युवा असंतोष के मुख्य कारण कौन-कौनसे हैं ? युवा असंतोष कम करने में शिक्षा की भूमिका स्पष्ट कीजिए|
युवा असंतोष के मुख्य कारण कौन-कौनसे हैं ? युवा असंतोष कम करने में शिक्षा की भूमिका स्पष्ट कीजिए|
उत्तर— युवा असंतोष के मुख्य कारण – निम्नलिखित हैं—
(1) दोषपूर्ण शिक्षा पद्धति – शिक्षा पद्धति के दोषों का भी बालकों में अनुशासनहीनता उत्पन्न करने में महत्त्वपूर्ण भाग है। दोषपूर्ण शिक्षा पद्धति ने बालकों में पर्याप्त मात्रा में असन्तोष एवं नैराश्य उत्पन्न किया । यहाँ उन प्रमुख दोषों का उल्लेख किया जा रहा है जो कि छात्रों में अनुशासनहीनता उत्पन्न करने के लिए उत्तरदायी हैं—
(i) वर्तमान शिक्षा-पद्धति अधिक सैद्धान्तिक एवं शास्त्रीय है । इसका प्रमुख उद्देश्य केवल क्लर्क उत्पन्न करना है। इसके द्वारा ज्ञानेन्द्रियाँ एवं शारीरिक क्षमताओं के विकास की अवहेलना की जाती है । यह चरित्र एवं नैतिक मूल्यों के विकास के प्रति कोई ध्यान नहीं देती है।
(ii) इसमें परीक्षाओं पर अधिक बल दिया जाता है। वस्तुत: परीक्षाएँ साध्य बन गयी हैं। बालक केवल परीक्षा पास करने के लिए पढ़ते हैं और शिक्षक भी परीक्षा पास कराने के हेतु पढ़ाते हैं । इसका दुष्परिणाम विभिन्न प्रकार की अनैतिकता में प्रकट होता
(iii) छात्रों में अनुशासनहीनता की वृद्धि में शिक्षा-पद्धति के अधिकारिक चरित्र ने बड़ा योग दिया है। लोकतंत्रीय समाज के होते हुए भी विद्यालय में अभी तानाशाही दृष्टिकोण को अपनाया जाता है। इस दृष्टिकोण के परिणामस्वरूप बालकों में अविवेकी आज्ञाकारिता की अपेक्षा की जाती है। यह स्थिति उनको अनुशासनहीन बनाने में सहायता प्रदान करती है ।
(2) शिक्षकों तथा छात्रों में पारस्परिक सम्पर्क का अभाव – विद्यालय तथा कक्षाओं में छात्रों की संख्या वृद्धि ने अनुशासनहीनता की समस्या को जन्म देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है। अनियंत्रित भीड़ का प्रमुख कारण शिक्षा का असंतुलित प्रसार है। शासन तथा समाज द्वारा उसके अनुपात में नवीन विद्यालयों की स्थापना नहीं हुई। अधिकांश छात्रों को प्रचलित विद्यालयों में ही समायोजित करने का प्रयास किया। जिसके फलस्वरूप धन कमाने की प्रवृत्ति को जन्म मिला। साथ ही शिक्षक छात्र अनुपात बढ़ गया जिसके कारण शिक्षकों तथा छात्रों में पारस्परिक सम्पर्क का अभाव हो गया ।
(3) विद्यालय – अधिकारियों द्वारा छात्रों की समस्याओं के प्रति उदासीनता – विद्यालय अधिकारियों द्वारा छात्रों की समस्याओं की ओर ध्यान न देने के फलस्वरूप छात्र अपनी माँगों को स्वीकार कराने तथा समस्याओं के समाधान के लिये प्रदर्शन, हड़ताल तोड़-फोड़ आदि का सहारा लेते हैं। विभिन्न प्रकार की उद्दण्ड कार्यवाहियों के माध्यम से विद्यालय अधिकारियों को अपनी ओर आकृष्ट करते हैं।
