भाषा शिक्षण के प्रमुख शिक्षण सूत्रों का उल्लेख कीजिए ।
भाषा शिक्षण के प्रमुख शिक्षण सूत्रों का उल्लेख कीजिए ।
उत्तर— भाषा शिक्षण के सूत्र— भाषा शिक्षण की प्रक्रिया में व्याप्त कठिनाइयों को दूर करने के लिए शिक्षा-शास्त्रियों ने प्रयोग द्वारा कुछ उक्तियों, तथ्यों का पता लगाया जिनसे शिक्षण कार्य अधिक सरल, सुगम, प्रभावी और रोचक बन जाता है। उन तथ्यों को ही शिक्षण सूत्र कहा जाता है। निम्नांकित शिक्षण सूत्रों का प्रयोग भाषा शिक्षण में करना चाहिए—
(1) सरल से कठिन की ओर– अध्यापक को बालकों के सामने विषयवस्तु के सरलतम रूप को पहले प्रस्तुत करना चाहिए। फिर क्रमशः, जटिल, जटिलतर एवं जटिलतम को। इस सूत्र का अनुसरण नहीं किया गया तो बालक कुछ भी नहीं सीख पायेगा। उसे उस विषय के प्रति घृणा और अरुचि हो जायेगी ।
(2) विशिष्ट से सामान्य की ओर– पहले पाठ से सम्बन्धित कुछ विशिष्ट तथ्य बालकों के सामने रखें। फिर उन तथ्यों के आधार पर पाठ से सम्बन्धित सामान्य नियम निकलवाएँ । उदाहरण- छात्रों को सन्धि विच्छेद के नियम का ज्ञान कराने के बाद कुछ शब्दों का सन्धि विच्छे बता देना चाहिए जिससे छात्र पुनः किसी भी शब्द का सन्धि विच्छेद कर सकें ।
(3) मूर्त (स्थूल ) से अमूर्त (सूक्ष्म ) की ओर– छात्रों को सूक्ष्म विचार बताने से पूर्व स्थूल बताये जाने चाहिए जिससे शिक्षण -प्रभावी हो । स्पैन्सर कहते हैं—“पहले पाठ स्थूल वस्तुओं से प्रारम्भ होने चाहिए और सूक्ष्म बातों में समाप्त होने चाहिए।”
(4) ज्ञात से अज्ञात की ओर– बालक को विषय के प्रारम्भिक ज्ञान को आधार मानकर ही नवीन विषय-वस्तु का ज्ञान प्रदान करना चाहिए।
उदाहरण—छात्रों को विद्योपार्जन शब्द का सन्धि विच्छेद (विद्या + उपार्जन) द्वारा केवल उपार्जन शब्द का अर्थ बताना है, क्योंकि विद्या का अर्थ वह जानता है।
(5) विश्लेषण से संश्लेषण की ओर– किसी भी विषय का पूर्ण एवं निश्चित ज्ञान देने से पहले उसकी प्रत्येक इकाई का विश्लेषण करके छात्रों को विषयवस्तु को समझाना चाहिए। इस विश्लेषण को निश्चित करने के लिए विषय-वस्तु का संश्लेषण किया जाना चाहिए ।
उदाहरण–संज्ञा का ज्ञान देने से पूर्व बालकों को वस्तु, स्थान तथा व्यक्ति से परिचित कराना चाहिए फिर संज्ञा की परिभाषा से ।
(6) सम्पूर्ण (पूर्ण) से अंश (खण्ड) की ओर– बालकों को सम्पूर्ण पाठ की सामान्य रूपरेखा के पश्चात् पाठ को विभिन्न विभागों में विभक्त कर अलग-अलग रूप से विस्तृत अध्यापन कराना चाहिए।
(7) अनुभूत से तर्क की ओर– बालकों की रुचि, जिज्ञासा एवं वृत्ति के आधार पर शिक्षण कार्य करना चाहिए, तत्पश्चात् जैसे-जैसे उनका ज्ञान बढ़ता जाए, वैसे-वैसे ही उनके सामने विषयवस्तु का तार्किक स्वरूप प्रस्तुत करना चाहिए।
(8) अनिश्चित से निश्चित की ओर-छात्रों को अनिश्चित और अपरिपक्व ज्ञान के आधार पर मानकर उन्हें अध्ययन के प्रारम्भिक बिन्दु बनाकर धीरे-धीरे स्पष्ट और निश्चित बनाएँ।
(9) आगमन से निगमन की ओर।
(10) प्रकृति का अनुसरण करो आदि ।
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