वामपंथी उग्रवाद: राष्ट के विरुद्ध लड़ाई
वामपंथी उग्रवाद: राष्ट के विरुद्ध लड़ा
वामपंथी उग्रवाद या नक्सलवाद क्या हैं?
‘नक्सल’ शब्द पश्चिम बंगाल के दार्जीलिंग जिले के नक्सलबाड़ी गांव से लिया गया है, जहां 1967 में चारू मजूमदार, कानू सन्याल तथा जंगल संथाल के नेतृत्व में एक आंदोलन की शुरुआत हुई थी। तब से विभिन्न कम्युनिस्ट गोरिल्ला गुटों द्वारा हिंसा कर राष्ट्र में अशांति फैलाने को नक्सलवाद के रूप में जाना जाता है।
5.1.1 नक्सलवाद /माओवाद / वामपंथी उग्रवाद की दार्शनिक पृष्ठभूमि
नक्सलवादी वो चरमपंथी कम्युनिस्ट हैं जो चीन के क्रांतिकारी नेता माओत्सेतुंग के सिद्धान्तों पर आधारित राजनीतिक विचारधारा रखते हैं। 70 के दशक से देश के विभिन्न भागों में नक्सलवाद सक्रिय रहा है। देश के विभिन्न भागों में विभिन्न समय पर, विभिन्न नक्सलवादी दलों द्वारा हिंसा की सरेआम घटनाओं द्वारा शांति व्यवस्था को भंग किया गया है। “
पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने नक्सलवाद को देश की आंतरिक सुरक्षा के सामने सबसे बड़ी चुनौती बताया था। देश के सामने लम्बे समय से यह चुनौती रही है। यद्यपि नक्सलवाद ने भी अपने इतिहास में कई उतार-चढ़ाव देखे है।
वामपंथी विचारधारा से प्रेरित होकर शासकीय प्रतिष्ठित वर्गों के खिलाफ किसान वर्ग के हिंसात्मक विरोध इतिहास में बार-बार होते रहे हैं। इन हिंसात्मक आंदोलनों का आधार मार्क्स तथा इंजेल के लेखों को माना जाता है। इस विचारधारा को सामान्य तौर पर साम्यवाद / मार्क्सवाद कहा जाता है। इस विचारधारा को बाद में लेनिन और माओत्सेतुंग से भी समर्थन मिला था। वामपंथी विचारधाराओं में यह विश्वास किया जाता है कि इस पूंजीवादी बुर्जुआ समाज में सभी विद्यमान सामाजिक संबंध और राज्य का ढांचा स्वभाव से ही शोषण को बढ़ावा देते हैं और इस शोषण को खत्म करने के लिए हिंसात्मक तरीकों से क्रांतिकारी बदलाव आवश्यक है। माक्वट के समर्थक पूंजीवादी व्यवस्था को खत्म करने के लिए हिंसक वर्ग-संघर्ष को अनिवार्य सार हैं।
माओवाद सशस्त्र संघर्ष, जनआंदोलन तथा मित्रों के कूटनीतिक चयन के तरीकों द्वारा राज्य सत्ता पर कब्जा करने के सिद्धांत को अपनाते हैं। इस प्रक्रिया को माओवादी ‘लंबा जन युद्ध पुकारते हैं। माओवादी विचारधारा हिंसा को सम्मानित करती है और इसलिए माओवादी विचारधारा के अनुसार हथियार रखना जरूरी है। मौलिक रूप से माओवादी औद्योगिक और ग्रामीण विभाजन को पूंजीवादियों द्वारा शोषण करने का एक बड़ा माध्यम मानते हैं। माओवाद का अर्थ समतावादी विचारधारा भी है, जो स्वतंत्र पूंजीवादी बाजार सिद्धांत के विरुद्ध माओ के समय काल में देखा गया था।
माओवादी राजनैतिक रूप से शोषक वर्ग और उनके सरकारी ढांचे के खिलाफ बहुसंख्यक लोगों के क्रांतिकारी संघर्ष पर जोर देता है। इसके सैन्य योजनाकारों ने एक गोरिल्ला तकनीक का विकास किया है जो देहातों की ओर से शहर को घेरने पर केंद्रित है और समाज के निम्न वर्गों के लोगों को हिस्सा बनाकर राजनीतिक परिवर्तन पर विशेष बल देता है। माओवाद का मुख्य नारा है ‘राजनीतिक शक्ति बंदूक की नली से निकलती है। गोरिल्ला युद्ध नीति का सहारा लेते हुए स्थापित संस्थाओं के विरुद्ध विद्रोह करने के लिए माओवादी ग्रामीण आबादियों से बड़ संख्या में समर्थकों को एकत्रित करते हैं, परंतु माओवाद आज एक वैचारिक आंदोलन नहीं है। आज माओवाद अपने क्षेत्र में अपने प्रभाव को बनाए रखने के लिए तथा समाज में आदिवासियों को हाशिए पर रखने के लिए उनमें डर की भावना पैदा कर उन्हें प्रजातंत्र और विकास के लाभों से दूर रखते हैं।
सीमा क्षेत्रों में सक्रिय हिंसा पर आधारित राजनीतिक जन आंदोलन के बजाय नक्सलवादी भारतीय संघ से अलग होकर स्वायत राज्य की स्थापना नहीं चाहते हैं। उनका उद्देश्य सशस्त्र संघर्ष के द्वारा राजसत्ता पर अधिकार जमाकर जन सरकार की स्थापना करना है।
5.1.2 नक्सलवाद के चरण
माओवादियों ने अपने सिद्धांतों का प्रसार बहुत सुनियोजित तथा चरणबद्ध तरीके से किया ।.
1. तैयारी चरण- नए क्षेत्रों का विस्तृत निरीक्षण कर महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों तथा महत्त्वपूर्ण मुद्दों की पहचान, जिस पर आम लोगों को एकत्रित किया जा सके।
2. परिप्रेक्ष्य चरण- मुखौटे संगठनों (Frontal Organisation) के द्वारा भीड़ एकत्रित करना, जैसे- सरकार/ प्रशासन के खिलाफ स्थानीय समस्याओं को लेकर प्रदर्शन करना ।
3. गोरिल्ला चरण- जनआंदोलन को हिंसक गोरिल्ला लड़ाई में परिवर्तित करना ।
4. आधार चरण- इस चरण में माओवाद अपना आधार बनाकर संघर्षरत क्षेत्र को स्वतंत्र जोन की तरह स्थापित करने का प्रयास करते हैं।
5. मुक्त चरण- जनसरकार की स्थापना |
5.2.1 प्रथम चरण
भारत में नक्सलवाद के विकास को मुख्यतः तीन चरणों में बांटा जा सकता है जिनका वर्णन निम्नलिखित है:
5.2.1 प्रथम चरण
पश्चिम बंगाल के दार्जीलिंग जिले के तीन पुलिस स्टेशन नक्सलबाड़ी, खोड़ीबाड़ी और फांसीदेवा में मई 1967 को नक्सलवादी आंदोलन की शुरुआत हुई। नवंबर 1967 में देश के सभी भागों में फैले वाम-चरमपंथियों ने अखिल भारतीय समन्वय समिति की कोलकाता में स्थापना की। मई 1968 में इस समिति को कम्युनिस्ट क्रांतिकारी, अखिल भारतीय समन्वय समिति (एआईसीसीसीआर) का नाम दिया गया। इस दल के चार घोषित लक्ष्य हैं
1. माओ के उपदेश के अनुसार लम्बा जनआंदोलन,
2. गोरिल्ला लड़ाई की रणनीति को अपनाना,
3.ग्रामीण क्षेत्रों में क्रांतिकारी आधार कैंपों की स्थापना,
4. शहरों को चारों ओर से घेरना तथा संसदीय चुनावों का बहिष्कार ।
एआईसीसीसीआर ने माओ के सिद्धांतों पर आधारित क्रांतिकारी दल सीपीआई मार्क्ससिस्ट-लेनीनिस्ट (एमएल) की स्थापना 1969 में की। जल्द ही नक्सली आंदोलन देश के अन्य भागों, खासकर पश्चिम बंगाल, ओडिशा, बिहार और आंध्र प्रदेश में फैल गया। उनके समर्थक मुख्यतः किसान और आदिवासी लोग थे जो हमेशा से राज्य प्रशासकों के द्वारा पक्षपात एवं शोषण के शिकार थे। नक्सल सिद्वांतों ने कई बेरोजगार नवयुवकों और विद्यार्थियों को भी अपनी ओर खींचा। 1970 तथा मध्य 1971 के बीच में नक्सलियों की गतिविधि चरम सीमा पर थी। 1971 में पुलिस तथा थल सेना के संयुक्त ऑपरेशन, जो पश्चिम बंगाल, बिहार और ओडिशा के सबसे ज्यादा नक्सल प्रभावित इलाकों में चलाया गया था, में नक्सलियों के प्रायः सभी नेता पकड़े गये या मारे गए। चारू मजूमदार भी पकड़ा गया जिसकी मौत 1972 में पुलिस हिरासत में हो गईं आपातकाल के दौरान इस आंदोलन को सबसे बड़ा धक्का लगा जब इनके लगभग 40,000 सदस्यों को 1975 में जेल में डाल दिया गया।
5.2.2 द्वितीय चरण
आपातकाल के पश्चात् इस आंदोलन ने अत्यधिक हिंसक रूप में पुनः सिर उठाया । लगातार लड़ाई की रणनीति के अनुसार इसने अपने आधार को फैलाना प्रारम्भ किया। धीरे-धीरे नक्सलवाद पश्चिम बंगाल से लेकर बिहार, ओडिशा, आंध्र प्रदेश और छत्तीसगढ़ तक फैल गया। 1980 में सीपीआई-एमएल ने ‘पीपल्स वार ग्रुप’ (पीडब्ल्यूजी) के रूप में अवतार लिया जिसका मुख्य आधार केंद्र आंध्र प्रदेश में था और जिसने भारी संख्या में पुलिस कर्मियों की हत्या की थी। पीडब्ल्यूजी को 1992 में आंध्र प्रदेश में प्रतिबंधित किया गया परंतु इस दल की गतिविधि जारी रही। इसी समय एमसीसीआई ने बिहार में अपना विस्तार किया और जमींदारों तथा अन्य ऊंची जाति के दलों के ऊपर बड़े पैमाने पर हमला बोल दिया। इस प्रकार नक्सल आंदोलन धीरे-धीरे देश के कई भागों में फैल गया।
5.2.3 तृतीय चरण
2004 में एक महत्त्वपूर्ण घटना हुई जिसमें आंध्र प्रदेश में सक्रिय पीडब्ल्यूजी ने तथा बिहार एवं पड़ोसी इलाकों में सक्रिय एमसीसीआई ने एकीकृत होकर सीपीआई – माओवादी की स्थापना की। वर्तमान में देश के अंदर लगभग 13 वाम – चरमपंथी संगठन कार्य कर रहे हैं। सीपीआई एम सबसे बड़ा वाम – चरमपंथी दल है जो हिंसक वारदातों में अनेक नागरिकों एवं सुरक्षा बलों की मौत के लिए जिम्मेदार हैं। इस दल को इनके सभी सहायक तथा अग्रणी संगठनों के साथ अवैध गतिविधि (रोक) अधिनियम 1967 के अंतर्गत आतंकवादी संगठन अनुसूची में शामिल किया गया है।
