व राज्यों की न्यायव्यवस्था पृथक पृथक होते हैं, किंतु भारत में एक ही सर्वोच्च न्यायालय है। देश के समस्त न्यायालय उच्चतम न्यायालय के अधीन है। उच्चतम न्यायालय के द्वारा दिए गए निर्णय सभी अधीनस्थ न्यायालयों को मान्य होते हैं।
5. संसद को राज्यों के पुनर्गठन की शक्तिः भारत के संविधान के अनुच्छेद 3 के अनुसार संसद को राज्यों के पुनर्गठन का अधिकार है जिसमें संसद –
i) किसी राज्य से उसका कोई प्रदेश पृथक करके दो या दो से अधिक राज्यों को मिलाकर कोई नया राज्य बना दे। (जैसे जम्मू-व -कश्मीरर – लदाख, तेलंगाना, उत्तराखण्ड, झारखण्ड एवं छत्तीसगढ़ राज्यों का गठन)
 ii) किसी राज्य के क्षेत्र में कमी या वृद्धि कर दे।
iii) राज्य की सीमाओं तथा उनके नाम बदल दे, जैसे बम्बई का मुम्बई, कलकत्ता को कोलकाता, मदास को चेन्नई आदि।
iv) किसी संघ राज्य क्षेत्र का दर्जा बढ़ा कर इसे पूर्ण राज्य का दर्जा दे सकती है, जैसे गोवा।
6. राष्ट्रपति द्वारा राज्यपालों की नियुक्तिः भारत में राज्यपालों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। वे राष्ट्रपति के प्रसाद-पर्यन्त अपने पद पर रह सकते हैं। केन्द्र राज्यपाल के माध्यम से राज्य पर नियंत्रण रखता है। इससे राज्य की स्वायत्तता सीमित हो जाती है।
7. राज्य विधान मण्डलों में प्रस्तुत विधेयकों पर राष्ट्रपति की पूर्व स्वीकृतिः कुछ विधेयकों को राज्य विधान सभा में प्रस्तुत करने से पूर्व राष्ट्रपति की अनुमति आवश्यक होती है। उदाहरणार्थ यदि राज्य विधान मण्डल अनुच्छेद 304 ‘ख’ के अन्तर्गत राज्यों के मध्य व्यापार पर सार्वजनिक हित में प्रतिबंध लगाना चाहता है, तो ऐसे विधेयकों को राज्य विधान मण्डल में प्रस्तुत करने से पूर्व राष्ट्रपति की अनुमति आवश्यक होती है।
8. संकटकाल में एकात्मक रूप: सामान्य परिस्थिति में भारतीय संविधान संघीय आधार पर कार्य करता है किंतु संकटकाल में राष्ट्रपति द्वारा आपातकाल की घोषणा करने पर राज्यों की स्वायत्तता समाप्त हो जाती है। संविधान के अनुच्छेद 352 के अंतर्गत युद्ध या बाह्य आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह, अनुच्छेद 356 के अन्तर्गत राज्यों में सांविधानिक तंत्र की विफलता, अनुच्छेद 360 के अन्तर्गत वित्तीय आपात जैसे हालात में भारत की संघीय व्यवस्था, एकात्मक रूप ग्रहण कर लेती है। संघ की सर्वोच्चताः संविधान के संशोधन में भी संघीय संसद को राज्य विधान मण्डल
9. संविधान संशोधन प्रक्रिया में संघ की सर्वोच्चताः संविधान के संशोधन में भी संघीय संसद को राज्य विधान मण्डल की अपेक्षा अधिक शक्तियां प्राप्त हैं। संविधान का अधिकांश भाग संसद के साधारण बहुमत से संशोधित किया जा सकता है, कुछ संशोधनों को संसद के दो तिहाई बहुमत से पास किया जा सकता है। लेकिन संविधान के कुछ उपबंध हैं जिन पर राज्यों की स्वीकृति अनिवार्य है। भारत में राज्यों को संविधान में कोई संशोधन का प्रस्ताव रखने का अधिकार नहीं है।
