शिक्षण शैलियों के सम्प्रता को स्पष्ट कीजिए। इसके प्रकारों का विस्तृत वर्णन कीजिए।

शिक्षण शैलियों के सम्प्रता को स्पष्ट कीजिए। इसके प्रकारों का विस्तृत वर्णन कीजिए।

उत्तर— शिक्षण शैली अवधारणा–शिक्षण शैली को सामान्य अर्थ में शिक्षक के विद्यालयी व्यवहार से लिया जाता है। विद्यालय में शिक्षक द्वारा शिक्षण प्रक्रिया एवं अन्य पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं के संचालन में जो व्यवहार किया जाता है वह व्यवहार भी उनकी शिक्षण शैली में निहित होता है। शिक्षण शैली को एक सामान्य प्रक्रिया के रूप में स्वीकार किया जाता है जो कि वह कक्षा-कक्ष में अपने छात्रों के मध्य करता है। शिक्षक व्यवहार का विश्लेषण करने पर यह ज्ञात होता है कि उसकी शिक्षण शैली के सकारात्मक एवं नकारात्मक पक्ष कौन-कौन से होते हैं। शिक्षण शैली को विद्वानों द्वारा अपने शब्दों में निम्नलिखित रूप में परिभाषित किया है—
(1) रैयन्स के अनुसार, “शिक्षण शैली से तात्पर्य व्यक्ति की उन सभी क्रियाओं एवं व्यवहार से होता है जो एक शिक्षक के करने योग्य मानी जाती है। विशेष रूप से वे क्रियाएँ जो दूसरों के सीखने में निर्देशन एवं मार्गदर्शन का कार्य करती हैं । “
(2) म्यूएक्स तथा स्मिथ के शब्दों में, “शिक्षण शैली के अन्तर्गत शिक्षण कार्य एवं अन्य क्रियाएँ जो कि छात्र के सर्वांगीण विकास में योगदान करती हैं को सम्मिलित किया जाता है। शिक्षक को इन क्रियाओं में प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से सहयोग मिलता है। यह सहयोग ही शिक्षक की शिक्षण शैली को प्रदर्शित करता है । “
(3) श्रीमती आर. के. शर्मा के कथनानुसार, “शिक्षण शैली के अन्तर्गत शिक्षण कार्य एवं अन्य क्रियाएँ जो कि छात्र के सर्वांगीण विकास में योगदान प्रदान करती हैं को सम्मिलित किया जाता है। शिक्षक को इन क्रियाओं में प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से सहयोग मिलता है । यह सहयोग ही शिक्षक की शिक्षण शैली को प्रदर्शित करता है । ” “
उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि शिक्षण शैली व्यापक रूप में सम्पूर्ण विद्यालयी क्रियाकलापों से सम्बन्धित होती है तथा संकुचित रूप में इसका सम्बन्ध कक्षा-कक्ष शिक्षण से होता है। वर्तमान युग में इसके व्यापक स्वरूप को ही स्वीकार किया गया है क्योंकि विद्यालय एवं शिक्षक दोनों का यह उद्देश्य होता है कि छात्र का सर्वांगीण विकास हो ।
                                                            शिक्षण शैली के प्रकार
शिक्षण शैली के विभिन्न प्रकारों का आशय उन कार्यों एवं व्यवस्थाओं से है, जिनको शिक्षकों द्वारा शैक्षिक वातावरण के निर्माण के लिये तथा प्रभावी शिक्षण अधिगम प्रक्रिया के लिये प्रयोग किया जाता है । इन विभिन्न प्रकारों को निश्चित विधियों एवं उपायों के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है। शिक्षण शैली के विभिन्न प्रकारों को निम्नलिखित रूप में स्पष्ट किया जा सकता है—