सीपीआई-एम की स्थापना के बाद 2005 से नक्सली हिंसा में अत्यधिक बढ़ोतरी हुई है। नक्सली हिंसा की बढ़ती घटनाओं को देखते हुए 2006 में भारतीय प्रधानमंत्री ने भारत की आन्तरिक सुरक्षा के सामने नक्सली समस्या को सबसे बड़ी चुनौती बताया था। 40,000 मज़बूत सदस्यों के साथ आज नक्सली समस्या देश की सुरक्षा के ऊपर एक गंभीर दबाव है जो पूर्वी भारत के खनिज बहुल्य क्षेत्र में विकास का सबसे बड़ा बाधक है। जिसे ‘लाल गलियारा’ कहा जाता है। लाल गलियारा एक परस्पर जुड़ा हुआ भूमि खंड है जो झारखंड, छत्तीसगढ़ और ओडिशा में फैला है। वास्तव में नेपाल में जब माओवादी आंदोलन चरम सीमा पर था तब नक्सली प्रभाव को तिरुपति से पशुपति तक फैला हुआ माना जाता था।
इनमें से माओवाद के प्रभाव से सबसे बुरी तरह प्रभावित क्षेत्र छत्तीसगढ़, ओडिशा, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, झारखंड, बिहार और पश्चिम बंगाल के 30 जिले हैं। अधिकांश इलाके दंडकारण्य क्षेत्र के अंतर्गत आते हैं जो छत्तीसगढ़, ओडिशा, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश में फैले हैं। सीपीआई-माओवादी ने अपनी कुछ बटालियनों को दंडकारण्य क्षेत्र में रखा है। स्थानीय पंचायत नेताओं को पद त्याग करने के लिए मजबूर किया जाता है जिसके पश्चात् माओवादी अपनी जन अदालत नियमित रूप से लेते हैं। इन क्षेत्रों में माओवादी एक समानांतर सरकार और न्याय व्यवस्था चलाते हैं।
माओवाद के बढ़ने का अंदाजा केवल हिंसक घटनाओं से ही नहीं निकाला जा सकता। माओवादी अपना प्रभाव मतारोपण तथा सुदृढ़ीकरण के द्वारा भी फैलाते हैं । माओवादी अपना प्रभाव भील तथा गोंड जनजाति बाहुल्य क्षेत्र जिसे ‘गोल्डन गलियारा’ कहा जाता है तथा जो पूना से अहमदाबाद तक फैला है उसमें में भी फैला रहे हैं- विभिन्न सामाजिक दल और हाशिए पर रह रहे सामाजिक वर्गों, जैसे- दलित तथा अल्पसंख्यकों के साथ उनकी सरकार के विरुद्ध समस्याओं से उपजी भावनाओं के साथ अपनी संवेदना जताकर इस स्थिति का फायदा लेने का प्रयास करते हैं। गृह मंत्रालय की ताजा सूचना के मुताबिक नक्सलियों ने केरल के कुछ जिलों के कुछेक नये इलाकों में अपने पांव पसार लिये हैं। माओवाद का प्रभाव पश्चिम ओडिशा, उत्तरी असम और अरूणाचल प्रदेश में लोहित क्षेत्र में भी बढ़ा है। जबकि पश्चिम बंगाल के जलमहल क्षेत्र में और बिहार के कैमूर एवं रोहतास जिलों में इन्हें मुंह की खानी पड़ी है।
हिंसक घटनाओं एवं इसमें हताहत हुए लोगों की संख्या को देखते हुए इस आंदोलन की देश को चुनौती देने की बढ़ती शक्ति का अंदाजा लगाया जा सकता है। इसमें सबसे बड़ी घटना अप्रैल 2010 में हुई जब माओवादियों ने छत्तीसगढ़ के दांतेवाड़ा जिले में सीआरपीएफ की एक पूरी कम्पनी पर एंबुश द्वारा हमला कर 76 सशस्त्र पुलिस कर्मियों को मार गिराया। इस घटना से माओवाद की रणनीति, योजना, क्षमता तथा हथियार बंदी का अंदाजा लगाया जा सकता है। 2013 में पुनः वाम-चरमपंथियों ने अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त की जब उन्होंने छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले में 27 लोग जिसमें उच्च कोटि के राजनीतिज्ञ भी शामिल थे, को मार डाला।
5.2.4 लाल गलियारे (रेड गलियारा) में बदलाव
भारत के पूर्वी, मध्य और पश्चिमी हिस्से में लाल गलियारा वह क्षेत्र है, जहां नक्सल उग्रवादी ज्यादा सक्रिय रहे हैं। गृह मंत्रालय ने हाल ही में नक्सल प्रभावित जिलों की समीक्षा करने और लाल गलियारे को पुनः रेखांकित करने को लेकर राज्यों के साथ एक समग्र बातचीत की शुरुआत की है। यह पाया गया है कि देश में वामपंथी उग्रवाद (लेफ्ट विंग एक्सट्रीमिम / एलडब्ल्यूए) की स्थिति सुधरी है और यह अब पूरी तरह से विधि-व्यवस्था के नियंत्रण में है। परिणामतः अप्रैल 2018 में लाल गलियारा का पुनः सीमांकन किया गया है।
सिकुड़ता गलियारा
वर्ष 2015 में 10 राज्यों (लाल गलियारे) के 106 जिले वामपंथी उग्रवाद से प्रभावित थे। हालांकि बीते कुछेक वर्षों में, बहुत से बड़े जिलों को बांट कर छोटे जिले बना दिय गए हैं तो नये राज्य भी बने हैं। इनका परिणाम यह हुआ कि 2017 तक वही भौगोलिक क्षेत्र अब 10 के बजाय 11 राज्यों और 106 जिलों से बढ़ कर 126 तक फैल गया।
इन 126 वामपंथी उग्रवाद प्रभावित जिलों की सूची में से सरकार ने 44 जिलों के नाम हटा दिये। यह पाया गया कि अब इन जिलों में माओवाद उतना प्रभावी नहीं रहा या उनका असर नगण्य होता जा रहा है। बाकी के केवल 58 जिलों में ही 2017 में हिंसा की घटनाएं हुई हैं।
5.3 संगठन का ढांचा
विभिन्न नक्सली संगठनों मुख्यतः बिहार तथा झारखंड की एमसीसी – आई तथा आंध्र प्रदेश का पीपुल्स वार को वर्ष 2004 में विलय के बाद सीपीआई-माओ मुख्य दल के रूप में सामने आया है। एम. लक्ष्मण राव गणपति सीपीआई-माओवादी का महासचिव है। सीपीआई-माओवादी संगठन का ढांचा इस प्रकार है:
यह पीएलजीए (People’s Libration Gurilla Army ) के माध्यम से कार्य करती है। पीएलजीए के पास तीन प्रकार के बल हैं
1. मौलिक बल (बुद्धिजीवियों को एकत्रित करना),
2. द्वितीय बल (क्षेत्र समिति और गोरिल्ला दल),
3. मुख्य बल (सशस्त्र बल एवं आसूचना यूनिट की संरचनाओं की तरह यह बल भी बटालियन / प्लाटून में बंटा है) ।
वर्तमान में पीएलजीए की संख्या लगभग 8-9 हज़ार है जबकि जन मीलिसिया की संख्या 38 हज़ार है। सामान्य तौर पर इसमें 40-50 प्रतिशत महिलाएं हैं। 20
5.4 नक्सलवाद का लक्ष्य, उद्देश्य तथा कार्यप्रणाली
नक्सलवाद का उद्देश्य सरकार की वैधता को समाप्त कर आम लोगों की स्वीकार्य जन आधार बनाना है। इनका एकमात्र उद्देश्य लगातार जन संघर्ष की हिंसक लड़ाई के द्वारा राजनीतिक सत्ता प्राप्त करना और ‘भारतीय जन प्रजातांत्रिक संघीय गणतंत्र’ की स्थापना करना है। नक्सली तौर पर पुलिस व्यवस्थाओं के ऊपर हमले करते हैं। वे मूलभूत ढांचे, जैसे- रेल तथा सड़क यातायात और बिजली वितरण पर भी हमला करते हैं। वे अपने क्षेत्र में विकास कार्यों, जैसे-आवश्यक सड़क निर्माण के कार्य का भी बलपूर्वक विरोध करते हैं। अपने जन आंदोलन के प्रति आम लोगों एवं बुद्धिजीवी वर्ग को आकर्षित करने के लिए नक्सली अपने इन सिद्धांतों को सिविल समाज के अग्रिम (फ्रंटल) संगठनों द्वारा ऐसे मामलों, जैसे- विशेष आर्थिक जोन नीति एवं भूमि सुधार, भूमि अधिग्रहण, विस्थापन आदि के कानूनों का विरोध करते हैं।
विकास कार्यों को रोककर तथा राज्य के अधिकारों को चुनौती देकर नक्सली एक साथ क्षेत्र में विकास की कमी का फायदा उठाते हैं तथा सरकारी तंत्र, जैसे- पुलिस स्टेशन, तहसील, विकास ब्लॉक, स्कूल, स्वास्थ्य केंद्र तथा आंगनबाड़ी केंद्र जो जमीनी स्तर पर सरकारी प्रतिनिधि हैं, उनकी कार्यप्रणाली की खामियों का भी फायदा उठाते हैं। माओवाद की कुछ कार्यप्रणाली निम्नलिखित हैं
5.4.1 नक्सलवाद के फ्रंटल संगठन (Frontal Organisation of LWE) माओवादी आम लोगों की सहानुभूति जीतने के लिए सुरक्षा बलों द्वारा मानवाधिकार के उल्लंघन के मामलों को निरंतर अपने अग्रीय संगठनों, जैसे-आरडीएफ पीडीएफआई, डीएसयू, सीआरपीपी, सीएमएएस, ओडिशा तथा अन्य वामपंथी विचारधारा वाले विद्यार्थी संगठनों को दुष्प्रचार फैलाने के लिए उपयोग करते हैं। आम लोगों को अपने सिद्धांतों के प्रति एकजुट करने के लिए माओवादी समाज के ऐसे नागरिक संगठनों, मानवाधिकार से जुड़ी समस्याएं, राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय मीडिया तथा अन्य विद्यार्थी संगठनों जिनका वामपंथी के प्रति झुकाव है, से सहायता प्राप्त करते हैं। वे कानूनी कार्यवाही तथा सजा से बचने के लिए धीमी न्याय व्यवस्था का भी फायदा उठाते हैं।
5.4.2 गोरिल्ला लड़ाई
माओवादी गोरिल्ला लड़ाई की रणनीति का प्रयोग करते हैं। यह एक अनियमित लड़ाई की रणनीति है जिसमें लड़ाकुओं के छोटे दल, जैसे- सशस्त्र सिविल या अनियमित सदस्य मिलिट्री की तकनीक, जैसे-एंबुस, तोड़-फोड़, हमला, छोटी-मोटी लड़ाई, मारकर भाग जाने की रणनीति और बड़ी और भारी भरकम परम्परागत सेना के खिलाफ अद्वितीय रूप से तेजी से स्थान परिवर्तन कर लड़ने की कला अपनाते हैं।
5.4.3 शक्तिशाली दुष्प्रचार तंत्र
नक्सलियों के साथ एक बहुत शक्तिशाली दुष्प्रचार तंत्र है जो राष्ट्रीय राजधानी तथा देश के सभी बड़े शहरों में मौजूद है। मीडिया में भी इनके समर्थक मौजूद हैं। ये सभी गैर-सरकारी संस्थाएं तथा कार्यकर्ता नक्सली आंदोलन को रोकने के उद्देश्य से उठाए गए सरकार के सभी कदमों का विरोध करने के लिए लगातार दुष्प्रचार की लड़ाई लड़ते हैं। एक योजनाबद्ध तरीके से नक्सली सदैव मीडिया के साथ दिखाई देना चाहते हैं। इनके समर्थक सभी जगह मौजूद हैं जो माओवाद के खिलाफ पुलिस द्वारा की गई सारी कार्रवाई का मानवाधिकार के नाम पर विरोध करते हैं। जब नक्सली निर्दोष लोगों की जान लेते हैं तो यही मीडिया के लोग तथा यही मानवाधिकार वाले संगठन एक कूटनीतिक मौन धारण कर लेते हैं ।
