व्यक्तित्व व विकास को प्रभावित करने वाले आनुवंशिक कारकों का वर्णन कीजिए।

व्यक्तित्व व विकास को प्रभावित करने वाले आनुवंशिक कारकों का वर्णन कीजिए।

उत्तर— जैविक कारक से तात्पर्य ऐसे कारकों से होता है जो अनुवांशिक होते हैं तथा जो जन्म या जन्म के पहले से ही व्यक्ति में विद्यमान होते हैं और व्यक्ति के विकास को प्रभावित करते हैं। ऐसे प्रमुख कारक निम्न हैं—
(1) अन्तःस्रावी ग्रन्थियाँ – प्रायः यह देखा जाता है कि कभीकभी हम बहुत सक्रिय (Active) हो जाते हैं। तथा कभी-कभी निष्क्रिय (Passive) हो जाते हैं । व कभी-कभी उदास (Depressed) हो जाते हैं। इसका कारण यह है कि शरीर में कुछ ऐसे रासायनिक परिवर्तन होते हैं जिनका नियंत्रण कुछ ग्रन्थियों द्वारा होता है। उन ग्रन्थियों का वर्णन निम्नलिखित हैं—
(i) पीयूष ग्रन्थि – इसका स्थान मस्तिष्क में होता है तथा अधिक हार्मोन्स (Hormones) स्रावित होने से व्यक्ति के शरीर की लम्बाई व कम होने से व्यक्ति बौना हो जाता है। इस ग्रन्थि के अग्रभाग से सोमेटोट्रोकिन नामक हार्मोन्स स्रावित होता है। इस हार्मोन्स के सहारे पीयूष ग्रन्थि अन्य ग्रन्थियों जैसे—एट्रीनल ग्रन्थि, कण्ठ ग्रन्थि (Thyroid) आदि के कार्यों पर अपना नियंत्रण रखती है।
(ii) अभिवृक्क ग्रन्थि – इस ग्रन्थि का स्थान वृक्क (Kidney) के ऊपर होता है। इसके द्वारा ही व्यक्ति की सांवेगिक स्थिति का नियंत्रण होता है। भय, क्रोध, आदि संवेग में इस हार्मोन्स का अधिक महत्त्व है। इसलिए इसे आपातकालीन हार्मोन्स (Emergency Hormones) भी कहा जाता है।
(iii) गलग्रन्थि – गलग्रन्थि का व्यक्तित्व पर अत्यधिक प्रभाव पड़ता है। इसके नष्ट हो जाने पर श्लेष्मकाय (Myxoedema) नामक रोग हो जाता है। इस रोग में व्यक्ति के शरीर में शिथिलता छा जाती है। मस्तिष्क एवं पेशियों की क्रिया मंद पड़ जाती है, चमड़ी पर सूजन आ जाती है, स्मृति मन्द होने लगती है, ध्यान केन्द्रित नहीं हो पाता, चिन्तन करना कठिन हो जाता है। जन्म से ही इस ग्रन्थि के न होने पर बालक की बुद्धि का विकास नहीं हो पाता। आजाम्बुक बाल (Cretins) बौने, कुरूप और मूढबुद्धि (Imbecile) बालक इसी ग्रन्थि के प्रभाव का परिणाम है। इस ग्रन्थि के बहुत अधिक क्रियाशील होने पर व्यक्ति में तनाव, अशान्ति, चिड़चिड़ापन, चिन्ता और अस्थिरता दिखाई पड़ती है। वृद्धि के काल में गलग्रन्थि की क्रिया अधिक होने पर शारीरिक विकास, विशेषतया लम्बाई के विकास में अधिक तेजी दिखाई पड़ती है। इस प्रकार संक्षेप में, गलग्रन्थि की क्रिया की अधिकता और कमी के साथ-साथ शरीर की क्रिया में अधिकता और कमी दिखाई पड़ती है। यद्यपि अन्य प्रभावों के कारण भी शरीर में यही परिवर्तन देखा जा सकता है।
(iv) यौन ग्रन्थि – इस ग्रन्थि के विकास से स्त्रियों में स्त्रियोचित गुणों तथा पुरुषों में पुरुषोचित गुणों का विकास होता है।
