शिक्षा के विभिन्न रूपों की व्याख्या कीजिए।
शिक्षा के विभिन्न रूपों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर— शिक्षा के विभिन्न रूप-शिक्षा के दो रूप है—एक स्वरूप अनादि है यह सदैव समाज में एक प्रक्रिया में निहित रहेगा और दूसरा स्वरूप औपचारिक है। इन्हीं स्वरूपों को शिक्षाशास्त्री विभिन्न नामों से व्यक्त करते हैं, परन्तु शिक्षा का मूल एक ही है। विद्वानों ने शिक्षा के चार स्वरूपों का वर्णन किया है—
(1) नियमित एवं अनियमित शिक्षा
(2) प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष शिक्षा
(3) वैयक्तिक एवं सामूहिक शिक्षा एवं
(4) सामान्य एवं विशिष्ट शिक्षा।
(1) नियमित तथा अनियमित शिक्षा अथवा औपचारिक तथा अनौपचारिक शिक्षा – शिक्षा के इस स्वरूप (नियमित (Formal) शिक्षा) में विद्यालय की शिक्षा पर ही विचार किया जाता है। इसे औपचारिक शिक्षा कहते हैं, नियमित शिक्षा के अन्तर्गत पूर्व योजनानुसार कार्य होता है। बालक को निश्चित स्थान एवं समय पर, निश्चित विषय की शिक्षा दी जाती है। यह शिक्षा, शिक्षा न होकर निर्देश है।
अनियमित (Informal) शिक्षा का आरम्भ गर्भ-काल से ही होता है। उदर स्थित बालक के पूर्ण विकास से लेकर समाज में उचित स्थान प्राप्त करने तक यह क्रम चलता रहता है। पूर्व योजनानुसार इस अनियमित शिक्षा का पता नहीं चलता। व्यक्ति हर समय, किसी न किसी से कुछ न कुछ सीखता ही रहता है। नियमित और अनियमित शिक्षा के अन्तर को स्पष्ट करते हुए भाटिया के अनुसार, “शिक्षा निर्देश से अधिक श्रेष्ठ एवं उत्तम है ।
(2) प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष शिक्षा – प्रत्यक्ष शिक्षा से तात्पर्य उन निर्देशों (Instructions) से है जो बालक की कक्षा में अध्यापक द्वारा दिए जाते हैं। अध्यापक अपने ज्ञान को छात्रों को देता है और उसके व्यावहारिक पहलुओं पर भी अपने विचार प्रकट करता है । अप्रत्यक्ष शिक्षा में अध्यापक का योगदान प्रत्यक्ष नहीं होता है। वह केवल वातावरण का निर्माण करता है और छात्र उस वातावरण के प्रति प्रतिक्रियाएँ करते हैं। छात्र अपने समूह, परिवार, समुदाय तथा खेल के समूह से अनेक प्रकार के गुण-अवगुण सीखते हैं। इसलिए राबर्ट्सन का विचार है—“निर्देश कक्षा में ही समाप्त हो जाता है और शिक्षा जीवन के साथ समाप्त होती है।” अतः शिक्षा का रूप प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष, दोनों रूपों में व्यक्ति को प्रभावित करता है ।