5.4.4 रणनीतिक प्रतिरोधी हमला अभियान (टीसीओसी) (Tactical Counter Offensive Campaign)
प्रतिवर्ष माओवादी हिंसक गतिविधियाँ करते हैं, जो मार्च से लेकर जुलाई में मानसून शुरू होने तक जारी रखी जाती है, इसी को टीसीओसी कहते हैं। प्रत्येक वर्ष माओवादी टीसीओसी अभियान सुरक्षा बलों को हानि पहुंचाने के लिए करते हैं जिससे उन्हें उलझाकर भर्ती की प्रक्रिया शुरू कर सकें हैं। टीसीओसी का लक्ष्य हिंसक घटनाओं को अंजाम देकर अपनी शक्ति का प्रदर्शन करना है। विगत में हुए अनुभव के अनुसार टीसीओसी के दौरान माओवादियों ने सुरक्षा बलों के ऊपर अनेकों घातक हमले किए हैं।
5.4.5 माओवादियों की नई रणनीति
माओवाद की नई रणनीति अपने प्रभाव क्षेत्र को जंगल से निकालकर शहरी इलाके तक फैलाना. समाज के गैर-किसान लोगों एवं अन्य वर्गों को प्रभावित करना, स्थानीय संघर्ष को अपने हाथ में लेकर आगे बढ़ाना, बारूदी सुरंग रणनीति का विस्तार करना, जन मिलीशिया को लड़ाई योग्य बनाना. पुलिस बल के स्रोतों को अपने प्रभावशाली इलाके से बाहर फैलाने के लिए मजबूर करना, गोरिल्ला क्षेत्र के नजदीक के कस्बों में संगठन का आधार बनाना और अपहरण की घटनाओं पर जोर देना ।
5.4.6 शहरी नक्सलवाद
सामान्यत: यह विश्वास किया जाता था कि नक्सली/माओवादी आंदोलन जनसाधारण का आंदोलन है और यह देशों के उन पिछड़े इलाकों में होता है, जहां सड़कें, आधारभूत ढांचा और दूरसंचार का कोई संसाधन ही मौजूद हैं इत्यादि । यही वजह है कि दंडकारण्य (यहां तीन राज्यों छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश और ओडिशा की सीमा मिलती है) जो आजादी के 70 वर्षो बाद भी सभी तरह के विकास से वंचित है, वामपंथी उग्रवाद का गढ़ बना हुआ है। लेकिन शहरी नक्सलवाद हमेशा से ही माओवादी रणनीति का अभिन्न हिस्सा रहा है, जिसका उपयोग मुख्यतः शहरी क्षेत्रों में ‘अग्रिम संगठनों’ के रूप में शहरी आबादी के चुने हुए वर्गों की लामबंदी करने, संगठन में बौद्धिक क्रांतिकारियों की भर्ती करने, उग्रवाद के कामों के लिए कोष जमा करने और भूमिगत कैडर को पनाह देने के लिए किया जाता है।
ये संगठन सामान्यतः विचारधाराओं द्वारा संचालित होते हैं, जिसमें अकादमिशियन और कार्यकर्ता भी होते हैं, जो अधिकतर मानवाधिकार के गैर सरकारी संगठन (एनजीओ) की आड़ में काम रहे हैं। ये पहले कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया, माओवादी से जुड़े थे, लेकिन बाद में कानूनी शिकंजों से बचने की कोशिश में उन्होंने अपनी एक अलग पहचान के साथ काम करने लगे।
कुछ संगठन कानूनी प्रक्रियाओं के उपयोग में पारंगत हैं। वे अपने संगठित तथा व्यवस्थित कुप्रचारों एवं आगामी हितों को साधने के लिए गुमराह करने वाले अभियान चलाते हैं। इन सबके in any जरिये वे संगठन राज्य की संस्थाओं को नुकसान पहुंचाने की कोशिश करते हैं। ये विचारक ही माओवादी आंदोलन को देश में जिंदा रखे हुए हैं और ये कई लिहाज से पीएलजीए के कैडर्स की तुलना में ज्यादा खतरनाक हैं।
वर्ष 2018 में पांच बड़े सिद्धांतकारों की गिरफ्तारी ने शहरी नक्सलवाद को अग्रिम मोर्चे पर ला दिया है। यद्यपि तथाकथित बौद्धिक क्षेत्र में इस पर कई लोगों ने त्योरियाँ चढ़ा ली हैं। पुलिस ने पांच राज्यों में नागरिक और मानवाधिकारवादी कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों के घरों पर एक साथ छापेमारी कर उनकी गिरफ्तारी की है, जिन्हें महाराष्ट्र पुलिस और खुफिया अधिकारियों ने ‘शहरी नक्सली’ कहा है। गिरफ्तार पांच लोगों में पीयूसीएल की राष्ट्रीय सचिव सुधा भारद्वाज और सर्वोच्च न्यायालय के अधिवक्ता, अरुण फेरारिया भी हैं, जिन्हें भीमा-कोरेगांव हिंसा मामले में गिरफ्तार किया गया है। इन्हें गैरकानूनी गतिविधियाँ (निवारण) अधिनियम (यूएपीए) के तहत गिरफ्तार किया गया है। POURS
शहरी नक्सलवाद कोई रातोंरात विकसित हुआ परिदृश्य नहीं है, बल्कि यह सीपीआई (एम) की विस्तृत नीति का हिस्सा है। इसने 2014 में ‘शहरी परिप्रेक्ष्य : शहरी क्षेत्रों में हमारा काम ‘ शीर्षक दस्तावेज में शहरी नक्सलवाद की अपनी रणनीति को परिभाषित किया था। यह रणनीति कल-कारखानों में काम करने वाले कामगारों और शहरी गरीबों को लामबंद करने, अग्रिम संगठनों की स्थापना करने, छात्र, मध्य वर्ग के नौकरीपेशा, बुद्धिजीवियों, महिलाओं, दलितों और धार्मिक अल्पसंख्यकों समेत समान विचारधारा वाले संगठनों को मिलाकर एक ‘संयुक्त रणनीतिक मोर्चा’ बनाने की बात कही गई थी।
‘शहरी नक्सलवाद’ का समर्थन करने वाले अग्रणी संगठन दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, चंडीगढ़, रांची, हैदराबाद, नागपुर और पुणे समेत देश के कई शहरों में सक्रिय रहे हैं।
आगे की नीति
गृह मंत्रालय की सलाह है कि वामपंथी उग्रवाद (एलडब्ल्यूई) को नियंत्रण करने की चुनौतियों में ‘शहरी नक्सलवाद’ पर काबू पाने की योजनाएं अवश्य शामिल की जाए। सरकार इन माओवादी अग्रिम संगठनों के लिए कानूनी कार्रवाई की अवश्य पहल करे।
शहरों में बढ़ते नक्सलवाद के प्रभाव को रोकने के लिए एक अलग बजट का प्रावधान किया जाए।
शिक्षाविदों समेत सिद्धांतकारों-विचारकों और कार्यकर्ताओं के खिलाफ कानूनी प्रक्रिया की पहल करने का नतीजा यह होता है कि प्रभावी माओवादी कुप्रचार तंत्र कानून लागू करने वाली एजेंसियों के विरुद्ध नकारात्मक प्रचार में लग जाता है। लिहाजा, इस मुद्दे को व्यवस्थित तरीके से, दीर्घावधि में और सतत प्रयासों के जरिये हल करने की आवश्यकता है।
5.5 अन्य आतंकवादी संगठन तथा विदेशों के साथ संबंध
सीपीआई-माओवादी का उत्तर-पूर्व के उग्रवादी दल खासकर मणिपुर के आरपीएफ / पीएलए तथा नागालैंड के एनएससीएन-आईएम के साथ हथियार प्राप्त करने के लिए करीबी संबंध है। इनमें से अधिकांश दलों का भारत से दुश्मनी रखने वाले राष्ट्रों के साथ संबंध है। सीपीआई – माओवादी ने हमेशा से जम्मू-कश्मीर के आतंकवादियों को अपना समर्थन देने की बात दोहराई है। यह भारतीय संघ के खिलाफ ‘युद्धनीति’ का हिस्सा है। सीपीआई – माओवादी के विदेशी माओवादी संगठनों के साथ करीबी के संबंध हैं। –
यह दल ‘दक्षिण एशिया के माओवादी दलों एवं संगठनों की समन्वय समिति’ कमपोसा, का सदस्य है जिसमें बांग्लादेश, भारत, नेपाल तथा श्रीलंका के दस माओवादी दल शामिल हैं। कमपोसा ने अपना प्रमुख उद्देश्य न केवल संयुक्त राज्य अमेरिका के साम्राज्यवाद और वैश्वीकरण का विरोध करना बल्कि भारतीय संघ के केंद्रीयकरण और अल्पसंख्यक लोगों का आंतरिक शोषण को रोकना बताया है। इन्होंने अपना लक्ष्य दक्षिण ऐशिया में अमेरिकन साम्राज्यवाद की सहायता से भारत के तथाकथित विस्तार प्रयास को रोकना बनाया है। 2006 में कमपोसा ने नेपाल में आयोजित अपने चौथे सम्मेलन में भारत विरोधी लक्ष्य को दोहराया और दक्षिण एशिया में हिंसक वारदातों के द्वारा शासन पर कब्जा करने हेतु सतत् जनआंदोलन को फैलाने के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दोहराई है।
5.5.1 धन प्राप्ति के स्रोत और संगठित अपराध के साथ संबंध
वाम-चरमपंथी आंदोलन के लिए धन प्राप्ति का मुख्य स्रोत सरकारी योजनाओं से तथा ऐसी कम्पनियों से जो इनके प्रभावित क्षेत्र में कार्यरत हैं, धन ऐंठना है। यह प्रायः सुरक्षा प्रदान करने के बदले धन के रूप में किया जाता है। कभी-कभी वे धनी व्यक्तियों को आतंकित कर जबरन वसूली को आसान बनाने के लिए अपहरण तथा हत्या का भी सहारा लेते हैं । वाम – चरमपंथी ऐसे क्षेत्रों में गंभीर रूप से सक्रिय हैं जहां प्राकृतिक खनिज पदार्थ, जैसे- कोयला, लोहा, बॉक्साइट, मैगनीज, निकेल तथा तांबा प्रचुर मात्रा में पाया जाते हैं। केवल ओडिशा और झारखंड में ही देश के कोयले भंडार का 50 प्रतिशत उपलब्ध हैं। कोयला भारत का सबसे बड़ा ऊर्जा स्रोत है। अतः यहां जबरन धन वसूली के लिए ज्यादा अवसर उपलब्ध हैं।
5.6 वास्तव में नक्सलवादी गरीबों के मसीहा नहीं हैं।