(1) समूह निर्माण – शिक्षण शैली का प्रमुख प्रकार समूह निर्माण की प्रक्रिया से सम्बन्धित है। जब कक्षा में छात्रों की संख्या अधिक होती है तो उसके प्रबन्धन में शिक्षक को कठिनाई का सामना करना पड़ता है। ऐसी स्थिति में शिक्षक को कक्षा में छात्र संख्या के आधार पर छात्रों को समूहों में विभाजित कर दिया जाता है। समूह में छात्रों की संख्या सामान्यत: 5 से 7 के मध्य होनी चाहिये । इससे छात्रों को एक-दूसरे के पास रहने का अवसर मिलेगा तथा शिक्षक को छात्रों के पर्यवेक्षण में भी सुविधा रहेगी । अतः कक्षा-कक्ष प्रबन्धन का प्रथम चरण या आयाम समूह निर्माण को माना जाता है।
(2) स्व-अधिगम की प्रेरणा – छात्रों में स्व-अधिगम को प्रेरणा का विकास शिक्षण शैली का द्वितीय प्रकार है। इसमें शिक्षकों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे अपने कार्य एवं व्यवहार के माध्यम से छात्रों को स्व-अधिगम की प्रेरणा प्रदान करें; जैसे-विज्ञान विषय के विभिन्न प्रकरणों को प्रस्तुत करने से पूर्व छात्रों को विज्ञान की उपयोगिता से परिचित कराया जाए। इस प्रक्रिया में छात्र समूहों को विभिन्न प्रकार के प्रयोगात्मक कार्य सौंपे जावें, जिससे छात्र अपने-अपने समूहों के साथ हुए कार्यों को सम्पन्न कर सकें। स्व-अधिगम के कारण कक्षा पूर्ण व्यवस्थित होगी तथा अधिगम स्तर उच्च होगा।
(3) व्यवहार परिवर्तन – अनेक अवसरों पर यह देखा जाता है कि कक्षा-कक्ष में कुछ बहुत छात्र शरारती होते हैं। इन छात्रों के व्यवहार में परिवर्तन करने के लिये भी शिक्षकों को विभिन्न प्रकार की रणनीतियाँ तैयार करनी चाहिये; जैसे-ऐसे छात्रों को समूह का नेतृत्व प्रदान किया जाए तथा उनको यह निर्देश दिया जाए कि सम्पूर्ण समूह की सफलता का दायित्व तुम्हारे ऊपर है। अर्थात् जिस नेता का समूह अपनी अधिगम क्रियाओं में सफल नहीं होगा उसे पुनः नेतृत्व नहीं मिलेगा। इस प्रकार के अनेक क्रियाकलापों के द्वारा शरारती छात्रों की उद्दण्डता पर रोक लगाकर उनके व्यवहार को सर्वोत्तम एवं वांछित बनाने का प्रयास करना चाहिये।
(4) छात्र सहभागिता – कक्षा-कक्ष प्रबन्धन के लिये आवश्यक होता है कि छात्रों से सहभागिता प्राप्त की जाए। यदि शिक्षक छात्रों से शैक्षिक एवं अशैक्षिक क्रियाओं में सहयोग प्राप्त नहीं करता तो वह कक्षा-कक्ष प्रबन्धन को उत्पन्न नहीं कर सकता क्योंकि कक्षा-कक्ष में जब छात्र प्रकरण को समझने के लिये तत्पर होते हैं या छात्र यह समझते हैं कि कक्षा-कक्ष में जो भी क्रियाएँ होती हैं वह हमारे लिये महत्त्वपूर्ण एवं उपयोगी है तो ऐसी स्थिति में वह शिक्षक का पूर्ण सहयोग करते हैं तथा कक्षा प्रबन्धित होती है। इसके विपरीत स्थिति में जब वे कक्षा क्रियाकलापों को अनुपयोगी समझते हैं तो कक्षा अप्रबन्धित रूप में पायी जाती है।
(5) कक्षा का संचालन – कक्षा में विविध प्रकार की गतिविधियों के संचालन हेतु प्रयास करना चाहिये कि सभी उसमें रुचि लें क्योंकि छात्रों के रुचि लेने से वे शिक्षक द्वारा निर्धारित नियमों एवं दिशा-निर्देशों का पालन करेंगे। इससे सम्पूर्ण कक्षा प्रबन्धित रूप में कार्य करेंगी तथा सभी छात्रों को कार्य करने का अवसर भी प्राप्त होगा। समय-समय पर शिक्षक द्वारा छात्रों को सहायता करनी चाहिये तथा छात्रों को पृष्ठपोषण प्रदान करना चाहिये, जिससे छात्रों को किसी प्रकार का व्यवधान उत्पन्न करने का अवसर न मिले।