(2) शरीर रचना – यद्यपि आजकल व्यक्ति पर प्रभाव डालने  वाले जैविकीय कारकों में अन्तःस्रावी ग्रन्थियों को ही सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता है परन्तु जैवकीय कारकों, शारीरिक रचना और शरीर रसायन का वर्णन भी प्रासंगिक होता है । दैनिक व्यवहार में हम देखते हैं कि व्यक्ति की शारीरिक रचना से उसके स्वभाव का कुछ न कुछ सम्बन्ध अवश्य होता है । प्रायः छोटे व्यक्ति हँसी-मजाक पसन्द करने वाले, आरामपसन्द और सामाजिक दिखाई पड़ते हैं और दुबलेपतले व्यक्ति संयमी, तेज और चिड़चिड़े होते हैं। शरीर रचना तथा स्वभाव के सम्बन्ध को समझने के लिए बहुत से प्रयोग किए गए हैं परन्तु इस विषय में स्पष्ट प्रमाण नहीं मिल सके हैं। वास्तव में शारीरिक रचना एवं व्यक्तित्व में निश्चित रूप से सम्बन्ध स्थापित करने के लिए अभी और प्रयोगों की आवश्यकता है। अभी तक हुए अधिकांश प्रयोग विद्यालय के विद्यार्थियों पर किए गए हैं। अतः उनके परिणामों से निश्चित निष्कर्ष निकालने के पहले प्रौढ़ एवं वयस्क व्यक्तियों पर भी प्रयोग करने की आवश्यकता है। इसके बाद भी सह-सम्बन्ध (Correlation) के आधार का प्रश्न रह जाता है। केवल सह-सम्बन्ध में शरीर रचना को विशेष प्रकार के स्वभाव का कारण नहीं माना जा सकता। इस विषय में यह बात भी ध्यान में रखनी चाहिए कि शरीर कि रचना से व्यक्ति के प्रति औरों के व्यवहार में भी अन्तर पड़ता है। यह दैनिक अनुभव की बात है कि मोटे सुगठित शरीर वाले और दुबले-पतले व्यक्तियों के प्रति हमारे व्यवहार में उनके आकार-प्रकार के अनुसार भी अन्तर दिखाई पड़ता है। हमारे व्यवहार के इस अन्तर से भी उनके व्यक्तित्व में अन्तर आता है । अतः व्यक्तित्व के अन्तर को केवल शरीर के मोटे-पतले या बलिष्ट-दुर्बल होने के कारण ही नहीं बल्कि दूसरों के उसके प्रति व्यवहार के कारण भी माना जाना चाहिए।
(3) शारीरिक रसायन – अन्तःस्रावी ग्रन्थियों और शारीरिक रचना के अतिरिक्त व्यक्तित्व के जैवकीय कारकों में शारीरिक रसायन (Body Chemistry) का उल्लेख भी आवश्यक है। प्राचीन काल से मनुष्य के स्वभाव का कारण उसके शरीर के रासायनिक तत्त्वों को माना गया है। उस प्रकार आदतन आशावादी (Sanguine) व्यक्ति में रक्त की अधिकता, चिड़चिड़े (Choleric) व्यक्ति में पित्त (Bile) की अधिकता, शान्त (Phelgmatic) व्यक्ति में कफ (Phelgm) की अधिकता हो जाती है। परेशान (Nervous) व्यक्ति की परेशानी का कारण शरीर में स्नायु/ तन्त्रिका द्रव्य (Nervous Fluid) की अधिकता मानी जाती है। इस सामान्य शारीरिक शास्त्रीय सिद्धान्त को मनोविज्ञान में नहीं माना जाता परन्तु फिर भी शरीर के रासायनिक तत्त्वों के व्यक्तित्व से सम्बन्ध की संभावना से कोई भी गंभीर मनोवैज्ञानिक इन्कार नहीं कर सकता। शरीर के ये रासायनिक तत्त्व दो प्रकार के होते हैं—कुछ बाहर से शरीर में पहुंचते हैं और कुछ शरीर में ही बनते हैं। रक्त प्रवाह में बाहर से या अन्दर से डाले हुए वे रासायनिक तत्त्व पन्द्रह सेकेण्ड के अन्दर पूरे शररीर में पहुँच जाते हैं। दवाओं के रक्त में पहुँचने से व्यक्तित्व पर स्पष्ट प्रभाव दिखाई पड़ता है। शराबी व्यक्ति का प्रभाव इसका प्रमाण है। तम्बाकू, चरस, भांग, गांजा आदि सेवन करने वाले व्यक्तियों के व्यक्तित्व पर इनका प्रभाव भी दिखाई पड़ता है।
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