(4) आर्थिक कठिनाइयाँ – आर्थिक कठिनाइयों ने भी अनुशासनहीनता की वृद्धि में पर्याप्त सहयोग दिया है। जब अंग्रेज भारत छोड़कर चले गये, तब देश की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। स्वतंत्रता के बाद भारत सरकार ने इसको अच्छा बनाने के लिए महत्त्वपूर्ण कदम उठाये। परन्तु जनसंख्या की वृद्धि ने स्थिति को सुधारने में बहुत सी कठिनाइयाँ उत्पन्न की। इस आर्थिक स्थिति ने छात्र-समाज को भी प्रभावित किया । शैक्षिक सुविधाओं के विस्तार के परिणामस्वरूप विद्यालयों में विभिन्न सामाजिक वर्गों के बालक शिक्षा प्राप्त करने के लिए आये। उनमें ऐसे वर्गों के बालक भी आते हैं जिनकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है। इसके परिणामस्वरूप बहुत से बालकों को अपने छात्र जीवन में धनाभाव के कारण नैराश्य एवं असन्तोष का सामाना करना पड़ता है। बहुत से बालकों को स्वयं ही अपनी शिक्षा का व्यय भार उठाना पड़ता है। सबसे अधिक असन्तोष उन्हें तब होता है जब वे अपनी विद्यालय जीवन को समाप्त करके सामाजिक जीवन में प्रवेश करते हैं और वे उसमें स्वयं को अपनी जीविका कमाने के योग्य सिद्ध कर नहीं पाते, अर्थात् उनको बेकारी का सामना करना पड़ता है। इस स्थिति ने उनके मस्तिष्क में तनाव और हृदय में असन्तोष एवं नैराश्य का साम्राज्य स्थापित करने में बहुत सहायता प्रदान की।
(5) आदर्शों का अभाव – गरीबी के लगातार दबाव ने मनुष्य की उत्तम भावनाओं को नष्ट करने में सहयोग दिया। इस आर्थिक असन्तोष के दुष्प्रभावों तथा अन्य तत्त्वों के कारण आदर्शों एवं मूल्यों के प्रति अवहेलना प्रारम्भ हो गई । द्वितीय महायुद्ध के पश्चात् भौतिकवादी दृष्टिकोण का अधिकाधिक प्रसार हुआ जिसके परिणामस्वरूप व्यक्तिगत एवं सामाजिक नैतिक स्तर गिरता चला गया और मनुष्यों के समस्त प्रयास अधिक-से-अधिक धन कमाने में लगने लगे। इस प्रकार उसका मुख्य ध्येय कमाना ही हो गया, चाहे उसके लिए उचित साधन प्रयोग में लाये जायें या नहीं। इस भौतिकवादी दृष्टिकोण ने मनुष्यों को आध्यात्मिक मूल्यों को तिलांजलि देने के लिए विवश किया और समाज में द्वेष, ईर्ष्या, कलह, शोषण, बेईमानी आदि बीमारियों का प्रसार बड़ी तीव्र गति से हुआ। समाज में प्रचलित इन कुरीतियों का प्रभाव छात्रों पर पड़ा।
(6) शिक्षित वर्ग की बेकारी – समाज में बढ़ती आर्थिक विषमताएँ, शिक्षित बेरोजगारों की बढ़ती संख्या तथा महँगाई से त्रस्त जीवन के कारण छात्रों में असंतोष की भावना का जन्म होता है। बढ़ती बेरोजगारी ने छात्रों में यह भावना पैदा कर दी है कि पढ़ने के बाद उन्हें कोई रोजगार नहीं मिल पायेगा । अतः वे समय को काटने के लिये एक एम. ए. के बाद दूसरे विषय में एम. ए. करने लगते हैं। इस अविश्वास एवं अनिश्चितता ने उनमें अशान्ति उत्पन्न कर दी है।