(6) शिक्षार्थियों के अभिलक्षण – सामान्य रूप से शिक्षार्थियों की विशेषता का सम्बन्ध कक्षा-कक्ष प्रबन्ध से होता है। शिक्षक को कक्षा-कक्ष प्रबन्ध में यह ध्यान रखना चाहिये कि उसको किस प्रकार की विशेषताओं से युक्त छात्रों का शिक्षा प्रदान करती है ? उन विशेषताओं के आधार पर ही उसको कक्षा-कक्ष में अधिकांश छात्र प्रतिभाशाली है तो उस कक्षा-कक्ष प्रबन्धन के लिये शिक्षक को पृथक् व्यवस्था करनी होगी। छात्रों के समक्ष तकनीकी दृष्टि से कठिन गतिविधियों को प्रस्तुत करना होगा। इसके साथ प्राथमिक स्तर की कक्षा एवं उच्च प्राथमिक स्तर की कक्षा के प्रबन्धन में भी पर्याप्त अन्तर पाया जाता है। इसलिये छात्रों की विशेषताओं को ध्यान में रखकर ही प्रबन्धन की गतिविधियों को अपनाना चाहिये।
(7) अधिगम स्थितियों का निर्माण – अधिगम स्थितियों का निर्माण करना भी कक्षा-कक्ष प्रबन्धन में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करता है। सामान्यतः वर्तमान समय की शिक्षा प्रणाली में शिक्षक का दायित्व अधिगम परिस्थितियों का सृजन करना होता है। शिक्षक कक्षा में बालकों के समक्ष अधिगम स्थितियों का सृजन करने में सफल हो जाता है तो सभी छात्र अपनी अधिगम क्रियाओं में व्यस्त हो जाते हैं, जिससे कक्षा का स्वरूप प्रबन्धित हो जाता है। यदि प्रशिक्षु या शिक्षक अधिगम परिस्थितियों के सृजन में योग्य नहीं है तो उसकी कक्षा कभी भी प्रबन्धित रूप में नहीं हो सकती क्योंकि छात्रों का अधिगम में संलग्न होना आवश्यक है।
(8) कक्षा-कक्ष प्रबन्ध की तैयारी – कक्षा कक्ष प्रबन्ध की का निर्माण करना भी आवश्यक है। इसके लिये प्रशिक्षुओं द्वारा एक निश्चित योजना का निर्माण करना होता है, जिसमें विभिन्न प्रकार की शिक्षण अधिगम सामग्री एवं कक्षा-कक्ष सामग्री की उपलब्धता पर विचार किया जाता है। इसके प्रयोग एवं नवीन सामग्री के निर्माण पर भी विचार किया जाना आवश्यक है। जो शिक्षक इस सम्पूर्ण तैयारी या योजना का निर्माण उचित रूप में कर लेता है उतना ही वह कक्षा-कक्ष प्रबन्धन के करीब पहुँच जाता है।
(9) प्रबन्ध सम्बन्धी क्रियाकलाप – इसके अन्तर्गत शिक्षकों द्वारा यह प्रयास किया जाता है कि विभिन्न प्रकार के क्रियाकलापों को सम्पन्न किया जाए, जिनसे छात्रों का मन कक्षा-कक्ष की क्रियाओं में लगा रहे; जैसे—छात्रों की विभिन्नताओं एवं रुचियों को ध्यान में रखते हुए कक्षागत क्रियाकलापों का निर्माण किया जाए, कक्षा में छात्रों को विभिन्न प्रकार की गतिविधियों के लिये छात्रों को प्रेरित किया जाए एवं कक्षा में उपलब्ध संसाधनों के सर्वोत्तम प्रयोग की व्यवस्था की जाए। इस प्रकार सभी क्रियाकलापों के माध्यम से छात्रों का सहयोग प्राप्त करने का प्रयास किया जाए। इससे कक्षा प्रबन्ध को प्रभावशीलता विकसित होगी ।