10. एकल संरचनाएं: सम्पूर्ण देश के लिए अखिल भारतीय सेवाओं, इकहरी न्यायपालिका प्रशासनिक एकरूपता, एक ही नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक, एकल निर्वाचन आयोग आदि की व्यवस्था की गई है जिससे राज्यों की स्वायत्तता प्रभावित होती है। “
11. राज्यों की दुर्बल वित्तीय स्थितिः राज्यों की आय के स्रोत बहुत सीमित हैं। ये वित्तीय स्रोत राज्यों की लोक-कल्याणकारी सेवाओं और विकास के लिए अपर्याप्त होते हैं। इसलिए राज्य अनुदान व सहायता के लिए केन्द्र पर आश्रित रहते हैं। केन्द्र द्वारा राज्यों को अनुदान शर्तों के आधार पर दिया जाता है। इस प्रकार राज्यों पर केन्द्र का नियन्त्रण रहता है। राज्यों की आर्थिक दुर्बलता और संघ पर उनकी निर्भरता राज्यों की स्वायत्तता को सारहीन बना देती है।
 12. अन्तर्राज्यीय व क्षेत्रीय परिषद्: अनुच्छेद 263 के अनुसार राष्ट्रपति राज्यों के पारस्परिक विवादों की जांच करने, राज्य सूची के विषयों पर सूचना एकत्रित करने, सामान्य नीति-निर्धारण के लिए यदि राष्ट्रपति लोक हित में आवश्यक समझे तो अन्तर्राज्यीय परिषद् की स्थापना कर सकता है।
संवैधानिक प्रावधानों के अतिरिक्त योजना/नीति आयोग, राष्ट्रीय विकास परिषद् और सीबीआई जैसी संविधानेत्तर संस्थाओं ने भी केन्द्र को अधिक शक्तिशाली बनाया है, साथ ही कभी-कभी किसी प्रधानमंत्री के चमत्कारिक अथवा तानाशाही व्यक्तित्व और केन्द्र व राज्यों में एक दलीय सरकारें भी केन्द्रीय शक्ति को अधिक सशक्त बनाने के कारक बनते रहे हैं।
 निष्कर्षतः संघ-राज्य शक्ति अधिकारों के विश्लेषण के आधार पर यह स्पष्ट है कि भारतीय संविधान में संघीय व्यवस्था की सभी विशेषताएं विद्यमान हैं। वैसे “भारतीय राजव्यवस्था का स्वरूप तो संघीय है लेकिन इसकी आत्मा ‘एकात्मक’ है।” ऐसा इसलिए कहा जाता है, क्योंकि भारत में केन्द्रीय सरकार काफी मजबूत है। चूंकि स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय देश की राजनीतिक और भू-सामरिक स्थिति को ध्यान में रखते हुए संविधान निर्माताओं का यह मानना था कि भारत में एक ऐसी संघीय व्यवस्था होनी चाहिए जो इन विविधताओं तथा बहुलतावाद को केन्द्रीय शक्ति एक साथ समायोजित कर सके। जब भारत आजाद हुआ तो इसके समक्ष देश की ‘एकता और अखण्डता’ को बनाए रखने के लिए सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक जैसे कई गंभीर चुनौतियों से निपटना मुख्य प्राथमिकता थी। उस समय भारत ब्रिटिश सरकार द्वारा बनाए गए 500 से अधिक प्रान्तीय रजवाड़ों में विभाजित था, जिन्हें विभिन्न राज्यों में समाहित कर भारत की ‘राष्ट्रीय एकता’ एवं ‘अखण्डता’ को सुदृढ़ करना ही मुख्य लक्ष्य था। अतः हम ऐसा कह सकते हैं कि भारतीय संघीय ढांचा संवैधानिक रूप से केन्द्र सरकार की ओर उन्मुख है।
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