(7) घर तथा समाज का दूषित वातावरण – घर तथा समाज का दूषित वातावरण भी छात्रों में अनुशासनहीनता की वृद्धि के लिये पर्याप्त मात्रा में सहायक है। हमारे असहानुभूतिपूर्ण घर बालकों में अपराधी प्रवृत्ति के विकास के लिये पर्याप्त मात्रा में उत्तरदायी है। इसके अतिरिक्त हमारे समाज का कलह, ईर्ष्या एवं द्वेषपूर्ण वातावरण भी छात्रों में दूषित भावनाओं के विकास में सहायक है। आज हमारी विधानसभाओं तथा संसद में कितना अशोभनीय व्यवहार एवं प्रदर्शन किया जाता है। उसका प्रतिध्वनित व्यवहार छात्रों द्वारा भी शिक्षा संस्थाओं में किया जाने लगा है।
(8) दूषित राजनीति का प्रभाव –आज भारतीय राजनीति का अपराधीकरण हो गया है। इसका दुष्प्रभाव सरस्वती के मन्दिरों में भी देखने को मिल रहा है। राजनीतिक दलों ने छात्रों को अपनी स्वार्थ सिद्धि का महत्त्वपूर्ण साधन बना लिया है। ये दल उनका उपयोग अपनी इच्छानुसार कर रहे हैं। अतः इन्होंने सरस्वती के मन्दिरों को अपराधी बनाने वाले कारखानों में परिवर्तित कर दिया है।
(9) स्वतंत्रता संग्राम का प्रभाव – स्वतंत्रता संग्राम काल में लोगों को अनुचित कानूनों का उल्लंघन करने के लिए कहा गया था। परन्तु कभीकभी उचित एवं अनुचित कानूनों में भेद करना कठिन हो जाता है। जब छात्रों में कुछ कानूनों को तोड़ने की आदत को विकसित कर दिया गया तब उन्होंने सभी प्रकार के कानूनों का उल्लंघन करने की भावना को विकसित कर लिया। आज बालकों में जो अनुशासनहीनता पायी जाती है, उसका प्रमुख कारण इसी तथ्य में निहित है। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि बालकों ने जो कार्य स्वतंत्रता संग्राम में किया, उसकी पुनरावृत्ति वे आज भी करने में नहीं हिचकिचाते है।
युवा असंतोष को दूर करने के लिये सुझाव – युवा की अनुशासनहीनता एवं असंतोष को दूर करने के लिये कुछ प्रमुख सुझावों को नीचे दिया जा रहा है—
(1) शिक्षकों की आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति को सुधारने के लिये महत्त्वपूर्ण कदम उठाये जायें।
(2) शिक्षकों तथा छात्रों के बीच व्यक्तिगत सम्पर्क स्थापित करने के लिये उचित व्यवस्था की जाये।
(3) शिक्षा अधिकारियों को छात्रों की समस्याओं के प्रति सहानुभूतिपूर्ण दृष्टिकोण रखना चाहिये ।
(4) शैक्षिक पर्यावरण को नैतिक एवं सौहार्द्रपूर्ण बनाया जाये जिससे छात्रों में उच्च आदर्शों के लिये निष्ठा एवं उनके अनुसार कार्य करने की भावना का विकास जा सके।
(5) शिक्षा को व्यवसाय केन्द्रित (job-oriented) बनाया जाय।
(6) शिक्षा संस्थाओं का घर तथा समाज से घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित किया जाये ।
(7) शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार किया जाये।
(8) परीक्षा प्रणाली में सुधार लाया जाये ।
(9) योग्य एवं निष्ठावान शिक्षकों की नियुक्ति की जाये।
(10) विश्वविद्यालयों में प्रवेश चयनित आधार पर किया जाये ।
(11) दूषित, संकीर्ण तथा स्वार्थमयी राजनीति को शिक्षा-संस्थाओं से दूर रखा जाये ।
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