मनुज का श्रेय : कथावस्तु एवं काव्य-सौंदर्य

मनुज का श्रेय : कथावस्तु एवं काव्य-सौंदर्य

विज्ञान की सारी शक्ति और संभावनाओं से पूर्ण परिचित होने के बाबजूद दिनकर विज्ञान के समाज और साहित्य विरोधी रूप से चितित थे। दुष्यंत कुमार से हुए एक बातचीत में उन्होंने साफ कहा, “यह तय है कि अगर कविता विज्ञान का पूरा अनुकरण करेगी तो विज्ञान बच रहेगा, कविता मर जाएगी। दिनकर की प्रसिद्धतम रचना ‘कुरुक्षेत्र’ युद्ध और विज्ञान की भूमिका की बारीक पड़ताल करता है। कुरुक्षेत्र’ द्वितीय विश्वयुद्ध के उपरांत लिखा गया काव्य है जिसमें महाभारत युग को आधार बनाकर वस्तुतः युद्ध की समस्या पर विचार किया गया है।
द्वितीय विश्वयुद्ध की विभीषिका ने राष्ट्रकवि को स्तव्य कर दिया था। द्वितीय विश्वयुद्ध के मयंकर नरसंहार और मानवीय मूल्यों के विनाश ने मनुष्य के प्रति उनकी आस्था को विचलित कर दिया था। मनुष्य की भविष्य के प्रति आस्था के प्रति उस युग के अनेक चिंतक शंकालु हो गए थे, जिनमें आईस्टीन और बटैंड रसेल प्रमुख थे। दोनों चिंतकों ने विश्वशांति के लिए बहुत प्रयास किया था। रसेल ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘समाज पर विज्ञान का प्रभाव’ नामक पुस्तक में साफ लिख दिया था कि अगर आणविक अस्त्रों का प्रयोग न रोका गया तो मनुष्य का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा।
आलोच्य कविता ‘मनुज का श्रेय’ कुरुक्षेत्र के छटवें सर्ग से संकलित किया गया है। मनुज का श्रेय’ कविता पर बड रसेल की उक्त पुस्तक का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है। कवि के अनुसार आज का मनुष्य विज्ञान की जिन उपलब्धियों से अपनी प्रगति का विकास का दंभ मरता है, वह एकतरफा है। जो ज्ञान-विज्ञान मानवीय मूल्यों से रहित है. वह मनुष्य का श्रेय हो ही नहीं सकता। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय जापान में हिरोशिमा नागासाकी के ऊपर अमेरिका द्वारा बम विस्फोट वैज्ञानिक खोज की शर्मनाक घटना है। दिनकर ने इस वैज्ञानिक युद्ध के प्रति उक्त कविता में जबर्दस्त विरोध प्रकट किया है-
                                  सावधान मनुष्य यदि विज्ञान है तलवार
                                तो इसे दे फेंक तजकर मोह, स्मृति के पार
                                  हो चुका है सिद्ध, है तू शिशु अभी नादान
                                 फूल, कांटों की नहीं कुछ भी तुझे पहचान।
कवि की दृष्टि में पृथ्वी की संतान को श्रेय उस विज्ञान का है जो विध्वंसक नहीं होकर मनुष्य के लिए प्रणय-बायु के रूप में प्राणाध बनाता है, जिसके कारण एक दूसरे के प्रति अर्पित रहकर मनुष्य अपनी आयु को बढ़ाता है। उस विज्ञान का श्रेय मनुष्य को है जो कमाणा, त्याग, समर्पण और दिव्य भावों के जगत में जागरण-गान का स्वरूप ग्रहण करता है, अर्थात् जिस विज्ञान के सुप्रयोग से मनुष्य को आरम- प्रकाश प्राप्त हो उस विज्ञान का ही श्रेय धरती के मानवों को हो। विज्ञान और बुद्धि के सुप्रयोग से निर्गत होनेवाले सात्विकता रूप मक्खन से ही मनुष्य का हृदय स्निग्ध, सौम्य और पवित्र हो सकता है और तभी उसका मंगल संभव है।
मनुष्य के लिए जो विज्ञान वरदान स्वरूप है, उसका श्रेय भी उसे प्राप्त होना चाहिए क्योंकि ऐसा विज्ञान ही मनुष्य मात्र के लिए सुंदर वरदान हो सकता है जो सबके लिए सहज और सुलभ हो सके। वही विज्ञान श्रेय का पात्र है जिससे सभी लोग सुखपूर्वक रह सकें। वह विज्ञान जो निराशाओं के बीच आशा और रूपन के बीच धैर्य बन सके। जिससे अकाल मृत्यु रुक जाय यह विज्ञान ही मनुष्य का ध्येय होता चाहिए। मानवों में पवित्र भावों का संचार करनेवाला वह ज्ञन जो उसे तप, त्याग, बलिदान की सीख देकर आत्मनियंत्रण में रहना सिखाये, वह ज्ञान ही श्रेयस्कर है। ऐसे ही ज्ञान का श्रेय मनुष्य को प्राप्त होना चाहिए। वही ज्ञान वास्तविक ज्ञान है जो समानता का बोध कराये।
मनुष्य-मनुष्य के बीच भेद की दीवार न खड़ी कर उनके बीच अटूट आस्था और विश्वास पैदा कर सके। ऐसे मनुष्यों से निर्मित समाज एक नया इतिहास बना सकता है। ऐसे समाज में युद्ध, शोषण और पतन का महिमामंडन नहीं होगा। प्रत्येक मनुष्य में संतोष भाव पैदा होगा।
युद्ध विहीन काल पृथ्वी के लिए सर्वाधिक विकसित और पवित्र समय माना जाता है। जब मनुष्य कर्तव्य-बोध और कर्म- सौंदर्य से दिप्त होगा, तभी उनमें मातृत्व की भावना विकसित हो सकती है। समता की वह किरण भारत में कब विकसित होगी इसके लिए कवि भगवान से जवाब तलब करता है। अंत में कवि भगवान से यह प्रार्थना करना चाहता है कि मनुष्यों में उचित पारस्परिक संबंध हो, उनमें ईर्ष्या, द्वेष, घृणा, वैर जैसी दुर्भावनाएं नहीं रहे, आपस में सभी प्रेमपूर्ण व्यवहार करें और चारों तरफ समता और एकता स्थापित हो। कवि कामना करता है कि शांति की छाया विश्राम करने का सुयोग समस्त व्यधित मानवता को प्राप्त हो तथा यह धरती उदार मानवीय भावनाओं से भर जाय।
भाषा सौष्ठव और भाव-व्यंजना की दृष्टि से प्रस्तुत कविता काव्य-कला का अन्यतम उदाहरण है। परिष्कृत और परिनिष्ठित खड़ी बोली में रचित इस कविता में दिनकर जी ने तत्सम शब्दों के ही प्रयोग अधिक किए हैं। डा0 नगेन्द्र के अनुसार, “दिनकर की कला की प्रमुख विशेषता इसकी सुख सरल गति है।”

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