सैद्धांतिक तौर पर ऐसा लगता है कि नक्सलवादी गरीबों के अधिकार के लिए संघर्ष कर रहे हैं और वे आम लोगों की सरकार की स्थापना करना चाहते हैं, जबकि हकीकत इसके विपरीत है। गरीब लोगों का सामाजिक उत्थान उनका वास्तविक लक्ष्य नहीं है। उनका लक्ष्य राजनीतिक शक्ति प्राप्त करना है। वे स्थानीय समस्या और मामलों का अध्ययन करते हैं तथा अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए जो कि स्पष्ट रूप से हिंसक मार्ग अपनाकर राजनीतिक शक्ति प्राप्त करना है, का उपयोग करते हैं।
माओवादी गरीबी को खत्म करना नहीं चाहते, क्योंकि यह उन्हें अपने प्रभुत्व के क्षेत्र को बढ़ाने में सहायता करता है। ऐसे क्षेत्र में वे जिला प्रशासन को किसी प्रकार का विकास कार्य, जैसे- सड़क का निर्माण, बिजली और पानी व्यवस्था आदि नहीं करने देते हैं । स्थानीय लोगों को बहुत जल्द यह आभास हो जाता है कि नक्सलवादियों ने अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उनका उपयोग किया है। स्थानीय सामाजिक और आर्थिक समस्याओं को पीछे धकेल दिया जाता है और माओवादियों का मुख्य लक्ष्य राज्य के ऊपर प्रभुत्व बनाने के लिए संघर्ष करना बन जाता है। लेकिन स्थानीय लोगों को मजबूरन उन्हें समर्थन देना पड़ता है, क्योंकि इस प्रकार की गलती का आभास होने के समय तक बहुत देर हो जाती है।
5.7 नक्सलवाद के बढ़ने के कारण
यह एक विडंबना है कि आजादी के 66 वर्ष बाद भी ऐसे दूर-दराज के क्षेत्र जो अतुल खनिज पदार्थ से भरे पड़े हैं, में विकास का नामोनिशान नहीं है। इस स्थिति ने अन्य सामाजिक, आर्थिक समस्याओं के साथ मिलकर भारत में नक्सलवाद को फलने-फूलने में सहयोग दिया है। इन कारणों को मुख्यतः निम्न प्रकार से वर्गीकृत किया जा सकता है –
5.8 नक्सलवाद के विरुद्ध लड़ाई
भारतीय संविधान के अंतर्गत कानून व्यवस्था का मामला परंपरागत रूप से राज्य सरकार का उत्तरदायित्व रहा है न कि केंद्रीय सरकार का। 2006 तक केवल प्रभावित राज्य ही थे जो लाल उग्रवाद की चुनौती से जूझ रहे थे। आंध्र प्रदेश ने तो नक्सलवाद को खत्म करने में काफी हद तक सफलता प्राप्त कर ली थी।
वर्ष 2006 में प्रधानमंत्री द्वारा नक्सली समस्या की भारतीय आंतरिक सुरक्षा के सामने सबसे बड़ी चुनौती के रूप में घोषणा के पश्चात कई कदम उठाए गए जिसमें गृह मंत्रालय के अंतर्गत एक अलग खंड- नक्सल प्रबंधन अभियान की स्थापना और योजना आयोग द्वारा 2006 में डी. बंदोपाध्याय के नेतृत्व में एक विशेषज्ञ समिति की स्थापना शामिल है।
विशेषज्ञ समिति ने देश में व्याप्त अनुसूचित जाति/जनजाति के साथ सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक पक्षपात की समस्या को रेखांकित किया। इस समिति ने स्थानीय समुदायों को सशक्त बनाने के प्रयास के अभाव को नक्सलवाद का मुख्य कारण बताया। इस समिति ने यह भी बताया कि नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में राज्यों को नौकरशाही लोगों को सुशासन देने में बुरी तरह असफल रही है। इसने आदिवासी सौहार्दपूर्ण भूमि अधिग्रहण एवं पुनर्स्थापन नीति का सुझाव दिया।
सरकार द्वारा नक्सल विरोधी रणनीति के मूलतः दो आयाम हैं- एक तरफ विकास का कार्य और दूसरी तरफ सुरक्षा कार्रवाई । नक्सलवाद की आंतरिक सुरक्षा के सामने सबसे बड़ी चुनौती के रूप में पहचान के तीन वर्ष बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 2009 में यह स्वीकार किया कि नक्सलवाद से निपटने हेतु किए गए सरकारी प्रयास बुरी तरह असफल रहे हैं। इसके बाद ज्यादा नक्सली प्रभावित राज्यों में बड़े स्तर पर राज्य सरकारों द्वारा केंद्रीय सशास्त्र बलों के साथ मिलकर नक्सल विरोधी अभियान चलाए। कुछ असफलताओं के बावजूद यह प्रयास कुछ नक्सली नेताओं को लक्ष्य बनाने और कुछ नक्सली नियंत्रित भू-भाग पर वापस सरकारी नियंत्रण कायम करने में सफल रहे हैं।
शहरी नक्सलवाद के खिलाफ अभियान का कूट नाम ‘ऑपरेशन ग्रीन हंट’ था । अभी हाल में ही, सीआरपीएफ ने नक्सलवाद के विरुद्ध ‘बस्तरीय बटालियन’ अभियान चलाया था।
5.8.1 गृह मंत्रालय द्वारा रणनीति में परिवर्तन
सरकार ने यह महसूस किया है कि माओवाद की समस्या को निपटाने के लिए सुशासन, विकास, आवश्यक फील्ड संस्थानों का नियमित कार्य करना और जन जागरूकता भी आवश्यक है। इसलिए सुरक्षा विकास, प्रशासन और जन भावनाओं के क्षेत्रों में सरकार ने अपने रवैये में परिवर्तन लाकर नक्सल समस्या को एक सकल रूप से निपटाने का प्रयास जारी किया है।
‘पुलिस’ और लोक व्यवस्था ‘पब्लिक ऑर्डर’ राज्य का विषय है। इसलिए विधि-व्यवस्था कायम करने के लिए की जाने वाली कार्रवाई मुख्य रूप से सम्बद्ध राज्य के अधिकार क्षेत्र में आती है। यद्यपि केंद्र सरकार स्थिति पर कड़ी निगरानी रखती है और वामपंथी उग्रवाद की समस्या से निबटने की कार्रवाई में राज्य सरकार के साथ कई तरीकों समन्वय और संसाधनों की आपूर्ति के प्रयास करती है। इनमें राज्यों को केंद्रीय शस्त्र पुलिस बल (सीएपीएफ) और कमांडो बटालियन्स फॉर रिजोल्यूट एक्शन (सीओबीआरए/ कोबरा) की मुहैया कराना, इंडिया रिजर्व (आईआर) बटालियंस की तैनाती की मंजूरी देना, ‘पुलिस बल का आधुनिकीकरण’ (एमपीएफ योजना) की विशद (अम्ब्रेला) योजना के अंतर्गत राज्य पुलिस के आधुनिकीकरण और उन्नयन, सुरक्षा सम्बन्धी व्यय (एसआरई), योजनान्तर्गत सुरक्षा सम्बन्धी व्यय की भरपाई, विशेष खुफिया शाखाओं / राज्य के विशेष बल का सुदृढ़ीकरण एवं विशेष संरचनागत योजना (एसआइएस) के तहत पुलिस थानों को चाक-चौबंद करना, वामपंथी उग्रवाद के खिलाफ अभियानों में हेलीकाप्टर मुहैया कराना, रक्षा मंत्रालय, केंद्रीय पुलिस संगठन और पुलिस अनुसंधान और विकास ब्यूरो के तत्वावधान में राज्य पुलिस को प्रशिक्षण देने में सहायता करना, खुफिया सूचनाओं को साझा करना, अंतर-राज्य समन्वय, सामुदायिक पुलिसकरण विभिन्न केंद्रीय मंत्रालयों के अधीन चलने वाले अनेक विकास कार्यक्रमों के जरिये नागरिक कार्यवाही और सहयोग को सुगम करना प्रमुख हैं। इन सहयोगों को उपलब्ध कराने का अंतनिर्हित दर्शन वामपंथी उग्रवाद के खतरे से निपटने में राज्य सरकार की क्षमता – सामर्थ्य को ठोस तरीके से बढ़ाना। भारत सरकार ने वामपंथी उग्रवाद से निबटने के लिए एकीकृत और समग्र दृष्टिकोण को अपनाया है। इसमें एक साथ ही सुरक्षा एवं विकास के क्षेत्रों तथा बेहतर प्रशासन को बढ़ावा दिया गया है। इस लक्ष्य को पाने के लिए वामपंथी उग्रवाद प्रभावित 10 राज्यों के 106 जिलों में और खास कर सर्वाधिक प्रभावित 7 राज्यों के 35 जिलों में विशेष ध्यान केंद्रित करने को लेकर सरकार ने सुरक्षा, विकास, परम्परागत बाशिंदों/जनजातियों आदि के अधिकारों और स्वामित्वों को सुनिश्चित करने के लिए एक बहुआयामी कार्यनीति वाली एक राष्ट्रीय नीति और कार्य योजना बनाई है।
5.8.2 वामपंथी उग्रवाद से प्रभावित राज्यों के लिए महत्त्वपूर्ण योजनाएं
वामंपथी उग्रवाद को असरदार तरीके से समग्रता में निबटने के लिए सरकार ने 2015 में एक राष्ट्रीय नीति और कार्य योजना तैयार की है। इसमें बहुआयामी कार्यनीति को अपनाया गया है, जिसमें सुरक्षा, विकास, स्थानीय समुदायों के अधिकारों एवं हकों को सुनिश्चित करने के क्षेत्रों को भी शामिल किया गया है।
सुरक्षा सम्बन्धी परिव्यय (एसआरई) योजना: सरकार ने 27 सितम्बर, 2017 को इस योजना का ‘पुलिस बल के आधुनिकीकरण’ की विशद योजना की उप-योजना के तहत तीन साल की अवधि के लिए 2020 तक विस्तार किया है। एसआरई के तहत केंद्र सरकार वामपंथी उग्रवाद से प्रभावित 11 राज्यों के 90 जिलों में राज्य सरकार के पुलिस-प्रशिक्षण और अभियानजनित खर्चे की भरपाई करेगी। वामपंथी उग्रवादजनित हिंसा में मारे गए नागरिकों और सुरक्षा बलों के परिजनों को अनुदान देना, सम्बद्ध राज्य की आत्मसमर्पण और पुनर्वास नीति के अंतर्गत हथियार डालने वाले वामपंथी उग्रवाद के कार्यकर्ताओं को मुआवजा देना, सामुदायिक पुलिसकरण, गांव की रक्षा समितियों के लिए सुरक्षा सम्बन्धी ढांचा निर्मित करने और प्रचार सामग्री पर खर्च।
वामपंथी उग्रवाद से सर्वाधिक प्रभावित 30 जिलों के लिए विशेष केंद्रीय सहायता (एससीए): सरकार ने इस योजना को ‘पुलिस बल के आधुनिकीकरण’ की उप-योजना के तहत 3 साल यानि 2017-18 से लेकर 2019-20 तक के लिए स्वीकृत किया है। इस योजना का मुख्य मकसद सार्वजनिक आधारभूत संरचना और सेवाओं में आकस्मिक प्रकृति के महत्त्वपूर्ण अंतरों को पाटना है। भारत सरकार ने वामपंथी उग्रवाद से प्रभावित जिलों में 775 करोड़ रुपये पहले ही निर्गत कर दिया है।