(10) कक्षागत परिवेश – कक्षागत परिवेश के अन्तर्गत सामान्य समस्याएँ आती हैं; जैसे—अनेक छात्रों को दूसरे छात्रों की शिकायत करने की आदत होती है, अनेक छात्र एक-दूसरे छात्रों को कक्षा में परेशान करते हैं। इस प्रकार की स्थितियों में कक्षा-कक्ष प्रबन्धन के लिये शिक्षकों को छात्रों की समस्या का समाधान करने के लिये उन्हें समूह में विभाजित कर देना चाहिए तथा प्रत्येक दल का सदस्य बनाकर उसकी सहायता से छात्रों की समस्या दूर करनी चाहिये ।
द्वितीय रूप में कक्षा में बेठने की व्यवस्था एवं फर्नीचर आदि से सम्बन्धित समस्याएँ हो सकती हैं। इस स्थिति में शिक्षक से यह अपेक्षा की जाती है कि उपलब्ध संसाधनों के अन्तर्गत ही वह सर्वोत्तम व्यवस्था को आकार प्रदान करें। इससे कक्षा-कक्ष प्रबन्धन की स्थिति सर्वोत्तम रूप में होगी; जैसे—छात्रों को गोल घेरे में बैठाना, छात्रों को समूह में बैठाना एवं छोटे छात्रों को आगे बैठाना आदि ।
(11) कक्षा के नियम एवं कार्य विधियाँ – कक्षा के विभिन्न प्रकार के नियमों एवं परम्पराओं का निर्धारण करते समय शिक्षक को पूर्णत: सावधान होना चाहिये क्योंकि इन नियम एवं परम्पराओं का कक्षा-कक्ष प्रबन्धन से प्रत्यक्ष सम्बन्ध होता है। शिक्षक द्वारा छात्रों की योग्यता एवं आवश्यकता के अनुसार नियम एवं निर्देशों का निर्धारण किया जाता है तो यह सर्वोत्तम कक्षा-कक्ष प्रबन्ध को जन्म देता है । यदि नियमों का निर्धारण त्रुटिपूर्ण ढंग से होता है तो वह कक्षा सम्बन्धी प्रबन्ध को निरुत्साहित करता है। ऐसी स्थिति में शिक्षक के समक्ष कक्षा-कक्ष प्रबन्ध हेतु विभिन्न प्रकार की कठिनाइयाँ उत्पन्न होती हैं । कक्षा-कक्ष के नियमों के निर्धारण में निम्नलिखित तथ्यों का ध्यान रखना चाहिये—
(1) नियमों का सम्बन्ध छात्रों की संलग्नता से होना चाहिये । अर्थात् सभी नियम छात्रों की रुचि एवं योग्यता से सम्बन्धित होने चाहिये, जिससे वे सभी प्रकार की गतिविधियों में संलग्न रहें तथा शिक्षक को सहयोग दे सकें।
(2) नियमों का स्वरूप कक्षा-कक्ष प्रबन्ध के साथ-साथ विद्यालय के नियमों से मेलजोल रखते हुए होना चाहिये, जिससे कि दोनों के मध्य अन्तर्विरोध की स्थिति उत्पन्न न हो।
(3) नियमों की संख्या अधिक नहीं होनी चाहिये क्योंकि अधिक नियम कक्षा-कक्ष प्रबन्ध की दृष्टि से उपयोगी नहीं होते। प्राथमिक स्तर पर नियम कम होने चाहिये तथा उच्च प्राथमिक स्तर पर नियमों की संख्या कुछ अधिक हो सकती है।
(4) नियमों की भाषा पूर्णतः स्पष्ट होनी चाहिये, जिससे छात्र सरलता से उन नियमों को समझ सकें तथा उनका अनुकरण कर सकें।
(5) कक्षा के लिये नियमों का निर्धारण करने से पूर्व उनके उद्देश्यों का विचार कर लेना चाहिये, जिससे कि भविष्य में उन नियमों का मूल्यांकन किया जा सके तथा उसमें. आवश्यकता के अनुसार संशोधन किया जा सकें।
(6) नियमों के परिणाम के बारे में भी अध्ययन करना चाहिये । यदि किसी नियम में सकारात्मक परिणाम दृष्टिगोचर होते हैं तो उसको लम्बे समय तक क्रियान्वित करते रहना चाहिये । यदि उसके परिणाम नकारात्मक रूप में प्राप्त होते हैं तो उसमें आवश्यकता के अनुसार संशोधन कर देना चाहिये।
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