(3) वैयक्तिक एवं सामूहिक शिक्षा – वैयक्तिक शिक्षा से तात्पर्य एक बालक की शिक्षा से है। प्राचीन काल में राज-दरबारों में राजा लोग अपने पुत्रों की शिक्षा वैयक्तिक रूप से कराते थे। आज भी ‘ट्यूशन’ परम्परा इसी का प्रतीक है । शिक्षक एक बालक को शिक्षा देते समय इस बात का पूरा-पूरा ध्यान रखता है कि उसकी रुचियों, आदर्शों, प्रकृति एवं योग्यता का पूरा-पूरा विकास हो । सामूहिक शिक्षा से तात्पर्य कक्षा-प्रणाली से है। इसके अन्तर्गत एक आयु, समूह, योग्यता एवं रुचि वाले बालकों को समान रूप से समान विषयों एवं व्यवहारों में शिक्षण दिया जाता है। वास्तविकता यह है कि इस प्रकार की वैयक्तिक एवं सामूहिक शिक्षा औपचारिक (formal) शिक्षा का दूसरा रूप है । सम्भवतः इसलिए जे. एस. मेकेन्जी ने संकुचित शिक्षा को मानव शक्तियों के विकास हेतु चेतनायुक्त प्रयास बताया है। शिक्षा से ऐसी आशा की जाती है कि वह समाज के लिए बालक को उपयोगी बनाए । इसलिए शिक्षा चाहे वैयक्तिक हो अथवा सामूहिक, शिक्षा का उद्देश्य बालक को सामाजिक वातावरण में समायोजन के योग्य बनाना है ।
(4) सामान्य एवं विशिष्ट शिक्षा–सामान्य शिक्षा को उदार शिक्षा भी कहा जाता है। इस शिक्षा का उद्देश्य बालकों में सामान्य वृत्तियों, अभिवृत्तियों एवं रुचियों का विकास करना है। इस प्रकार की शिक्षा में बालकों की मनोवृत्तियों को विकसित किया जाता है। इस शिक्षा का कोई विशेष उद्देश्य नहीं होता। यह तो केवल बालक और मनुष्य के शरीर, मस्तिष्क और आत्मा में विद्यमान गुणों का सर्वश्रेष्ठ विकास करने की ओर उन्मुख है।
जहाँ तक विशिष्ट शिक्षा का प्रश्न है, इसमें बालक को किसी स्थिति में विशिष्ट प्रकार का प्रशिक्षण देने की व्यवस्था होती है। बालक को डॉक्टर, इंजीनियर, अध्यापक एवं अन्य प्रकार के व्यवसायों का प्रशिक्षण इसी के अन्तर्गत आता है। सामान्य एवं विशिष्ट दोनों प्रकार की शिक्षा, नियमित शिक्षा का ही परिवर्तित रूप है। शिक्षा के इन रूपों पर विचार करने के उपरान्त हम निम्नलिखित निष्कर्ष पर पहुँचते हैं
(1) शिक्षा, मानव विकास का माध्यम है— प्लेटो के अनुसार, शिक्षा छात्र के शरीर और आत्मा में उन सब सौन्दर्य और पूर्णता का विकास करती है जिसका वह पात्र है। शिक्षा व्यक्ति का विकास करती है उसकी आन्तरिक एवं बाह्य शक्तियों का निर्माण करती है।”
(2) शिक्षा व्यवहारों को प्रशिक्षण देती है – शिक्षा के दोनों रूप मानव व्यवहारों को प्रशिक्षण देकर समाज के अनुकूल बना देते हैं। वास्तविकता यह है कि जीवन के सभी अंगों—शरीर, मस्तिष्क . तथा आत्मा का विकास शिक्षा के द्वारा होता है ।
(3) शिक्षा, जीवन का मार्ग निर्देशित करती है – शिक्षा के द्वारा ही बालक एवं अध्यापक वातावरण में अपने जीवन के भावी रूप का निश्चय कर लेते हैं। शिक्षा उन्हें आवश्यक निर्देशन देकर राह पर लाती है।
(4) शिक्षा बालक की अभिवृद्धि करती है – बालक में उसकी शारीरिक एवं मानसिक अभिवृद्धि शिक्षा के द्वारा ही होती है। माध्यमिक शिक्षा आयोग ने चरित्र के प्रशिक्षण, व्यवहार तथा व्यावहारिक कुशलता में वृद्धि एवं साहित्यिक, कलात्मक और सांस्कृतिक रुचियों के विकास के द्वारा ही यह अभिवृद्धि अपेक्षित बताई है।
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