वामपंथी उग्रवाद प्रभावित राज्यों के पुलिस थानों की किलेबंदी समेत विशेष आधारभूत संरचना योजनाः राज्यों की प्रायः नियमित की मांगों पर केंद्र सरकार ने इसे ‘पुलिस बल का आधुनिकीकरण’ की विशद योजना की उप-योजना के तहत 3 साल यानि 2017-18 से लेकर 2019-20 तक के लिए स्वीकृत किया है। पुलिस थानों के सुदृढ़ीकरण योजना सरकार ने वामपंथ उग्रवाद से प्रभावित 10
जिलों में 400 पुलिस थानों को चाक-चौबंद करने की इजाजत दी है। इनमें से 393 पुलिस थानों के सुदृढ़करण का काम पूरा हो चुका है।
वामपंथी उग्रवाद प्रबंधन योजना के लिए केंद्रीय सहायता: सरकार द्वारा 27 सितम्बर, 2017 को ‘पुलिस बल के आधुनिकीकरण’ की उप-योजना के तहत 3 साल यानि 2017-18 से लेकर 2019-20 तक के लिए अनुमोदित है। इस योजना के अंतर्गत केंद्रीय एजेंसियों (सीएपीएफ/आइएएफ आदि) को आधारभूत संरचना को मजबूती देने और हेलीकाप्टर्स का भाड़ा चुकाने के लिए आर्थिक सहायता दी जाती है।
मीडिया योजना: यह सरकार द्वारा 27 सितम्बर, 2017 को ‘पुलिस बल के आधुनिकीकरण’ की उप-योजना के तहत 3 साल यानी 2017-18 से लेकर 2019-20 तक के लिए स्वीकृत है । वामपंथी उग्रवाद प्रभावित क्षेत्रों में माओवादी तथाकथित अपनी गरीबों की मित्र कही जाने वाली क्रांति या रणनीति के तहत बलपूर्वक देकर क्षुद्र प्रोत्साहन रकम देकर निदरेष जनजातियों के लोगों/स्थानीय आबादी को गुमराह करते रहे हैं या उन्हें प्रलोभन देते रहे हैं। वे सुरक्षा बल और लोकतांत्रिक संस्थाओं का अपना निशाना बनाते हैं। इसलिए, यह योजना सरकार ने वामपंथी उग्रवाद प्रभावित क्षेत्रों में लागू की है। इस योजना के तहत नेहरू युवा केंद्र द्वारा जनजाति युवा आदान-प्रदान कार्यक्रम, रेडियो जिंगल्स, वृत्त चित्रों, पर्चे वितरण आदि कार्यक्रम चलाये जा रहे हैं।
वामपंथी उग्रवाद प्रभावित इलाकों में सड़क आवश्यकता योजना-1: सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय द्वारा वामपंथी उग्रवाद प्रभावित 8 राज्यों के 34 जिलों सड़क सम्पर्क बेहतर बनाने के लिए यह योजना लागू की जा रही है। ये राज्य हैं- आंध्र प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा और उत्तर प्रदेश। इस योजना के तहत उग्रवाद प्रभावित राज्यों में 5,422 कि.मी. लम्बी सड़कें बनाने का प्लान है। इसमें से 4,652 कि.मी. सड़कों का निर्माण कार्य 30 अप्रैल, 2018 तक पूरा हो गया है।
वामपंथी उग्रवाद प्रभावित क्षेत्रों में सड़क संपर्क परियोजना ( आर आरपी – 2) : सरकार ने उग्रवाद प्रभावित 9 राज्यों के 44 जिलों में और सड़क सम्पर्क बढ़ाने के लिए 28 दिसम्बर, 2016 को इस योजना को स्वीकृत किया है। इस स्कीम में 11,725 करोड़ की लागत से 5,412 कि.मी. सड़क और 126 पुल बनाने की परिकल्पना की गई है। ग्रामीण विकास मंत्रालय इस परियोजना का प्रमुख मंत्रालय है।
वामपंथ उग्रवाद प्रभावित क्षेत्रों में मोबाइल परियोजना: सरकार ने उग्रवाद प्रभावित क्षेत्रों में मोबाइल कनेक्टिविटी को सुधारने के लिए 20 अगस्त, 2014 को मोबाइल टॉवरों की स्थापना की स्वीकृति दी है। इनमें 2,325 टॉवर पहले चरण में स्थापित किये जा चुके हैं। भारत सरकार द्वारा स्वीकृत दूसरे चरण की योजना के तहत 4,072 टॉवर लगने हैं, जिस पर 7,330 करोड़ की लागत आनी है ।
आकांक्षी जिलेः गृह मंत्रालय को वामपंथी उग्रवाद प्रभावित 35 जिलों में आकांक्षी जिला कार्यक्रम की निगरानी का काम सौंपा गया है।
नागरिक कार्रवाई कार्यक्रम [ सिविक एक्शन प्रोग्राम (सीएपी) ] : सरकार ने इस योजना को ‘पुलिस बल के आधुनिकीकरण’ की उप-योजना के तहत 3 साल यानि 2017-18 से लेकर 2019-20 तक के लिए स्वीकृत किया है। उग्रवाद प्रभावित क्षेत्रों में सुरक्षा बलों और स्थानीय समुदायों के अंतरों को परस्पर संवाद के जरिये पाटा जा रहा है। इसके अलावा, स्थानीय आबादी के समक्ष सुरक्षा बलों के मानवीय चेहरे को उजागर किया जा रहा है। यह योजना अपने लक्ष्य को हासिल करने में काफी सफल रही है। इस योजना के तहत उग्रवाद प्रभावित क्षेत्रों में तैनात कैप्स आदि बलों को स्थानीय लोगों के कल्याण के लिए विभिन्न प्रकार की नागरिक गतिविधियों को संचालित करने के लिए धन आवंटित किया जाता है
नीति आयोग ने भारत के सबसे पिछड़े जिलों में विकास के लिए ‘एस्पिरेशनल डिस्ट्रिक्ट्स’ कार्यक्रम शुरू किया है। इस पहल से कई वामपंथी प्रभावित जिले लाभान्वित होंगे।
इस बीच, गृह मंत्रालय ने अपने सिविक एक्शन प्रोग्राम में कई तरह के बदलाव किए हैं। अब उसने ‘परियोजना उन्मुख’ दृष्टिकोण के बजाय ‘व्यक्ति उन्मुख’ दृष्टिकोण को अंगीकार किया है। इससे वह स्थानीय और सुरक्षा बलों के बीच बनी खाई को सक्षमता से पाट सकेगा। इस परियोजना का नाम दिया गया है- ( लोगों के) ‘दिल और दिमाग जीतना’। केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल और सीमा सुरक्षा बल अभी हाल तक छोटी-छोटी परियोजनाओं और विकास की गतिविधियों पर ही धन खर्च करते रहे हैं, जिनमें वे छोटे-छोटे पुलों और सड़कों के निर्माण, साफ पेयजल और सिंचाई परियोजनाओं इत्यादि का क्रियान्वयन करते रहे हैं, अब संशोधित दिशा-निर्देश के बाद वे व्यक्तिगत या परिवारों पर प्रत्येक वर्ष 20 करोड़ रुपये खर्च कर सकेंगे।
रोशनी योजना (ग्रामीण मंत्रालय ): यह उग्रवाद से बुरी तरह प्रभावित 24 जिलों में रोजगार से जुड़ी कौशल विकास की स्कीम है। इसके जरिये उन जिलों के ग्रामीण इलाकों, विशेष कर जनजाति आबादी की 50,000 महिलाओं व पुरुषों का कौशल विकास कर उन्हें रोजगार देना है। यह खास कर अरक्षित जनजातीय समूह (पीवीटीजी) को प्राथमिकता के आधार पर इस दायरे में लाने के लिए विशेष प्रयास पर बल देता है। >
राष्ट्रीय नीति और कार्य योजना – 2015
वामपंथी उग्रवाद प्रभावित राज्यों में सीएपीएफ, बीयू, हेलीकाप्टर्स, यूएवी, चाक-चौबंद पुलिस थानों का निर्माण, राज्य पुलिस बल के आधुनिकीकरण, हथियारों व उपकरणों, प्रशिक्षण में सहायता, खुफिया सूचनाओं के आदान-प्रदान के जरिये सुरक्षा संबंधी उपायों समेत सहायता उपलब्ध कराना।
विकास सम्बन्धी उपाय: केंद्र सरकार की महत्त्वाकांक्षी योजनाओं के अलावा, उग्रवाद प्रभावित इलाकों खास कर बुरी तरह प्रभावित 35 जिलों में कई विकास कार्यक्रमों की पहल की गई है। इसमें सड़कों का विकास, मोबाइल टॉवरों की स्थापना, कौशल विकास, बैंक और डाक घरों की नेटवर्किग सुधारना, स्वास्थ्य एवं शिक्षा में सुधार पर ध्यान केंद्रित किया गया है।
अधिकार और हक से सम्बन्धी उपाय |
समाधान
यह वामपंथी उग्रवाद से निपटने के लिए अल्पावधि और दीर्घकालिक नीतियों को फ्रेम करने के लिए गृह मंत्रलय की एक रणनीति है। इनमें शामिल हैं
Smart Leadership ( तीक्ष्ण नेतृत्व )
Aggressive Strategy (आक्रामक रणनीति)
Motivation and Training (अभिप्रेरण और प्रशिक्षण )
Actionable Intelligence (कार्यवाही योग्य खुफिया जानकारी)
Dashboard Based (Key Performance Indicators) (KPIs) and (Key Result Areas) (KRAs) [नियंत्रण बोर्ड आधारित मुख्य प्रदर्शन संकेतक और मुख्य परिणाम के क्षेत्र]
Harnessing Technology (प्रौद्योगिकी का दोहन)
Action plan for each Theatre (प्रत्येक रंगमंच के लिए कार्य योजना )
No access to Financing (वित्तपोषण के लिए कोई पहुंच नहीं)
5.8.3 वाम – चरमपंथ से प्रभावित राज्यों में महत्त्वपूर्ण योजनाएं
सुरक्षा संबंधी व्यय ( एसआरई) योजना: सुरक्षा बलों के बीमा, प्रशिक्षण तथा संक्रियात्मक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु आवर्तक खर्च के लिए संबंधित राज्य सरकार द्वारा सर्मपण एवं पुनर्स्थापन कार्यक्रम के अंर्तगत समर्पित उग्रवादियों के पुनर्वास के लिए और सामुदायिक, निगरानी, ग्रामीण प्रतिरक्षा समिति के लिए सुरक्षा की सुविधा के लिए और प्रचार सामग्री के लिए धन दिया जाता है।
विशिष्ट मूलभूत सुविधा योजना (एसआईएस): नक्सल प्रभावित राज्यों में विशेष सुविधा देने हेतु 500 करोड़ रुपये के आबंटन के साथ 11वीं योजना के अंतर्गत ऐसी आवश्यक सुविधाएं को पूरा करने हेतु धन दिया गया था, जिन्हें वर्तमान योजनाओं के अंतर्गत पूरा नहीं किया जा सकता। इस योजना में पुलिस / सुरक्षा बल की यातायात की सुगमता के लिए कठिन क्षेत्रों में विद्यमान रोड़ / रास्ते को विकसित करना, दूर-दराज के इलाकों में रणनीति दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण स्थानों पर सुरक्षा कैंप एवं हैलीपैड बनाना, संवेदनशील इलाकों में पुलिस स्टेशन / पोस्ट को अधिक सुरक्षा आदि शामिल हैं। अब इस योजना में उग्रवाद प्रभावित राज्यों में मूलभूत सुविधाओं को विकसित करना, हथियार तथा उपकरण उपलब्ध कराना तथा विशेष सुरक्षा बलों को प्रशिक्षित करना भी शामिल कर दिया गया है।
