युधिष्ठिर की ग्लानि : कथानक एवं काव्य सौंदर्य
युधिष्ठिर की ग्लानि : कथानक एवं काव्य सौंदर्य
‘महाभारत’ रामधारी सिंह दिनकर के प्रिय विषय (ग्रंथ) रहे हैं। महाभारत को आधार बनाकर उन्होंने कई रचनाएं की हैं। इन रचनाओं में कवि ने कई समकालीन प्रश्नों और समस्याओं को विमर्श का केंद्र बनाया। ‘युधिष्ठिर की ग्लानि’ कविता दिनकर जी की महत्त्वपूर्ण रचना ‘कुरुक्षेत्र’ के द्वितीय सर्ग का अंश है। कुरुक्षेत्र के इस युद्धोतर आख्यान की शांतिपर्व में होनवाली परिणति युधिष्ठिर और भीष्म के संवादों पर आधारित है। युधिष्ठिर संग्राम से विजयी होकर भी संतप्त और अपराध-बोध से ग्रस्त हैं। वे शांति के पक्षधर हैं जब कि भीष्म अभी भी सही मानते हैं कि जिसने समग्र भौतिक साधनों को स्वायत्त कर रखा है, जो अन्यायी है, जो हर प्रकार की विषमता का स्रोत, गृद्धधर्मा और अनुचित संग्रही है, उसके विरुद्ध युद्ध करना पाप नहीं।
‘युधिष्ठिर की ग्लानि’ काव्यांश में युधिष्ठिर के अपराध-बोध को कवि ने मार्मिक अभिव्यक्ति प्रदान की है। कविता का आरंभ भीष्म के तीर के आसन पर प्रसन्न मुद्रा में लेटे रहने के दृश्य से होता है। युधिष्ठिर भीष्म को इस पीड़ादायक स्थिति में देखकर रो पड़ते हैं। प्रणाम करते समय उनकी आँखों से आंसू टपक कर भीष्म के पावों को धो डालते हैं। भीष्म आर्तनाद करते हुए कहते हैं कि पितामह, यह भीषण पुर विफल हो गया।
दुर्योधन को इस युद्ध में वीरगति की प्राप्ति हुई और वह मेर सामने ध्वंस का साम्राज्य छोड़ गया है। वह आसमान में विजय ध्वनि करता. चला गया। स्वर्ग लोक में वह अट्टहास करता हुआ मुझसे पूछ रहा है कि, बोलो जीत किसकी हुई, मेरी या तेरी?
इस कविता में युधिष्ठिर हार और जीत को दार्शनिक आधार प्रदान करते हैं। जय और पराजय के द्वंद्व से घिरे युधिष्ठिर भीष्म से पूछते हैं कि पितामह! आप ही बतायें कि इस युद्ध में कौन हारा है? विध्वंस पर सिर धुनने के लिए कौन बचा है? इस विनाश और संहार का मुकुट मेरे लिए भार. सवरूप है। इस युद्ध में इतने लोग मरे कि खून की नदी बह गयी। इस महाविनाश का कारण मैं हूँ, इसीलिए नियति का व्यंग्य-वाण सुनना मेरी मजबूरी है। मैं अपने सगे-संबंधियों का दाह-संस्कार देखने के लिए बचा रह गया हूँ, अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा का विलाप सुनने के लिए बच गया हूँ।
पश्चाताप की अग्नि में जलते हुए युधिष्ठिर भीष्म से कहते हैं कि अगर मुझे युद्ध का यह विनाशकारी परिणाम पता होता तो मैं शरीर बल की जगह मनोबल से लड़ता। तप, त्याग, सहिष्णुता तथा अहिंसा की लड़ाई लड़ कर दुर्योधन पर विजय प्राप्त करता और इतिहास का नया अध्याय लिख डालता। अगर सुयोधन (दुर्योधन) अहिंसा से बात नहीं मानता तो भी मैं यह भयानक रक्तपात नहीं करता और भाइयों समेत भीख मांगकर जीवन-यापन कर लेता। किंतु जिस दिन युद्ध होना तय हुआ, मेरी बुद्धि ने मेरा साथ देना छोड़ दिया। भीम की गदा, अर्जुन का धनुष और मेरी कृपाण ने मेरी मति और बुद्धि को उलट दिया। अर्जुन के मोह ने मुझे युद्ध के लिए विवश कर दिया उसपर श्री कृष्ण की उक्तियों ने आग में घी का काम कर डाला। एक अहंकार ने सभी को ले डूबा।
