बिहार के विशेष संदर्भ में 1857 की क्रांति के महत्व की आलोचनात्मक विवेचना कीजिए |
बिहार के विशेष संदर्भ में 1857 की क्रांति के महत्व की आलोचनात्मक विवेचना कीजिए |
(56-59वीं BPSC/2016)
अथवा
1857 की क्रांति का बिहार राज्य पर प्रभाव के सकरात्मक-नकारात्मक पहलुओं की चर्चा कीजिए।
उत्तर – अंग्रेजी सत्ता को बिहार में सबसे सशक्त विरोध का सामना 1857 में करना पड़ा। राष्ट्रीय भावना के जागरण के पूर्व, ब्रिटिश विरोधी आंदोलन की श्रृंखला में 1857 का आंदोलन सबसे महत्वपूर्ण और अंतिम चुनौती सिद्ध हुआ। इस स्वतंत्रता संग्राम में अन्य राज्यों के क्रांतिकारियों के साथ बिहार के क्रांतिकारियों ने भी सक्रिय भूमिका निभाई। बिहार में इस आंदोलन/क्रांति का महत्व भी कम महत्वपूर्ण नहीं है।
बिहार में इस विद्रोह का आरंभ 12 जून, 1857 को देवघर जिला से हुआ, जहां से इस क्रांति का प्रसार संपूर्ण बिहार में हुआ। छपरा, मुजफ्फरपुर, आरा, गया, मोतिहारी, दानापुर व सासाराम इसके प्रमुख केन्द्र थे । इस क्रांति में दानापुर छावनी के सैनिकों समेत वहाबी आंदोलन के नेताओं व प्रमुख जमींदारों ने व्यापक रूप से हिस्सा लिया। राष्ट्रीयता का मसला जुड़ जाने से आम जनता का भी इन्हें समर्थन प्राप्त हुआ।
1857 का विद्रोह ब्रितानी शासन द्वारा शीघ्र ही दबा दिया गया, परन्तु अपनी विफलता के बावजूद इसने ब्रिटिश प्रशासन को गहरा आघात पहुंचाया। विद्रोह के परिणामस्वरूप ब्रितानी शासन की संरचना एवं नीतियों में कई महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए।
चूंकि अंग्रेजी नीतियों के विरुद्ध जमींदारों ने क्रांति का बीड़ा उठाया था, इसलिए विद्रोह के पश्चात् भारतीय रियासतों एवं ब्रिटिश साम्राज्य के संबंध को पहली बार परिभाषित किया गया। प्रसार तथा हड़प की नीति को परित्याग कर देशी रियासतों को सम्मानजनक स्थान देने का वायदा किया गया। ऐसा देखा गया है कि इस क्रांति में प्रत्यक्ष रूप से आम जनता का योगदान बहुत ही कम था तथा जमींदारों ने अपने हित के लिए सिपाही विद्रोह का समर्थन किया। बिहार में कुंवर सिंह अंग्रेजों के साथ लड़ाई में वीरगति को प्राप्त हुए थे। इसलिए क्रांति के पश्चात् अंग्रेजों को अपनी नीतियों में परिवर्तन लाना पड़ा। इस क्रांति का परिणाम रहा कि अंग्रेजों का एक बड़ा समर्थक समूह उनका ही विरोधी बन गया।
इस क्रांति में मुसलमानों ने भी साथ दिया था। देशी रियासतों के बाद अंग्रेजों का ध्यान अब इस समूह पर पड़ा। अब अंग्रेजी नीति ‘फूट डालो और शासन करो’ की रही । विद्रोह के पश्चात् मुस्लिम वर्ग का दमन शुरू किया गया। लोक नियुक्तियों में तथा कई क्षेत्रों में उनसे भेदभाव बरता गया। लेकिन 19वीं शताब्दी के अंत में जब राष्ट्रीय आंदोलन का विकास हुआ तब उनकी नीतियां बदल गई। अब मुस्लिम वर्ग को संरक्षण तथा बेहतर सुविधा देकर गैर-मुस्लिमों के साथ भेदभाव शुरू किया गया। यहीं से ‘साम्प्रदायिकता की नवीन अवधारणा’ आधुनिक भारतीय इतिहास में सामने आई।
1857 के बाद अंग्रेजी शासन ने अपने सामाजिक आधार को पहचानना शुरू किया तथा उन वर्गों के हित पर ध्यान देने की कोशिश की गई जिन्होंने विद्रोह के दौरान उनका सहयोग किया था। इस तरह अब अंग्रेजी राज के नए सहयोगियों की तलाश की जाने लगी। इसके लिए भारतीयों के सबसे ज्यादा प्रतिक्रियावादी वर्ग सामंत, राजकुमार, भूपति आदि को संरक्षण देना शुरू किया गया। बाद में राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान इस वर्ग ने अंग्रेजी राज का सबसे समर्थक वर्ग के रूप में अपने को प्रस्तुत भी किया।
1857 के विद्रोह के पश्चात् भारतीयों द्वारा अंग्रेजी शासन के विरोध की पारंपरिक विधि यहीं से समाप्त हो गई। अब विरोध के गैर-पारंपरिक तरीके अपनाए गए। उदाहरण के तौर पर, विभिन्न संस्थाओं की स्थापना, सत्याग्रह तथा असहयोग आदि तरीकों को अपनाकर अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का स्वर मुखर किया गया। बिहार में इसी लिहाज से किसान सभा का गठन एवं बाद में चम्पारण जैसे आंदोलन हुए, जिसका एक स्वरूप अंग्रेजी शासन का विरोध भी था।
इस प्रकार हम देखते हैं कि 1857 के विद्रोह का महत्व काफी महत्वपूर्ण रहे। ब्रिटिश प्रशासन एवं नीतियों में आमूल-चूल परिवर्तन आए। एक अति केन्द्रीकृत प्रतिक्रियावादी सरकार अस्तित्व में आई तथा ब्रिटिश समर्थक राजभक्तों को जन्म दिया।
परन्तु इस नीति से उत्पन्न एक अन्तर्विरोध भी देखने को मिलता है। देश के साथ ही बिहार में भी प्रशासनिक एकीकरण के फलस्वरूप राष्ट्रीय भावना का विकास हुआ तथा ऐसे प्रबुद्ध वर्गों का उदय हुआ जिन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन के लिए अनुकूल परिस्थितियां तैयार कीं।
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