आतंकवाद / नक्सल / सांप्रदायिक हिंसा में पीड़ित सिविल नागरिकों / परिवारों को सहायता देने हेतु केंद्रीय योजनाः इस योजना को वर्ष 2009 में प्रारम्भ किया गया था जिसका मुख्य उद्देश्य आतंकवाद/नक्सल/ सांप्रदायिक हिंसा में पीड़ित सिविल नागरिकों/ परिवारों को सहायता प्रदान करना है। इस योजना के अंतर्गत प्रभावित परिवारों को 3 लाख रुपये दिये जाते हैं।
एकीकृत कार्य योजना (आईएपी): देश के 88 पिछड़े जिलों और खास आदिवासी इलाकों में विकास कार्य को गति देने हेतु योजना आयोग इस योजना को चला रहे हैं। इस योजना का उद्देश्य आम जनता को सुविधा और सेवा प्रदान करना है। वर्तमान में जिले स्तर पर जिलाधिकारी की अध्यक्षता में तीन सदस्यों की समिति, जिसमें पुलिस अधीक्षक और जिला वन अधिकारी सदस्य होते हैं, के द्वारा 30 करोड़ का बजट इन इलाकों पर खर्च किया जाता है। आईएपी के अंतर्गत बड़े कार्य / योजनाओं में स्कूल मकान /स्कूल फर्नीचर, आंगनबाड़ी केंद्र, पीने के पानी की सुविधा, ग्रामीण रोड़, पंचायत भवन / समुदाय भवन, गोदाम/ पीडीएस दुकान, जीवन यापन गतिविधि, क्षमता विकास / प्रशिक्षण, लघु सिंचाई कार्य, बिजली/ रोशनी, स्वास्थ्य केंद्र का निर्माण शामिल है।
उग्रवाद प्रभावित क्षेत्रों के लिए सड़क निर्माण योजना: आंध्र प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा और उत्तर प्रदेश के 34 जिलों के वाम-चरमपंथी उग्रवाद से बुरी तरह प्रभावित इलाकों में रोड़ यातायात के विकास के लिए फेस-1 के अंतर्गत फरवरी 2009 में 7300 करोड़ रुपये आंबटित किए गए थे।
पुलिस स्टेशनों की किलेबंदी के लिए योजना: मंत्रालय ने 9 प्रभावित राज्यों के प्रत्येक 400 पुलिस स्टेशनों के लिए 2 करोड़ रुपये की दर से धन स्वीकृत किया गया है।
सिविक एक्शन प्रोग्राम (सीएपी): इस योजना के तहत प्रभावित क्षेत्रों में विकास कार्यों के लिए सीएपी की वित्तीय ग्रांट दी जाती है। यह एक ऐसी सफल योजना है जिसका मुख्य उद्देश्य स्थानीय अबादी और सुरक्षा बलों के बीच संबंध बढ़ाना है।
इस बीच गृह मंत्रालय ने सिविक एक्शन प्रोग्राम में कुछ परिवर्तन किए हैं। अब इस प्रोजेक्ट को व्यक्ति परक बनाया गया है जो स्थानीय लोगों और सुरक्षा बलों के बीच के संबंध प्रभावशाली ढंग से बढ़ाएगा। केंद्रीय रिज़र्व पुलिस बल तथा सीमा सुरक्षा बल अभी तक इस निधि के द्वारा लघु योजनाएं और विकास गतिविधि संचालित करते थे जिसमें छोटे पुल और रोड़ बनाना, पीने का पानी की व्यवस्था और सिचाई योजना चलाना शामिल है, अब इस योजना के अंतर्गत जिसका नाम ‘दिल और दिमाग जीतना’ संशोधित निर्देशों के तहत व्यक्ति और परिवार के कल्याणकारी कार्यों पर 20 करोड़ रुपए प्रति वर्ष खर्च कर सकते हैं।
रोशनी योजना (ग्रामीण विकास मंत्रालय ): पूर्ण रूप से प्रभावित 24 जिलों में क्षमता विकास एवं रोजगार से संबंधित योजना है, जिसमें 50 हजार ग्रामीण पुरुष एवं महिलाओं, खासकर आदिवासी आबादियों को लक्षित किया गया है। यह प्राथमिकता के आधार पर विशेष प्रयास द्वारा सबसे अत्यधिक संवेदनशील आदिवासी समूहों के लिए कार्य करने पर जोर देता है ।
5.8.4 वाम-चरमपंथियों से निपटने में प्रशासनिक मुश्किलें
1. माओवाद के विरुद्ध संघर्ष में कमजोर मूलभूत ढांचा, संचार एवं प्रशिक्षित जनशक्ति की कमी मुख्य कारण हैं।
2. मूलभूत ढांचे के अभाव में इस क्षेत्र में सामान्य प्रशासनिक गतिविधियों का अभाव है जिसका फायदा माओवादी अपने कैंप चलाने के लिए तथा उस क्षेत्र में औद्योगिक तथा मूलभूत ढांचे के लिए कार्य कर रही कंपनियों से कर वसूलने और जबरन धन वसूलने के लिए लेते हैं। इस प्रकार माओवादी एक समानांतर सरकार चलाते हैं। दंडकारण्य क्षेत्र जो कई राज्यों में फैला हुआ है माओवादियों को एक स्पष्ट लाभदायक स्थिति प्रदान करता है।
3. अंतर्राज्यीय सीमाओं में कई मतभेद हैं जिसका फायदा माओवादी आसानी से उठाते हैं। विभिन्न राज्य के पुलिस बलों के बीच समुचित सहयोग की कमी है।
4. केंद्रीय बलों और राज्य पुलिस के बीच व्यावसायिक और आपसी समझ की कमी है।
5. आत्मसर्मपण, बातचीत और शासकीय नीतियों के ऊपर विभिन्न राज्य सरकारों के बीच विद्यमान मतभेदों का माओवादी फायदा उठाते हैं। एक राज्य द्वारा दबाव डाले जाने पर माओवादियों का दूसरे राज्य में गमन आसान हो जाता है। यही स्थिति तब बनी जब आंध्र प्रदेश में सफलतापूर्वक ‘ऑपरेशन ग्रेहोंड’ लागू किया गया। आंध्र प्रदेश में नक्सलियों का लगभग सफाया हो गया परंतु उन लोगों में से कुछ ने पड़ोसी राज्य छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और ओडिशा में भागकर शरण ले ली। यदि इन राज्यों की सरकारों ने इस ऑपरेशन में समर्थन दिया होता तो आज कम-से-कम दंडकारण्य क्षेत्र से माओवादियों का सफाया हो गया होता।
6. कई विद्रोही आदिवासी गांव वालों से भर्ती किये जाते हैं इसलिए उन्हें सुरक्षा बलों की तुलना में ज्यादा फायदा मिलता है । यद्यपि सुरक्षा बलों की संख्या विद्रोहियों से ज्यादा है और सुरक्षा बलों के पास बेहतर समाधान मौजूद हैं फिर भी दूर-दराज के क्षेत्रों में प्रायः खतरनाक हमलों का शिकार हो जाते हैं।
7. एक तरफ राज्य पुलिस के पास आधुनिक उपकरणों, प्रशिक्षित पुलिस कर्मियों की कमी है तो दूसरी तरफ केंद्रीय सुरक्षा बलों में प्रेरणा एवं प्रतिबद्धता का अभाव है।
माओवादियों की ताकत
1. लोक समर्थन (आंखें, कान और ईवी)
2. भूभागों से परिचित होना। (दिन हो चाहे रात, आवागमन की प्रभावी दक्षता)
3. दूसरे देशों में प्रभावी आवाजाही ।
4. सख्त, शिकारी वृत्ति के साथ फुर्तीला ।
5. सुरक्षा बलों से हथियार और गोला बारूद छीन लेने में निपुण ।
6. ट्रैप्स और आइईडी बम बनाने और उन्हें लगाने में कुशल ।
माओवादियों से युद्ध में सुरक्षा बलों की मुश्किलें
1. अपेक्षाकृत अपरिचित भू-भाग और सद्भाव रहित स्थिति में रहना और लड़ना।
2. अगली कार्रवाई कब, कहां और कैसे होगी, इसको लेकर सदा अनिश्चितता का वातावरण।
3. नक्सली अत्याचार की घटनाओं के बाद उनके आकलन में कमी ।
4. स्थानीय आबादी में नक्सलियों की सटीक पहचान में मुश्किलें ।
5. परिवारों से लम्बे समय तक अलगाव या परिवारों की उपेक्षा झेलना ।
6. आइईडी से मुठभेड़ और घात लगा कर किये गए हमलों के शिकार होना ।
5.9 भविष्य का रास्ता
नक्सलवाद केवल एक कानूनी व्यवस्था का मामला नहीं है। यह सीधे रूप से लघु विकास से संबंधित है। यह आज कोई संयोग की बात नहीं है कि आदिवासी इलाका ही वाम-चरमपंथियों का संघर्ष स्थल बना हुआ है। शोषण, बनावटी कम मजदूरी, अपर्याप्त रोजगार के अवसर, प्राकृतिक स्रोतों से वंचित, अल्पविकसित खेतीबाड़ी, भौगोलिक दूरी तथा भूमिसुधार का अभाव ये सभी कारण महत्त्वपूर्ण रूप से नक्सलवादी आंदोलन को बढ़ावा देते हैं। इस समस्या की चुनौतियों का सामना करने के लिए हमें इन सभी आयामों के ऊपर विचार करना होगा। इतिहास साक्षी है कि आम आदमी कभी भी हिंसक लोगों का साथ नहीं देते हैं। ये लोग भी शांतिप्रिय हैं। केवल इनकी परिस्थिति इन्हें हिंसक मार्ग पर चलने को मजबूर करती है।
” नक्सलवाद एक समस्या नहीं है। यह समस्या के लक्षण हैं। गुजरात के बाज़ार में पंजाब के खेतों में या गुड़गांव और हैदराबाद के आईटी पार्क में नक्सलवाद क्यों नहीं पनपते है? माओवाद के सिद्धांत क्यों नेपाल में सफल हो रहे हैं और चीन में असफल ? उत्तर स्पष्ट है। जहां वामचरमपंथी सफल हैं वहां के लोग तुलनात्मक रूप से गरीब हैं, समाज के कुछ वर्गों के हाथों वे शोषित हैं, सरकार उनकी समस्याओं के प्रति उदासीन हैं और भविष्य में उन्हें बेहतर जिंदगी पाने की आशा नहीं है। दूसरी तरफ वामचरमपंथी वहां असफल हैं जहां उपरोक्त स्थिति विपरीत है।
नक्सलवादियों को उनके नेताओं की हत्या, विद्रोहियों को जेल में डालना या अधिक तादाद में विद्रोहियों का हथियार सहित आत्म-सर्मपण कराकर खत्म किया जा सकता है। आप यह सब करते हैं, परन्तु आप अभी भी असफल हो सकते है; नये नेता आएंगे, कैडर वापस आ जाएगा और हथियार भी आसानी से मिलेंगे।