कृष्ण आज भी कह रहे हैं कि युद्ध पाप नहीं होता किंतु मेरा शरीर पाप-बोध से तिल-तिल कर जल रहा है। क्योंकि इस युद्ध में नीति और आदर्श की धज्जियाँ उड़ गयीं। अभिमन्यू और सुयोधन का वध इसका प्रमाण है। एक तरफ कृष्ण का गीता-ज्ञान है और दूसरी तरफ युधिष्ठिर की आत्मा की आवाज। युधिष्ठिर भली-भांति जानते हैं कि युद्ध उनकी विवशता थी किंतु रक्त-रजित विजय शुद्ध नहीं हो सकता। ध्वंस आधारित सुख और शांति आधारित पराजय में कौन श्रेष्ठ है, कहना कठिन है। युधिष्ठिर इस द्वंद्व से उबर नहीं पाते हैं कि यह युद्ध धर्म था या पाप?
युधिष्ठिर को सोते-जागते युद्ध का विनाशकारी दृश्य आँखों के सामने नाचता रहता है। वह कहते हैं कि कौरवों के इस राज मुकुट में आग जैसी दाहकता है। इस राज्याभिषेक से पाप का धुलना संभव नहीं। यह विजय नागिन की तरह मुझे डंसती है। अब मुझमें इस पश्चाताप से लड़ने की शक्ति नहीं बची है। मैं इस राजगद्दी को कैसे स्वीकार करूं? क्योंकि यह खून की कीचड़ से पैदा हुआ कमल के समान है।
युधिष्ठिर को मृतकों का करूण आर्तनाद सुनाई देता है। पुत्र को गंवा चुकी माता का क्रंदन तो कभी युद्ध में पिता को खो चुका बालक का रोना, उन्हें व्यथित करता है। उन्हें जहाँ-तहाँ विधवाओं को करूण पुकार सुनाई देती है। वे जहाँ कहीं भागकर जाते हैं, वहाँ काल का अट्टहास और अभमन्यु का आवाज सुनाई देता है। युधिष्ठिर भीष्म से कहते हैं कि जब से युद्ध समाप्ति की घोषणा हुई है, मैं इस संसार को अपना मुँह दिखाने लायक नहीं रहा। सभी लोग मुझे घृणा की नजरों से देख रहे हैं।
युधिष्ठिर की ग्लानि इस सीमा तक जाती है कि वे आत्महत्या तक कर लेना चाहते हैं। वे नगर छोड़कर जंगल में चले जाना चाहते हैं, जहाँ मानव तो मानव, पशु-पक्षी भी उन्हें न देख पाये। वे किसी कंदरा में बैठकर अपने किए के लिए जार-बेजार रोना चाहते हैं। वे जानते हैं कि ऐसा करने से भी उनका पाप शांत नहीं हो सकता। लेकिन लोगों के व्यंग्य-वाण से तो वे बच जायेंगे। कविता के अंत में युधिष्ठिर के इस अपराध-बोध से भीष्म युधिष्ठिर के हृदय की विशालता की प्रशंसा करते हैं। और उनका मन शांत करने के लिए युद्ध की अनिवार्यता पर प्रकाश डालते हैं।
प्रस्तुत कविता में युधिष्ठिर के मानसिक आवेग की कलात्मक अभिव्यक्ति कवि ने की है। वस्तुत: युधिष्ठिर के मन में युद्ध को लेकर घमासान मचा हुआ है। युद्ध जीतकर भी उसे लगता है कि वह युद्ध हार गया है। इस कविता में गांधी की शांति और अहिंसा का गहरा प्रभाव देखा जा सकता है। यहाँ युधिष्ठिर गाँधीवाद का प्रतीक है।