यद्यपि उनके उद्देश्य प्राप्ति का तरीका घृणित है तथापि उनके अधिकांश लक्ष्य (सरकार को उखाड़ फेंकने के अलावा) गलत नहीं है। इसलिए राज्य एवं केंद्रीय सरकार को इन लक्ष्यों को पूरा करना चाहिए। यदि उनके पास लड़ने के लिए कोई कारण मौजूद नहीं है तो वे नहीं लड़ेगें।
लाल गलियारा के दूर-दराज के इलाकों में बिजली एवं पीने का पानी प्रायः नहीं के बराबर है। इन मूलभूत आवश्यकताओं की कमी के कारण नक्सलियों को स्थानीय आबादियों के लिए आवश्यक सेवाएं, जैसे- सिंचाई आदि की व्यवस्था करने का अवसर प्राप्त होता है, परंतु नक्सलियों द्वारा विद्यमान मूलभूत सुविधाओं को भी निशाना बनाया गया है – बिजली उत्पादन संयंत्र, स्कूल, फोन तथा रेल लाईन पर हमले किए गए हैं। इस प्रकार के हमले केंद्रीय सरकार के तर्क को बल देता है जो विकास कार्य से पहले वहां सुरक्षा की व्यवस्था करने पर बल देते हैं। प्रभावित इलाकों में यह एक मतभेद का मामला है जिसमें यह कहा जाता है कि यदि मूलभूत आवश्यकताएं मौजूद हैं तो नक्सलवादी नई भर्तियों को अपनी ओर आकर्षित करने में कम सफल होंगे।
नक्सल के विरुद्ध लड़ाई जारी हैं। इससे निपटने के लिए बहुआयामी मिश्रित रणनीति को अपनाना होगा। सुरक्षा बलों की कार्रवाई के तुरंत बाद विकास हेतु कदम उठाए जाने चाहिए अन्यथा सुरक्षा ऑपरेशन की सफलता ज्यादा देर नहीं टिक पाएगी।
इस रणनीति को मुख्यतः निम्नानुसार बांटा जा सकता है:
5.9.1 विकास रणनीति
अनुभव बताता है कि आम लोग हिंसक लोगों का साथ नहीं देते। वे शांतिप्रिय होते हैं। यह केवल परिस्थिति है जो उन्हें हिंसा की ओर धकेलती है।
1. राजनीतिक सुरक्षा और निरंतर सामाजिक आर्थिक विकास पर समग्र रूप से विशेष ध्यान देना।
2. नक्सल गढ़ में बेहतर मूलभूत सुविधाएं, जैसे- सड़क, बिजली और संचार | बृहद आधारभूत ढांचा की परियोजनाओं, खास कर सड़क बनाने के काम का उग्रवादियों द्वारा प्रबल विरोध किया जाता है या फिर वह इसके लिए वह स्थानीय ठेकदारों से रंगदारी वसूलते हैं। इन स्थानीय ठेकेदारों के बजाय सीमा सड़क संगठन जैसी सरकारी एजेंसी को सड़क निर्माण में लगाना एक अल्पकालिक उपाय हो सकता है।
3. राजनीतिक दलों को नक्सल क्षेत्रों में अपने कैडर को मजबूत करना चाहिए ताकि नवयुवकों को नक्सल के हिंसक मार्गों से दूर रखा जा सके।
4. राज्य की सकारात्मक कार्यवाही ।
5. विकेंद्रीकरण एवं लोकतंत्र सहभागिता ।
6. समावेशी विकास के लिए राज्य के विभिन्न विभागों में समन्वय ।
7. राज्य पुलिस एवं अन्य विभागों के बीच सहयोग |
8. केंद्रीय मंत्रालयों की विभिन्न योजनाओं के बीच समन्वय, विशेषकर 82 जिलों के लिए एकीकृत एक्सन प्लान और 34 जिलों के लिए सड़क आवश्यकता योजना ।
9. नक्सलवाद प्रभावित इलाकों में विभिन्न विकास संबंधी योजनाओं में समन्वय तथा अनूसूचित जनजाति और परम्परागत वन सहचर ( वन अधिकार की पहचान ) अधिनियम 2006 के अंतर्गत अधिकार पत्र का वितरण ।
10. हिंसक वामपंथी उग्रवादियों की चपेट में आने वाले आरक्षित वर्गों के असंतोष के शमन के लिए संवैधानिक और वैधानिक सुरक्षा उपायों, विकास योजनाओं और भूमि सुधारों जैसी पहलों की निगरानी के लिए विशेष प्रयासों की आवश्यकता है।
5.9.2 सुरक्षा रणनीति
ऐसे निष्ठुर नक्सलवादी जिनका एकमात्र उद्देश्य राज्य को उखाड़ फेंकना है, के लिए ‘गोली के बदले गोली’ की नीति आवश्यक है। हमे इन निष्ठुर नक्सलियों जो कि विकास के खिलाफ है, के चंगुल में फंसे शांतिप्रिय लोगों को निकालना चाहिए। नक्सलवादी निम्न विकास और प्रशासन के अभाव को ही अपने स्वार्थ पूर्ति के लिए उपयोग करते हैं। आंध्र प्रदेश के ‘ग्रे-होंड’ ने हमें सिखाया है कि इस चुनौती को किस प्रकार सफलतापूर्वक निपटाया जा सकता है।
सुरक्षा रणनीति के कुछ मुख्य बिंदु इस प्रकार हैं
1. सुरक्षा बलों का पेशेवर प्रभुत्व
2. केंद्र-राज्य सहयोगः केंद्र और राज्यों को समन्वयात्मक प्रयास जारी रखने चाहिए, जहां केंद्र राज्य पुलिस बल के साथ सहयोगी भूमिका निभा कर विकास का निर्माण करना चाहिए। माओवादियों के साथ मनोवैज्ञानिक युद्ध में जीत अब भी एक अधूरा सबक है। अविश्वास को पाटने के लिए नागरिक समाज इस बोध के साथ कि गांववासियों को विकास का अधिकार है, सरकार से अवश्य ही हाथ मिलाए। सभी स्तरों पर राज्य पुलिस की प्राथमिकता, राज्य पुलिस बल का सुदृढ़ीकरण, स्थानीय पुलिस की क्षमता का विकास।
3. नक्सली गढ़ों में सुरक्षा बलों की संख्या में वृद्धि।
4. थाना, चौकी, पोस्ट और बटालियन की संख्या बढ़ाकर स्थानीय पुलिस बल की मौजूदगी को सुदृढ़ करना। थाना और चौकियों का युद्ध नीति के दृष्टिकोण से स्थापित करना तथा उसे क्रियाशील बनाना।
5. हथियार एवं तकनीकी उपकरणों का आधुनिकीकरण ।
6. संचार उपकरण और इलेक्ट्रानिक सर्विलैन्स का विकास।
7. पुलिस कर्मियों को विशेष प्रशिक्षण।
8. आंध्र प्रदेश के ग्रे-होंड की तर्ज पर विशेष रूप से प्रशिक्षित विशेष टास्क फोर्स का निर्माण करना।
9. राज्य के स्थानीय आसूचना यूनिटों को मजबूत बनाने पर विशेष जोर।
10. अंतर्राज्यीय समस्या होने के कारण राज्यों को एक सामूहिक प्रयास का रास्ता अपनाकर समन्वित कार्यवाही करनी चाहिए।
11. जम्मू-कश्मीर की गांव सुरक्षा समिति की तरह स्थानीय प्रतिरक्षा दल को प्रोत्साहन देना।
12. दंडकारण्य क्षेत्र में अंतर्राज्यीय पुलिस समन्वय।
13. केंद्रीय सुरक्षा बल एवं राज्यों के बीच बेहतर कमांड, नियंत्रण और सहयोग।
14. बारूद की उपलब्धता पर सख्त नियंत्रण ।
15. नक्सली प्रभावित क्षेत्रों में सक्षम और योग्य पुलिस अधिकारियों की नियुक्ति। जिसके पश्चात उन्हें समुचित प्रोत्साहन प्रदान करना और उनकी इच्छा अनुसार स्थानांतरण करना।
5.9.3 मनोवैज्ञानिक ऑपरेशन
निम्न उपाय लागू किए जाने चाहिए:
1. विश्वास बनाएं: माओवादियों के खिलाफ एक मनोवैज्ञानिक युद्ध जीतना अधूरा काम है। इस विश्वास को बनाने के लिए, ग्रामीणों के विकास के अधिकार को साकार करने में नागरिक समाज को सरकार के साथ मिलकर काम करना होगा।
2. इस आंदोलन को निष्क्रिय बनाने के लिए प्रभावशाली रूप से निरंतर मनोवैज्ञानिक ऑपरेशन चलाया जाना चाहिए।
3. मीडिया और जनअनुभूति प्रबंधन
4. सरकारी व्यवस्था में लोगों के विश्वास को बढ़ाने के लिए प्रशासन का विस्तृत तौर पर आम जनता, समाज तथा गैर-सरकारी संगठनों के साथ संबंध |
अन्य उपाय
निम्नलिखित उपायों को भी लागू किया जाना चाहिए:
1. वित्तीय समर्थन को अवरुद्ध करनाः अवैध खनन / जंगल के ठेकेदारों और परिवाहकों एवं उग्रवादियों के बीच सांठगांठ उग्रवादी अभियानों के लिए वित्तीय सहायता उपलब्ध कराती है। स्थानीय पुलिस को इस सांठगांठ को तोड़ने के लिए जबरन वसूली विरोधी विशेष तंत्र और मनी लांड्रिंग निरोधक सेल की स्थापना करनी चाहिए।
2.लोगों के दिलों को जीतने के लिए यथार्थ रूप से प्रयास किए जाने चाहिए।
3. अपराध न्याय प्रणाली में महत्त्वपूर्ण सुधार के द्वारा गिरफ्तार किए गए विद्रोहियों के खिलाफ समय पर कानूनी कार्रवाई ।
4. समर्पण और प्रभावी पुनर्वास योजना जिसमें उनके परिवारों की उपयुक्त देखरेख एवं सुरक्षा सुनिश्चित हो।
5. आदिवासियों की सुरक्षा और विकास संबंधित कानूनों का बेहतर अनुपालन।
5.9.5 नक्सलवाद के खिलाफ लड़ाई से संबंधित कुछ सफल कहानियाँ
1. संदेश (बिहार) की कहानी
बिहार के संदेश प्रखंड में नक्सलियों का क्रमिक खात्मा किया गया है। संदेश भोजपुर जिले में स्थित है जिसके अंदर 11 पंचायत शामिल हैं। संदेश प्रखंड में नक्सलियों के प्रभुत्व को खत्म करने का आधारिक दृष्टिकोण आश्चर्यजनक जानकारियों से परिपूर्ण है। बिहार में नक्सलियों की शुरुआत दो प्रखंडों से हुई जिसमें संदेश भी एक था। दूसरा पड़ोसी प्रखंड सहर था । नक्सली प्रभुत्व को ध्वंस करने में सबसे बड़ा कारण बिहार का पंचायत चुनाव था। 2000 के पंचायत चुनाव में 6 पंचायतों में माओवादी मुखिया चुने गए। दूसरा पंचायत चुनाव 2006 में हुआ। यह चुनाव ग्रामीण इलाकों में माओवादियों के घटते प्रभाव का पहला संकेत था, जिसमें माओवादी नेताओं और स्थानीय समुदायों के बीच की दूरी को बढ़ा दिया। संदेश प्रखंड की कई पंचायतों में माओवाद के विरुद्ध सामाजिक सशक्तता की शुरुआत हुईं इस प्रकार की सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन के कारण नक्सलियों के समर्थकों को या तो गांव छोड़ना पड़ा या अपने रास्ते को बदलने पर मजबूर हुए। सामाजिक दबाव के कारण कई नक्सलियों ने खेती करना प्रारम्भ किया और नक्सली गिरोह के साथ अपना नाता तोड़ लिया। धीरे-धीरे संदेश प्रखंड जिसमें 11 पंचायत हैं, नक्सली हिंसा से प्रायः मुक्त हो गया।
2. जहानाबाद (बिहार) में आशद्वार योजना
जहानाबाद जिला, जो दो दशक से ज्यादा समय से नक्सल हिंसा के कारण समाचार की सुर्खियों में रहा है, में बिहार सरकार ने नक्सल हिंसा को खत्म करने के लिए कई कदम उठाए हैं जिसमें आशद्वार योजना एक है। वर्तमान में यह योजना इस जिले के 5 अन्य नक्सल प्रभावित पंचायतों में भी लागू है जिसमें जहानाबाद सदर प्रखंड के शिकरया, सेवानन मंडेबिघा, सुरंगपुर – भवानीचक और जामुक गांव शामिल हैं। इन 5 पंचायतों के गांवों में युद्ध स्तर पर विकास कार्य किए जा रहे हैं। राज्य सरकार ने उदारपूर्ण योजनाओं के अंतर्गत कई कल्याणकारी कार्यक्रम, गांव के अंदर सीमेंट की गली, नहर, चौपाल और गांव को जोड़ने वाले रास्तों का निर्माण आदि के लिए लगभग 29 करोड़ आबंटित किए हैं। अन्य कार्यों में स्कूल भवन, आंगनबाड़ी केंद्र, पानी निकासी, शौचालय आदि का निर्माण शामिल है। वन अधिकार ( वन अधिनियम 2008), विस्थापन (आरआर नीति), जीवन यापन (नरेगा) इत्यादि के संबंध में भी राज्य सरकार ने कई सकारात्मक कदम उठाए हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि लोगों ने बढ़ चढ़कर राज्य सरकार के आशद्वार कार्यक्रम को गले लगाया है। संदेश प्रखंड की कहानी की तरह इस कहानी से भी यह सिद्ध होता है कि विकास की प्रक्रिया अपनाकर और एक नई सामाजिक व्यवस्था लाकर नक्सलवाद को खत्म किया जा सकता है। परंतु यह महत्त्वपूर्ण है कि बदलाव समाज से आना चाहिए।
3. आंध्र प्रदेश का ग्रे-होंड मॉडल
आंध्र प्रदेश ने नक्सलवाद को नियंत्रित करने का एक सफल तरीका दिखाया है। यद्यपि यहां नक्सलियों को खत्म करने में ग्रे- होंड की अहम भूमिका थी। परंतु मूलभूत सुविधाओं का विकास और प्रभावशाली समर्पण एवं पुनर्वास योजनाओं का भी महत्त्वपूर्ण योगदान था । एकीकृत तरीके का यह एक बहुमुखी प्रयास था जो नक्सलियों की कई वर्षों की रणनीति के विश्लेषण के पश्चात विकसित किया गया था। यह मॉडल इतना सफल हुआ कि नक्सलियों को आंध्र प्रदेश छोड़कर नई शरणस्थली की तलाश में ओडिशा, छत्तीसगढ़ व महाराष्ट्र जाना पड़ा।
आंध्र प्रदेश मॉडल की प्रमुख विशेषताएं
1. प्रभावशाली समर्पण और पुनर्वास नीति ।
2. पुलिस नेतृत्व की संस्कृति ।
3. मूलभूत सुविधाओं का विकास।
4. स्थानीय इलाकों के संबंध में पूरी जानकारी ।
5. नक्सल विरोधी ऑपरेशन में आधारिक लोगों को शामिल किया जाना ।
6. पुलिस द्वारा अच्छे कार्य के लिए प्रोत्साहन योजना।
7. बेहतर आसूचना समन्वयन एवं मूल्यांकन।
8. स्थानीय सूचनाओं पर आधारित ऑपरेशन।
महत्त्वपूर्ण मुद्दे
5.10.1 नक्सलवाद को बुद्धिजीवियों का समर्थन
प्रभावशाली बुद्धिजीवी नियमित रूप से नक्सलवाद का समर्थन समतावादी समाज, मानवधिकार और जनजातीय अधिकारों की वकालत के नाम पर करते हैं। वे मानवाधिकार उल्लंघन हेतु सुरक्षा बलों की निन्दा करते हैं परन्तु आश्चर्यजनक रूप से आदर्श मौन धारण कर लेते हैं, जब नक्सलवादी क्रूरता से सुरक्षा बलों, राजनीतिज्ञों और आम आदमियों को मारते हैं। यह स्पष्ट रूप में दोहरे मानदण्ड दर्शाता है। उन्हें यह समझना चाहिए कि लोकतांत्रिक ढांचे में आदर्श उद्देश्य की प्राप्ति हेतु इस प्रकार के उग्र साधन स्वीकार्य नहीं है। यद्यपि, यह निराशाजनक तथ्य है कि लोकतांत्रिक आंदोलन की संवैधानिक विधियों की तुलना में अपनी शकायतों निपटान हेतु विक्षिप्त नागरिकों के लिए पसंदीदा रणनीति उग्र आंदोलन करना है। नक्सलवाद को आंखें मूंद कर समर्थित करने की बजाए इन बुद्धिजीवियों को नक्सलों को निर्वाचन में भाग लेने, मुख्यधारा में सम्मिलित होने और बिना आक्रामकता के लोकतांत्रिक लेन-देन की कला को सीखने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए। नक्सलों द्वारा हिंसा के अंध समर्थन की बजाए, बुद्धिजीवियों को अल्पविकसित क्षेत्रों में विकास परियोजनाओं के नक्सल विरोध की निंदा करनी चाहिए।
हाल ही में हुआ जेएनयू मुद्दा भी उपरोक्त चर्चा से ही सम्बंधित है। अभ्यर्थियों से अनुरोध है कि संतुलित दृष्टिकोण अपनाएं और किसी भी रूप में नक्सल हिंसा का समर्थन न करें, चूंकि यह संविधान और लोकतांत्रिक व्यवस्था के विरुद्ध है।
5.10.2 सलवा जुडुम क्या था और यह क्यों असफल रहा?
छत्तीसगढ़ के बस्तर क्षेत्र में सलवा जुडुम एक ऐसा आंदोलन था जिसने नक्सलियों द्वारा किए गए अत्याचार के विरुद्व जन आंदोलन का रूप ले लिया। शाब्दिक रूप से सलवा जुडुम का अर्थ ‘सामूहिक समस्या निवारण प्लेटफार्म’ है तथा नक्सलियों द्वारा डराने धमकाने तथा धन ऐठनें से तंग लोगों के कारण इस आंदोलन को काफी बल मिला। प्रशासनिक रूप से यह बताया जाता है कि यह एक शांतिपूर्ण तथा सुगम व लोगों का नक्सली आंदोलन के खिलाफ आक्रोश का एक स्वैच्छिक कदम था। नक्सलियों ने कभी नहीं चाहा कि बस्तर में सलवा जुडुम आंदोलन सफल हो, क्योंकि आंध्र प्रदेश के सुरक्षा बल ‘ग्रे – होंड’ के द्वारा खदेड़ने पर बस्तर ही इनके छिपने का सबसे बड़ा स्थान था। नक्सलियों ने दंडकारण्य जोन (जो कि छत्तीसगढ़, ओडिशा, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश तथा महाराष्ट्र के दूर-दराज के कौने का संगम स्थल है) में अपनी सरकार की स्थापना की। यह क्षेत्र नक्सलियों के लिए सामरिक तथा भू-राजनीतिक दृष्टिकोण से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। इसलिए नक्सलियों ने सलवा जुडुम के खिलाफ अपनी रणनीति तैयार की। सबसे पहले इस आंदोलन के नेताओं को जनता विरोधी बताया गया था, खास नेताओं की हत्या कर दी गई। दूसरा, नक्सलियों ने अपना जन संपर्क बनाने की पूरी सुविधाओं को सलवा जुडुम आंदोलन को शुरुआत में ही खत्म करने के लिए अपनी पूरी ताकत झोंक दी। जल्द ही सलवा जुडुम आंदोलन ने कई रूप से लोगों का विश्वास खो दिया। यह बताया गया कि पुलिस द्वारा चलाया गया यह एक ऐसा छद्म आंदोलन है जिसके लिए पुलिस जबरन बच्चों की भर्ती कर रही है। यह माना जाता है कि वर्ष 2006 में नक्सलियों ने सलवा जुडुम आंदोलन से संबंधित एक सौ से ज्यादा गांव वालों की हत्या कर दी। मई 2013 में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता महेंद्र कर्मा जिसने सलवा जुडुम आंदोलन का समर्थन किया था, की नृशंस हत्या कर दी गई। आश्चर्य है कि तथाकथित मानवाधिकार समीक्षक तथा बुद्विजीवी समर्थक नक्सलियों की इस कार्रवाई पर मौन रहे। इस प्रकार के प्रोपोगंडा के विरोध में किसी भी प्रकार का कोई समर्थन न होने के कारण सलवा जुडुम आंदोलन को प्रारंभ अवस्था में ही विफल कर दिया गया।
समाधान निकालने की बात तो बहुत दूर है, सलवा जुडुम ने इसके विपरीत ज्यादा समस्याएं ही पैदा की हैं। इसके चलते हिंसा का स्तर बहुत बढ़ गया और सकल मानवाधिकारों का उल्लंघन हुआ। यही वजह रही कि सर्वोच्च न्यायालय ने सलवा जुडुम पर प्रतिबंध लगा दिया। न्यायालय का तर्क था कि लोगों की हिफाजत की जवाबदेही भारतीय राष्ट्र राज्य की है। कुछ लोगों के हाथों में हथियार थमा कर और उनसे अपनी सुरक्षा आप करने के लिए कह कर राज्य अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकता।
5.10.3 क्या नक्सलियों के विरुद्ध थल सेना का उपयोग किया जाना चाहिए?
आमतौर पर थल सेना का उपयोग दुश्मन देश के खिलाफ किया जाता है। अपने देश के नागरिकों के विरुद्ध युद्ध करना थल सेना का कार्य नहीं है। वास्तव में थल सेना का उपयोग अपने देश के नागरिकों की सुरक्षा के लिए किया जाता है। थल सेना तो राष्ट्रीय सम्मान का प्रतीक है। हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि थल सेना की प्रतिष्ठा धूमिल न हो। इसलिए नक्सलियों का सामना पुलिस तथा अर्धसैनिक बलों के साथ किया जाना चाहिए। “
इसके अलावा यह भी ध्यान रखना चाहिए कि नक्सल समस्या का पूर्ण रूप से निवारण हथियार के बल पर नहीं किया जा सकता। हमे प्रभावित क्षेत्रों के प्रभावशाली प्रशासन तथा विकास पर ज्यादा जोर देना चाहिए। अभी तक नक्सलियों के विरुद्ध भारतीय थल सेना का उपयोग उपयुक्त नहीं माना गया है। तथापि थल सेना के वायु संरक्षण की मदद ली जा सकती है – हमले के लिए नहीं बल्कि चिकित्सा सहायता, आपूर्ति तथा घायलों का उपचार आदि के लिए ।
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